FROM THE BLOGGER’S LIBRARY: REMEMBERING K. B. SAHAY : 11
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कृष्ण बल्लभ सहाय की
स्मृतियों को समर्पित "लोकपत्र" दिसंबर 1987 अंक
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आमचुनाव की तैयारी चल रही थी. कांग्रेस पार्टी 1962 में होने वाले चुनाव के लिए पार्टी उम्मीदवार की सूची बनाने में लगी हुई थी। उन्ही दिनों अखिल भारतीय राष्ट्रिय कांग्रेस के महा अधिवेशन की पटना के पोलो ग्राउंड (जहाँ अभी संजय गांधी जैविक उद्यान है) में जोर शोर से तैयारी नवंबर- दिसंबर 1961 में हो रही थी।
विनोद बाबू (श्री विनोद नन्द झा) मुख्य-मंत्री थे बिहार के और यह महा-अधिवेशन श्री बाबू (डॉक्टर श्री कृष्णा सिन्हा, बिहार निर्माता एवं पुरवा मुख्य-मंत्री एवं बिहार विभूति अनुग्रह नारायण सिन्हा, पूर्व वित्त मंत्री, बिहार सरकार) के दिवंगत होने के बाद बिहार में होने वाला था। इसलिए बिहार कांग्रेस ने इस अधिवेशन को पूर्ण प्रभावकारी एवं सफल बनाने के लिए स्वागत समिति का गठन बड़ी ही सूझ-बूझ के साथ किया था। स्वागत समिति के अध्यक्ष श्री जगजीवन राम, महामंत्री श्री कृष्ण बल्लभ बाबू कोषाध्यक्ष आचार्य बद्रीनाथ वर्मा पूर्व शिक्षा मंत्री बिहार सरकार बनाये गए थे। तैयारियां सरगर्मी से चल रही थीं। सरगर्मी इसलिए भी जोरों से थी चूँकि एक महीने बाद जनवरी 1962 में विधान सभा एवं लोक सभा के आम चुनावों के लिए उम्मीदवारों का चयन होने वाला था।
कॉलेज की पढाई समाप्त कर टिकटार्थी के रूप में मैं भी इस आपाधापी में पटना पहुँच कर महा-अधिवेशन के काम में लग गया था। इसलिए महा-अधिवेशन और कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं को करीब से देखने-समझने का मौक़ा लगा था। उस महा-अधिवेशन में मुझे "फ़ूड समिति" में तमाम प्रतिनिधियों एवं देश के विभिन्न भागों से आये कांग्रेस कार्यकर्ताओं के निमित्त भोजन गृह का इंचार्ज बनाया गया था।
कृष्ण बल्लभ बाबू चूँकि महा मंत्री थे इसलिए महा-अधिवेशन के काम से उनके पास बराबर कार्यकर्ता की हैसियत से मुझे आना-जाना पड़ता था। इतना ही नहीं राम लखन बाबू, श्री सीताराम केसरीजी (अभी कांग्रेस के कोषाध्यक्ष) कामता बाबू, श्री बिन्देश्वरी दुबे, स्वर्गीय शत्रुघ्न प्रसाद सिंह आदि कृष्ण बल्लभ बाबू के कट्टर समर्थकों के साथ साधारण कार्यकर्ता की हैसियत से मिलता-जुलता था और महा-अधिवेशन की सफलता के लिए कृष्ण बल्लभ बाबू के नेतृत्व में सभी नेतागण काफी क्रियाशील रहा करते थे। बिहार कांग्रेस के अंदर विनोदानंद झा एवं कृष्ण बल्लभ सहाय में उन दिनों मन-मुटाव चल रहा था इसलिए ये लोग सतर्कता से इन कामों में लगे हुए थे।
महान व्यक्तियों के गुणों एवं किये गए कार्यों की विशेषता के साथ उनके व्यक्तिगत जीवन, पारिवारिक जीवन जीने के ढंग को जनसाधारण जानना चाहते हैं। उसी कड़ी में उनके कुछ जीवन वृत्त उद्धृत किये जा रहे हैं।
के. बी. सहाय ने गांधीवादी समाजवादी मान्यताओं को राजनैतिक जीवन में स्वीकार ही नहीं किया वरन उनके अनुसार जीवन पर्यन्त चलने की कोशिश भी की।
उनकी दिनचर्या को मुझे उनके निवास में रह कर एक कार्यकर्त्ता की हैसियत से निकट से देखने का मौका सन 1962 से 1967 के मध्य और उनके शेष जीवन काल तक सुअवसर सौभाग्य से मिला।
