Wednesday, 6 January 2016

औरों से अलग एक आदमी: विनोदानंद ठाकुर, संपादक, पाटलिपुत्र टाइम्स



FROM THE BLOGGER’S LIBRARY: REMEMBERING K. B. SAHAY: 12
 

लोकपत्र 31 दिसंबर 1987 एवं पाटलिपुत्र टाइम्स 31.दिसंबर 1988 में प्रकाशित
 
प्रत्येक सार्थक शब्द अपने उच्चारण के साथ ही एक चित्र का निर्माण करता है इस चित्र में सम्बद्ध शब्द के अर्थ भाव और चरित्र समाहित होते हैं श्री कृष्ण बल्लभ सहाय- यह एक ऐसा व्यक्तिवाचक शब्द या शब्द-समूह है, जिसके उच्चारण से सहज ही जो चित्र बनता है, उसके अर्थ, भाव और चरित्र एक-दूसरे को लांघती और काटती आड़ी-तिरछी रेखाएं खींचती हैं इसकी एक भी रेखा का सीधा न होना एक अनबुझ उलझन और एक पहेली का आभास दिलाता है ज्यादातर लोग इसे अनबुझ मान कर छुट्टी पा लेना ही बेहतर समझते हैं किन्तु ऐसे भी लोग हैं जो आड़ी-तिरछी रेखाओं में लिपटे हुए, इस व्यक्तिवाचक शब्द के चरित्र की तलाश करने में सुख अनुभव करते हैं तलाश के इस काम में लोगों को जो सुख मिलता है, वह निरपेक्ष नहीं सापेक्ष है, क्योंकि कृष्ण बल्लभ बाबू सौ फ़ीसदी राजनीतिकर्मी थे, जो स्वयं निरपेक्ष नहीं, अपने को नीतिगत सापेक्ष दृष्टिकोण का धनी मानते थे अपने इस सापेक्ष दृष्टिकोण को वे कांग्रेस की राजनीति में अपनी कीमती पूंजी मानते थे बिहार की तत्कालीन राजनीति ने भी उनके दृष्टिकोण को कठोर बनाने में योगदान दिया

इसे संयोग कहें या दुर्योग कि 15 अगस्त 1947 में आज़ाद भारत के नव-निर्माण मूल का वातावरण में बिहार केसरी श्री कृष्ण सिन्हा के प्रधानमंत्रित्व (उस समय वे प्रधान-मंत्री ही कहलाते थे) काल में बिहार का जब प्रथम मंत्री-मंडल बना, तब श्री कृष्ण बल्लभ सहाय को राजस्व मंत्री बनाया गया
       
ऊपर मैंने जिस "सापेक्ष दृष्टिकोण" की चर्चा की है, उसे व्यवहार की उबड़-खाबड़ सरजमीं पर उतारने में उन्होनें अपनी पूरी एकाग्रता से काम लिया प्रथम प्रश्न था भूमि-सुधार के तहत बिहार में जमींदारी प्रथा के उन्मूलन का यह प्रश्न कांग्रेस की नीति और घोषित कार्यक्रम का अभिन्न अंग तो था, किन्तु उसके समाधान की जटिलता ने श्री कृष्ण बल्लभ सहाय को भी जटिल और विवादग्रस्त बना कर रख दिया यह न भूलना होगा कि उन दिनों बिहार में समाजवादी ताकतों का बड़ा जोर था, जो जमींदारी उन्मूलन को अपना पहला कार्यक्रम मानती थी संविधान के तहत 1952 में प्रथम आम-चुनाव में श्री जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में समाजवादी पार्टी को बिहार में सत्ता में आने का पूरा भरोसा था श्री कृष्ण सिन्हा के नेतृत्व में कांग्रेसी नीति के तहत राजस्व मंत्री श्री कृष्ण बल्लभ सहाय ने जो कुछ किया, उसे इस सन्दर्भ में भी देखना होगा
       
