Sunday 29 December 2019

कृष्ण बल्लभ सहाय: एक विलक्षण जीवन गाथा


कृष्ण बल्लभ सहाय: एक विलक्षण जीवन गाथा

राजेश सहाय

चित्रांश परिवार, कदमा, जमशेदपुर की पचासवीं वर्ष स्मृति के अवसर पर 'स्वरांश 2018' में प्रकाशित 

कृष्ण बल्लभ सहाय या संक्षेप में के. बी. सहाय, बिहार के उन कतिपय यशश्वी नेताओं में थे, जिन्होनें बिहार और ख़ास कर छोटानागपुर क्षेत्र के सामाजिक और आर्थिक उन्नति में बहुमूल्य योगदान किया है के. बी. सहाय छोटानागपुर के मूल निवासी नहीं थे पर उन्होनें इसी क्षेत्र को को ख़ास कर हजारीबाग जिला को अपना कर्मभूमि बनाया और सर्वस्व जीवन इस क्षेत्र की उन्नति और विकास में लगा दिया हजारीबाग में उनका बचपन बीता था, हजारीबाग से ही उन्होनें शिक्षा ग्रहण किया, इसी भूमि पर उन्होनें अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष शुरू किया और बाद में भूमि सुधार कानूनों को लागू करने के लिए भी संघर्ष किया और हजारीबाग की पावन भूमि में ही उनका निधन हुआदृढ संकल्प और कड़ी मेहनत से मनुष्य कठिन परिस्थितियों में भी किस प्रकार अपना मार्ग प्रशस्त कर सकता है, कृष्ण बल्लभ सहाय का जीवन इसका बेहतरीन उदाहरण है कृष्ण बल्लभ सहाय ने एक स्वतंत्र भारत और एक प्रगतिशील बिहार का सपना देखा था और इस दिशा में वे जीवन पर्यन्त प्रयासरत रहे


