FROM THE BLOGGER’S LIBRARY: REMEMBERING K.B.SAHAY: 10
यह संस्मरण 31 दिसंबर 1986 को विमोचित स्मारक पत्रिका से ली गयी है
प्रस्तुत लेख के लेखक सुनाम धन्य पत्रकार ब्रजमोहनजी ने इस वर्ष फिर अपनी बहुचर्चित
और सुपरिचित शैली में कृष्ण बल्लभ सहाय को याद किया है। वक्राक्ष के नाम से लगभग 24 वर्षों से विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं
में व्यंग्य सामग्रियाँ लिखते रहने वाले ब्रजमोहनजी ने ही 31 दिसंबर 1985 को हिंदी
दैनिक रांची एक्सप्रेस में कृष्ण बल्लभ बाबू पर एक मार्मिक लेख लिख कर हज़ारीबाग़ में
उनकी प्रतिमा स्थापित करने की ओर सबका ध्यान आकर्षित किया था। -संपादक
इस वर्ष 31 दिसंबर को फिर कृष्ण बल्लभ बाबू की जयंती से मनाई जाने तथा इस अवसर
पर हज़ारीबाग़ नगर के अलावा राजधानी पटना में भी उनकी प्रतिमा स्थापित की जाने की तैयारियों
को देख कर स्मृति के कई झरोखे अनायास खुल गए हैं। 31दिसंबर 1898 को जन्मे कृष्ण
बल्लभ बाबू की एक सड़क दुर्घटना में मृत्यु हुए बारह वर्ष बीत चुके हैं। राष्ट्रीय आंदोलन के सिलसिले
में करीब आधा दर्शन बार जेल यात्रा करने तथा बाद में विभिन्न उच्च प्रशासनिक पदों पर
आरूढ़ होते हुए विलक्षण राजनितिक एवं प्रखर प्रशासक कृष्ण बल्लभ बाबू यानी के. बी. सहाय
1963 से लेकर 1967 तक बिहार के मुख्यमंत्री पद को भी सुशोभित किया।
इन लगभग चार वर्षों के दौरान इन्होंने अपनी प्रशासनिक एवं नेतृत्व क्षमता का
जौहर दिखा कर बिहार ही नहीं सारे देश में अपने नाम का सिक्का जमा दिया। स्वर्गीय श्री कृष्ण सिन्हा
के बाद किसी मुख्यमंत्री ने प्रशासन के साथ-साथ पार्टी को चुस्त और सुदृढ़ बनाने का
ऐसा प्रशंसनीय काम नहीं किया।
इनके राजस्वमंत्रीत्व और मुख्यमंत्रित्व के दौरान इनका जो विविध स्वरुप उभर
कर सामने आया, उसका मूल्याङ्कन पर्वेक्षकों ने विविध प्रकार से किया है। जिन्हे जहां इनके गुण नज़र
आते थे उन्होनें उन्हीं के आधार पर इनको समझा और लोगों को समझाया और जहां जिन्हे इनके
अवगुण दिख पड़ते थे, उन्होनें उन्हीं के आधार पर इन्हें पहचाना और दूसरों को पहचानवाया। लेकिन इनके स्वाभाव एवं इनकी
कार्य विधियों को बारीकी तथा निकट से देखने और समझने वालों से यह छिपा नहीं है कि उनके
गुणों में ही नहीं उनके कथित अवगुणों में भी गुणों के तेज के दर्शन होते थे।
उनकी वाणी कड़वी, झटकेदार और उबड़-खाबड़ हो सकती थी उनके निर्णय और कार्य औचित्य
की कसौटी पर कसे और खरे होते थे। नही कह दिया
तो नहीं ही होगा और हाँ कह दिया तो उसे करके ही रहेंगें. उनकी समझ और फैसले को प्रभावित
करने का दुशाहस जिसने भी किया, चाहे वह बड़ा से बड़ा प्रशासनिक अधिकारी ही क्यों न हो,
उसे शर्मिंदगी के साथ निराश होना पड़ा. उनकी इस कार्य-प्रणाली ने विक्षुब्दों के संख्या
हज़ारीबाग़ से लेकर पटना तक बढ़ा अवश्य दी, किन्तु इसी के कारण उनकी प्रशंसा भी खूब हुई।
दृढ़ मानसिकता के उपर्युक्त गुणों ने ही तो उनकी स्मृति को
अमिट बना दिया है। आज कितने मंत्री या मुख्यमंत्री ऐसे हैं जो मुँह पर कड़ी फटकार
बता देने और प्रत्यक्ष निराश कर देने के बाद भी किसी हिट में ठोस आदेश देने में विलम्ब
नहीं करते? कृष्ण बल्लभ बाबू का मूल्यांकन उनकी बोली से नहीं उनके कार्यों के आधार
पर ही किया जाना चाहिए। कड़वी बोली मीठा फल!
