FROM THE BLOGGER’S LIBRARY: REMEMBERING K.B.SAHAY:8
श्री तारकेश्वर प्रसाद |
महान स्वतंत्रता सेनानी तथा बिहार के भूतपूर्व मुख्य मंत्री स्वर्गीय कृष्ण बल्लभ सहाय मेरे बड़े चाचा थे और उनसे मुझे सदा ही पिता का प्यार मिला। इस नाते मैं चाहूंगा उनके जीवन के कुछेक महत्वपूर्ण पहलुओं पर प्रकाश पड़े और लोगों को उनके विषय में सही-सही जानकारी प्राप्त हो।
यह एक आम भ्रान्ति है कि बाबू कृष्ण बल्लभ सहाय का जन्म हज़ारीबाग़ ज़िले में हुआ था और अपने दो भाइयों में वे बड़े थे। वास्तविकता यह है कि उनके पिता स्वर्गीय बाबू गंगा प्रसाद पटना जिला के फतुआ थानान्तर्गत शेखपुरा नमक ग्राम के निवासी थे, जहाँ करीब चार शताब्दी पूर्व उनके पूर्वज प्रमुख सोन नदी के कछार पर बसे कोईलवर ग्राम से आये थे। उनके पूर्वज के एक सदस्य, जो वहां किसी नवाब के यहाँ एक मुलाजिम थे, बाढ़ के कारण विवश होकर शेखपुरा चले गए। यहाँ भी उसी नवाब की जमींदारी थी और इसकी देखभाल का जिम्मा उन्होनें संभाल लिया। श्री कृष्ण बल्लभ सहाय के पिता श्री गंगा प्रसाद अंग्रेजी सरकार के पुलिस विभाग में मामूली पद पर नियुक्त हुए और तीस वर्ष की नौकरी के बाद उन्होनें 1930 में अवकाश प्राप्त किया।
बाबू गंगा प्रसाद के कुल पांच संतान थे- जिनमें सबसे बड़ी पुत्री के बाद तीन पुत्र और फिर सबसे छोटी पुत्री थी। पुत्रों में बाबू कृष्ण बल्लभ सहाय सबसे बड़े थे और डॉ. दामोदर प्रसाद सबसे छोटे। उन दोनों के बीच उनके मंझले भाई बाबू नागेश्वर प्रसाद थे, जिनका कि मैं एकलौता पुत्र हूँ बाबू नागेश्वर प्रसाद, जो बिाहर सरकार में कार्यरत थे, का 1931 में लम्बी बीमारी के बाद देहांत हो गया।
बाबू गंगा प्रसाद के सभी पुत्रों की आरंभिक शिक्षा शेखपुरा में हुई। शेखपुरा के बाद पढाई के लिए बाबू कृष्ण बल्लभ सहाय का दाखिल पटना के स्कूल में कराया गया। उस समय उनके पिता का तबादला हज़ारीबाग़ ज़िले में हो गया और इसी बीच उनकी बड़ी बहन बाल विधवा हो गयी। अतएव अपने सभी बच्चों को साथ रखने के उद्देश्य से बाबू गंगा प्रसाद ने हज़ारीबाग़ शहर के बदम बाजार मोहल्ले में एक मकान ले लिया।
बाबू कृष्ण बल्लभ सहाय ने हज़ारीबाग़ के ही संत कोलम्बा कॉलेज से अंग्रेजी विषय में बी. ए. (प्रतिष्ठा) की परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त कर स्वर्ण पदक ग्रहण किया। उस समय बिहार और उड़ीसा को मिला कर एक ही विश्वविद्यालय हुआ करता था। अंग्रेजी भाषा में प्रथम स्थान से उत्तीर्ण होने के कारण आई.सी.एस. के लिए बड़ी आसानी से उनके नाम का चुनाव हो गया। लेकिन इसमें हैरानी की बात नहीं थी क्योंकि जैसा कि मेरे दादाजी कहा करते थे कि उनका यह लड़का अपने छात्र जीवन में हमेशा ही प्रथम स्थान प्राप्त करता रहा। हाँ,आश्चर्य उन्हें तब हुआ जब उन्होनें देखा कि उनका यह पुत्र चयन के बावजूद आई. सी.एस. पद को ठुकड़ा दिया 1921 में गांधीजी के आह्वाहन पर पर उन्होनें लंदन जाने के लिए बनवाए गए अपने सारे अंग्रेजी पोशाकों की आहुति दे दी। बूढ़े हो चुके पिता को अपने ज्येष्ठ पुत्र का आई.सी.एस. जैसे पद को ठुकड़ा देने का यह रवैया बिलकुल ही नहीं भाया। बड़े लड़के होने के नाते घर परिवार के प्रति उनकी जवाबदेही क्या है, इस प्रश्न से ज्यादा महत्वपूर्ण श्री कृष्ण बल्लभ सहाय जी के लिए यह था कि वे किस प्रकार अपनी मातृभूमि को अंग्रेज़ों की ग़ुलामी से मुक्त कराएं। अतः राष्ट्र के प्रति उनके कर्तव्य-बोध ने उन्हें स्वतंत्रता-संग्राम में भाग लेने के लिए प्रेरित किया और उन्होनें स्वयं को देश की सेवा में समर्पित कर दिया। बाबू कृष्ण बल्लभ सहाय ऐसे कर्मयोगी थे, जिन्हे अंग्रेजी साम्राज्य की चमक-दमक अपनी ओर जरा भी आकर्षित नहीं कर पायी। श्री रामचन्द्र जी के लिए कही गयी संत तुलसीदास की यह चौपाई उन पर बिलकुल चरितार्थ होती हैं:
नाहीं राम राज के भूखे ।
धरम धुरीन विषय इस रूखे ।।
बाबू कृष्ण बल्लभ सहाय को मैं बड़का बाबू कह कर पुकारता था। मेरे पिताजी का अकस्मात निधन हो गया था इसलिए वे मेरे पिता तुल्य थे। मुझे भी उनसे सदैव ही पिता का स्नेह मिलता रहा। यहां मुझे अपने बचपन की एक घटना याद आती है। उस समय परिवार के अधिकतर सदस्य पटना के दरियापुर गोल में रहते थे, जहां उनके अनुज चिकित्सक थे। आंदोलन में अपनी सक्रिय भूमिका के कारण बड़का बाबू के लिए हमारे साथ रह पाना कठिन था, लेकिन यदा-कदा वे हमारे बीच आया करते थे वे जब भी घर आते थे अपना अधिक से अधिक समय परिवार के सदस्यों खास कर हम बच्चों के साथ बिताया करते थे। वे हमेशा मुझे अपनी गोद में रखते और लाड प्यार करते। उन दिनों मैं उन्हें "बाबूजी" कहा करता था। एक दिन गुतुल (उनका चौथा पुत्र) जो उम्र में मुझसे छोटा है, ने मुझे उनके गोद में बैठा देख कर कहा "हटो ये मेरे बाबूजी हैं तुम्हारे नहीं" यह सुनते ही मैं रो पड़ा और बाबूजी मुझे अपने गालों से लगाकर बार बार चूमते हुए कहते रहे। "नहीँ बेटा, मैं ही तुम्हारा बाबूजी हूँ।"
यह कहते-कहते उनकी आँखों में आँसू छलक आये। इस बात का पता तो मुझे बाद में चला कि मैं ही गलत था और गुतुल सही था किन्तु उनके स्नेह ने हमें कभी ऐसा महसूस होने नहीँ दिया। उनके स्नेह भरे स्वाभाव और समग्र व्यक्तित्व का यह एक मिसाल भर है।
बड़का बाबू सांसारिक होते हुए भी एक कर्मयोगी थे। एक विशाल परिवार की जिम्मेवारी सम्भालना उनकी मातृभूमि की सेवा में कभी आड़े नहीँ आया। यह मेरा स्वयं का देखा हुआ है कि उनके जीवन में कितनी सादगी थी। वह बिना थकान महसूस किये मीलों पैदल चल सकते थे। उनके ललाट पर चिंतन की रेखा खींची रहती थी और वे सदा गहन चिंतन में लीन रहते थे वह एक उदार व्यक्तित्व के स्वामी थे और हर व्यक्ति के लिए उनका द्वार सदा खुला रहता था। वह ऐसे कोंग्रेसियों का विशेष ध्यान रखते थे जिन्होनें आज़ादी की लड़ाई में कंधे से कंधा मिला कर उनके साथ संघर्ष किया था। उनके लिए वे कर्ण के समान दानी थे और उनपर संपत्ति लुटाना उनके लिए आम बात थी। सरस्वती की भी उन पर असीम कृपा थी। वे गौतम जैसे ज्ञानी थे। शेक्सपियर की रचनाओं के साथ साथ उन्हें रामायण, कबीर और रहीम के दोहे कंठस्थ थे। एक बार की बात मुझे याद है कि जब वह 1945 में जेल से छूट कर आये हुए थे और उनका स्वास्थ्य बिगड़ गया था। उस समय वे फ़ाइलेरिया से ग्रसित थे। तेज बुखार के कारण चेतनाशून्य हो जाने पर भी मैंने उन्हें शेक्सपियर की पंक्तियों का वाचन करता हुआ पाया हूँ। मैं समझता हूँ कि राजनीतिक के बजाय यदि उन्होनें विश्वविद्यालय में शिक्षण को अपना पेश बनाया होता, तो निश्चय ही शेक्सपियर की रचनाओं पर अनुसन्धान करते। वे अपने इरादे के बिलकुल पक्के थे। किसी काम को ले लेने के बाद, अपने रास्ते से हटना उन्होनें नहीँ सीखा। परन्तु किसी तरह का निर्णय वह तभी लेते थे, जब उनका अंतःकरण उन्हें इसकी इजाजत देता। काम को एक बार ठान लेने पर उसे पूरा कर ही वह रुकते, भले ही उसका परिणाम कितना ही बुरा क्यों न हो। वे सच्चे कर्मयोगी थे। और गीता का आदर्श वाक्य:"कर्मण्ये वाधिकारस्ते माँ फलेषु कदाचन" जैसे उन्होनें अपने जीवन में ढाल लिया था। ऐसा था बाबू कृष्ण बल्लभ सहाय का व्यक्तित्व, जिन्हें बिहार की जनता लौह पुरुष के नाम से पुकारती थी।
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