श्री कृष्णबल्लभ सहाय का जन्म गाँव शेखपुरा जिला पटना के एक साधारण कायस्थ मुंशी के घर 31दिसम्बर 1898 को हुआइनके पिता मुंशी गंगा प्रसाद ब्रिटिश सरकार में दरोगा थे और इनकी माता धर्मपरायण गृहणी थीदस वर्ष की आयु तक इनका जीवन शेखपुरा के ग्रामीण इलाके में ही बीता। 1908 में इनके पिता का तबादला हज़ारीबाग हो गया और मुंशीजी अपने साथ बालक कृष्ण बल्लभ को भी हज़ारीबाग ले आयेइसके बाद हज़ारीबाग ही कृष्णबल्लभ सहाय की कर्मभूमि बन गयीहज़ारीबाग में इनका नामांकन जिला स्कूल में हो गयापढने-लिखने में ये कुशाग्र थे। 1919 में संत कोलंबस कॉलेज, हजारीबाग से इन्होने अंग्रेजी में स्तानाकोत्तर की परीक्षा में पूरे विश्वविद्यालय में प्रथम दर्ज़ा हासिल किया इस अवसर पर इन्हें तात्कालिक राज्यपाल श्री गेट महोदय ने "गेट स्वर्ण पदक" से सम्मानित भी कियाशिक्षा के उपरान्त पिता की मर्ज़ी के खिलाफ ये स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हो गएस्वतंत्रता संग्राम का अध्याय 1919 के असहयोग आंदोलन से शुरू हुआइसी काल में "अमृत बाजार पत्रिका" के हज़ारीबाग संवाददाता के रूप में ये तात्कालिक हज़ारीबाग जिला (जो अब हजारीबाग, कोडरमा, गिरिडीह, बोकारो, रामगढ, चतरा जिलों  में बँट गया है) और गोमिया क्षेत्र में काफी कार्यशील रहेअपनी ओजस्वी लेखन शैली से आमजन में स्वतंत्रता के प्रति जागरूकता कायम करने में वे खासे सफल भी रहेयही वह दौर था जब श्री सहाय ने गरीबी और भूखमरी को करीब से देखाकिसानों और भूमिहीन मज़दूरों की दशा ने इन्हें द्रवित किया और इनकी दशा को सुधारने के उनके संकल्प को पुख्ता कियायही संकल्प इन्हें स्वतंत्रता बाद ज़मींदारों से लोहा लेने के लिए भी आत्मबल प्रदान कियास्वतंत्रता संग्राम के दौरान इन्होनें न केवल अंग्रेज़ों के खिलाफ आंदोलन में भाग लिया वरन किसान आंदोलन में भी बढ़-चढ़ कर भाग लियाकई मौकों पर इन्होने किसानों को नेतृत्व प्रदान किया और ज़मींदारों और अंग्रेजी हुकूमत के समक्ष उनकी समस्याओं को उठाया और किसान पंचायत के माध्यम से किसानों को अपने अधिकारों के प्रति जागृत कियाइसी दौरान वे स्वामी सहजानंद के किसान आंदोलन से भी जुड़ेकृष्ण बल्लभ सहाय किसी भी समस्या के तह तक जानें में विश्वास करते थेजब वे किसानों के विभिन्न मुद्दे से जुड़े तब उन्होंने भूमि बंदोबस्ती से सम्बंधित ब्रिटिश सरकार द्वारा लागू सभी व्यवस्थाओं यथा ज़मींदारी व्यवस्था, रैयतबारी व्यवस्था, महलबारी व्यवस्था और परमानेंट सेटलमेंट एक्ट 1793 का गहन अध्ययन कियायहाँ तक कि उन्होंने कलकत्ता के राष्ट्रीय पुस्तकालय