Tuesday 2 June 2020

श्री के बी सहाय एवं कार्यकर्ता -रामेश्वर प्रसाद सिंह, कदम कुआं, पटना



श्री के बी सहाय एवं कार्यकर्ता
-रामेश्वर प्रसाद सिंह, कदम कुआं, पटना
(कृष्ण बल्लभ सहाय जयंती समारोह, द्वारा 31 दिसंबर 1988 को प्रकाशित स्मारिका से साभार)

श्री कृष्ण बल्लभ सहाय, पिता का नाम श्री गंगा बाबू निवास स्थान गंगा के पवित्र पावन स्थान पुनपुन के ठीक सटे शेखपुरा थाना फतुहा, ज़िला पटना के मूल निवासी थे। इनके चाचा का नाम गोपी बाबू था जो पुरंधरपुर पटना में रहते थे। इनकी शिक्षा शेखपुरा से ही आरंभ हुई। मेरा भी ननिहाल ग्राम शेखपुरा, थाना फहुहा ज़िला पटना में है। हमारे नाना स्वर्गीय काशीनाथ उसी गाँव में जाकर रहने लगे। काशीनाथ के बड़े भाई स्वर्गीय हीराबाबू थे। गंगा बाबू, काशी बाबू और हीरा बाबू में काफी प्रेम था। चूंकि दोनों एक ही चित्रगुप्त परिवार से आते थे।

मैं अपनी चचेरी नानी हीराबाबू की धर्मपत्नी के साथ अक्सर कृष्ण बल्लभ बाबू के चाचा गोपी बाबू के निवास स्थान पुरंधरपुर पटना में आया जाया करता था उस समय मैं छोटा बालक था। हमारे परिवार के मामा स्वर्गीय राजेंद्र प्रसाद और बालकेशवर प्रसाद, के.बी.सहाय के काफी नजदीक में रहने का इनलोगों को मौका मिला। चूंकि यह लोग भी उनके अपने सम्वन्धीगण थे।

स्वर्गीय के. बी.सहाय के छोटे भाई स्वर्गीय डॉक्टर दामोदर प्रसाद का निवास स्थान दरियापुर गोला पटना में है। दामोदर प्रसाद के निवास स्थान पर बिहार के जाने माने राजनीति के बड़ी बड़ी हस्तियों का जमघट लगा रहता था। उस वक़्त हम कार्यकर्ता लोग डॉक्टर साहब के निवास स्थान पर अक्सर आया जाया करते थे और के.बी.सहाय के पुत्र राम बाबू, गुतूल बाबू और भतीजा तारा बाबू से काफी अच्छी ताल्लुकात थे। हम-लोग अक्सर मिला-जुला करते थे। चूंकि मेरा भी निवास स्थान दरियापुर गोला पटना में ही है और मैं भी चित्रगुप्त परिवार का एक छोटा सा सिपाही हूँ।

उस जमाने में काँग्रेस की तूती बोलती थी और जाने-माने कर्मठ योग्य मुख्यमंत्री श्रीबाबू (श्रीकृष्ण सिन्हा) का जमाना था। श्रीबाबू के आशीर्वाद से श्री के.बी.सहाय जी को बिहार की राजनीति में राजस्व मंत्री के पद पर नियुक्त किया गया और भारतवर्ष के इतिहास में श्री के.बी.सहाय ने जमींदारी प्रथा को समाप्त कर बिहार की गरीब जनता को राहत दिलाया। श्री के.बी.सहाय का नाम बिहार के कोने-कोने में गूंज रहा था। हमलोग अक्सर शाम के समय उनकी प्रतीक्षा में डॉक्टर दामोदर बाबू के निवास पर बैठे रहते थे। श्रीकृष्ण सिन्हा ने श्री कृष्ण बल्लभ बाबू जी को नवशक्ति साप्ताहिक और राष्ट्रवाणी दैनिक का भार भी उनके माथे पर दे दिया और के.बी. सहाय ने उनके आदेश का पालन करते हुए सिर-आँखों पर रखकर कार्य सम्पादन किया। दोनों समाचार पत्रों की गूंज गूँजती रही। श्रीबाबू ने अपने जीवनकाल में भविष्यवाणी की थी कि हमारे मरने के बाद अगर बिहार में काँग्रेस का कोई सच्चा सिपाही होगा तो वो के.बी. सहाय ही होगा। और आगे चलकर उनके मरणोपरांत के.बी. सहाय बिहार सरकार के मुख्यमंत्री बने तथा श्रीबाबू की बात सत्य निकली। के. बी. सहाय सच्चे सिपाही के रूप में कार्यकर्ता थे और जनता से भी बराबर मिलते-जुलते रहते थे। सही मायनों में गरीबों के मसीहा थे। एक दिन अचानक उनकी गाड़ी (BRM 101) हजारीबाग के चुनावी इलाके में काँग्रेस के दफ्तर के सामने आकर रुकी और के.बी.सहाय जो अगली सीट पर बैठे थे, उतरे और अपने छोटे भाई डॉक्टर दामोदर प्रसाद से पूछा कि कार्यकर्ता लोग कहाँ हैं। हम कार्यकर्तागण एक पंक्ति में खड़े थे। हमलोगों ने झट चरण छूकर नतमस्तक किया। वे पूछने लगे कि खाने-पीने का क्या इंतजाम है। हमलोगों ने कहा कि सूखी पावरोटी और चाय मिलती है। इतना सुनते ही वे आग बबूला हो गए और डॉक्टर साहब से कहने लगे कि कौन इंतज़ामकार हैं। उन्हें बुलाएँ। बुलवा कर उन्हें खरी-खोटी सुनाई। जब-जब चुनाव का समय आता था, हम कार्यकर्तागण के. बी.सहाय के क्षेत्र में जहां से वे, चुनावी दंगल में खड़ा होते थे सब तन-मन-धन से प्रचार में लग जाते थे।