कृष्ण बल्लभ बाबू ऐसे ही थे।
बिहार में ही नहीं सारे देश में के बी सहाय के नाम से प्रसिद्द
कृष्ण बल्लभ बाबू के निकट लगातार रहने वाले और उनके हर क्रियकलापों को देखने समझने
का अवसर तो मुझे नहीं मिला किन्तु उनका घर और कार्य-क्षेत्र हज़ारीबाग़ भी होने के वजह
से उनसे यदा-कदा मिलने और उनके साथ वार्तालाप में शामिल होने का सौभाग्य मुझे अवश्य
प्राप्त हुआ। कांग्रेस भवन में लोगों से घिरे रहने पर भी मुझे आया हुआ
देख कर क्षण भर के लिए ही सही मेरी ओर मुखातिब अवश्य हो जाते थे।
"आप बताएं, नया समाचार क्या है?" अथवा "आप
पत्रकार हैं। बहुत घूमते हैं। चुनावों
के बारे में आपका क्या ख्याल है?" आदि आदि। मुझे
वे दिन बार-बार याद आते हैं जब कृष्ण बल्लभ बाबू फुर्सत में थे यानि 1967 का चुनावों
हारने और मुख्यमंत्री पद से अलविदा ले लेने के बाद के दिन। मुझे
सड़क पर पैदल हुआ देखते हुए ड्राइवर को गाडी रोकने के लिए कहते। मुझ से
पूछते "घर की ओर जा रहे हैं क्या?" मेरे हाँ कहने पर कहते "आईये बैठिये।" उनके साथ 1967 में दुर्भिक्ष के समय हज़ारीबाग़ ज़िले
के अनेक ग्रामीण क्षेत्रों का दौरा करने का अवसर मुझे मिला था। अपने
गांव बृंदा में बिहार का मुख्यमंत्री खेतिहर मजदूर हो जाता था।
धोती को कच्छे की तरह कस कर अपने धान के खेतों में बेहिचक
उत्र जाने वाला यह व्यक्ति लगता ही नहीं था कि वह बिहार के सबसे शक्तिशाली हस्ती है
और कुछ ही घंटे पहले चीफ सेक्रेटरी को कड़े आदेश देकर हटा है।
1964की एक घटना मुझे अभी तक ज्यों के त्यों याद है। कृष्ण
बल्लभ बाबू के वाणी और विचार के अंतर को समझने में यह किसी के लिए भी मददगार साबित
हो सकती है। तब मैं हज़ारीबाग़ में साप्ताहिक समाचार छोटानागपुर एक्सप्रेस
का सम्पादन कर रहा था। स्वर्गीय मनीराम गुप्ता
के स्वत्वाधिकार में उन्हें के छपेखाने गुप्ता प्रेस के 1963 के 02 अक्टूबर से इस साप्ताहिक
का प्रकाशन जारी था। मुनीराम जी के साथ कृष्ण बल्लभ बाबू का लम्बा संपर्क और पारम्परिक
सौहार्द था। 31दिसंबर 1964 को यानि कृष्ण बल्लभ बाबू के जन्मदिन के अवसर
पर उन्हें बधाई देने के लिए स्वर्गीय मनीराम जी के साथ मैं भी पटना छज्जूबाघ स्थित
कृष्ण बल्लभ बाबू के निवास पर पहुंचा। दोनों को हज़ारीबाग़ से
वहां आया देखकर वे बहुत खुश हुए और हम दोनों से हाल-चाल पूछा फिर आने वाले अन्य लोगों
के साथ बातचीत में मशगूल हो गए दूसरे दिन सुबह मिलने का समय लेकर हम पुनः उनके आवास
पर पहुंचे। खबर होते हीउन्होंने हमें बुला भेजा। बैठते
ही पूछा "मुनिबाबू अखबार कैसा निकल रहा है?" मुनीरामजी ने कहा "हमारे
संपादक ब्रजमोहनजी वही बताने आये हैं।
“बोलिए!"- कृष्ण बल्लभ बाबू ने इजाजत दी।
मैंने विनम्रतापूर्वक उन्हें बताना शुरू किया कि हमलोगों
का अखबार बुरी आर्थिक स्थिति से गुज़र रहा है। उसे अभी
तक सरकार द्वारा एप्रूव्ड नहीं किया गया है। हमलोग
इस काम के लिए ही पटना आये हुए हैं। अप्रूवल तो आपके आदेश
से ही होना है। हज़ारीबाग़ जैसी छोटी जगह से अखबार निकालने में जो दिक्कतें
हैं वह तो आप से छिपा नहीं......"