में काफी समय गुज़ारा ताकि कानून का जवाब कानून की ही भाषा में दिया जा सकेयह किसी भी कार्य को पूरी तैयारी से योजनाबद्ध तरीके से करने के उनके जज़्बे को दर्शाता हैस्वतंत्रता संग्राम के दरम्यान श्री कृष्ण बल्लभ बाबू गांधीजी के अन्त्योदय आन्दोलन  से भी जुड़े जिसने उन्हें दलितों और हरिजनों के करीब लाया 11 मई 1942 को डॉ. राजेंद्र प्रसाद की अध्यक्षता में शाहाबाद, कुदरा में इन्होने विशाल किसान सभा का आयोजन किया जहाँ किसानों से जुड़े मुद्दे उठाये गए और सरकार का ध्यान इस ओर आकर्षित किया गया इसी से प्रेरित हो कर श्रीकृष्ण सिन्हा ने इन्हें मुंगेर आमंत्रित किया मुंगेर के तारापुर में "बनैली राज की किसानों पर जुल्म" विषय पर रैली का सफल आयोजन किया गया जिसमे श्री जे. बी. कृपलानी ने भी भाग लिया



कृष्ण बल्लभ सहाय ने गांधीजी द्वारा आहूत हर आंदोलन में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया फिर वह चाहे 1919-20 का असहयोग आन्दोलन रहा हो या फिर 1929-30 का सविनय अवज्ञा आन्दोलन, 1931-32 का नमक सत्याग्रह रहा हो या फिर 1942 का "भारत छोडो" आन्दोलन: श्री सहाय ने सभी आंदोलनों में कांग्रेस और देशवासियों का हज़ारीबाग और छोटानागपुर क्षेत्र में नेतृत्व किया और हर अवसर पर जेल भी गए 1928 में साइमन कमीशन के विरोध का हज़ारीबाग में नेतृत्व करते हुए वे पहली दफा जेल गए उसके बाद तो जेल जाने और आने का सिलसिला जो शुरू हुआ वह स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद ही थमा। 1930-1934 के बीच विभिन्न अवसरों पर चार बार और उसके बाद 'भारत छोडो' आंदोलन के समय पुनः उन्हें कारावास की सजा हुई 9-10 नवंबर 1942 को दीपावली की रात उन्होने जय प्रकाश नारायण और उनके साथियों यथा रामनंदन मिश्र, योगेन्द्र शुक्ल, सूरज नारायण सिंह, श्री गुलाब चाँद गुप्ता और श्री शालिग्राम सिंह को जेल से भगाने में अहम् भूमिका अदा किया, जिसका वर्णन राष्ट्रकवि श्री बेनीपुरी ने अपनी पुस्तक "ज़ंजीरें और दीवारें" में इस प्रकार किया है-" अपनी सफलता पर हमें गर्व हुआ। यह जोर दे कर कहा जा सकता है कि यदि कृष्णबल्लभ बाबू (के. बी. सहाय), सारंगधर बाबू और जदुभाई ने मदद ना की होती, तो उस रात में ही भांडा फूट जाता और तब यह भी सम्भव है कि भागे हुए लोग गिरफ्तार कर लिए जाते, क्योंकि वे लोग गाँव का रास्ता भूल कर जंगल-जंगल रात भर भटकते रहे थे। ज़ंजीरें लटकती रह गयी, दीवारें खड़ी ताकती रही और लो, बंदी बाहर हो गए।" पुरस्कार स्वरुप इन्हें सश्रम कारावास की सजा हुई और इन्हें भागलपुर जेल में भेज दिया गया