इसी प्रकार 1962 में जब के बी सहाय पटना पश्चिम (207) विधान सभा क्षेत्र के चुनावी दंगल में उतरे तो हमलोगों ने खुले दिल से साथ दिया और डॉक्टर साहब के निवास पर बड़े-बड़े राजनीतिज्ञों का जमघट लगा ही रहता था। इनमें डॉक्टर कोहली, रविशंकर खन्ना, झमेली साव, बदरी बाबू, निरंजन बाबू, कामता बाबू आदि प्रमुख थे। डॉक्टर दामोदर प्रसाद के दामाद फनीभूषण प्रसाद अधिवक्ता, और वर्तमान में पटना हाई कोर्ट के जज इन लोगों के साथ रहकर हम पटना के कार्यकर्ता सदैव काँग्रेस के समर्पित सिपाही की तरह कार्य करते रहे। स्वर्गीय के.बी. सहाय से जो हमलोगों का रिश्ता था, वो पिता-पूज्य के समान था। वे गरीबों की शादी-व्याह, मरनी-हरणी, नवयुवकों की पढ़ाई लिखाई के बारे में रुचि लेते थे। काँग्रेस पार्टी के फ़ंड से सबों को उचित सहायता दिलाते थे। उसी समय लोक-सभा और विधान-सभा (1962) का चुनाव एक ही समय निश्चित हुआ था और पटना संसदीय क्षेत्र से श्रीमती रामदुलारी सिन्हा प्रत्याशी थीं। के.बी. सहाय की रहनुमाई में उनकी भी जीत हुई।

अनेक कार्यकर्ता रामेश्वर प्रसाद सिन्हा, कैलाश पासवान, माणिक लाल, प्रकाश राऊत, रामचंद्रा यादव, सरयू गोप, शिव प्रसाद, जगदीश प्रसाद, बलदेव प्रसाद, गनौरी राम, आदि घर-घर घूम कर काँग्रेस के लिए वोट मांगते थे। जनसंघ प्रत्याशी को बाईस हज़ार वोट से हरा कर निर्वाचित घोषित हुए। उन्होने जीतने के बाद आम जनता के बीच अपने निवास स्थान छज्जुबाग में यह वादा किया कि हमारी पार्टी की सरकार पूरे बिहार प्रांत में जनता के हित के कार्य करेगी और उन्होने मंत्री के रूप में पूरे पटना में बिजली के पोल पर स्ट्रीट लाइट की व्यवस्था करवाई। गली-कूचे का पक्कीकरन किया और पानी की व्यवस्था की। जब वे स्वतः कामराज योजना में बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में पदभार ग्रहण किया तो मानो बिहार की जनता को लगा कि श्रीबाबू के बाद एक सच्चा सिपाही बिहार को मिला है। श्रीबाबू ने अपने जीवांकाल में ही यह भविष्यवाणी की थी कि हमारे मरने के बाद अगर बिहार का कोई सच्चा सिपाही है तो वह है के.बी.सहाय। जो शिक्षा में एम.ए. प्रथम श्रेणी में प्रथम गोल्ड मेडलिस्ट थे। इनके डर से आई.पी.एस. और आई.ए.एस. का कलेजा काँपता था। उनसे बड़े-बड़े पूंजीपति जमाखोर और गुंडे तत्व घबड़ाते थे। मानो एक शेर के गर्जन से पूरा जंगल हिलने लगता है। जब-जब बिहार पर विपत्तियाँ आई, के.बी.सहाय ने गरीबों के लिए अपना खज़ाना खोल दिया।

