Sunday, 19 April 2020

कृष्ण बल्लभ बाबू – औद्योगिक बिहार के जनक -डॉक्टर पूर्णेंदू नारायण सिन्हा, भूतपूर्व मंत्री, बिहार सरकार



कृष्ण बल्लभ बाबू – औद्योगिक बिहार के जनक
-डॉक्टर पूर्णेंदू नारायण सिन्हा, भूतपूर्व मंत्री, बिहार सरकार   

(कृष्ण बल्लभ सहाय जयंती समारोह, द्वारा 31 दिसंबर 1988 को प्रकाशित स्मारिका से साभार)

मुख्यमंत्री बनने के कुछ ही समय बाद कृष्ण बल्लभ सहाय ने कहा था कि भारत के औद्योगिक मानचित्र पर बिहार का प्रमुख स्थान रहे ऐसी ही मेरी परिकल्पना है। इसके निमित्त उन्होने बहुत प्रयास किए।

मेरे समक्ष कभी-कभी एक प्रश्नवाचक चिह्न खड़ा होता है कि ऊपर से रुखड़ा दिखने वाला व्यक्ति विचारों में इतना आधुनिक कैसे था और इसका उत्तर बहुत विश्लेषण करने के बाद भी नहीं मिलता कि उस व्यक्ति में एक साथ परंपरा और आधुनिकता का सह-अस्तित्व कैसे हो सका। कदाचित जीवन का निर्माण काल छोटानागपुर में व्यतीत करने से उन्होने खनिज संपदाओं वनों और टिस्को आदि बड़े-बड़े कल-कारखाने से साक्षात्कार हुआ हो और औद्योगीकरण का प्रभाव क्षेत्र के आर्थिक विकास पर कितना प्रभावशाली होता है उसका भी उनके मानसपटल पर रेखांकन हुआ हो।

कालांतर में 1923 में जब वे बिहार एवं उड़ीसा विधान परिषद के सदस्य स्वराज पार्टी की टिकट पर निर्वाचित हुए तो उन्हें बिहार के पिछड़ेपन का और अधिक एहसास हुआ। वे जानते थे कि बिहार की जनसंख्या प्रतिवर्ष बढ़ रही है और बढ़ती हुई इस जनसंख्या का समुचित रूप से भरण-पोषण जमीन की पैदावार से नहीं हो सकती। यहाँ के लोगों को लघु-कुटीर, मंझौले और बड़े उद्योगों में लगाना आवश्यक ही नहीं वरन अनिवार्य है। उन्हीं के शब्दों में, आज बिहार की वर्तमान जड़ता को मिटाने के लिए इस राज्य में औद्योगीकरण के वृहत कार्यक्रम की आवश्यकता है। इस राज्य के अंदर प्रचूर मात्रा में कच्चे माल हैं, जन-शक्ति की भी कोई कमी नहीं है फिर भी औद्योगिक दृष्टि से यह पिछड़ा राज्य है। आज यहाँ की जनता की जीविका का मुख्य आधार कृषि है, और कृषि पर निर्भर लोगों में सबको इस कार्य में पर्याप्त नियोजन नहीं मिलता। आर्थिक दृष्टि से यह असंतुलन की स्थिति है। यह असंतुलन ठोस औद्योगिक आधार कायम होने पर ही पूरा किया जा सकता है। हमारे राज्य में जो भी साधन सुलभ हैं, उन्हें देखते हुए यह असंभव नहीं दिखा पड़ता। (दैनिक ईस्टर्न टाइम्स, कटक में प्रकाशित लेख का अनुवाद)

वे अक्सर जवाहर लाल नेहरू को अपने लिए औद्योगिक एवं वैज्ञानिक मार्गदर्शन का नेता मानते थे। उनका कहना था कि भारत में पाये जाने वाले तांबे का शतप्रतिशत अभ्रख का 65% कोयले का 60% और बाक्साइट का 56% तथा काफी परिमाण में लोहा भी यहाँ पाया जाता है। अन्य खनिज जैसे चीनी-मिट्टी, पाइराइट, क्वार्ट्ज़, चुना, टिन आदि भी यहाँ पाये जाते हैं। हाल ही में यूरेनियम भी यहाँ मिला है। इस संबंध में यह भी महत्व की बात है कि इन खनिजों में अधिकांश एक दूसरे के पास पाये जाते हैं और साथ ही ये कलकत्ता बन्दरगाह के भी निकट पड़ते हैं। इन खनिजों का यदि सुनियोजित ढंग से उपयोग किया जाये तो इनसे न केवल बिहार की आर्थिक स्थिति में परिवर्तन होगा, बल्कि पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से देश का जो विकास किया जा जा रहा है, उसके अंतर्गत औद्योगीकरण में भी इससे पर्याप्त सहायता मिलेगी।