स्वतंत्रता संग्राम के दौरान ही 1925 में कृष्ण बल्लभ सहाय होम-रूल के तहत बिहार विधान परिषद् में सदस्य बनें। 1937 में कांग्रेस ने गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया एक्ट 1935 के तहत सरकार में भागीदारी का फैसला लिया और बिहार में श्रीकृष्ण सिन्हा के मंत्रिमंडल में कृष्णबल्लभ सहाय संसदीय सचिव बनाये गए 28 महीने के कांग्रेस शासन में कई अभूतपूर्व निर्णय लिए गए वर्ष 1911 से मालगुजारी में की गई वृद्धि को वापस लिया गया और सामान्य सालाना मालगुजारी में भी कटौती की गई दुसरे विश्व युद्ध के शुरू होने के बाद कांग्रेस ने सरकार से 1939 में इस्तीफा दे दिया और इसके बाद शुरू हुआ स्वतंत्रता-संग्राम का अंतिम दौर जब सारा देश गाँधी के "भारत छोडो" आंदोलन के आवाहन पर सड़क पर उतर आया और अंततः 1947 में देश स्वतंत्र हुआ


श्री कृष्ण बल्लभ सहाय की प्रतिभा को असली चुनौती स्वतंत्रता पश्चात तब मिली जब केंद्र और राज्यों में कांग्रेस सरकारों का गठन हुआ बिहार में श्रीकृष्ण सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस सरकार का गठन हुआ और श्री सहाय इनके मंत्रिमंडल में राजस्व मंत्री बनाये गए। 16 अप्रैल 1946 को मंत्री बनने से लेकर अगले 11 वर्ष श्री सहाय के जीवन के सबसे महत्वपूर्ण और सफल वर्ष माने जा सकते हैंइस दौरान न केवल बिहार वरन दिल्ली की राजनीति में भी ये केंद्र में रहेबतौर राजस्व मंत्री श्री कृष्ण बल्लभ सहाय ने दो महत्वपूर्ण विधेयक सदन में पेश किये जिस पर क़ानून बना पहला विधेयक बिहार भूमि सुधार (एक्ट 30, 1950) था और दूसरा बिहार लगान (संशोधन) एक्ट 1955 था, जिसके द्वारा छोटानागपुर  टीनेन्सी एक्ट और संथाल परगना टीनेन्सी एक्ट में भी संशोधन किये गए के.बी.सहाय ज़मींदारी उन्मूलन क़ानून द्वारा दलित और भूमिहीन खेतिहरों को उनका हक दिलाने को कृतसंकल्प थे। 1946-1948 के काल में श्री सहाय को ज़मींदारों का अभूतपूर्व विरोध का सामना करना पड़ा यह विरोध इतना प्रचंड था क़ि एक समय गांधीजी भी क़ानून द्वारा सामाजिक समानता लाने के उनके इस प्रयास के प्रति सशंकित हो गएगांधीजी का विचार था कि ज़मींदारी उन्मूलन जैसा क़ानून समाज में फूट पैदा कर सकता है और सामाजिक समरसता को क्षीण-भिन्न कर सकता हैअग्रेजों ने समाज के सवर्णों को ही ज़मींदार बनाया थाइस विधेयक की वजह से श्री के.बी.सहाय सवर्णों के परम शत्रु बन गएउन्होंने श्री सहाय के विरोध में कोई कसर नहीं छोड़ा ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रदत सम्मानों और मेडलों का सार्वजनिक प्रदर्शन करते हुए इनका समूह एकजुट होकर अपनी देशभक्ति के उपादान में ज़मींदारी बरकरार रखने के लिए तात्कालिक राष्ट्रपति डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद से अपील कियाइन विरोधों का सामना करते हुए श्री के.बी.सहाय अपने लक्ष्य से जरा भी विचलित नहीं हुए जब ज़मींदारों ने अपील और विरोध का कोई असर नहीं देखा तो उन्होंने श्री सहाय पर कातिलाना हमले भी करवाए यह श्री सहाय का भाग्य था वे इस हमले में बच गए खून से सनी पट्टी सिर पर बांधे जब श्री सहाय ने बिहार विधान-सभा में ज़मींदारी-उन्मूलन विधेयक प्रस्तुत किया तो वे ज़मींदारी-उन्मूलन के संघर्ष के सच्चे प्रतीक नज़र आ रहे थेके.बी.सहाय के नेतृत्व में बिहार देश का पहला राज्य था जिसने ज़मींदारी-उन्मूलन से सम्बंधित विधेयक पारित किया था इस क़ानून द्वारा अब तक जिस ज़मीन, वन, तालाब, बाज़ार और खानों आदि पर ज़मींदारों की मिलकियत थी, वो राज्य सरकार के अधीन आ गईराज्य सरकार को यह अधिकार मिला कि इस संपत्ति का वितरण भूमिहीन कृषक, दलितों और हरिजनों के बीच करेप्रत्येक जोत की सीमा निर्धारित कर दी गयीइस एक क़ानून से ज़मींदारों की सारी मिलकियत का अंत हो गया जो उन्होंने अग्रेज़ी शासन से प्राप्त किये थे। 1955 में बिहार टीनेन्सी (संशोधन) एक्ट द्वारा श्री सहाय ने बटाईदारी व्यवस्था की खामियों को दूर करने के लिए बिहार टीनेन्सी क़ानून 1885 में भी संशोधन करते हुए रैयत (भूमिहीन कृषक) को बिना कारण बेदखल करने के भू-स्वामियों के अधिकारों को निरस्त किया और जिला अधिकारी को यह अधिकार दिया कि वे रैयत (भूमिहीन कृषक) के हितों की रक्षा करेंऐसे संशोधन छोटानागपुर टीनेन्सी एक्ट और संथाल परगना टीनेन्सी एक्ट में भी किये गए  


दरभंगा नरेश डॉक्टर कामेश्वर सिंह के नेतृत्व में ज़मींदारों ने इस क़ानून को पटना उच्च न्यायालय में चुनौती दी, जिसने इस क़ानून को निरस्त कर दियाबिहार सरकार ने इस फैसले के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में अपील दाखिल कियायही वह दौर था जब इस क़ानून को बहाल रखने के लिए भारत के संविधान में प्रथम बार संशोधन करने की नौबत आन पड़ी भारत के प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरु ने 10 मई 1950 को प्रथम संविधान संशोधन प्रस्ताव संसद के समक्ष रखते हुए इसके औचित्य और उद्देश्य पर प्रकाश डाला इस संशोधन के बाद नवां अनुसूची को संविधान में जोड़ा गया और भूमि-सुधार से सम्बंधित सभी कानूनों को इनमे समाहित किया गया ताकि मौलिक अधिकारों के हनन के आधार पर इन्हें चुनौती नहीं दी जा सके 


