अनुशासन और स्नेह के प्रतिरूप कृष्ण बल्लभ
बाबू-
-डॉक्टर महेश कुमार सिन्हा,
सहायक संपादक, आकाशवाणी,
पटना
(कृष्ण
बल्लभ सहाय जयंती समारोह, द्वारा 31 दिसंबर 1988
को प्रकाशित ‘स्मारिका’ से साभार)
जनवरी
महीने की धून्ध भरी सिहरती सुबह थी और तैयार होते-होते समय काफी निकल चुका था। जल्दी-जल्दी
मैंने चाय पी और लपकते हुए निकला। रिक्शावाला था कि पेडल पर उसके पैर ही नहीं चल
रहे थे। मुख्यमंत्री निवास पहुंचा तो सुबह के नौ बजकर दो मिनट हो चुके थे। गेट पर
परिचय आदि की औपचारिकताओं से निपटकर रिकॉर्डर संभालता हुआ बरामदे के पार पहुंचा तो
एकबारगी सन्न रह गया। मुख्यमंत्री कृष्ण बल्लभ सहाय अपने चिर-परिचित अंदाज़ में, दाहिने हाथ में धोती का छोर काफी ऊपर उठाए हुए,
गहरे भूरे रंग के बंद गले कोट और शुभ्र खादी की टोपी धारण किए बरामदे पर ही चहलकदमी
कर रहे थे। मैं लपक कर गया और उनके अंतरंग मित्र परमा बाबू ने जैसे परिचय कराते
हुए कहा, ‘महेशजी हैं, आकाशवाणी से आए हैं, रिकॉर्डिंग के लिए। कृष्ण
बल्लभ बाबू झटके से रुके और उन्होने निमिष भर के लिए मुझे घूर कर देखा। उस बेधती
दृष्टि के सामने मैं जैसे बौना हो गया और वह दृष्टि तेज नश्तर की तरह मेरे आरपार
हो गयी। कृष्ण बल्लभ बाबू तेज स्वर में बोले, ‘आप आकाशवाणी में काम करते हैं? क्या आपका कोई
कार्यक्रम एक मिनट देर से शुरू होगा? मैंने नौ बजे का समय
दिया था पर आप आए हैं पाँच मिनट देरी करके। आकाशवाणी में समय की पाबंदी क्या ऐसे
ही निभाई जाती है’? मैं अवाक था। जवाब क्या दूँ कुछ सूझ नहीं
रहा था। बड़ी मुश्किल से बोला, ‘
मुख्यमंत्रीजी बात यह है कि मैं पहुंचता तो समय से ही लेकिन दरअसल...’। बात काटते हुए वे और ज़ोर से बोले, ‘एक तो देर से आने की गलती की आपने, और दूसरे इसे किसी
प्रकार उचित ठहरना चाहते हैं। मेरे पास अब समय नहीं है,
दूसरा काम करना है रिकॉर्डिंग अभी नहीं हो सकेगी’। और इसी के
साथ वे तेज कदमों से अंदर कमरे में चले गए। मैं रूआँसा हो गया और थोड़ी देर
हथबुद्धि सा खड़ा रहने के बाद गेट की तरफ वापस लौटने लगा। गेट तक पहुंचा ही था कि
मेरा नाम लेकर पुकारते हुए परमा बाबू नजदीक पहुंचे और मुसकुराते हुए बोले, ‘चलिये, महेशजी फिर पेशी है।
आपको बुला रहे हैं’। मैं चकरा गया। यह कौन सा तरीका है
मुख्यमंत्री का? पहले डांट-फटकार और फिर बुलाहट। खिन्न मन से
परमा बाबू के साथ वापस सहमते हुए कमरे में घुसा। कृष्ण बल्लभ बाबू ने जोरदार ठहाका
लगाते हुए मुझे कुर्सी पर बैठने का इशारा किया और परमा बाबू को आदेश दिया, ‘भाई, महेश बाबू के लिए
चाय-नाश्ता मंगवाईए, नहीं तो हमसे प्रश्न कैसे करेंगें’? मेरी बुद्धि चकरा गयी थी और मैं चुपचाप कुर्सी पर बैठकर रिकॉर्डर ठीक
करने लगा। नाश्ते के बाद जो इंटरव्यू मैंने रेकॉर्ड की वह शायद मेरे जीवन का