यही नहीं ब्रजलाल प्रसाद तात्कालिक, एम.एल.ए. के माध्यम से पार्टी के गरीब विधायकों एवं कार्यकर्ताओं को पार्टी फ़ंड से महीनवारी भी दिलाते थे। राजनीति के हलक़ों में इन्हें लोग राजनीति का बैंक बैलेन्स समझते थे। गरीबों के लिए फ़ंड कब कहाँ से आवेगा इसकी सारी जवाबदेही अपने ऊपर लेकर प्रखण्ड स्तर से लेकर प्रांतीय स्तर तक कार्यकर्ता को संगठित करते थे। यही उनकी अपूर्व इच्छा रहती थी। अपने मुख्यमंत्री काल में ही बिहार के सरकारी कर्मचारियों के हित के लिए पारिवारिक पेंशन का भी नियम बनाया। ये दिन थे के.बी.सहाय के। लोगों पर बरस पड़ते थे, लेकिन दिल में इतना प्यार और स्नेह था मानो एक देवता की मूर्ति थे।  भारत के इतिहास में गिने-चुने मुख्यमंत्री यथा बंगाल के बिधान चन्द्र राय, पंजाब के प्रताप सिंह कैरों, राजस्थान के मोहन लाल सुखाडिया और उत्तर प्रदेश के चन्द्रभानु गुप्ता के समकक्ष के.बी.सहाय की तूती बोलती थी। इनका नाम भारत के इतिहास में अमर रहेगा। जब श्री कृष्ण बल्लभ बाबू 1967 के चुनावी दंगल में उतरना चाहा तो ऐन मौके पर कुछ गद्दारों ने खादी-भवन में जो घटना घटाई वो सबों को मालूम है। लेकिन साहस के साथ कमर कसकर चुनावी दंगल में पटना पश्चिम और हजारीबाग दोनों जगह से प्रत्याशी के रूप में जनता की अदालत में पेश हुए। हमलोगों ने उनके मरहूम पुत्र सोमा बाबू के साथ रहकर पहाड़ी इलाकों में काम किया और उनके पुत्रों राम बाबू, गुतूल बाबू, भतीजा तारा बाबू, राधाकान्त बाबू इनलोगों का स्नेह और प्रेम भी हम कार्यकर्ताओं को मिला। हमलोग घूम-घूम कर उनके लिए जनता के बीच वोट मांगें। बराबर कार्यकर्ता के खाने-पीने की पूछताछ काँग्रेस के कर्मठ एवं योग्य सिपाही के.बी. सहाय ने किया। उनके मुख्यमंत्री काल में हत्या, लूट, डकैती का नाम नहीं था। लगता था बिहार की जनता, बच्चे, बूढ़े, माताएँ और बहने सुख-चैन की नींद सोती थीं। जब के.बी.सहाय को कुछ अपने ही दोस्तों ने विश्वासघात कर बाबू महामाया प्रसाद सिन्हा के दंगल में उतारकर हराने का पूरा षड्यंत्र रचा और अपने ही लोगों ने कसमें खाई कि सहायजी को किसी भी कीमत पर हराना है। सिर्फ रामलखन सिंह यादव ने तन-मन-धन से उनका साथ दिया और उनके कार्यकर्ता जो उनके करीब थे उनके दुख-दर्द में शरीक हुए। जब के.बी.सहाय दोनों क्षेत्र से चुनाव हार गए तो हम कार्यकर्ता लोग छज्जुबाग उनके निवास पर बैठकर मायूस हो रहे थे। उनके पुत्र गुतूल बाबू हमलोगों के साथ बैठकर चुनावी हलचलों पर बातचीत कर रहे थे और हमलोगों की आँखों में आँसू थे। लगता था हमलोग स्वयं हार गए हैं। अचानक के.बी.सहाय स्वयं बाहर आए और हमलोगों से हालचाल पूछा। उन्होने कहा कि जो घोडा पर चढ़ता है वही गिरता है। घबड़ाने की बात नहीं है। उनके इतना ढांधस बंधाने पर हमलोगों की जान में जान आई। हमलोगों का पीठ थपथपाया। जब बिहार के निर्वाचित मुख्यमंत्री का भार महामाया प्रसाद सिन्हा के कंधों पर आया, तो चूंकि सतरंगी सरकार थी, आपस में मेल नहीं था तो कुछ समय बाद यह सरकार हिलने लगी। इसी संदर्भ में बिहार के शेर श्री के.बी.सहाय ने कमर कसकर सतरंगी सरकार को उखाड़ फेंकने का ऐलान कर दिया। एम.एल.ए. फ्लैट नंबर 18 से मात देने की बिगुल बज गयी।  पूरे बिहार में जनता को एकत्रित किया गया। सरकारी कार्य पंगु हो गए थे। उसी समय के.बी.सहाय ने नव-राष्ट्र समाचार पत्र निकाला और उसके माध्यम से सरकार की छवि जनता के सामने फरमाया। 18 नंबर फ्लैट में रामलखन सिंह यादव, के.के.मण्डल, के.एन.सहाय, राम नारायण बाबू, लखन सिंह, कैलाश पासवान, केशव दास, राम बाबू आदि लोग शरीक हुए और कार्यकर्तागण महामाया बाबू की सरकार के खिलाफ जनमत तैयार किया। के.बी.सहाय ने मरहूम बी.पी.मण्डल को बिहार के मुख्यमंत्री के पद पर (शोषित दल) नाम से किया। आश्चर्य की बात है कि बी.पी.मण्डल लोक-सभा के सदस्य थे। के.बी.सहाय ने कानूनी रूपरेखा देकर तात्कालिक एम.एल.सी.  परमा बाबू (बिहटा शुगर के मालिक) को बिहार विधान परिषद से त्याग पत्र दिलाकर वह स्थान रिक्त कराकर बी.पी.मण्डल को परिषद का सदस्य बनाकर मुख्यमंत्री का कार्यभार दिलवाया। वह इतिहास हमारे मरहूम के.बी.सहाय का था। और दुख की बात है कि कृष्ण बल्लभ बाबू जब पुनः विधान परिषद के चुनाव में जनता के बीच निर्वाचित हुए तो बिहार के कुछ गद्दारों ने उन्हें 3 जून 1974 को गाड़ी की दुर्घटना में मरवा दिया।                      
               