ज़मींदारी-उन्मूलन से सम्बंधित क़ानून हालाँकि लागू हो गया किन्तु इस एक क़ानून ने श्री के. बी. सहाय को समस्त अगड़ी जाति का जीवनपर्यंत दुश्मन बना दियाबिहार की जाति आधारित सामाजिक व्यवस्था, जिसमे सवर्णों का आधिपत्य था, पर यह क़ानून सीधा प्रहार थादलितों के मूंह में जबान देने का पहला प्रयास सामजिक न्याय की पहली विजय इस क़ानून के दूरगामी परिणाम हुए आज यदि दलित जागृत हुए हैं तो इसका श्रीगणेश इसी क़ानून से हुआ सवर्णों का विरोध ने दलितों को संगठित होने पर विवश कियासामाजिक न्याय की बात जो नेता आज करते हैं उस संघर्ष को इस मुकाम तक पहुँचाने का पहला पायदान यह क़ानून थाइस क़ानून ने बिहार की सामजिक व्यवस्था में खलबली मचा दिया परन्तु इस सामाजिक संघर्ष का सबसे बड़ा खामियाजा श्री के.बी.सहाय को भुगतना पड़ासवर्ण लामबंद हो कर श्री सहाय के पीछे पड़ गएज़मींदारों के इस गोलबंद विरोध का नतीजा था कि 1957 के चुनावों में श्री के.बी.सहाय को हार का सामना करना पड़ा। 1962 में वो पुनः जीते और कामराज योजना के तहत जब तात्कालिक मुख्यमंत्री श्री विनोदानंद  झा हटे तो कांग्रेस विधायक मंडल के चुनाव में श्री बीरचंद पटेल को हरा कर के.बी.सहाय 2 अक्टूबर 1963 को बिहार के मुख्यमंत्री बने


श्री कृष्णबल्लभ सहाय का मुख्यमंत्री काल बिहार की प्रगति और उन्नत्ति के लिए जाना जाता है उनके कार्यकाल में ही 1963 में हैवी इलेक्ट्रिकल कारपोरेशन (एच सी) हटिया का उदघाटन पंडित जवाहरलाल नेहरु के कर कमलों से हुआ और पतरातू थर्मल भी कार्य करना शुरू कियाI कोडरमा में ओद्योगिक एस्टेट बनाया गया बोकारो इस्पात संयंत्र की आधारशिला भी उनके कार्यकाल में ही रखी गईI स्थानीय संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए 1965 में रांची में भारतीय संस्कृति अकादमी की स्थापना हुई कोडरमा में सैनिक स्कूल भी खोला गया और प्रत्येक जिले में कॉलेज और स्कूल खोले गए जिनमे से कई तो अब भी उनके नाम पर ही हैं। 1964 में रांची में ही राजेंद्र चिकित्सा संस्थान की स्थापना हुई बिहार और खास कर छोटानागपुर के हितों की रक्षा के लिए वे सदा सजग रहे और इस क्रम में कई बार उनका टकराव केंद्र सरकार से हुआ कृष्ण बल्लभ सहाय उन कतिपय नेताओं में से थे जिन्हें उनके आलोचक भी एक योग्य प्रशासक मानता था


पर 1967 आते-आते परिस्थितियां श्री कृष्ण बल्लभ सहाय के प्रतिकूल बनने लगी। 1966-67 में लगातार दुसरे वर्ष बिहार में राज्यब्यापी सूखा पड़ा और अनाज संकट ने विकत रूप अख्तियार कर लिया केंद्र सरकार की मदद समय पर नहीं मिलने पर श्री सहाय ने कालाबाजारियों पर सख्त कारवाई के आदेश दिए पर अनाज की समस्या ज्यों की त्यों बनी रही और आम जनता का आक्रोश श्री सहाय पर ही उतरा इसी समय राज्य कर्मचारी संघ भी वेतन बढाने के मुद्दे को लेकर हड़ताल पर चले गए विपक्षी नेताओं की अगुवाई में इन विषम स्थिति शुरू हुआ छात्र आन्दोलन और उनपर श्री सहाय की पुलिस कारवाई के आदेश ने मानो आग में घी का काम किया 1967 के चुनाव में सारी बाज़ी श्री सहाय के पलट थी और इसका परिणाम हुआ कि इस चुनाव के बाद बिहार में कांग्रेस शासन का अंत हो गया