वे राज्य के योजना मंत्री भी थे। सुनियोजित अर्थव्यवस्था के महत्व को उन्होने मूर्तरूप देने की कोशिश की। उद्योग की स्थापना हेतु उन्नत सिंचाई, बाढ़ नियंत्रण, आवास, जलापूर्ति, बिजली की गाँव में व्यवस्था, पक्की सड़क, रेल एवं सुदृढ़ परिवहन प्रणाली वे आवश्यक मानते थे। अच्छे तकनीकी व्यक्तियों के हेतु वे प्रशिक्षित तकनीकी मानव शक्ति और उसके तकनीकी ज्ञान को समय-समय पर बढ़ाने के लिए वे लघु प्रशिक्षण वर्कशॉप, विचार गोष्ठी, तथा विदेशों में प्रशिक्षण की भी प्रबंध करते थे। तकनीकी प्रशिक्षण संस्थान (विश्वविद्यालय से लेकर आई. टी. आई.) की उन्होने स्थापना की और पुराने संस्थानों का विकास किया। विभिन्न शोध संस्थानों की भी स्थापना उन्होने तकनीकी विभागों में की। वे योजनाओं को समुचित ढंग से कार्यान्वित करने हेतु तकनीकी व्यक्तियों को अक्सर प्रेरित करते थे।

उन्होनें लघु एवं कुटीर उद्योगों को व्यापक रूप देने हेतु खादी एवं ग्रामोद्योग आयोग के अध्यक्ष यू.एन.ढेबर से बातें की ताकि प्रत्येक गाँव में कुछ खादी एवं कुटीर उद्योग स्थापित हों। इससे गाँव की खुशहाली के अतिरिक्त ग्रामीण भाइयों को रोजगार एवं नियोजन का भी प्रबंध कुछ अंश में हुआ।

कृष्ण बल्लभ बाबू ने छोटानागपुर के पठारी इलाकों में खनिज पदार्थ पर आधारित एवं अन्य अभियंत्रण उद्योगों की स्थापना पर बल दिया। उन्होने छोटानागपुर में कपास की खेती को भी प्रोत्साहित किया। वे कहते थे कि कपास की खेती से किसान को सभी खर्च काट कर प्रति एकड़ 315/- रुपये का मुनाफा होगा। कपास की खेती वाली जमीन में सिंचाई की जरूरत नहीं होती। उन्होने छोटानागपुर क्षेत्र के लिए उर्वरक की व्यवस्था करवाई। उत्तर बिहार में वे गन्ने की खेती को प्रोत्साहित करते थे।

विद्युत आपूर्ति के महत्व को उद्योग, कृषि एवं घरेलू उपयोग को समझते हुए उन्होने विद्युत उत्पादन की क्षमता को बढ़ाया। पतरातू एवं बरौनी में दो बड़ी परियोजनाओं की स्थापना उनके काल में हुई। उन्हीं की प्रेरणा से केन्द्रीय हस्तशिल्प निगम परामर्शदात्री समिति ने चतुर्थ योजना काल में एक हज़ार नई सहकारिता समितियां बनाने की पहल की ताकि हस्तशिल्प उद्योग का विकास हो सके। श्रमिकों को उचित हक दिलाने के लिए तथा उनके जीवन स्तर को ऊंचा उठाने के लिए उन्होने बहुत सारी सहकारी समितियां बनाई।

1965-66 में बिहार राज्य में वन विकास निगम की स्थापना उन्होने की, जिसका मुख्यालय रांची में बना। इसके माध्यम से जंगलों का विकास एवं जंगल की लकड़ियों पर आधारित उद्योगों की आधारशिला रखी गयी। उद्योग के पुनर्जीवन एवं विकास के हेतु कई औद्योगिक प्रांगणों एवं केन्द्रों की तीन करोड़ रुपये में की लागत पर स्थापना हुई। उद्योग विभाग की कार्यप्रणाली की एवं शासन तंत्र में चुस्ती और दुरुस्ती लाने के लिए उन्होने कई कदम उठाए। राज्य सरकार एवं केंद्र सरकार के लोक उपक्रमों में सुरक्षा की व्यवस्था भी उन्होने कराई।

श्री सहाय ने पशु-धन के विकास के लिए उत्तर बिहार में महुआ एवं दलसिंघसराई प्रखंडों को चुना जिसमें 4.78 लाख रुपये का उपबंध किया गया। उन्होने बरौनी में ग्रामीण क्रीमरी के कारखाने की स्थापना की जो पूरी क्षमता में उत्पादन करता था।

उत्तर बिहार और दक्षिण बिहार को जोड़ने हेतु पटना में गंगा पर पुल की परियोजना उन्हीं के समय बनी और उसे सरकारी सहमति भी प्राप्त हुई। आज वह महात्मा गांधी सेतु के रूप में उत्तर बिहार के औद्योगिक विकास का बड़ा माध्यम बन गया है। 1310 मील लंबा राष्ट्रीय उच्च पथ भी इन्हीं के काल में बना।