अनुशासन और स्नेह के प्रतिरूप कृष्ण बल्लभ बाबू- -डॉक्टर महेश कुमार सिन्हा, सहायक संपादक, आकाशवाणी, पटना




अनुशासन और स्नेह के प्रतिरूप कृष्ण बल्लभ बाबू-
-डॉक्टर महेश कुमार सिन्हा, सहायक संपादक, आकाशवाणी, पटना  
(कृष्ण बल्लभ सहाय जयंती समारोह, द्वारा 31 दिसंबर 1988 को प्रकाशित स्मारिका से साभार)


जनवरी महीने की धून्ध भरी सिहरती सुबह थी और तैयार होते-होते समय काफी निकल चुका था। जल्दी-जल्दी मैंने चाय पी और लपकते हुए निकला। रिक्शावाला था कि पेडल पर उसके पैर ही नहीं चल रहे थे। मुख्यमंत्री निवास पहुंचा तो सुबह के नौ बजकर दो मिनट हो चुके थे। गेट पर परिचय आदि की औपचारिकताओं से निपटकर रिकॉर्डर संभालता हुआ बरामदे के पार पहुंचा तो एकबारगी सन्न रह गया। मुख्यमंत्री कृष्ण बल्लभ सहाय अपने चिर-परिचित अंदाज़ में, दाहिने हाथ में धोती का छोर काफी ऊपर उठाए हुए, गहरे भूरे रंग के बंद गले कोट और शुभ्र खादी की टोपी धारण किए बरामदे पर ही चहलकदमी कर रहे थे। मैं लपक कर गया और उनके अंतरंग मित्र परमा बाबू ने जैसे परिचय कराते हुए कहा, महेशजी हैं, आकाशवाणी से आए हैं, रिकॉर्डिंग के लिए। कृष्ण बल्लभ बाबू झटके से रुके और उन्होने निमिष भर के लिए मुझे घूर कर देखा। उस बेधती दृष्टि के सामने मैं जैसे बौना हो गया और वह दृष्टि तेज नश्तर की तरह मेरे आरपार हो गयी। कृष्ण बल्लभ बाबू तेज स्वर में बोले, आप आकाशवाणी में काम करते हैं? क्या आपका कोई कार्यक्रम एक मिनट देर से शुरू होगा? मैंने नौ बजे का समय दिया था पर आप आए हैं पाँच मिनट देरी करके। आकाशवाणी में समय की पाबंदी क्या ऐसे ही निभाई जाती है’? मैं अवाक था। जवाब क्या दूँ कुछ सूझ नहीं रहा था। बड़ी मुश्किल से बोला, मुख्यमंत्रीजी बात यह है कि मैं पहुंचता तो समय से ही लेकिन दरअसल...। बात काटते हुए वे और ज़ोर से बोले, एक तो देर से आने की गलती की आपने, और दूसरे इसे किसी प्रकार उचित ठहरना चाहते हैं। मेरे पास अब समय नहीं है, दूसरा काम करना है रिकॉर्डिंग अभी नहीं हो सकेगी। और इसी के साथ वे तेज कदमों से अंदर कमरे में चले गए। मैं रूआँसा हो गया और थोड़ी देर हथबुद्धि सा खड़ा रहने के बाद गेट की तरफ वापस लौटने लगा। गेट तक पहुंचा ही था कि मेरा नाम लेकर पुकारते हुए परमा बाबू नजदीक पहुंचे और मुसकुराते हुए बोले, चलिये, महेशजी फिर पेशी है। आपको बुला रहे हैं। मैं चकरा गया। यह कौन सा तरीका है मुख्यमंत्री का? पहले डांट-फटकार और फिर बुलाहट। खिन्न मन से परमा बाबू के साथ वापस सहमते हुए कमरे में घुसा। कृष्ण बल्लभ बाबू ने जोरदार ठहाका लगाते हुए मुझे कुर्सी पर बैठने का इशारा किया और परमा बाबू को आदेश दिया, भाई, महेश बाबू के लिए चाय-नाश्ता मंगवाईए, नहीं तो हमसे प्रश्न कैसे करेंगें’? मेरी बुद्धि चकरा गयी थी और मैं चुपचाप कुर्सी पर बैठकर रिकॉर्डर ठीक करने लगा। नाश्ते के बाद जो इंटरव्यू मैंने रेकॉर्ड की वह शायद मेरे जीवन का अत्यंत सुखद और चमत्कारपूर्ण अनुभव था।

