श्री
कृष्ण बल्लभ सहाय- एक अक्षरान्जली
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डॉक्टर उमेश्वर प्रसाद वर्मा, सभापति, बिहार विधान परिषद, बिहार
(कृष्ण
बल्लभ सहाय जयंती समारोह, द्वारा 31 दिसंबर 1988
को प्रकाशित ‘स्मारिका’ से साभार)
अपनी
प्रशंसा सुनने से सबों का हृदय गुदगुदाता है। किन्तु कृष्ण बल्लभ बाबू इस संबंध
में अपवाद थे। वे एक ऐसे व्यक्ति थे जो अपनी प्रशंसा या अपना अभिनंदन समारोह या
स्तुति कभी पसंद नहीं करते थे। नाम नहीं काम चाहते थे। पता नहीं आज भी स्वर्गीय
कृष्ण बल्लभ सहाय की आत्मा को ऐसे समारोहों से कोई तृप्ति मिलेगा या नहीं? पर उनकी जयंती मनाकर हम छोटे व्यक्ति अपने लिए कुछ सुख जरूर अर्जित
करेंगें।
कृष्ण
बल्लभ बाबू एक बड़े ही मेधावी छत्र थे, किन्तु
साथ-साथ उनके हृदय में राष्ट्रीयता का अथाह भाव भी समाहित थे इसलिए तो बी. ए. (प्रतिष्ठा)
करने के पश्चात एम.ए. पढ़ने जब पटना आए तो स्नाकोत्तर की पढ़ाई के बदले अपने जीवन और
परिवार के भविष्य के संबंध में वगैर सोचे-समझे महात्मा गांधी के आह्वान पर
स्वतन्त्रता संग्राम में भाग लेने हेतु उन्होने अपनी आगे की पढ़ाई छोड़ दी। 1930 से
1934 तक वे सविनय अवज्ञा आंदोलन के सिलसिले में चार बार जेल भी गए और फिर 1940, 1941 और 1942 में भी उन्हें अनेकों बार जेल की सजा काटनी पड़ी।
उनका
संसदीय जीवन 1924 में आरंभ हुआ था जब उन्होने पहले बिहार विधान परिषद के सदस्य के
रूप में बिहार विधान मण्डल में प्रवेश किया। 1937 में जब प्रथम काँग्रेस
मंत्रिमंडल गठित हुआ तो उनकी कार्यदक्षता, समाजसेवा
एवं राष्ट्रीयता के आलोक में उन्हें संसदीय सचिव नियुक्त किया गया। फिर 1946 से
1957 तक वे बिहार के राजस्व मंत्री के रूप में रहे और 1963 से 1967 तक बिहार के
मुख्य-मंत्री भी रहे। मुख्य-मंत्री के रूप में बिहार की सत्ता के शिखर पर भी तलहटी
की माटी से- छोटे-बड़े कार्यकर्ताओं से, गरीब किसानों से उनका
संपर्क कभी टूटा नहीं, बढ़ा ही। पद की आत्मश्लाघा उन्हें कभी
छू नहीं सकी। उनका साधारण खाना-पीना और रहना सभी असाधारण रूप से साधारण ही रहा-
अर्थात विचार, व्यवहार और काम में कृष्ण बल्लभ बाबू निश्चित
रूप से बड़े आदमी थे।
कृष्ण
बल्लभ बाबू एक समाजसेवी थे। समाज में अर्थ-व्यवस्था की समस्याओं की गंभीरता को
उन्होने बड़ी गहराई से समझा था। जमींदारी व्यवस्था और काश्तकारों द्वारा खेती का
प्रारम्भ उन्नीसवीं सदी के द्वितीय अर्धांश में हुआ था। जमींदारी प्रथा के
संक्रामक किटाणुओं ने बिहार की कृषि आबादी के असंख्य लोगों को आदमखोर बना डाला था।
जमींदारी प्रथा का भयानक नतीजा इतना घृणित बन गया था कि प्रत्येक वर्ष झुंड के
