FROM THE BLOGGER’S LIBRARY: REMEMBERING K.B.SAHAY:16
लोकपत्र (पटना) के के. बी. सहाय विशेषांक में दिसंबर 1987 को प्रकाशित
भारतीय राजनीति में महात्मा गांधी
के प्रादुर्भाव के बाद तीन ऐसे अवसर आये जब कि उनके आह्वाहन पर देश के बड़े-बड़े वकील,
प्राध्यापक एवं अन्य बुद्धिजीवी समेत असंख्य युवक अपनी नौकरी, पेशा एवं ऐशो आराम को
तिलांजलि दे मातृभूमि को आज़ाद कराने के लिए चल रहे आंदोलन में कूद पड़े। ये अवसर थे 1920, 1930 एवं 1942 के। 1920 में गांधीजी के आवाहन पर कि "कबीरा खड़ा बाजार में लिए लुकाठी
हाथ, जो घर जारे अपना चले मेरे साथ।“
आज़ादी की लड़ाई में कूद पड़ने वाले
बिहार के अग्रगण्य लोगों में थे डॉ राजेन्द्र प्रसाद, डॉ. श्री कृष्ण सिन्हा, जगजीवन
राम, अनुग्रह नारायण सिन्हा, विनोदानंद झा, कृष्ण बल्लभ सहाय, महामाया प्रसाद सिन्हा
आदि आदि।
राजनीति की लड़ाई में कूद पड़ने के
समय कृष्ण बल्लभ बाबू पटना कॉलेज में अंग्रेजी के प्राध्यापक थे। अब यह कम लोगों को मालूम होगा कि उन्होंने पटना विश्वविद्यालय
के बी.ए.(अंग्रेजी प्रतिष्ठा) की परीक्षा में पिछले सभी रिकॉर्डों को तोड़ कर कीर्तिमान
स्थापित किया था। बिहार विधान सभा में अपने भाषणों के क्रम में वे प्रायः अंग्रेजी
कवियों, विशेष कर ड्राईडान और पोप के व्यंग्यात्मक पंक्तियों को उद्धृत करते थे। उनके द्वारा स्थापित कीर्तिमान को तोडा था राजयपाल के पूर्व
सचिव पुष्कर ठाकुर ने और पुष्कर ठाकुर के कीर्तिमान को तोडा उन्ही के सुपुत्र बिहार
सरकार के सेवानिवृत उच्च शिक्षा निदेशक दामोदर ठाकुर ने। जहाँ तक मुझे जानकारी है दामोदर ठाकुर द्वारा स्थापित कीर्तिमान
को अभी तक किसी ने नहीं तोडा है।
कृष्ण बल्लभ बाबू खरे स्वाभाव के
निष्कपट और स्पष्टवादी व्यक्ति थे। उन्हें जो कहना और करना होता था उसे वे खरे शब्दों में स्पष्ट
रूप से कहते और करते थे। अगर और मगर करने की उनकी आदत नहीं थी। कायस्थ जाति के लोग आम तौर पर नम्र और मृदु भाषी होते हैं। पर कृष्ण बल्लभ बाबू में अपना यह जातिगत गुण नहीं था। उनके रूखे एवं मुँहफट व्यवहार के कारण लोग उन्हें कायस्थों में
"यादव" कहते थे और यह संजोग की बात थी कि वे यादवों के काफी निकट थे और बिहार
के अग्रगण्य यादव नेता राम लक्षण सिंह यादव उनके अंतःकरण से जुड़े निकटतम व्यक्ति थे।
स्वतंत्रता के बाद बिहार के राजस्व
मंत्री के रूप में उन्होनें सम्पूर्ण देश से पहले जमींदारी उन्मूलन का विधेयक विधान
सभा में पेश किया जिसका कांग्रेस के भीतर ही भारी विरोध हुआ और वह तत्काल पारित नहीं
हो सका। उनके सतत प्रयास के कारण अन्तोगत्वा वह बिल पारित हुआ और बिहार
में जमींदारी उन्मूलन का काम देश के अन्य राज्यों से पहले पूरा हुआ।
आज़ादी के पूर्व देश का प्रशासन आई.सी.एस.