मैंने इंटरव्यू रेकॉर्ड करने के क्रम में राज्य के विभिन्न मुद्दों और इसकी नानाविध समस्याओं से संबन्धित प्रश्न पूछे और जिस सुगमता और आत्मविश्वास से उन्होने उत्तर दिये वे अद्भुत थे। रिकॉर्डिंग के बाद जब उन्हें प्रणाम कर मैं जाने लगा तो बरामदे की आखरी छोर तक आकर मुझे विदा करने में जो स्वाभाविक सहजता और स्नेह का प्रदर्शन किया उससे मैं उनके प्रति इस तरह आकर्षित हुआ कि उसका बयान नहीं कर सकता। सचमुच कठोरतम अनुशासन और सहजतम स्नेह का दुर्लभतम मिश्रण था उनमें। समय की पाबंदी के वे इतने कायल थे कि इसमें कोई भी अगर जरा सा भी त्रुटि करता तो उसे दंड देने से जरा भी नहीं हिचकते थे, लेकिन दूसरों की भावनाओं का वे उतना ही ख्याल भी रखते थे और कई बार ऐसा भी हुआ जब उन्हें लगा कि वे जरूरत से ज्यादा कठोर हो गए हैं, तो बिना किसी भूमिका के अविलंब क्षमा याचना करने में भी उन्होनें देरी नहीं की। चूंकि मैं आकाशवाणी के प्रादेशिक समाचार एकांश का संवाददाता था और दिन भर समाचार की टोह में इधर-उधर भटकता रहता था, मुझे अनेक बार उनसे भेंट करने और बातचीत करने के अवसर प्राप्त हुए और हर बार मैंने इन दुर्लभ गुणों के उनमें दर्शन किए।

देश के परम प्रिय प्रधानमंत्री नेहरू का निधन हो चुका था और उनकी भस्मी का प्रवाह पटना में गंगा नदी के बीच धारा में किया जाना था। मैं आकाशवाणी की ओर से इन ऐतिहासिक क्षणों का आँखों देखा हाल सुना रहा था। मुझे अच्छी तरह याद है- नदी के किनारे जब भस्मी-कलश को स्टीमर पर रखा जा रहा था और मैं स्टीमर के कोने पर आँखों देखा हाल प्रस्तुत कर रहा था, कृष्ण बल्लभ बाबू की नज़र मुझ पर पड़ी। उन्होनें अविलंब लोगों की भीड़ को कलश के सामने से हट जाने के आदेश दिये, जिससे मैं सभी स्थिति का वर्णन सही ढंग से कर सकूँ। यही नहीं, भस्मी के प्रवाह के बाद स्टीमर जब किनारे लौटा तो उन्होने परमा बाबू को भेजकर इस बात की पूछताछ करवाई कि मुझे अल्पाहार और चाय आदि मिली अथवा नहीं।

एक ऐसी ही घटना का स्मरण मुझे हो आता है। मेरे अनुज उमेश विजय, जो अब कनाडा के नागरिक हैं और टेलीविजन फिल्म प्रोड्यूसर हैं, वो बॉम्बे में फिल्मोस्तान नमक फिल्मी संस्था द्वारा सिनेमैटोग्राफी के आयोजित शिविर के लिए छात्रवृति पाने को उत्सुक थे और राज्य सरकार से आर्थिक मदद चाहते थे। मैं उनका आवेदन तैयार कर उन्हें अपने साथ लेकर मुख्यमंत्रीजी से मिलने गया। मैंने उन्हें सारी बातें बताई और कहा कि इसमें उम्मीदवार का आधा खर्च फिल्मोस्तान संस्था देगी, और आधे खर्च की व्यवस्था अगर आप करवा दें तो बड़ी कृपा होगी। पहले तो कृष्ण बल्लभ बाबू ने लंबी डांट पिलाई कि राज्य सरकार ऐसे कार्यों के लिए अपना पैसा क्यों बर्बाद करेगी? मेरे छोटे भाई को भी उन्होने एक तरह से फटकारते हुए कहा कि फिल्म के चक्कर को छोड़कर उन्हें पढ़ाई-लिखाई में मन लगाना चाहिए और ऊंची शिक्षा प्राप्त करना चाहिए। हम दोनों चुपचाप सिर झुकाये उनके कमरे से निकल आए। मेरे छोटे भाई ने मुझे कोसना शुरू किया कि ऐसे आदमी के पास मैं उसे क्यों ले आया। लेकिन उस दिन मैं आश्चर्य-मिश्रित प्रसन्नता से मैं फुला न समाया जब मुख्यमंत्री सचिवालय से मेरे भाई के नाम एक पत्र आया जिसमें सरकार ने आधा खर्च करना स्वीकार कर लिया था और साथ ही फिल्मोस्तान के नाम मुख्यमंत्री का एक सिफ़ारशी पत्र भी था।