झुंड छोटे-छोटे किसान अपनी जमीन से हाथ धोकर खेतिहर मजदूरों की श्रेणी में आ जाते
थे। इस प्रथा ने समाज के सामने बेकार भूखे और अभावग्रश्त लोगों की एक जमात का सृजन
कर दिया था।
कृष्ण
बल्लभ बाबू अपनी सार्वजनिक जीवन में कृषि आबादी के ऐसे असंख्य लोगों को, इस प्रथा के कारण जिनका साधारण जीवन अभाव, ऋण और
अपमान में बीतता था, इस शोषण से मुक्त करने का संकल्प बहुत
पहले से ही अपने हृदय में संजोय हुए थे। 1951 में अखिल भारतीय काँग्रेस कमिटी की बैठक
जो बैंग्लोर में हुई थी उसमें चुनाव घोषणा पत्र के रूप में काँग्रेस ने जो प्रस्ताव
पारित किया था उसमें भूमि-सुधार के संबंध में यह कहा गया था कि ‘हमारी भूमि व्यवस्था ऐसी संगठित होनी चाहिए कि भूमि पर मेहनत मजदूरी करने
वाले लोगों को अपने परिश्रम का लाभ मिले। भूमि का व्यवहार राष्ट्र की संपत्ति के
तौर पर हो’। अखिल भारतीय काँग्रेस कमिटी ने इस संबंध में यह
भी कहा था कि ‘अपनी ग्रामीण अर्थ-व्यवस्था के पूर्णगठन में
पहला कदम पृथक-पृथक व्यक्तिगत स्वार्थों के खिलाफ गाँव को बतौर एक सामाजिक और
आर्थिक इकाई के रूप में सुदृढ़ बनाने के लिए प्रभावात्मक शासन व्यवस्था स्थापित
करने का है’। आर्थिक शोषण प्रणाली की अनियंत्रित गति को
कृष्ण बल्लभ बाबू जब राजस्व मंत्री बने तो उन्होने तात्कालिक शासकों ने जमींदारों
के सहयोग से जो पूंजीवादी व्यवस्था पर अर्थ-प्रणाली के प्रकृतिक विकास को बनावटी
तरीके से रोका था उन्होने अपने कठोर कदमों से उस ढांचे को खत्म कर दिया था। 1947
में बिहार विधान सभा में जमींदारी प्रथा उन्मूलन हेतु कृष्ण बल्लभ बाबू ने विधेयक
प्रस्तूत किया था वो 1948 में दोनों सदनों में मंजूर हुआ। किन्तु जमींदार इस नए
कानून को सहज रीति से स्वीकार करने को तैयार नहीं थे और उनलोगों द्वारा इसे निष्फल
करने हेतु मुक़दमेबाज़ी शुरू हुई। कृष्ण बल्लभ बाबू का दृढ़ संकल्प और शोषित समाज के
प्रति दृढ़ सेवा भावना का ही फल था कि भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने सारी आपत्तियों
को अस्वीकार कर दिया और बिहार भूमि सुधार अधिनियम यहाँ लागू हुआ। बिहार के किसान
और खेतिहर मजदूरों के बीच कृष्ण बल्लभ बाबू का नाम सदा श्रद्धा से याद किया जाएगा।
बिहार
में कृष्ण बल्लभ बाबू भूमि सुधार के जनक माने जाएगें। इस राजी में भूमि सुधार और
कृष्ण बल्लभ सहाय दोनों पर्यायवाची हो गए हैं। कृष्ण बल्लभ बाबू राष्ट्रीय चेतना
और स्वतन्त्रता के लिए होने वाले संघर्षों की उस पीढ़ी के प्रतिनिधि थे जिसने
सामाजिक एवं राष्ट्रीय हित में निजी स्वार्थ का परित्याग किया। कृष्ण बल्लभ बाबू
पुरानी पीढ़ी के उन महान देशभक्तों और समाज सुधारकों में से थे जिनके स्मरण से
राष्ट्रीयता, रचनात्मक कार्यों एवं कार्यकर्ताओं के