सोचने के लिए यह प्रश्न सटीक जान पड़ता है कि अगर बिहार केसरी श्री बाबू ने कृष्ण बल्लभ बाबू को राजस्व मंत्री न बनाया होता, तो यह व्यक्ति इतना विवादग्रस्त और जटिल हो पाता? बिहार की पूरी राजनीति पर नज़र दौड़ाने वाले को मेरे इस विचार से सहमत होने में शायद ज्यादा कठिनाई न होगी कि 'जटिल' तो वे हर हालत में होते, इतने विवादग्रस्त शायद न हो जाते उनके साथ विवादग्रस्तता की जो चीज़ छाया की तरह जुड़ गयी थी, उसका सीधा ताल्लुक सबसे ज्यादा भूमि-सुधार के तहत जमींदारी उन्मूलन का ही था यह कार्यक्रम ही ऐसा उत्तेजक था, जो किसी को भी विवादग्रस्त बना सकता था जहाँ तक जटिलता का सवाल है, अपनी आर्थिक नीति और समाज के कमजोर वर्ग को ऊपर लाने के उनके जद्दोजहद के अलावा भी कई ऐसी बातें थी, जिसने निर्विवाद रूप से जटिलता की उनकी छवि में योगदान किया वे हर सवाल पर जल्दबाज़ी में थे अपने काम-धाम, दिनचर्या और कागज़ी कार्रवाई में चुस्त-दुरुस्त और पूर्ण समयनिष्ट होने के बावजूद अपने व्यक्त करने और सामाजिक सरोकार की उनकी शैली, उन्हें औरों से अलग आदमी की पहचान फ़ौरन ही दे डालती थी उनकी यह पहचान इतनी प्रभावी हो गयी कि उसके बोझ के तले उनके कई गुण दबकर रह गए जो चीज़ इस असामान्य व्यक्ति की विशेषता हो सकती थी, वह अनायास ही जटिलता के दायरे में आ गयी यही इस व्यक्ति की "ट्रेजेडी" थी और, जब मैं इस व्यक्ति को उसके पूरेपन में देखता हूँ, तो एक बड़े दायरे में श्री वी. के. कृष्ण मेनन की छवि सामने आ जाती है अपने आपको अपने आचरण से परिभाषित करने, अपनी रीति-नीति को स्पष्ट करने के लिए, शब्दों और शैली के चुनाव के मामले में, इन दोनों में कुछ ऐसी बातें थी, जो लोगों को अखर जाती थी फिर भी, ऐसे लोगों की कमी नहीं जो वैचारिक स्तर पर उनसे सहमत ही नहीं होंगें, बल्कि अपने को उनका मुरीद मानने में गौरव का अनुभव करेंगें तेज विचार और अटल आस्था के कारण ऐसे लोग जल्द किसी व्यक्ति अथवा किसी परिस्थिति के साथ समझौता करने को तैयार नहीं होते 'समझौता' राजनैतिक जीवन में आवश्यक होता है किन्तु, विश्व में ऐसे कई तेजश्वी व्यक्ति उभरे, जिन्होनें 'समझौते' की जरूरी शर्त को कबूल कर लेना अपनी मर्यादा के प्रतिकूल समझा इस क्रम में उन्होनें अपने दोस्त भी बनाये और दुश्मन भी श्री कृष्ण मेनन के बारे में धारणा है (और यह सही भी है) कि उन्होनें जितने दोस्त बनाये, उससे ज्यादा दुश्मन और निंदक किन्तु, ऐसे असामान्य व्यक्तयों के दोस्त और निंदकों की जमातें, उस व्यक्ति के प्रति अपने वैचारिक लगाव और निष्ठा या उसके अभाव के अपने-अपने मुकाम पर ख़म ठोक कर खड़ी और अड़ी रहती है कृष्ण बल्लभ बाबू ऐसे ही लोगों की श्रेणी में थे ऐसे व्यक्ति भुलाये नहीं भूले जाते ये अपने दोस्त और निंदक, दोनों को अपने बारे में खुलकर कुछ कहने को मजबूर करते हैं आप चुप नहीं रह सकते उनकी चर्चा हुई, तो आपका चुप्पी साध कर तटस्थ रह पाना असंभव होगाआप जरूर बोलेगें अब यह बात ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है कि आप क्या बोलते हैं यानि, कृष्ण बल्लभ बाबू एक उत्तेजक व्यक्तित्व के स्वामी थे उनके आचरण और क्रिया कलाप से उनका जो वैचारिक और क्रियात्मक रूप उभरता है, वो आपको तिलमिला देगा इस तिलमिलाहट का रुझान चाहे जो हो यह उनके व्यक्तित्व के जीवंत और सकरात्मक होने का प्रमाण है
      