समाचार एकांश में मेरे सहकर्मी और अग्रज स्वर्गीय श्री राम रेणु गुप्तजी भी थे जो कृष्ण बल्लभ बाबू के द्वितीय सुपुत्र के अभिन्न मित्र थे। सोमेश्वर प्रसाद असाध्य रोग से पीड़ित होकर उपचार के लिए दक्षिण भारत संभवतः वेल्लोर गए थे और वहाँ उनका निधन हो गया। कृष्ण बल्लभ बाबू को अपने पुत्र के निधन की सूचना हजारीबाग में उस समय मिली जब वे वहाँ आयोजित किसी आमसभा में भाषण करने जा रहे थे। लेकिन उन्होने संयम और आत्मनियंत्रण का उस समय जो उदाहरण पेश किया, वो शायद ही कोई मनुष्य कर सके। पुत्र शोक में मर्माहत कृष्ण बल्लभ बाबू ने आमसभा का कार्यक्रम रद्द नहीं किया, बल्कि उस दिन उस सभा में उनका भाषण अत्यंत ही विचारोतेजक और ओजपूर्ण था।

कृष्ण बल्लभ बाबू की तीन-तीन पत्नियाँ हुईं और उनके कई लड़के-लड़कियां भी हुईं। कुछ लोगों ने व्यंग भी करना शुरू कर दिया कि यह मुख्यमंत्री परिवार नियोजन का जैसे बैरी है। लेकिन उन्होने अखिल भारतीय परिवार-नियोजन के पांचवे अधिवेशन के अवसर पर जो भाषण दिया उसमे इस आंदोलन के प्रति इनहोने एक नया ही दृष्टिकोण प्रस्तुत किया। उन्होने कहा, गर्भपात को वैध बनाने के लिए विशेष ज़ोर दिया जाता है लेकिन अपने देश में इसे पाप समझा जाएगा क्योंकि इसमें जीव-हत्या निहित है। अगर संयम और गर्भरोधक उपकरणों का उपयोग लोगों की मर्ज़ी पर छोड़ दिया जाये तो भी सफलता नहीं मिलेगी। होना यह चाहिए कि सर्वसाधारण को इसके प्रति समुचित शिक्षा दी जानी चाहिए और तभी इस समस्या का समाधान निकल सकता है।

इसी प्रकार सांप्रदायिक दंगे के बाद कृष्ण बल्लभ बाबू की संवेदना उनके इन शब्दों में व्यक्त हुई, जिनके माँ-बाप मारे गए, उन बच्चों के चिल्लाने की आवाज़ मैं सुन सकता हूँ।सारा बिहार दुखी होकर रो रहा है और उनके साथ बिहार का मुख्यमंत्री भी रो रहा है। लेकिन अपने देश के मुसलमानों को हम क्या कहें कि तुम पाकिस्तान चले जाओ? दरअसल गैर-मुसलमानों का फर्ज़ है वे उनकी व्यक्तिगत रक्षा करें
एक घटना मैं कभी नहीं भूल सकता। 1964 के आरंभ में कृष्ण बल्लभ बाबू पटना के सदाकत आश्रम के पास ब्रजकिशोर भवन में आयोजित किसी गोष्ठी में भाषण दे रहे थे। उस गोष्ठी में अन्य बड़े नेताओं के अलावे श्री जयप्रकाश नारायण भी उपस्थित थे। जिस समय जयप्रकाश बाबू का भाषण चल रहा था हाल में बैठे लोगों में से लगभग अंतिम छोड़ की तरफ से कुछ बातचीत करने की आवाज़ मंच तक आ रही थी। कृष्ण बल्लभ बाबू ने एक बार माइक पर लोगों से शांत होकर सुनने की अपील की। हाल में शांति छा गयी। लेकिन कुछ देर बाद फिर उसी स्थान से बातचीत करने की आवाज़ें आने लगी। कृष्ण बल्लभ बाबू अचानक मंच से उतरे और हाल में बैठे लोगों के बीच से तेजी से गुजरते हुए उस स्थान पर गए। वहाँ कम से कम दस व्यक्तियों को उन्होने कड़ाई से हाल से निकल जाने का आदेश दिया। पूरे हाल में सन्नाटा छा गया और कृष्ण बल्लभ बाबू के इस कठोर व्यवहार से मानो सब को साँप सूंघ गया। लेकिन उसके बाद फिर उस हाल में किसी ने चू तक करने की हिम्मत नहीं की। अनुशासन की कठोरता और स्नेह की मृदुता का ऐसा ओर-छोर था जिनके बीच वे जीवन की अनेकानेक कठिन समस्याओं और गुत्थियों को आजीवन सुलझाते रहे।         

कृष्ण बल्लभ सहाय -वाल्मीकि चौधरी महामंत्री, डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद विचार संस्थान



कृष्ण बल्लभ सहाय
-वाल्मीकि चौधरी
महामंत्री, डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद विचार संस्थान

