स्वर्गीय कृष्ण बल्लभ सहाय
-श्री राधानन्दन झा, उपाध्यक्ष, राज्य नागरिक परिषद
(कृष्ण
बल्लभ सहाय जयंती समारोह, द्वारा 31 दिसंबर 1988
को प्रकाशित ‘स्मारिका’ से साभार)
कर्तव्य-क्षेत्र
की परिधि में यहाँ एक ओर अगणित लोग ऐसे मिलते हैं, जो
अपने और अपने परिवारजनों के लिए कार्यरत रहे, अपने विचार और
व्यक्तित्व का सृजन सम्पादन करते हैं, वहीं अनगिनत में एक
ऐसा भी होता है जो अपनी निजता भुला एवं परिवार की परंपरागत निर्दिष्ट सीमाओं के
संकोच से बाहर निकल अपने व्यष्टिरूप को समष्टिहित समर्पित कर देता है। ऐसा मानव
अपने गुण, धर्म, कार्य और व्यापार के
कारण समाज के तत्वों की संपूर्ति का साधन बन जाता है और उसके प्रयत्न और कार्यों
से समाज का जो स्वरूप बनता है, वह है उसके व्यष्टिरूप की
प्रतिछाया। अतीतकाल में और आधुनिक युग में भी ऐसे अनेक महानुभव हुए हैं जिन्होने
अपने व्यष्टिरूप को समष्टिहित अर्पित कर उसका साज-श्रंगार किया है और उसके इस
अर्पण समर्पण के कारण ही उनका समकालीन समाज उन्हीं के स्वरूपों में प्रतिबिम्बित और
प्रतिभाषित हुआ है। ऐसे महानुभवों की श्रेणी में श्री कृष्ण बल्लभ सहाय थे।
स्वाधीनता
प्राप्ति के पश्चात बिहार प्रदेश की सर्वांगीण विकास के पथ पर, बहुत दूर तक आगे ले जाने वाले कुछ एक महान मानवों में स्वर्गीय कृष्ण
बल्लभ सहाय का नाम अत्यंत आदरणीय स्थान का अधिकारी है। वस्तुतः बिहार के विकास की
दिशा में किए गए उनके प्रयत्नों की विस्मृति कदापि संभव नहीं है। ये प्रतिभा के
धनी लोक पुरुष थे। ऊपर-ऊपर से देखने में वे किंचित कठोर प्रतीत होते थे। पर सच्चाई
यह नहीं था। वे अत्यंत करुणाशील थे। किसी को भी कष्ट और क्लेश में देखकर कृष्ण
बल्लभ बाबू क्षण भर में द्रवित हो जाते थे और उस व्यक्ति को पीड़ामुक्त करने हेतु, अपनी सम्पूर्ण शक्ति से सक्रिय भी हो उठते थे। हाँ,
वह दूसरी बात है कि वह उन लोगों में से नहीं थे, जो भावना
लोक-लहरियों पर जिधर-तिधर बह जाते हैं। कृष्ण बल्लभ बाबू का हृदय बहुत विशाल अवश्य
था, पर वे उसपर अपने मस्तिष्क का अंकुश भी रखते थे। कृष्ण
बल्लभ बाबू अनाप-सनाप की बातों में बहुत कम रुचि रखते थे। यही कारण था कि अन्य
नेताओं की तरह उनके इर्द-गिर्द हमेशा एक बड़ी भीड़ इकट्ठी नहीं रहती थी। कहा जा सकता
है कि वो दरबार पसंद व्यक्ति नहीं थे।
कृष्ण
बल्लभ बाबू की प्रशासनिक क्षमता अनेक अर्थों में विलक्षण थी। मोटी से मोटी संचिकाओं
को भी देखते-देखते निष्पादित कर देना उनके लिए बाएँ हाथ का खेल था। किसी भी संचिका
की जटिलतम टिप्पणियों ने भी उन्हें अपना निर्णय स्थिर करने में कभी कोई बाधा नहीं
पहुंचाई। जानकारों को मालूम है कि इसका कारण उनकी अपूर्व मेधा शक्ति ही थी।
अँग्रेजी, हिन्दी और उर्दू भाषा पर कृष्ण बल्लभ बाबू का बड़ा गंभीर आधिपत्य था।
अँग्रेजी भाषा और साहित्य में उनकी गति का अनुमान इसी सूचना से लगाया जा सकता है
कि उन्होने पटना विश्वविद्यालय से अँग्रेजी की प्रतिष्ठा की परीक्षा में प्रथम
श्रेणी में स्थान प्राप्त किया था। ज्ञातव्य है कि इनके सहपाठियों में अनेक
अंग्रेज़ भी थे।
श्री
कृष्ण बल्लभ सहाय की कर्मठता भी अनूठी थी। अधिकतम काम और न्यूनतम विश्राम उनके
जीवन का आदर्श सूत्र था। यही कारण रहा कि वे काँग्रेस के एक समान्य कार्यकर्ता के
रूप में लोकसेवा की जमीन पर उतरे और शीघ्र ही प्रदेश प्रशासन के शिखरस्थ पुरुष बन
गए। कृष्ण बल्लभ बाबू में कल्पनाशीलता और व्यावहारिकता का मणिकांचन संजोग था। जटील
से जटील समस्याओं पर भी शीघ्र और सही निर्णय लेने में वे कभी अनावश्यक विलंब नहीं
करते थे। सचमुच उनकी सूझ-बूझ बड़ी पैनी थी। उनके इन्हीं खूबियों के कारण आधुनिक
बिहार के आद्य निर्माता बिहार केसरी डॉक्टर श्री कृष्ण सिन्हा उन्हें अपना अनन्य
स्नेह देते थे। यह कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि कृष्ण बल्लभ बाबू श्रीबाबू के
हाथ-पैर ही नहीं, अनेक अवसरों पर मस्तिष्क भी