अपनापन और घनिष्ठता, ये दो शब्द काफी नजदीक होते हुए भी दो अलग अवस्थाओं का बोध कराते हैं कृष्ण बल्लभ बाबू के साथ 'अपनापन' का दावा करने वाले लोगों के तादाद काफी होगी, फिर भी यह इतनी काफी नहीं होगी कि उसे सही अर्थ में काफी माना जाए किन्तु, ऐसे लोग दरअसल बहुत काम मिल पायेंगें, जिनका कृष्ण बल्लभ बाबू के साथ घनिष्ठता का रिश्ता माना जाए ये हर प्रकार के सरोकार में एक ख़ास दूरी रखते थे सामाजिक सरोकार में ये खुले कम और बंद ज्यादा रहे ये भीड़ में रहे, मगर भीड़ में भी अकेले रहे दरअसल भीड़ में हर व्यक्ति अकेला होता है किन्तु ये जिस भीड़ के आदमी थे, उसमें अकेला रहना जरूरी नहीं था फिट भी अगर ये अकेले थे, तो इस चीज़ को उनके स्वाभाव से जोड़ना होगा ये व्यक्ति या व्यक्ति समूह से ज्यादा समष्टि को मद्देनज़र रखते थे ऐसे राजनीतिक कर्मी को अपनी असुरक्षा का भाई ज्यादा होता है जाति का बल इन्हें नहीं था अपनी हिफाज़त के लिए इन्हें दूसरे रास्तों की तलाश रहती थी अपने रास्ते पर इन्हें भरोसा था, अन्यथा 1962 के चुनाव में कांग्रेस आलाकमान की कृपा से श्री विनोदानंद झा द्वारा बनायीं गयी कांग्रेस विधान मंडल पार्टी के (1963) में ये नेता नहीं चुने जाते 1963 में कामराज योजना के तहत मुख्य-मंत्री श्री विनोदानंद झा को त्याग-पत्र देना पड़ा नए नेता के चुनाव में श्री झा का समर्थन श्री वीरचंद पटेल को था किन्तु 1962 के चुनाव में खुद विनोद बाबू की कांग्रेस विधान मंडल पार्टी ने विनोद बाबू के समर्थन के बावजूद उनके मनोनीत उम्मीदवार श्री वीरचंद पटेल को नेता चुनने से इंकार कर दिया और उनके खिलाफ सीढ़ी टक्कर में कृष्ण बल्लभ बाबू नए नेता निर्वाचित हुएबिहार में जातीय बल को राजनैतिक बल का मेरुदण्ड माना जाता है यह बल न होने के बावजूद अगर कृष्ण बल्लभ बाबू नए नेता चुने गए, तो इसके कारणों का अनुसन्धान करने के लिए तत्कालीन राजनीति के नीतिगत रुझानों के अंदर प्रवेश करना होगा  
      
श्री कृष्ण बल्लभ सहाय का जन्म 31 दिसंबर 1898 को पटना ज़िले के शेखपुरा ग्राम में और देहावसान 3 जून 1974 को एक दर्दनाक सड़क दुर्घटना में हुई अगर 1947 को ही एक बिंदु मान लिया जाए, तो उनके कार्य-कलापों के सही मूल्यांकन का सवाल अभी भी एक सवाल ही बना हुआ है यह काम जरूरी है- उन लोगों के लिए, जो उनसे प्रभावित थे. (और आज भी हैं) और उन लोगों के लिए भी जो इनसे हमेशा दुराव की दूरी रखते थे
      
कृष्ण बल्लभ बाबू के दो रूप, राजस्व मंत्री का रूप और 1963 से 1967 तक बिहार के मुख्य-मंत्री का रूप, ख़ास तौर से किसी भी अध्ययन के बिंदु हो सकते हैं मुझे दिल्ली में, उन्हें कई अवस्थाओं में देखने और परखने का अवसर मिला और एक अखबारनवीस की हैसियत से मैंने उन्हें बड़ा दिलचस्प और सहृदय पाया वैसे जिन अख़बारों के लिए मैं दिल्ली में काम करता था, उनके साथ कृष्ण बल्लभ बाबू के रिश्ते अच्छे नहीं थे दोनों के बीच तनाव का माहौल रहता था. मगर, उन्होनें मेरे साथ ऐसा सलूक कभी नहीं किया, जिससे मुझे सावधान होना पड़े
      
एक बार मेरे अख़बार के मालिक बिहार भवन में उनसे मिले थे दिसंबर माह की पांच बजे भोर में. मुलाकात का यह समय कृष्ण बल्लभ सहाय ने खुद दिया था बातचीत के बाद चलते चलते मेरे अख़बार के मालिक ने उनसे पूछा "हमारे रिपोर्टर आपसे मिलते हैं या नहीं?" कृष्ण बल्लभ बाबू ने कहा " मिलते तो हैं मगर इस बार अभी तक मुझसे नहीं मिले हैं आप जानते हैं क्यों नहीं मिले?" उत्तर नहीं मिलने पर खुद हे जवाब दिए " उन्होनें मेरे खिलाफ एक भरी खबर छपी है डरते होंगें"
     