इसके बाद भी श्री के.बी.सहाय बिहार की राजनीति में सतत क्रियाशील रहे। 29 मई 1974 को वे बिहार विधान परिषद् में मुखिया/शिक्षक सीट से चुने गएजून में उन्होनें सदस्यता और गोपनीयता की शपथ लीवे अपने लक्ष्य के प्रति 76 वर्ष के इस उम्र में भी सजग थेउन्होनें कहा था क़ि इस पारी में वे दलितों के लिए अंतिम लडाई लड़ेगें और ज़मींदारों द्वारा अपनाये गए सारे हथकंडों का मूंहतोड़ जवाब देंगेकिन्तु यह होना न था। 3 जून को पटना से हजारीबाग अपने घर लौटने के क्रम में हजारीबाग से 5 किलोमीटर दूर ही एक ट्रक ने उनकी गाडी में जोरदार टक्कर मारी गई जिसमे चोट लगने से उनकी मृत्यु हो गई


के. बी. सहाय को दलितों के हक के लिए संघर्ष करना बड़ा ही महंगा पड़ाज़मींदारी उन्मूलन के इस संग्राम में कृष्ण बल्लभ सहाय अभिमन्यु की तरह अकेले थे के.बी.सहाय द्वारा विधायी क़ानून द्वारा सामाजिक परिवर्तन लाने के प्रयास पर भले ही प्रश्न उठाये जाए पर यह भी सच था कि तात्कालिक परिस्थितियों में इसके अलावा और कोई दूसरा रास्ता भी नहीं था आचार्य विनोबा भावे ने "भूदान" और "ग्रामदान" द्वारा ज़मींदारों से स्वेक्षा से भूमि दान करने का सविनय अनुरोध किया और बिहार में दर-दर ज़मींदारों के सामने हाथ फैलाये, किन्तु उनकी अपील का ज़मींदारों पर कोई विशेष असर नहीं हुआ इससे मर्माहत हो कर ही जयप्रकाश नारायण जी को कहना पड़ा था कि "हमने बिहार में 18 महीने से बाबा को रोक कर रखा है इस उम्मीद पर कि बिहार के ज़मींदार 32 लाख एकर ज़मीन दान देने के अपने वादे को निभायेगेंकिन्तु हम अब तक अपने वादे को पूरा नहीं कर पाए, जो हमारे लिए शर्म की बात है


श्री सहाय के हौसले और हिम्मत का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है क़ि उनके बाद बिहार में फिर किसी नेता ने, चाहे वह किसी भी दल का रहा हो और अपने को दलितों और भूमिहीन किसानों का कितना भी बड़ा हिमायती क्यों न मानता हो, ने भूमि सुधार के लिए कोई सार्थक कदम नहीं उठाया कर्पूरी ठाकुर के ज़माने में कोसी क्षेत्र में ज़मींदारों के मिलकियत में ज़ोतेदारों द्वारा की जा रही खेती के आकडे संकलित करने के प्रयास हुए, पर कुछ दिनों बाद इसे इस कारण रोक दिया गया क्योंकि परोक्ष रूप से ज़मीन के असली ज़ोतेदारों के नाम उजागर हो जातेवर्तमान मुख्यमंत्री नितीश कुमार ने भी श्री.डी.बंदोपाध्याय की अध्यक्षता में एक समिति का गठन बड़े ही जोश-खरोश किया थाश्री डी.बंदोपाध्याय की भूमि सुधार से सम्बंधित रिपोर्ट बंगाल सरकार द्वारा लागू की जा चुकी थीबिहार भूमि सुधार आयोग के अध्यक्ष के रूप में भी उन्होनें नितीश सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंपीइनकी अनुशंषाओं में प्रमुख, प्रत्येक किसान की भूमि सीमा 15 एकड़ निर्धारित कर देना, था जैसे की अपेक्षा थी इस रिपोर्ट का भू-स्वामियों ने जोरदार विरोध किया और अंततः नितीश सरकार को इनके सामने झुकना पड़ा और बंदोपाध्याय समिति की सिफारिशों को ठन्डे बस्ते में डाल दिया गयाइसका नतीजा है आज भी भूमिहीन किसानों का बिहार से पलायन जारी है