बन जाते थे। श्रीबाबू अनेक बार ऐसा कहते सुने जाते थे कि कृष्ण बल्लभ बाबू उनके
लिए निकटतम सहयोगियों में थे, जिनका सरकार संचालन में
महत्वपूर्ण योगदान था।
जब
भी कोई मुद्दा, चाहे वो राजनीति से संबंध हो या प्रशासन
से, बहुत जटील रूप में श्रीबाबू के समक्ष उपस्थित होता था, तब निश्चय रूप से श्रीबाबू अपने गंभीरतम सलाहकार कृष्ण बल्लभ बाबू को
अवश्य बुलावा भेजते थे।
कृष्ण
बल्लभ बाबू अत्यंत कठोर अनुशासनप्रिय व्यक्ति थे। अनुशासनहीनता, उद्दंडता, अभद्रता, उच्छृखल्ता
और अराजकता से उन्होने कभी कोई सम्झौता नहीं किया। अपनी इस कठोर अनुशासनप्रियता के
कारण कृष्ण बल्लभ बाबू अनेक बार संकट में भी घिर जाते थे। लेकिन संकट लाख गहरा हो, वे अपनी नीति की लीक से हटना पसंद नहीं करते थे। इसलिए यदा-कदा उन्हें
लोग-बाग कठोर मनोवृति का कह देने में भी कोई संकोच नहीं करते थे, लेकिन कृष्ण बल्लभ बाबू हमेशा अडिग रहे। परिणाम चाहे अनुकूल हुआ हो अथवा
प्रतिकूल।
मुख्यमंत्री
के रूप में कृष्ण बल्लभ बाबू अनेक दृष्टियों से काफी सफल रहे। इसका कारण यह था कि
उन्हें अचानक मुख्यमंत्री का पद नहीं मिल गया था। अनेक वर्षों तक अनेक विभागों का
मंत्री पद संभालने के बाद वे प्रशासनिक दक्षता पूरी तरह उपलब्ध कर चुके थे। इतिहास
साक्षी है कि कृष्ण बल्लभ बाबू ने जिस विभाग का नेतृत्व सूत्र अंगीकृत किया, उसे विकास की शिखर तक उठा ले जाने में उन्होने कोई कोर कसर बाकी नहीं
रखी।
कृष्ण
बल्लभ बाबू की सर्वोपरि विशेषता यह थी कि वे मित्रवत्सल थे। वे जिनके साथ रहे, पूरी निष्ठा और हार्दिकता के साथ रहे। इन पर इनके मित्र बहुत विश्वास
करते थे और कोई भी दायित्व सौंप कर निश्चिंत हो जाया करते थे।
उनका
दृष्टिकोण मानवीय था। इसलिए वे प्रत्येक विचार को उसी की कसौटी पर कसते थे।
यंत्रों के बारे में उनका कहना था कि मनुष्य यंत्रों के लिए नहीं है यंत्र उसके
लिए है। यही नहीं, विज्ञान की शक्तियाँ भी मानव
कल्याण के लिए ही है। मानव उन शक्तियों के लिए नहीं। उनका मत था कि भौतिक विज्ञान
भले ही अपने तीव्र प्रकाश से मनुष्य को कुछ क्षणों के लिए चकाचौंध कर दे, किन्तु सभ्यता और संस्कृति को चिरस्थाई बनाने के लिए धार्मिक और नैतिक
शक्तियाँ अवश्य हैं और इनके लिए बलिदान और त्याग की आवश्यकता है, जो अटूट विश्वास और चिंतन से प्राप्त होता है। कृष्ण बल्लभ बाबू इसी जीवन
शक्ति को प्राप्त करके सत्य, सौंदर्य और कला की अनुभूति करना
चाहते थे, जिसको जीवन का प्रथम उद्देश्य कहा गया है। यही
कारण है कि वे ऐसे वैभव को दूर से ही नमस्कार करते थे जो मनुष्य को धर्म-विमुख कर
अनैतिकता की ओर ले जाये। वे वस्तुतः स्वतन्त्रता को प्राप्त करने के लिए मृत्यु का
वरन करना भी पसंद करते थे।
इस
प्रकार भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम, स्वाधीनता
की प्राप्ति, गणराज्य की स्थापना और उसके बाद अनेक वर्षों तक
अपने राजनैतिक जीवन काल में कृष्ण बल्लभ बाबू ने अपने जिन भाव-विचार आदर्श और
सिद्धांतों को अपने व्यवहार और आचरण में मूर्त रूप दिया, उनके
द्वारा उन्होने न केवल इस काल के शासन को सुयोग्यता और सुदक्षता प्रदान की, वरन राज्य की पुरातन संभयता, संस्कृति और उसकी
सनातनी मान्यताओं की परिपुष्टि के साथ प्रदेश के जन-जीवन में अपने चरित्र बल से
उसकी प्राण-प्रतिष्ठा भी की है। विचार, स्वरूप और आदर्श सभी
दृष्टियों से उनमें राष्ट्रीयता की स्पष्ट प्रतिछवि देखी जा सकती थी। उन्होने अपने
कार्यकाल में ऐसी परम्पराओं और मान्यताओं की स्थापना की है,
जिससे न केवल शासन सूत्र को ही वरन प्रदेश के प्रत्येक जन को प्रेरणा और प्रकाश
मिलता रहेगा। उनका त्याग, उनकी कर्मठता, उनकी सेवा भावना, व्यक्तित्व की भव्यता, विचारों की शालीनता और अधिकारों के प्रति निष्प्रहता सभी आगे आने वाली
अनेक पीढ़ियों तक आलोक की रश्मियां बिखेरती रहेगी।
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