बात सही थी मुझे जब यह सूचना मिली मैं फ़ौरन बिहार भवन (नई दिल्ली) जाकर उनसे मिला बोले "आपकी खबर आधी सही थी, आधी गलत मैं भी "अमृत बाजार पत्रिका का रिपोर्टर रह चुका हूँ" मैंने कुछ जवाब नहीं दिया
       
कितने ही ऐसे मौके आये, जिनमें उनके गुणों से वाकिफ होने का मौक़ा मुझे दिल्ली में मिला वो दिलचस्प प्रसंग सामने आते हैं पंडित विनोदानंद झा के साथ कृष्ण बल्लभ बाबू के सम्बन्ध निकटता के थे, राजनैतिक और वैचारिक दोनों स्तर पर, किन्तु डॉ. श्री कृष्ण सिन्हा के देहांत के बाद विनोदा बाबू बिहार के मुख्य-मंत्री हुए और दोनों के बीच तनाव का सिलसिला शुरू हुआ 1962 के आम चुनाव में उम्मीदवारों के चयन में दिल्ली के राजनैतिक रंगमंच पर दोनों के बीच भारी टक्कर हुई प्रायः एक महीने तक बिहार प्रदेश कांग्रेस चुनाव समिति की बैठकें दिल्ली में होती रही बेमिशाल हंगामे के दिन थे, और पत्रकारों के लिए चुनौती भी ऐसा हुआ कि उम्मीदवारों के चयन में मुख्य-मंत्री पंडित विनोदानंद झा को वरीयता दी जा रही थी ज्यादा तादाद में उनके समर्थकों को टिकट दी जा रही थी इसी बीच छोटानागपुर (वर्त्तमान झारखण्ड) में झारखण्ड पार्टी के विलय की बातचीत सहायजी ने पक्की कर दी और एक बिहार भवन में हुई प्रदेश चुनाव समिति की बैठक में उन्होनें अपने प्रभाव से कांग्रेस में झारखण्ड पार्टी के विलय का प्रस्ताव स्वीकृत करा लिया इस प्रस्ताव का मसौदा कृष्ण बल्लभ बाबू ने ही अंग्रेजी में तैयार किया था इस प्रस्ताव की बात को काफी गुप्त रखा गया था मुझे रात के करीब  नौ बजे पता चला कि ऐसा एक प्रस्ताव पास किया गया है मैं रात साढ़े नौ बजे कृष्ण बल्लभ बाबू के पास पहुंचा मेरे पूछने पर उन्होनें कहा "मेरे पास प्रस्ताव की कापी नहीं है एक ही कॉपी है जो अब्दुल कयूम अंसारी (बिहार प्रदेश अध्यक्ष) के पास होगी आप वहीँ जाइए" दिल्ली में दिसंबर के आखरी सप्ताह में भयंकर ठण्ड मैं टैक्सी से श्री अंसारी के पास पहुंचा मुझे बताया गया कि श्री अंसारी साहब को हल्का बुखार है और उन्हें ठण्ड लग गयी है दरवाज़ा बंद कर सो गए हैं अब कोई पत्रकार ही महसूस कर सकता है कि मेरी क्या हालत हुई होगी करीब साढ़े ग्यारह बजे रात तक मैं फिर कृष्ण बल्लभ बाबू के पास पहुंचा मैं पहुंचा ही था कि देखा वे अपने कमरे का दरवाज़ा बंद कर चुके हैं और अंदर से छिटकनी लगा रहे हैं उनके निजी सहायक उनके कमरे से निकल कर बाहर दरवाज़े के पास ही खड़े थे मैंने जाते ही कहा "यार, दरवाज़ा खुलवाओ" उस सहायक ने दरवाज़े पर दस्तक दी कृष्ण बल्लभ बाबू का हाथ शायद छिटकनी पर ही था फ़ौरन दरवाज़ा खुल गया मैंने झट आगे बढ़ कर कहा "हुज़ूर अंसारी साहब को बुखार है वे सो गए हैं" उन्होनें कहा " रुकिए" वे पलंग पर बैठ गए कागज़ लिया और पंद्रह मिनट के अंदर ढाई फुलस्केप पन्नों पर वह प्रस्ताव लिख कर उन्होनें मेरे हाथों में रख दिया मैंने प्रायः एक बजे तक यह सनसनीखेज़ खबर अपने अखबार के दफ्तर में टेलीफोन से पहुंचा दी सुबह शान-बान से अखबार छपी दूसरे दिन अंसारी साहब से उस प्रस्ताव की मूल प्रति लेकर उस मसौदे से मिलाया, जिसे सहायजी ने अपने हाथों से लिख कर दिया था मैं यह देख कर हैरान रह गया कि प्रस्ताव के किसी भी वाक्य में एक भी शब्द का कोई फर्क नहीं था ऐसी थी उनकी याददाश्त और बुद्धि की प्रखरता
      
