शिव नन्दन प्रसाद ‘हर्षवर्धन’
अवकाश प्राप्त मुख्य अभियंता, पथ
निर्माण विभाग, बिहार
(कृष्ण
बल्लभ सहाय जयंती समारोह, द्वारा 31 दिसंबर 1988
को प्रकाशित ‘स्मारिका’ से साभार)
कलम
काँपती है, विशेष कर किसी ऐसे व्यक्ति के संबंध में
कुछ लिखते हुए जिसके व्यक्तित्व का विस्तार इतना व्यापक रहा हो। इसलिए नहीं कि
क्या लिखा जाये बल्कि इसलिए कि कहीं कुछ छूट न जाये। सहायजी के करीब रहने का अवसर
तो मुझे नहीं मिल सका किन्तु उनसे मेरी मुलाक़ात कई बार हुई और जितनी दफा मैं उनसे
मिला, एक नया छाप एक नयी छवि लेकर लौटा। हर बार मैंने उनका
नया रूप देखा, शायद इसलिए वे मुझे सदा रामनाय लगे- ‘यदा- कदा यवन्मुपैती। तदा तदा ही रमणीयतया। 1964 में मैं उनके पास अपने छोटे भाई के किसी काम की
पैरवी करने के उद्देश्य से गया था। पहले तो वे बड़े प्यार से मिले। स्वागत-सत्कार
किया। फिर इधर-उधर की बातें होने लगी। अंत में बातों का सिलसिला यानि काम की बात
यानि पैरवी पर आकर रुका। पैरवी का जिक्र आते ही उनके तेवर बदल गए। उन्होने साफ
इंकार करते हुए कह दिया कि यह मुझसे नहीं होगा। मैं लौट आया। समझ गया कि काम तो
होने से रहा। किन्तु यह क्या? मुश्किल से सप्ताह भर बीता
होगा, सूचना मिली कि जिस काम के लिए मैं उनके पास गया था, वो हो गया है। बाद में ज्ञात हुआ कि मेरे चले जाने के बाद उस संदर्भ में
उन्होने छानबीन कारवाई, और जब उन्होने उसे उचित पाया तो उसके
लिए विधिवत आदेश जारी कर दिया। मुझे बचपन में पढ़ा वह उक्ति याद हो आई- महापुरुषों
का चरित्र नारियल के समान ऊपर से कठोर पर अंदर से कोमल और स्वच्छ होता है।
सहकारिता
विभाग की एक घटना का उल्लेख करना चाहूँगा। एक संचिका पर सहायजी सहमति देते हुए
उन्होनें लिखा था, ‘सचिव की
टिप्पणी उपयुक्त नहीं है। मैं सहायक की टिप्पणी से जो पृष्ठ संख्या 17 पर है से
संतुष्ट हूँ।
बात
जितनी साधारण सी दिखती है उतनी है नहीं। आज कितने मंत्रियों के पास इतना अवकाश है
कि वे एक-एक संचिका को पृष्ठ दर पृष्ठ पढ़े? वैसे इतना
तो कहा ही जा सकता है कि श्री कृष्ण बल्लभ सहाय ने अपनी प्रत्येक जिम्मेवारी चाहे
वो एक पिता की रही हो, या एक पुत्र की रही हो या फिर एक
राजनीतिज्ञ की रही हो या प्रशासक की रही हो- कुशलतापूर्वक निभाई और सारा कुछ इतना
संतुलित रखा कि कहीं भी उनपर प्रश्न-चिह्न नहीं लगाया जा सकता है।
ऊपर
मैं अपने छोटे भाई की पैरवी की बात कर चुका हूँ। यह भी कहा है कि सहायजी किसी की
पैरवी नहीं करते थे। लेकिन उनके सारे नियम उनकी सारी निष्ठा उस समय समाप्त हो जाया
करती थी जब किसी गरीब की मदद का सवाल उठता था। एक दफा जब मैं हजारीबाग में
कार्यपालक अभियंता था तो उन्होनें मुझे अपने पास खास तौर से बुला कर कहा कि अमूक
किरानी जो मेरे मातहत काम करता था बड़ी मुश्किल में है। बेचारे गरीब के साथ न्याय
होना चाहिए। इतना ही नहीं, कुछ दिनों के बाद उन्होने
उसके संबंध में पुनः पूछताछ की और मुझे साधुवाद भी दिया। गरीबों और असहायों के
प्रति ऐसा भाव शायद ही देखने को मिले।
समय
की पाबंदी की चर्चा के बगैर सहायजी की चर्चा शायद अधूरी ही रहेगी। मशहूर था कि यदि
आपको घड़ी मिलानी हो तो सहायजी के कार्यक्रमों से मिला सकते हैं। इतने व्यस्त
कार्यक्रमों के बावजूद वे किसी भी सभा में देर से नहीं पहुंचे। सवेरे सोने और
सवेरे जागने वाला सिद्धान्त उनकी दैनिक क्रिया का अभिन्न अंग था। सुबह ठीक चार बजे
जग जाते थे और रात्रि के ठीक नौ बजे सोने को चले जाते थे। उस समय जब वे
मुख्यमंत्री थे, एक दफा भागलपुर आए। ढेर सारे लोग उनसे
मिलने पहुंचे। मैं भी गया। बातें होने लगी, होती रही। जैसा
कि आम तौर पर होता है किसी को समय का भान ही नहीं रहा। एकाएक सहायजी संयमित से उठे
और मिलने वालों से विदा ली और शयनकक्ष की ओर बढ़ गए। भीतर जाते ही दरवाजा बंद कर
लिए। तभी लोगों ने अपनी अपनी घड़ी पर नज़र डाला- रात्रि के नौ बज चुके थे।
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