अत्यंत सुखद और चमत्कारपूर्ण अनुभव था।
मैंने
इंटरव्यू रेकॉर्ड करने के क्रम में राज्य के विभिन्न मुद्दों और इसकी नानाविध
समस्याओं से संबन्धित प्रश्न पूछे और जिस सुगमता और आत्मविश्वास से उन्होने उत्तर
दिये वे अद्भुत थे। रिकॉर्डिंग के बाद जब उन्हें प्रणाम कर मैं जाने लगा तो बरामदे
की आखरी छोर तक आकर मुझे विदा करने में जो स्वाभाविक सहजता और स्नेह का प्रदर्शन
किया उससे मैं उनके प्रति इस तरह आकर्षित हुआ कि उसका बयान नहीं कर सकता। सचमुच
कठोरतम अनुशासन और सहजतम स्नेह का दुर्लभतम मिश्रण था उनमें। समय की पाबंदी के वे
इतने कायल थे कि इसमें कोई भी अगर जरा सा भी त्रुटि करता तो उसे दंड देने से जरा
भी नहीं हिचकते थे, लेकिन दूसरों की भावनाओं का
वे उतना ही ख्याल भी रखते थे और कई बार ऐसा भी हुआ जब उन्हें लगा कि वे जरूरत से
ज्यादा कठोर हो गए हैं, तो बिना किसी भूमिका के अविलंब क्षमा
याचना करने में भी उन्होनें देरी नहीं की। चूंकि मैं आकाशवाणी के प्रादेशिक समाचार
एकांश का संवाददाता था और दिन भर समाचार की टोह में इधर-उधर भटकता रहता था, मुझे अनेक बार उनसे भेंट करने और बातचीत करने के अवसर प्राप्त हुए और हर बार
मैंने इन दुर्लभ गुणों के उनमें दर्शन किए।
देश
के परम प्रिय प्रधानमंत्री नेहरू का निधन हो चुका था और उनकी भस्मी का प्रवाह पटना
में गंगा नदी के बीच धारा में किया जाना था। मैं आकाशवाणी की ओर से इन ऐतिहासिक
क्षणों का आँखों देखा हाल सुना रहा था। मुझे अच्छी तरह याद है- नदी के किनारे जब
भस्मी-कलश को स्टीमर पर रखा जा रहा था और मैं स्टीमर के कोने पर आँखों देखा हाल
प्रस्तुत कर रहा था, कृष्ण बल्लभ बाबू की नज़र मुझ
पर पड़ी। उन्होनें अविलंब लोगों की भीड़ को कलश के सामने से हट जाने के आदेश दिये, जिससे मैं सभी स्थिति का वर्णन सही ढंग से कर सकूँ। यही नहीं, भस्मी के प्रवाह के बाद स्टीमर जब किनारे लौटा तो उन्होने परमा बाबू को
भेजकर इस बात की पूछताछ करवाई कि मुझे अल्पाहार और चाय आदि मिली अथवा नहीं।
एक
ऐसी ही घटना का स्मरण मुझे हो आता है। मेरे अनुज उमेश विजय, जो अब कनाडा के नागरिक हैं और टेलीविजन फिल्म प्रोड्यूसर हैं, वो बॉम्बे में फिल्मोस्तान नमक फिल्मी संस्था द्वारा सिनेमैटोग्राफी के
आयोजित शिविर के लिए छात्रवृति पाने को उत्सुक थे और राज्य सरकार से आर्थिक मदद
चाहते थे। मैं उनका आवेदन तैयार कर उन्हें अपने साथ लेकर मुख्यमंत्रीजी से मिलने
गया। मैंने उन्हें सारी बातें बताई और कहा कि इसमें उम्मीदवार का आधा खर्च
फिल्मोस्तान संस्था देगी, और आधे खर्च की व्यवस्था अगर आप
करवा दें तो बड़ी कृपा होगी। पहले तो कृष्ण बल्लभ बाबू ने लंबी डांट पिलाई कि राज्य
सरकार ऐसे कार्यों के लिए अपना पैसा क्यों बर्बाद करेगी?