संवर्ग के अधिकारीयों द्वारा चलाया जाता था। आई.सी.एस.(इंडियन सिविल सर्विस) परीक्षा आज़ादी के कुछ वर्ष पूर्व
तक इंग्लैंड में ही होती थी और उसमे काफी मात्रा में अँगरेज़ ही बैठते थे और सफल भी
होते थे। उस परीक्षा में बैठने वाले भारतीय आर्थिक रूप से अत्यधिक संपन्न
और असाधारण प्रतिभा के युवक होते थे। उदहारण के तौर पर नेताजी सुभास चन्द्र बोसे भी आई.सी.एस. थे।
1947 के 15 अगस्त को अंग्रेज़ों द्वारा
भारत छोड़ने के साथ-साथ बहुत से अँगरेज़ आई.सी.एस. अफसर भी भारत छोड़ अपने देश लौटने की
तैयारी में स्वतः लग गए। यद्यपि भारत सरकार ने उन्हें चले जाने को नहीं कहा था। इस कारण सम्पूर्ण देश के प्रशासन का भार भारतीय आई.सी.एस. पदाधिकारियों
के कंधे पर आन पड़ा था। जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि आई.सी.एस. परीक्षा पास करने
वाले भारतीय भी असाधारण प्रतिभा के लोग होते थे। संभवतः बिहार में एकमात्र जीवित आई.सी.एस. एल.पी.सिंह (ललन प्रसाद
सिंह) हैं जो हाल तक राजदूत और राजयपाल रह चुके हैं।
बिहार के प्रथम मुख्य-मंत्री श्री
कृष्ण सिन्हा उम्र और राजनैतिक उपलब्धियों में कृष्ण बल्लभ सहाय से काफी वरिष्ठ थे। इस कारण वे उन्हें "तुम" कह कर ही सम्बोधित करते थे। उनके मंत्री-मंडल में मंत्री बनने के समय कृष्ण बल्लभ बाबू की
उम्र बहुत अधिक नहीं थी। इस बात को ध्यान में रख कर श्री बाबू ने उनसे पूछा कि किस आई.सी.एस.
अफसर को तुम्हारे विभाग का सचिव बनाऊं जिसके साथ तुम्हे काम करने में सुविधा हो। उनका यह प्रश्न पूछना ही था कि कृष्ण बल्लभ बाबू ने तड़ाक से
अंग्रेजी में जवाब दिया " Give me any ICS officer. I will grind him like
anything.” (मुझे किसी भी आई.सी.एस. अफसर को दे दीजिये। मैं उसे पीस कर रख दूंगा।
कृष्ण बल्लभ बाबू का यह जवाब उनके
अटूट आत्मविश्वास एवं उत्कृष्ट प्रशासनिक क्षमता का द्योतक था। उनके इन गुणों के प्रदर्शन के अनगिनत उदहारण हैं जिन्हें यहाँ
बयां कर पाना असंभव है। फिर भी एक दो तो दिए ही जा सकते
हैं।
एक ही असरदार पंजाबी उनका सहपाठी
एवं मित्र थे। जीवन की दौड़ में वे मात्र एक होम्योपैथिक डॉक्टर बन कर रह गए
थे। वे सदा कृष्ण बल्लभ बाबू से कहा करते कि जब तुम मंत्री या मुख्य-मंत्री
बनना तो मेरे लिए भी कुछ करना और वे भी उन्हें आश्वस्त करते की होने पर वे अवश्य कुछ
करेंगें।
अवसर आने पर कृष्ण बल्लभ बाबू को
अपने पंजाबी मित्र के प्रति किये गए वायदे याद आये और उन्होनें उन्हें बिहार राज्य
होम्योपैथिक बोर्ड का अध्यक्ष के रूप में मनोनीत करते हुए प्रस्ताव सम्बद्ध सचिव को
भेज दिया। दो-चार दिन बाद सम्बद्ध विभाग के सचिव ने एक लम्बी टिप्पणी लिखते
हुए उस प्रस्ताव के वैधता के सम्बन्ध में कुछ मुद्दे उठाते हुए कहा कि कतिपय कारणों
से उपरोक्त पंजाबी महोदय का अध्यक्ष बनना नियम सांगत नहीं होगा। जब यह संचिका कृष्ण बल्लभ बाबू के सामने आई तो उन्होनें उसे
ध्यान से पढ़ा और अपना अंतिम निर्णय लिखा "I do not agree with unfortunate
note of the Secretary. My order stands.” (मैं सचिव के इस दुर्भाग्यपूर्ण टिप्पणी
से सहमत नहीं हूँ. मेरा आदेश पूर्ववत है।) और इस प्रकार अपने पंजाबी मित्र को होम्योपैथिक बोर्ड का अध्यक्ष
बना कर उन्होंने अपना वादा पूरा किया।
उनके मुख्य-मंत्रित्व
काल के प्रारंभिक वर्षों में एक बार विरोधी दलों ने सरकार के विरोध में राज्य भर से
आये लोगों का एक विशाल जुलुस एवं प्रदर्शन का आयोजन किया। उनकी इच्छा नहीं थी कि यह सफल हो। पर न उन्होनें कोई निषेधज्ञां जारी करवाई और न पटना में
उसे रोकने हेतु कोई करवाई की। आयोजन की
तिथि से दो दिन पूर्व की रात तक राज्य भर के विरोधी दलों के सभी बड़े-छोटे कार्यकर्ताओं
को उनके शहरों, गावों और कस्बों में गिरफ्तार कर लिया गया। फलतः राज्य के किसी भी स्थान पर लोग जुलूस और प्रदर्शन
में भाग लेने पटना नहीं आ पाये और यह कार्यक्रम कार्यान्वित नहीं हो पाया। आयोजन का निर्धारित समय समाप्त होते ही सभी गिरफ्तार लोगों
को रिहा कर दिया गया। रिहाई के
बाद कार्यकर्ताओं ने बताया कि जेल में उन्हें काफी आराम और सम्मान के साथ रखा गया था।
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