एक अनूठा व्यक्तित्व
-उदयराज सिंह, पटना
(कृष्ण
बल्लभ सहाय जयंती समारोह, द्वारा 31 दिसंबर 1988
को प्रकाशित ‘स्मारिका’ से साभार)
कृष्ण
बल्लभ बाबू का बाहरी व्यक्तित्व इतना खुरदरा था कि लोग-बाग उनसे मिलने से घबड़ाते
थे। उनसे मिलने से पहले लोगों की धुकधुकी बढ़ जाती थी कि पता नहीं कौन बात पर किस
तरह झड़प दें। इसलिए उनसे मिलने से पहले लोगों का पसीना छूट जाता था। मगर बाहर से
जितना ही वो खुरदरा थे भीतर से उतना ही मुलायम और एकाध झटके के बाद वो शांत हो
जाते और मिलने वाले की दुखती रग को तुरंत पकड़ लेते थे। हर एक की मदद करने को
तैयार- चाहे पैसे से यह देह से। इसलिए अपने मंत्रित्वकाल में वे सदा बदनाम रहे
पैसे उगाहने को लेकर मगर जो भी पैसा लाते वो पार्टी को दे देते या कार्यकर्ताओं
में बाँट देते अपने लिए कुछ नहीं रखते। उनका अपना जीवन तो एक झोला ढोने वाले
कार्यकर्ता का ही रहा।
एक
बार काँग्रेस के चुनाव प्रत्याशियों के चयन की मीटिंग सदाकत आश्रम में चल रही थी।
उन दिनों वे मिनिस्टर नहीं थे और अपने मित्र परमा बाबू के मकान के बाहर बनी
खप्पड़पोश कोठरी में रहते थे। जब भी हजारीबाग से आते तो ताला खोलकर अकेले ही रहते।
मैं अपने भाई के लिए सीट की पैरवी में उनके पास पहुंचा। प्रणाम पाती के बाद बातें
शुरू हुई और वो तख्त पर बैठे-बैठे ही अपने खादी भंडार के झोले से ढाढ़ी बनाने का
पूरा सामान निकाल कर वहीं ढाढ़ी बनाने लग गए। देखा उसी झोले में एक धुली हुई धोती
और गमछा भी था। यह छठे दशक की बात होगी। पांचवे दशक में वे श्रीबाबू के मंत्रिमंडल
में सबसे प्रभावशाली मंत्री रह चुके थे और इसी चुनाव के बाद वह मुख्यमंत्री भी हुए
मगर जब भी कुर्सी से दूर रहे उस अंतराल में एक मामूली काँग्रेस कार्यकर्ता की तरह
ही रहे। उनके साथ कोई लाम-काफ नहीं था और न कोई भीड़-भाड़ ही। सभी समझते कि कृष्ण
बल्लभ बाबू खत्म हो गए मगर उनमें प्रखर राजनीति की ऐसी सूझबूझ थी कि राजनीति में मरकर
भी वो भरपूर जिंदा हो जाते। और यह भी आप नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते कि जाति से कमजोर
और दुश्मनों से घिरे वो एक राजनेता थे।
यह
तो आज सभी मानते हैं और बिहार का इतिहास भी साक्षी है कि श्रीबाबू के पास कृष्ण
बल्लभ बाबू ऐसा बलशाली राजस्व मंत्री नहीं होता तो बिहार की जमींदारी प्रथा का
इतना सहज अंत नहीं होता। सभी घात-प्रतिघात अपनी सबल छाती पर रोकते हुए वह विधान
सभा में जमींदारी उन्मूलन कानून को पास करवा कर ही रहे। श्रीबाबू और कृष्ण बल्लभ
बाबू की जोड़ी बिहार जमींदारी उन्मूलन में सदा जीवनी काम करता रहा।
एक
बार कृष्ण बल्लभ बाबू मेरे पिता (स्वर्गीय राजा राधिका रमण प्रसाद सिंह) के
निमंत्रण पर सूर्यपुरा पहुंचे। वहाँ स्कूल का वार्षिकोत्सव मनाया जा रहा था। उस
दिन बड़े समीप से देखा कृष्ण बल्लभ सहाय जी कि कर्मठता। मोटर से उतरते ही प्रणाम कर
बाबूजी से बोले ‘राजा साहब मेरे स्टाफ के बैठने
और टाइपिस्ट का काम करने की शीघ्र एक कमरे में व्यवस्था करवा दें। फिर उधर उनके
सम्मान में आयोजित भोज पर वो बैठे और इधर टाईपिंग मशीन का खट-खट शुरू हुआ। एक ओर
सार्वजनिक कार्यक्रम पूरा किया जा रहा था और दूसरी ओर उनके ऑफिस का कार्यक्रम भी
पूरा हो रहा था। एक अज़ाब समा था हमारे बंगले पर।
जिस
दिन लोकनायक जयप्रकाश नारायण वेल्लोर से अपना सफल ऑपरेशन कराकर सही सलामत पटना लौट
रहे थे तो उस भीड़ में बिहार के उस भूतपूर्व मुख्यमंत्री को हाथ में फूल का माला
लिए एक पंक्ति में लोकनायक के स्वागतार्थ मैंने खड़े देखा। कभी बिहार के मंत्री या
मुख्यमंत्री की ऊंची कुर्सी पर उन्हें बैठे देखा और कभी आम कार्यकर्ताओं की कतार
में खड़े भी देखा- दोनों ही स्थान पर मुझे वो सदा एक समान ही दिखे। अपनी धोती की एक
खूंट को पकड़े हुए और प्रातः स्मरणीय राजेंद्र प्रसाद की गांधी टोपी कभी सीधी तो
कभी आड़ी-तिरछी लगाए हुए। कपड़े और साज-श्रंगार में में सदा एक अनगढ़ किसान की ही तरह
रहते थे।
अपनी
पिता की मृत्यु के बाद मुझे उनकी फाइलों में वर्ष 1927-28 में कृष्ण बल्लभ बाबू की
अपने हाथों लिखी एक चिट्ठी मिली। उन्होने हमारे चाचा स्वर्गीय राजीव रंजन प्रसाद
सिंह को लिखा था कि गर्मी की एक मध्य दोपहरिया में विक्रमगंज स्टेशन पर उतरेगें और
वहाँ एक इक्का लेकर मेरे गाँव सूर्यपुरा पहुंचेगें तथा मेरे चाचा से मिलकर शीघ्र
पटना के लिए लौट जाएंगें। काँग्रेस के लिए रुपयों की आवश्यकता है और पूज्य राजेंद्र
प्रसाद जी के आदेश पर वो सूर्यपुरा पहुँच रहे हैं।
मुझे
दूसरे और सातवे दशक के कृष्ण बल्लभ सहाय में कोई भी भिन्नता नहीं दिखी। वो अपने को
सदा काँग्रेस तथा देश का एक अदना सा सेवक ही मानते रहे।
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