मेरे छोटे भाई को भी उन्होने एक तरह से फटकारते हुए कहा कि फिल्म के चक्कर को
छोड़कर उन्हें पढ़ाई-लिखाई में मन लगाना चाहिए और ऊंची शिक्षा प्राप्त करना चाहिए।
हम दोनों चुपचाप सिर झुकाये उनके कमरे से निकल आए। मेरे छोटे भाई ने मुझे कोसना
शुरू किया कि ऐसे आदमी के पास मैं उसे क्यों ले आया। लेकिन उस दिन मैं
आश्चर्य-मिश्रित प्रसन्नता से मैं फुला न समाया जब मुख्यमंत्री सचिवालय से मेरे
भाई के नाम एक पत्र आया जिसमें सरकार ने आधा खर्च करना स्वीकार कर लिया था और साथ
ही फिल्मोस्तान के नाम मुख्यमंत्री का एक सिफ़ारशी पत्र भी था।
समाचार
एकांश में मेरे सहकर्मी और अग्रज स्वर्गीय श्री राम रेणु गुप्तजी भी थे जो कृष्ण
बल्लभ बाबू के द्वितीय सुपुत्र के अभिन्न मित्र थे। सोमेश्वर प्रसाद असाध्य रोग से
पीड़ित होकर उपचार के लिए दक्षिण भारत संभवतः वेल्लोर गए थे और वहाँ उनका निधन हो
गया। कृष्ण बल्लभ बाबू को अपने पुत्र के निधन की सूचना हजारीबाग में उस समय मिली
जब वे वहाँ आयोजित किसी आमसभा में भाषण करने जा रहे थे। लेकिन उन्होने संयम और
आत्मनियंत्रण का उस समय जो उदाहरण पेश किया, वो शायद ही
कोई मनुष्य कर सके। पुत्र शोक में मर्माहत कृष्ण बल्लभ बाबू ने आमसभा का कार्यक्रम
रद्द नहीं किया, बल्कि उस दिन उस सभा में उनका भाषण अत्यंत
ही विचारोतेजक और ओजपूर्ण था।
कृष्ण
बल्लभ बाबू की तीन-तीन पत्नियाँ हुईं और उनके कई लड़के-लड़कियां भी हुईं। कुछ लोगों
ने व्यंग भी करना शुरू कर दिया कि यह मुख्यमंत्री परिवार नियोजन का जैसे बैरी है।
लेकिन उन्होने अखिल भारतीय परिवार-नियोजन के पांचवे अधिवेशन के अवसर पर जो भाषण
दिया उसमे इस आंदोलन के प्रति इनहोने एक नया ही दृष्टिकोण प्रस्तुत किया। उन्होने
कहा, ‘गर्भपात को वैध बनाने के लिए विशेष ज़ोर दिया जाता
है लेकिन अपने देश में इसे पाप समझा जाएगा क्योंकि इसमें जीव-हत्या निहित है। अगर
संयम और गर्भरोधक उपकरणों का उपयोग लोगों की मर्ज़ी पर छोड़ दिया जाये तो भी सफलता
नहीं मिलेगी। होना यह चाहिए कि सर्वसाधारण को इसके प्रति समुचित शिक्षा दी जानी
चाहिए और तभी इस समस्या का समाधान निकल सकता है।
इसी
प्रकार सांप्रदायिक दंगे के बाद कृष्ण बल्लभ बाबू की संवेदना उनके इन शब्दों में
व्यक्त हुई, ‘जिनके माँ-बाप मारे
गए, उन बच्चों के चिल्लाने की आवाज़ मैं सुन सकता हूँ।सारा
बिहार दुखी होकर रो रहा है और उनके साथ बिहार का मुख्यमंत्री भी रो रहा है। लेकिन
अपने देश के मुसलमानों को हम क्या कहें कि तुम पाकिस्तान चले जाओ? दरअसल गैर-मुसलमानों का फर्ज़ है वे उनकी व्यक्तिगत रक्षा करें’।
एक
घटना मैं कभी नहीं भूल सकता। 1964 के आरंभ में कृष्ण बल्लभ बाबू पटना के सदाकत
आश्रम के पास ब्रजकिशोर भवन में आयोजित किसी गोष्ठी में भाषण दे रहे थे। उस गोष्ठी
में अन्य बड़े नेताओं के अलावे श्री जयप्रकाश नारायण भी उपस्थित थे। जिस समय जयप्रकाश
बाबू का भाषण चल रहा था हाल में बैठे लोगों में से लगभग अंतिम छोड़ की तरफ से कुछ
बातचीत करने की आवाज़ मंच तक आ रही थी। कृष्ण बल्लभ बाबू ने एक बार माइक पर लोगों
से शांत होकर सुनने की अपील की। हाल में शांति छा गयी। लेकिन कुछ देर बाद फिर उसी
स्थान से बातचीत करने की आवाज़ें आने लगी। कृष्ण बल्लभ बाबू अचानक मंच से उतरे और
हाल में बैठे लोगों के बीच से तेजी से गुजरते हुए उस स्थान पर गए। वहाँ कम से कम
दस व्यक्तियों को उन्होने कड़ाई से हाल से निकल जाने का आदेश दिया। पूरे हाल में सन्नाटा
छा गया और कृष्ण बल्लभ बाबू के इस कठोर व्यवहार से मानो सब को साँप सूंघ गया।
लेकिन उसके बाद फिर उस हाल में किसी ने चू तक करने की हिम्मत नहीं की। अनुशासन की
कठोरता और स्नेह की मृदुता का ऐसा ओर-छोर था जिनके बीच वे जीवन की अनेकानेक कठिन
समस्याओं और गुत्थियों को आजीवन सुलझाते रहे।
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