प्रति प्यार की नयी प्रेरणा मिलती है।
कृष्ण
बल्लभ बाबू के संबंध में एक और बात है। बिहार में जात-पांत की दीवारों का तो ऐसा
तांता रहा है कि कोई किस-किस से अपना दामन बचाए। लेकिन कृष्ण बल्लभ बाबू अपने
अपनापन के दौर से अपना दामन बराबर बचाए रहे।
राजनैतिक
व्यक्तियों से भरे आकाश में विशुद्ध समाज सेवा करनेवाले व्यक्तियों की खोज करने के
लिए एक महत्वपूर्ण आकांक्षा एवं योजना होनी चाहिए। ऐसे लोगों को हम भूलते जा रहे
हैं और उनके कार्यों का मूल्यांकन कुछ मात्र में यदा-कदा केवल जयंती मनाकर समाप्त
कर देते हैं। इससे किसी का लाभ होने को नहीं है।
श्री
कृष्ण बल्लभ सहाय की जीवन गाथा से नयी पीढ़ी अनभिज्ञ है। आवश्यकता इस बात की है कि
उनके जीवन के विविध अंगों से समाज को भिज्ञ बनाया जाये। सामाजिक कार्यकर्ताओं के
प्रति बड़े उदार और स्नेहशील थे। अपने जीवन में उन्होने ऐसे असंख्य लोगों को आर्थिक
और आँय सहायता देकर उन्हें परेशानियों से जीवन-पर्यंत बचाते रहे। अपने राजनैतिक
जीवन में उन्होने समाज सेविकों और कार्यकर्ताओं को बहुत कुछ दिया है- अपने परिवार
को कुछ नहीं।
कृष्ण
बल्लभ बाबू एक राष्ट्रप्रेमी, समाजसेवी, कुशल प्रशासक, उदार सहानुभूतिपरण, अभाव-पीड़ित-प्रेमी एवं संवेदनशील व्यक्ति थे। ऊपर से जितना ही कठोर दिखते
थे उसके विपरीत भीतर से उतना ही कोमल एवं कल्याणमय थे। एक तीखी जिह्वा के सिवा वे
सर्व-गुण सम्पन्न थे। परंतु तीखी जिह्वा के नीचे तीखा मन नहीं था, अपितु हृदय की विशालता और मानवीय भावनाएँ थीं। नीति और सिद्धान्त वाले
व्यक्ति होने के कारण अपने सिद्धांतों और संकल्पों का वे बड़ी दृढ़ता से पालन करते
थे।
यह
आश्चर्यजनक संजोग है कि कृष्ण बल्लभ बाबू ने बिहार विधान परिषद के सदस्य के रूप
में अपना संसदीय जीवन प्रारम्भ किया था और बिहार विधान परिषद के सदस्य के रूप में
ही उनका देहांत हो गया। 1924 में बिहार विधान परिषद की सदस्यता से कृष्ण बल्लभ
बाबू का संसदीय जीवन प्रारम्भ हुआ था और 1974 में परिषद के सदस्य के रूप में उनका
जीवन समाप्त हुआ। अपने निधन के कुछ ही दिन पूर्व हजारीबाग गिरिडीह स्थानीय
प्राधिकार निर्वाचन क्षेत्र से वे बिहार विधान परिषद के रूप में निर्वाचित हुए थे।
यह बिहार विधान परिषद के लिए गौरव और विषाद का विषय ही माना जाएगा कि कृष्ण बल्लभ
बाबू के संसदीय जीवन का प्रारम्भ और अंत दोनों परिषद के सदस्य के रूप में हुआ।
सामाजिक और सार्वजनिक जीवन में कुछ ऐसे भी दौर आते हैं जब बड़े भारी मन से ऐसी
क्षति को सहना पड़ता है जिसकी पूर्ति नहीं हो सकती। श्री कृष्ण बल्लभ बाबू का निधन
एक ऐसी ही क्षति है।
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