(कृष्ण बल्लभ सहाय जयंती समारोह, द्वारा 31 दिसंबर 1988 को प्रकाशित स्मारिका से साभार)

कृष्ण बल्लभ बाबू के राष्ट्रीय और सार्वजनिक जीवन का इतिहास बिहार के असहयोग आंदोलन का इतिहास है। वह 1920 में महात्मा गांधी के आह्वान पर कॉलेज से उस समय निकले जब उनको स्वर्ण पदक प्राप्त हुआ था और आगे वो महात्माजी की पुकार पर असहयोग न किए होते तो सुखद जीवन के साथ-साथ सरकार में सर्वोच्च पद प्राप्त किए होते- उस सुख और आराम के ख्याल को त्याग कर वर्षों फकीरी अपनाए रहे। केवल फकीरी ही नहीं अँग्रेजी राज के कोपभाजन बनकर जनता जनार्दन की सेवा में लगे रहे।

छोटानागपुर में काँग्रेस का संगठन जो आप देखते हैं वह उन्हीं की देन है। उनमें अद्भुत संगठन शक्ति थी। वह उस जमाने में बिहार के नेताओं में इने-गिने में से एक प्रमुख नेता थे। यह बात अलग है कि जब बिहार में पहले पहल 1937 में काँग्रेस का मंत्रिमंडल बना तो वह मंत्री न होकर संसदीय सचिव बनाए गए पर जो चार मंत्री हुए उनमें से वो भी थे बल्कि कुछ से तो कई क्षेत्रों में अधिक लोकप्रिय और अग्रणी थे। बिहार के काँग्रेस कार्यकर्ताओं की जान पहचान में सबसे ज्यादा नहीं तो किसी से कम भी नहीं थे। कृष्ण बल्लभ बाबू केवल कार्यकर्ताओं से ही परिचय और अपनत्व नहीं रखते थे, बल्कि जब वे मंत्रिमंडल में रहे तो सचिवालय में आए प्रत्येक संचिका के पन्ने से परिचित रहते थे। इस तरह वो बिहार की सारी समस्याओं से अवगत रहते थे और उनका समाधान भी करते थे।

बिहार राज्य सामंतों और जमींदारों का राज्य माना जाता रहा है- इस सामंतशाही जमींदारी प्रथा के वे कट्टर विरोधी थे और उस विरोध को उन्होने सही समय में सही रास्ते से प्रगट कर बिहार से जमींदारी प्रथा का उन्मूलन किया। बिहार विधान सभा में कृष्ण बल्लभ बाबू के बयान और राष्ट्रीय नेताओं के पास उनके पत्र काँग्रेस मंत्रिमंडल के उज्ज्वल इतिहास के रूप में है।

कृष्ण बल्लभ बाबू संचिका के साथ उसमें जो समस्याएँ रहती थी उसे सुलझाने में जो इंसाफ करते थे वो किसी समय किसी भी मंत्रिमंडल के लिए प्रेरणा के श्रोत हैं। मंत्रियों में वैसे काम करने वाले बहुत कम हुए। कम क्यों न हों? दिन-प्रतिदिन और कम होते जाएंगें यदि वैसे काम करने वालों से प्रेरणा नहीं लेंगें तो। पुराने लोगों को भुलाते जा रहे हैं यह भी गिरावट का कारण है। संगठन के संबंध में, काम करने की शक्ति के संबंध में, कार्यकर्ताओं के प्रति समर्पित भावना के संबंध में, जिसका साथ दिया उसको कभी नहीं छोड़ा। ऐसे-ऐसे कितने गुण उनमें थे जिसको दो चार पन्नों में नहीं लिखा जा सकता है।

कृष्ण बल्लभ बाबू की जयंती के अवसर पर यह स्मारिका उनके बहुत सारे गुणों को उजागर करेगी और आगे इस संबंध में अधिक से अधिक खोज कर पूर्ण कागजात निकाले जाएँ –सबको इकट्ठा कर पुस्तक तैयार हो इसका प्रयत्न होना चाहिए।
      


श्री के. बी. सहाय की याद -आत्मदेव सिंह



श्री के. बी. सहाय की याद
-आत्मदेव सिंह

(कृष्ण बल्लभ सहाय जयंती समारोह, द्वारा 31 दिसंबर 1988 को प्रकाशित स्मारिका से साभार)


जब-जब 31 दिसंबर आता है तो श्री कृष्ण बल्लभ सहाय की याद हो आती है। बिहार में नेता बहुत पैदा हुए लेकिन श्री के.बी.सहाय में जो अलौकिक गुण थे वो गुण किसी बिरले नेता में ही होगा। हर महीने वो सैकड़ों लोगों को महीनवारी देते थे जिन्हें पैसे की खास जरूरत रहती थी। काँग्रेस कार्यकर्ताओं, स्वतन्त्रता सेनानियों के लिए उनका दरवाजा सदा खुला रहता था और यदि कोई भी उनके पास पहुँच जाता वह खाली हाथ नहीं लौटता था। एक बार विधान सभा के एक सदस्य ने कहा कि मुरली हिल्स की लीज में कृष्ण बल्लभ बाबू ने एक लाख रुपये घूस लिए हैं। श्री के.बी.सहाय ने सदन में उठकर कहा कि माननीय सदस्य को मालूम नहीं है, मैंने दो लाख रुपये लिए हैं और उसको लेकर मैंने सदन के नेता बिहार केसरी श्रीकृष्ण सिन्हा को दे दिये हैं और उन्हीं रुपयों से एक राष्ट्रीय हिन्दी दैनिक निकालने की योजना है। उसके बाद ही राष्ट्र-वाणी दैनिक का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ। उसकी जमीन लीज पर ली गयी एवं उसके भवन का निर्माण किया गया जहां आज भारत मेल प्रकाशित हो रहा है।