समय से काम करना उनके जीवन चारी का महत्वपूर्ण एवं आम आदत सी हो गयी थी। सुबह चार बजे उनके दिन का आरम्भ हो जाता था और रात्रि नौ बजे समाप्त होता था. रात्रि नौ बजे से सुबह चार बजे तक उनके सोने का समय होता था. इस समय को वे किसी भी कीमत पर खोने को तैयार नहीं होते थे। उदाहरण के तौर पर यहां यह बताना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि किसी भी राजनैतिज्ञ के राजनैतिक जीवन में चुनाव का समय सबसे महत्वपूर्ण समय होता है। देखा गया है कि चुनाव का समय है फिर भी वे रात्रि नौ बजे सोने चले जाते थे और हज़ारो कार्यकर्त्ता उनसे दिन भर किये गए कार्यों का व्योरा देने आते तो पता चलता कि वे सो गए हैं। लोगों को आश्चर्य होता कि वे इतनी जल्दी सो कैसे जाते हैं और इतनी सुबह उठ कर काम कैसे करने लग जाते हैं? मुख्य-मंत्री का चुनाव विनोद बाबू के मुख्य-मंत्री पद छोड़ देने के बाद हो रहा था। जहां समर्थक और कार्यकर्त्ता उनके आवास पर चुनाव के दांव- पेंच में उलझे रहते वहां कृष्ण बल्लभ बाबू ठीक नौ बजे सोने चले जाते। लेकिन सुबह तीन बज कर तीस मिनट पर उठ जाते और चार बजे से काम पर लग जाते। इसी क्रम में एक रात बारह बजे दिल्ली से विनोद बाबू का फ़ोन आया। जब उन्हें उठाया गया तो वे बात करने को तैयार नहीं थे। जब काफी दबाब दिया गया तो वे अंततः बात करने को राजी हुए। बातें उनके चुनाव के लिए काफी महत्वपूर्ण था जिससे दूसरे दिन उन्हें मुख्य-मंत्री चुनाव जीतने में बहुत मदद मिली। उनके कठिन राजनैतिक जीवन यात्र में उनके परम सहयोगी श्री परमानंद बाबू के निवास रोज गार्डन रोड से मुख्य-मंत्री की कुर्सी तक पहुंचने का एक साधारण साक्षी की नज़र से देखी बातों का उल्लेख किया जा रहा है। सुबह तीन बज कर तीस मिनट पर उठ कर चाय के लिए सेवक को आवाज़ देते. चार बजे तीन कप चाय के साथ त्रिफला का चूर्ण लेते और बैठ जाते थे ऑफिस की फाइलों को देखने और पढ़ने लिखने में। इसी समय उनसे मिलने कभी राम लखन बाबू, कभी कामता बाबू, तो कभी देव शरण बाबू या ऐसे ही शुभचिंतक और समर्थक के साथ बैठ कर चाय पर बातें करते रहते। सात बजे स्नान आदि से निवृत हो कर दो अंडे और एक कप दूध का सेवन नाश्ते के तौर पर करते और फिर एक बजे तक काम करते, मिलने वालों से मिलते और सरकारी कार्य निबटाते। भोजन शायद ही कभी अकेले लेते। लगता था कि स्वयं कम खाने की आदत के कारण दूसरों को खिला कर वे आनंद महसूस करते थे। के. बी. सहाय के रौब और कर्कश आवाज़ के कारण अन्य की बात क्या उनके मित्र भी उनसे सहमे-सहमे रहते थे। इन बातों से लोग समझते होंगें कि वे खाने पीने और ठाठ बाठ में सामंती ढंग के कायल होंगें। पर ऐसा नहीं था। सुबह का नाश्ता तो आपने समझ लिया। अब दोपहर का मेनू भी देखें। यदि रोटी खाना हुआ तो होटल की एक चपाती के बराबर चार फुल्का या छोटी होने से फुल्की कहे , साथ में आलू का चोखा जिसमें लहसुन के कच्चे टुकड़े और हरी मिर्च को कड़वे तेल में मिला कर मेष दिया जाता और एक मौसमी सब्जी- बस यही उनका भोजन था। शायद स्वाद के नाम पर कुछ नहीं होता था। उन्हें मछली कम मटन अधिक पसंद था, पर खाते क्या थे एक टुकड़ा मटन का या फिर एक पीस मछली। यदि चावल रहा तो एक कचड़ी चावल का लेते। इतना कम खा कर इतनी फुर्ती और तेजस्विता के व्यक्तित्व शायद ही मिले। उस पर हिम्मत इतनी थी कि पहाड़ से टकराने में भी नहीं घबराते और जीवन भर विरोधियों से टकराते रहे।