बस, इतने ही में मुख्यमंत्री कृष्ण बल्लभ सहाय की छोटे से
एक वाक्य का चाबूक मेरे कानों से टकराई "देखिये भाषण मत दीजिये." मैं सन्न
रह गया। दो-चार शब्दों में ही तो मैं अपनी समस्या निवेदित कर रहा
था। यह भाषण कैसे हो गया? मन ने चेतावनी दी कि इस फटकार का प्रत्युत्तर
यदि तुमने तत्काल नहीं दिया तो तुम्हारी पत्रकारिता की ऐसी की तैसी। अपमान
और क्षोभ से कम्पित पैरों पर खड़ा होते हुए बस एक ही वाक्य मेरे मुँह से भी निकला
"भाषण देना पॉलिटिशियन को शोभा देता है पत्रकारों को नहीं। यह वाक्य
कान में पड़ते ही कृष्ण बल्लभ बाबू का चेहरा तमतमा उठा, लेकिन इतने ही में मैं कक्ष
से बाहर निकल आया था।
मुनीरामजी भी मेरे इस अप्रत्याशित व्यवहार से क्षुब्ध होने
के वजह से हाथ मलते हुए बाहर निकलते दिख पड़े। अखबार
के अप्रूवल की आशा निराशा में बदल गयी थी।
इस घटना के घटे अभी कुछ ही महीने बीते थे कि मुनीरामजी का
अचानक निधन हो गया। उनकी शवयात्रा में शामिल होने के लिए कृष्ण बल्लभ सहाय भी
आये। रास्ते में एकाधिक बार
उनसे मेरा तथा मुझसे उनका आमना-सामना तो हुआ लेकिन कोई बातचीत नहीं हुई। मुनीरामजी
का दाह-संस्कार संपन्न होने के बाद लौटते वक़्त कृष्ण बल्लभ बाबू मुखर हुए। उन्होंने
स्नेहील शब्दों में मुझ से पूछा "अब आपके अखबार का क्या होगा?"
मैंने कहा "कहना कठिन है। उसी के
अप्रूवल के लिए तो मुनीरामबाबू आपके पास पटना गए थे। वह अप्रूवल
अभी तक नहीं हो सका है।"
"अप्रूवल हो जायेगा।"- कृष्ण बल्लभ बाबू ने संक्षिप्त में कहा। "अगले शनिवार को एक आवेदन लिख कर रामबाबू (उनकेपुत्र)
को दे देंगें। हम कर
देंगें। और कोई बात?"
मैंने कहा "जी नहीं।"
उनके निर्देशानुसार अखबार के अप्रूवल से सम्बंधित दरख्वास्त
तो मैंने रामबाबू के जिम्मे कर दिया लेकिन मन में सोचा कि यह सब बस यों ही है। कुछ होना-जाना
तो है नहीं। किन्तु, कृष्ण बल्लभ बाबू के उच्चतर मानसिकता की तुलना में
मेरी आशंका कितनी निर्मूल और घटिया थी इसका पता मुझे तब लगा जब 15 दिनों के ही भीतर
छोटानागपुर एक्सप्रेस को सी श्रेणी में एप्रूव्ड कर लिए जाने की आधिकारिक सूचना हमारे
पास भेज दी गयी।
तो ऐसे थे बिहार विभूति कृष्ण बल्लभ सहाय। बाहर
से गरम। भीतर से नरम। मेरी तरह सैकड़ों हज़ारों
लोग उनके स्वाभाव के विरोधाभास के कारण ही उन्हें सही रूप से पहचान न सके। ऐसे लोगों
की संख्या तो काफी अधिक है जिन्हें उनकी (कृष्ण बल्लभ बाबू की) मृत्यु के बाद ही समझ
में आया कि उन्होंने क्या खो दिया है।
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