FROM THE BLOGGER’S LIBRARY: REMEMBERING K.B.SAHAY:9
श्री कृष्ण कुमार सिन्हा सहाय जी के प्रमुख कार्यकर्ताओं में से एक एवं उनके निकट संपर्क में रहने वाले। श्री सिन्हा ने श्री सहाय के कुछ अछूते पहलूओं को प्रस्तुत किया है।
आप चाहे दूर दराज के छोटे से गाँव में हों या पटना, रांची, जमशेदपुर जैसे नगर में हों;
चाहे सचिवालय में हों या सदाकत आश्रम में; किसी बौद्धिक समूह के बीच हों या गाँव-गंवार के झुण्ड में - अगर आप बाबू कृष्ण बल्लभ सहाय कहते हैं एक बार जिज्ञासा
भरी आँखें आपकी ओर उठ जाएगी लेकिन अगर आप सिर्फ "के.बी." कहते हैं तो उनकी
मंद-मंद मुस्कराहट बतला देंगी कि वे समझ गए है कि आप किस व्यक्तित्व की चर्चा कर रहे
हैं।
यह प्रसिद्धि यश और गौरव के अभानार्थक नहीं हैं। इसके साथ एक ऐसी अपनत्व की भावना जुडी है जो साफ़ तौर
से बतलाती है कि कृष्ण बल्लभ बाबू ने लोगों को अपना माना और लोगों ने स्नेह से अपना
कर "के.बी." नामकरण अमर कर दिया। सन 1919 में प्रथम श्रेणी में प्रथम डिग्री, वह भी
अंग्रेजी में प्राप्त करने वाले "के.बी." ने आई.सी.एस. होना पसंद नहीं किया। स्वतंत्रता संग्राम का एक मामूली सैनिक बनना स्वीकार
किया। इस प्रकार उन्होनें
सिद्ध किया कि व्यक्तित्व का निखार त्याग में होता है भोग में नहीं।
1921 से ही त्याग और सेवा का मार्ग अपनाने वाले
"के.बी." ने श्रद्धेय राजेंद्र बाबू के साथ सदाकत आश्रम में अध्यापन का कार्य
किया। 1923 में कौंसिल
के सदय चुने गए। 1937 में डॉ. श्री
कृष्ण सिन्हा के नेतृत्व में गठित सरकार में पार्लियामेंट्री सेक्रेटरी के पद पर आसीन
हुए। पद कुछ ख़ास नहीं
था पर योग्यता और क्षमता मिटटी को सोना बना देती है।"के.बी." ने कुछ ऐसा ही किया और डॉ श्री
कृष्ण सिन्हा और श्री अनुग्रह बाबू के बाद तीसरा स्थान "के.बी." का ही रहा। वे खुद इससे अनजान रहे पर लोग यही मानते रहे।
माना जाता है कि बाप बेटे को उच्च पद पर देख कर खुश
होता है और बेटा बाप के आँखों में ख़ुशी की आंसू देख कर।"के.बी."इसके अपवाद नहीं थे। कृष्ण बल्लभ बाबू के शब्दों में ही प्रस्तुत है एक
छोटी सी घटना:
"मैं उस समय रांची में था। मेरे पिताजी मुझसे मिलाने आये हुए थे। उस समय पुलिस आई.जी. श्री अलख नारायण साहब एक फाइल
के सिलसिले में मुझसे मिलने मेरे बंगले पर आये। मैंने सोचा कि पिताजी को खुश किया जाए। यह सोच कर मैं भी आई.जी. साहब के साथ अपने चैम्बर
से बाहर निकला। मेरे पिताजी बाहर
हाथ-मुँह धो रहे थे। आई.जी. साहब उन्हें
नहीं पहचानते थे। पिताजी की नज़र
जब आई.जी. साहब की वर्दी पर पड़ी तब वे घबड़ाये। मैंने पिताजी का परिचय अलख नारायण जी से करवाया। उन्होनें पिताजी को श्रद्धा से प्रणाम किया। अलख नारायण जी को विदा कर जब मैं लौटा तब मैंने देखा
कि पिताजी की आँखों में ख़ुशी के आंसूं छलक रहे थे। एक मामूली दरोगा को आई जी ने इतनी इज़्ज़त दी यही भावना
पिताजी में थी और उनकी ख़ुशी का राज़ था कि उनका बेटा इतना बड़ा आदमी बन गया है।
एक दूसरी घटना है। जमींदारी उन्मूलन से जुडी हुई राजस्व मंत्री के रूप
में कृष्ण बल्लभ बाबू ने जमींदारी उन्मूलन विधेयक पेश किया था।
जंगलों की सुरक्षा के लिए विधेयक बनाया जा रहा था। बिहार की राजनीति में प्रभाव रखने वाले ज़मींदार उनका
विरोध कर रहे थे। कठिनाईयां डग-डग
पर थी। ऐसे कठिन समय में
भी वे लोगों से मुस्करा कर मिलते रहे और अपनी धारणा को उन्होनें निम्न शब्दों में विधान
सभा में व्यक्त किया था:
“कबीरा खड़ा बाजार में लिए लुकाठी हाथ
जो घर जारे आपणा, चले हमारे साथ”
सदस्यों ने इस भावना का कद्र किया और विधेयक हर्ष
ध्वनि के बीच सदन में पास हो गया।
कहते हैं बछिया जिस खूंटे से बंधती है शाम होने पर
उस घर को पहचानती है। यह उक्ति कृष्ण
बल्लभ बाबू पर सटीक बैठती थी। वे चाहे जहां से
भी चुनाव जीतें हो जिस जगह पर भी मान सम्मान पाये हों, हज़ारीबाग़ को वे कभी नहीं भूले। यह वह शहर था जहां शायद उनको राहत मिलती थी अपनापन
मिलता था। संस्मरण तो अनेक
हैं पर स्थान के अभाव में बस इतना अवश्य कहना चाहूंगा:
- वे हज़ारीबाग़ को कभी नहीं भूले और हज़ारीबाग़ आज भी
उन्हें याद करता है- स्नेह से।"
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