कम खाने की बात आध्यात्मिक साधू संतों की दुनिया में सुनने और पढ़ने को मिलती है। वह इसलिए कि
संतों का, जिनकी कुंडली शक्ति जागृत हुई रहती है, भोजन कम हो जाता है। कुण्डलिनी शक्ति जगाने के लिए साधना के क्रम में साधक कम खाते हैं। लेकिन मैंने कृष्णबल्लभ बाबू को कभी योग साधना करते नहीं देखा था जिस वजह से वे कम खाते। लेकिन मैंने सुना है कि जिस व्यक्ति की कुण्डिलिनी शक्ति जागृत हो जाती है वे दृढ संकल्पी, साहसी, निर्भीक और समाज को मंज़िल तक ले चलने की कूवत रखते हैं।
शायद इसलिए कृष्ण बल्लभ बाबू श्री बाबू के नेतृत्व में ज़मींदारों और सामंतों से टक्कर लेने का कूवत रख पाये और जमींदारी उन्मूलन जैसे दुरूह कार्य में सफल हुए और कांग्रेस के अंदर सामंतों और प्रतिक्रियावादी तत्वों से जीवन पर्यन्त जूझते रहे।
मोटी धोती, ढीला ढाला कुरता एवं उसपर अधिक लम्बाई का जवाहर बंडी- यही कृष्णबल्लभ बाबू का सामान्य पहनावा था। उनके अति निकटवर्ती मित्रों के कहने पर भी उन्होनें अपनी पौशाक के लिए अपने ग्रामीण किसान मज़दूरों की सामन्तवाला पौशाक नहीं छोड़ा।
देखने में सर्वांगीण खादी में लिपटा व्यक्तित्व रुखा लगते थे। लगता है इसके पीछे उनके दिमाग में बचपन की गरीबी और सामंतों के शोषण का प्रभाव था। मुख्य-मंत्री बनाने के बाद अपने सर्वमान्य नेता नेहरूजी के द्वारा राजनैतिक जीवन में चन्दा अधिक उगाहने के प्रश्न पर उन्होनें कहा कि कांग्रेस के अधिकाँश कार्यकर्त्ता गरीब हैं तथा चुनावों में उनके लिए पैसे जुटाना कठिन होता है तथा पार्टी चलने के लिए भी उन्हें पैसे देने पड़ते हैं। यह उनका स्वाभाव हो गया था और तदनुसार सार्वजनिक जीवन में बिना वेतन और रोजी रोटी कमाने वाले कार्यकर्ताओं को कभी पारिवारिक कार्यों के लिए भी पैसे की जरूरत होती है जिसके कुछ अंशों की पूर्ति करना नेता की हैसियत से वे आवशयक समझते थे। उन्होने कहा कि आज तक उन्होने जितना चंदा लिया है उसका उनके पास हिसाब है। उसी हिसाब रखने की आदत से जब अय्यर कमीशन उनपर विपक्ष ने बैठाया तो जस्टिस अय्यर भी उनके कायल हो गए।
सम्पूर्ण लेन देन का हिसाब देकर उन्होनें अय्यर कमीशन को चकित कर दिया था। कमीशन को अपनी रिपोर्ट में लिखना पड़ा कि राजनैतिक जीवन में ऐसे बिरले नेता ही देश में होंगें जो राजनैतिक फण्ड के एक एक पाई का इतना अच्छा हिसाब रखते हों।
के. बी. सहाय व्य्कतिगत जीवन नपेतुले जीते थे। जब वे सहकारिता मंत्री बने थे तब अपने आवास पर खाना बनाने के लिए उन्होनें मुझे एक सौ रुपये के बर्तन खरीद लाने को कहा। यह 1962 की बात है। बर्तन खरीदने के बाद कुछ पैसे बचे थे जो मैंने उन्हें लौटा दिए। मैंने समझा कि मेरा काम पूरा हो गया है। पर दो दिनों के बाद उन्होनें मुझसे कहा कि आपने बर्तन खरीदने का हिसाब नहीं दिया। मुझे लगा ये यह क्या कह रहे हैं। तपाक से मैंने दबी जबान में कहा कि बर्तन खरीदने के बाद मैंने खुदरे पैसे वापस कर दिए थे। उन्होनें कहा कि यह हिसाब नहीं हुआ। आपने कौन से बर्तन कितने में खरीदे, कागज़ में लिख कर दे तभी हिसाब होगा। मैंने उन्हें यह हिसाब कागज़ में लिख कर दिया तब उनका हिसाब पूरा हुआ। उन्होनें कहा "मैंने आपसे खुदरे पैसे नहीं मांगे थे वरन हिसाब माँगा था।“ इस राज को मैं तब समझा जब उन्होनें अय्यर कमीशन को एक एक पैसे का हिसाब दिया था।
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