भूमि-सुधार के अपने प्रयासों और कानूनों के लिए के.बी.सहाय आज भी एक विशेषज्ञ के तौर पर जाने जाते हैं आप इन्टरनेट पर किसी भी सर्च इंजिन पर चले जाए और "भूमि सुधार" या "लैंड रिफोर्म" से सम्बंधित कोई भी जानकारी एकत्रित करें आपको के.बी.सहाय और उनके योगदान के बारे में जानकारी मिलेगीभूमि-सुधार से सम्बंधित किसी भी लेखक की कोई भी किताब पढ़ें आपको प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से के.बी.सहाय का जिक्र अवश्य मिलेगाभूमि-सुधार के मामले में श्री के.बी.सहाय की सक्षमता का यह परिचायक है


आज भी उनकी पार्टी यानी कांग्रेस पार्टी बिहार में दलितों के लिए किये गए कार्यों का लेखा-जोखा जब जनता के सामने रखती है तो कांग्रेस शासन की उपलब्धियों के तौर पर बताने को के.बी.सहाय के भूमि सुधार से सम्बंधित योगदान के अलावा और कुछ विशेष नहीं रहता 2000 के बिहार चुनाओं में इलेक्शन रैली को संबोधित करते हुए श्रीमती सोनिया गाँधी के ये विचार कि "बिहार में विकास तभी हुए हैं जब राज्य में कांग्रेस सरकारें रही; "यहाँ तक कि भूमि-सुधार भी कांग्रेस मुख्यमंत्री श्री.के.बी.सहाय द्वारा ही शुरू क़ी गई थी" (इंडियन एक्सप्रेस, 5 फरवरी 2000), इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण हैश्री सहाय के योगदान की महत्ता उनकी मृत्यु के 45 साल बाद भी ज्यों कि त्यों बनी हुई हैश्री सहाय और ज़मींदारी उन्मूलन से सम्बंधित उनके प्रयासों की सार्थकता तब तक बनी रहेगी जब तक ज़मीन को लेकर जातिगत संघर्ष का अंत नहीं हो जाता यह श्री सहाय के कलम की शक्ति थी जिससे भारत के संविधान में पहला संशोधन हुआ और एक नयी अनुसूची को संविधान में जोड़ा गया यदि के.बी.सहाय दलित वर्ग से आते तो उनका यह प्रयास उन्हें किसी भी राष्ट्रीय स्तर के नेता के समकक्ष खड़ा कर देता; किन्तु वे वोट बैंक की दृष्टि से महत्वहीन कायस्थ जाति से आते थेइसलिए यह राष्ट्र और बिहार राज्य यहाँ तक की उनकी अपनी पार्टी ने भी उन्हें भुला दिया ज्ञातब्य रहे जहाँ श्री जयप्रकाश नारायण ने उन्हें "आधुनिक बिहार का निर्माता" माना है, वहीं तत्कालीन समाचार-पत्र "इंडियन नेशन" की नज़रों में वे "बिहार के लौह-पुरुष" थे उनकी कुशाग्र बुद्धि का विपक्ष भी लोहा मानता था और कठोर प्रशासनिक निर्णय लेने और उसे शीघ्र लागू करने की उनकी क्षमता की आज भी पटना के प्रशासनिक हलकों में चर्चा होती हैजहाँ बिहार ने उन्हें बिसरा दिया, क्योंकि वे छोटानागपुर क्षेत्र से आते थे और झारखण्ड अलग होने के बाद उन्हें उसी प्रदेश का मान लिया गया वही झारखण्ड सरकार के लिए उनकी महत्ता इसलिए नहीं हैं क्योंकि वे आदिवासी समुदाय से नहीं थे और झारखण्ड सरकार आदिवासी नेता के अलावा अन्य समुदाय के नेताओं और उनके योगदानों को कोई तवज्जो नहीं देती क्षेत्रीयता के आधार पर स्वतंत्रता संग्रामियों का ऐसा वर्गीकरण ओछी राजनीति का द्योतक हैये और बात है कि आदिवासी और दलितों के कल्याण के लिए किये गए उनके कार्य उन्हें, किसी भी आदिवासी मुख्यमंत्री की तुलना में, आदिवासियों का अधिक हितैषी बना देता हैतथापि बिहार और झारखण्ड के इतिहास में आज इनका वो स्थान नहीं है जिसके ये काबिल थे