पटना नगर के योजनाबद्ध विकास हेतु तत्कालीन केंद्रीय वित्त मंत्री टी. टी. कृष्णमचारी ने एक स्टेट्यूटरी परिषद की स्थापना का निर्णय लिया। यह श्री सहाय की प्रेरणा के कारण हुआ। केंद्रीय सरकार की समिति ने एग्रो-इंडस्ट्रियल कार्पोरेशन की स्थापना की भी सिफ़ारिश की । बिहार राज्य में नागरिक आपूर्ति निदेशालय की स्थापना भी श्री सहाय के समय में हुई ताकि वितरण आपूर्ति एवं वाणिज्य के कार्यों को सुचारु रूप दिया जा सके।

श्री सहाय के शासन काल में ही केंद्रीय पैट्रोलियम मंत्री प्रोफेसर हुमायूँ कबीर ने बरौनी तेल शोधक कारखाने का उदघाटन किया। उस समारोह में  कृष्ण बल्लभ बाबू ने मार्मिक भाषण दिया था।

आदित्यपुर औद्योगिक क्षेत्र विकास अथॉरिटी का भी मास्टर प्लान श्री सहाय के कार्यकाल में ही स्वीकृत हुआ। यह क्षेत्र 83 गाँव अर्थात 31883 एकड़ में फैला हुआ था।

बिहार राज्य कृषि उद्योग निगम एवं बिहार राज्य वस्त्र निगम की स्थापना भी इन्हीं के द्वारा सम्पन्न हुई।

सोवियत रूस के सहयोग और उनके द्वारा दिये गए 100.50 करोड़ रुपये ऋण से बोकारो स्टील का विशाल संयंत्र भी इन्हीं के काल में स्थापित हुआ था और उसने उत्पादन भी शुरू कर दिया था।

छोटानागपुर के लिए योजना एवं विकास के लिए क्षेत्रीय परिषद उन्हीं के समय में स्थापित हुआ। आदिवासियों की संस्कृति, सभ्यता, भाषाओं को अक्षुण्ण रखते हुए उनका आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षिनिक एवं सर्वांगीण विकास के हेतु उन्होनें इसके माध्यम से अथक परिश्रम किया। वे चाहते थे कि आदिवासी भाई राष्ट्र की मुख्यधारा से जुड़े।

तेनुघाट बांध का भी कृष्ण बल्लभ बाबू ने 14 मार्च 1966 के दिन उदघाटन किया था। इस परियोजना में 62 करोड़ रुपये खर्च हुए थे। इससे छोटानागपुर के पठारी इलाकों में जलापूर्ति की समस्या का निदान और सर्वांगीण विकास का मार्ग प्रशस्त हुआ।

कृष्ण बल्लभ बाबू इस बात से दुखी रहते थे कि बिहार राज्य में कार्य करने का महत्व लोग नहीं समझ पाये हैं और कठिन श्रम को अपने जीवन का अंग भी नहीं बना पाये हैं। उन्हीं के शब्दों में, हमारे समाज के लोग आज दो वर्गों में बंटे हैं- एक वर्ग उसका है जो किसी न किसी रूप में सरकारी खजाने से पैसे पाते हैं। उस वर्ग में मैं अपने को भी डालता हूँ। चाहे मुख्यमंत्री हो, इंजीनियर हो, ठेकेदार हो, -ये जीतने वर्ग हैं सरकारी कोष से रुपया पाते हैं। लेकिन हम लोग यह नहीं समझते कि यह गरीब का दिया हुआ पैसा है। अगर हम एक रुपया पाते हैं तो उसके बदले में हमें डेढ़ रुपये का काम करना चाहिए, नहीं तो कम से कम एक रुपये का काम तो अवश्य करना चाहिए लेकिन ऐसा होता कहाँ है?’

महंगाई का भी कारण उनकी नज़र में तीसरी पंचवर्षीय योजना में हमलोगों ने जितना खर्च किया उसके अनुसार हमलोगों ने धन नहीं पैदा किया। कृष्ण बल्लभ बाबू अत्यंत मेधावी होने के साथ-साथ घोर परिश्रमी भी थे। वे कहा करते थे कि कठिन परिश्रम के बिना बिहार जैसा पिछड़ा राज्य अपरिमित, प्राकृतिक, एवं मानव संसाधनों के रहते हुए भी आगे नहीं बढ़ सकता है।

यदि वे पाँच वर्षों तक मुख्यमंत्री और रह जाते तो बिहार को वे सचमुच ही भारत के मानचित्र पर प्रमुखतम स्थान दिलवा देते।
                
         
       

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