1967 का वर्ष कृष्ण बल्लभ सहाय के लिए बड़ा कठिन समय था मुख्य-मंत्री के रूप में उनकी खूबी खराबी का मूल्यांकन और बात है किन्तु दिल्ली की केंद्रीय राजनीति में श्रीमती इंदिरा गांधी का प्रादुर्भाव और कांग्रेस के मठाधीशों के रुतबे में कमी के नए सन्दर्भ में पटना में प्रतिपक्ष के मोर्चे का मुकाबला करना उनके लिए कठिन हो गया पटना में गोली चली जन-मन में उत्तेजना भड़क उठी कृष्ण बल्लभ बाबू के इस्तीफे और गोली काण्ड की न्यायिक जांच की मांग की जाने लगी आम चुनाव की घोषणा हो चुकी थी कांग्रेस के सामने कठिन समस्या उत्पन्न हुई मुख्य-मंत्री कृष्ण बल्लभ सहाय गोली काण्ड की न्यायिक जांच करवाने को तैयार नहीं थे उस वक़्त कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री कामराज थे वे देशव्यापी चुनाव प्रचार के क्रम में जमशेदपुर पहुंचे प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के साथ उनकी अनबन की शुरुवात हो चुकी थी उनका भी विचार था कि पटना गोली-काण्ड की न्यायिक जांच करवाई जाए किन्तु कामराज इस के लिए राजी होने से पहले कृष्णबल्लभ बाबू से बातचीत करना चाहते थे जमशेदपुर में वे एक दिन के कार्यक्रम के तहत डाक बंगले में ठहरे थे मैं भी इस चुनाव दौर में उनके साथ था डाक बंगले में कृष्णबल्लभ बाबू के साथ उनकी बातचीत हुई श्री ललित नारायण मिश्र भी वहां मौजूद थे यह कहना ठीक नहीं है कि कृष्ण बल्लभ बाबू पटना गोली काण्ड की न्यायिक जांच कराने के लिए किसी भी हालत में तैयार नहीं हो सकते थे अगर कामराज कहते तो कृष्ण बल्लभ बाबू न्यायिक जांच का आदेश देने को तैयार हो सकते थे परन्तु श्री कामराज का विचार था कि चुनाव नजदीक आ चुका है उसमें चंद हफ्ते की देर रह गयी थी इसलिए न्यायिक जांच के आदेश से कोई राजनैतिक लाभ कांग्रेस को नहीं मिलाने वाला है न्यायिक जांच से भी जनमानस के दृष्टिकोण में कोई परिवर्तन नहीं आ सकता श्री कामराज ने अपने विचार से जमशेदपुर में श्री कृष्ण बल्लभ बाबू को अवगत करा दिया उनकी सलाह व्यवहारिक थी या नहीं, इसका फैसला आज भी किया जा सकता है1967 के चुनाव में पटना निर्वाचन क्षेत्र से जन-क्रांति दल के नेता श्री महामाया प्रसाद सिन्हा के हाथों श्री कृष्ण बल्लभ सहाय पराजित हुए चुनाव के बाद बिहार में प्रथम संयुक्त विधायक दल की सरकार की स्थापना हुई और यह सारी बातें इतिहास के पन्नों में समां चुकी हैं यह बात सही है कि तत्कालीन वातावरण में पटना चुनाव क्षेत्र में श्री महामाया प्रसाद सिन्हा और श्री कृष्ण बल्लभ सहाय के बीच चुनावी टकराव कांग्रेसी और गैर कांग्रेसी ताकतों के बीच एक प्रतीक बन कर पूरे बिहार प्रान्त में छा गया था परन्तु इस तनावपूर्ण चुनावी माहौल का सारा दायित्व श्री कृष्ण बल्लभ सहाय पर ही नहीं डाला जा सकता1967 के चुनाव में गैर कांग्रेसी मोर्चे के तहत जो आंदोलन शुरू हुआ था, उसका प्रभाव बिहार ही नहीं, पूरे उत्तर भारत में फ़ैल गया था1967 की परिस्थितियां कृष्ण बल्लभ बाबू के व्यक्तित्व पर इतना प्रतिकूल प्रभाव नहीं डालती कि इस असामान्य व्यक्ति का मूल्यांकन ही न किया जाए ये राजनीति के क्षेत्र में औरों से अलग थे निरपेक्ष भाव से उनके मूल्यांकन की आवश्यकता आज भी बनी हुई है



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