1937 में पहली बार मिनिस्टरी बनी थी, उस समय भी आप श्रीबाबू के संसदीय सचिव थे। उसके बाद 1946 एवं 1952 आप बिहार मंत्रिमंडल के सदस्य थे। आपके जिम्मे राजस्व, खान, जंगल, भूमि-सुधार और लघु-सिंचाई विभाग थे। आपके लिखे गए नोट्स को देखकर आई.सी.एस. अफसर भी घबड़ाते थे। कई बार आपने वैसे अफसरों की गलतियों को भी शुद्ध किया था। आप बहुत बड़े पार्लियामेंटरियन एवं लिखने-पढ़ने में आपका सानी नहीं था। एक बार श्री के.बी.सहाय के खिलाफ कुछ शिकायतें गांधीजी के पास गयी थी। गांधीजी ने कहा कि के.बी.सहाय को मंत्रिमंडल से हटा दिया जाना चाहिए। श्रीबाबू ने दिल्ली में तुरंत इस्तीफा दे दिया और कहा कि अनुग्रह बाबू जेनेवा जा रहे हैं उन्हें रोक लिया जाये और मुख्यमंत्री का पद उन्हें दे दिया जाये। अंत में सब भौचक्के से रह गए और बिहार के मुख्यमंत्री बने रहे और श्री कृष्ण बल्लभ सहाय उनके दाहिने हाथ के रूप में कार्य करते रहे।

बिहार में बिहार केसरी डॉक्टर श्रीकृष्ण सिन्हा, बिहार विभूति श्री अनुग्रह नारायण सिंह एवं बाबू कृष्ण बल्लभ सहाय बिहार कि राजनीति के ऐसे त्रिदेव थे जिन्हें भुलाया नहीं जा सकता। आज हम उन त्रिदेवों के साथ श्री के.बी.सहाय को उनके जन्म-दिवस पर श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं जिन्होने जमींदारों के शोषण से बिहार को मुक्त किया एवं अनेकों भूमि-सुधार के कार्यों के साथ बिहार के सदाकत आश्रम की टूटी मढ़ैया को एक भवन का रूप दे दिया। बिहार में कोई ऐसा सामाजिक कार्य नहीं था जिसमें के.बी.सहाय का सहयोग नहीं प्राप्त हुआ हो। आप छात्रजीवन में भी बहुत मेधावी रहे और विश्वविद्यालय में स्वर्ण पदक प्राप्त किया था। वे जातिगत राजनीति से बहुत दूर रहे थे। आज बिहार की स्थिति को देखकर कहना पड़ता है कि काश के. बी. सहाय कुछ दिन और रहते तो बिहार का कायाकल्प हो जाता।       

एक अनूठा व्यक्तित्व -उदयराज सिंह, पटना


एक अनूठा व्यक्तित्व
-उदयराज सिंह, पटना
(कृष्ण बल्लभ सहाय जयंती समारोह, द्वारा 31 दिसंबर 1988 को प्रकाशित स्मारिका से साभार) 


कृष्ण बल्लभ बाबू का बाहरी व्यक्तित्व इतना खुरदरा था कि लोग-बाग उनसे मिलने से घबड़ाते थे। उनसे मिलने से पहले लोगों की धुकधुकी बढ़ जाती थी कि पता नहीं कौन बात पर किस तरह झड़प दें। इसलिए उनसे मिलने से पहले लोगों का पसीना छूट जाता था। मगर बाहर से जितना ही वो खुरदरा थे भीतर से उतना ही मुलायम और एकाध झटके के बाद वो शांत हो जाते और मिलने वाले की दुखती रग को तुरंत पकड़ लेते थे। हर एक की मदद करने को तैयार- चाहे पैसे से यह देह से। इसलिए अपने मंत्रित्वकाल में वे सदा बदनाम रहे पैसे उगाहने को लेकर मगर जो भी पैसा लाते वो पार्टी को दे देते या कार्यकर्ताओं में बाँट देते अपने लिए कुछ नहीं रखते। उनका अपना जीवन तो एक झोला ढोने वाले कार्यकर्ता का ही रहा।

एक बार काँग्रेस के चुनाव प्रत्याशियों के चयन की मीटिंग सदाकत आश्रम में चल रही थी। उन दिनों वे मिनिस्टर नहीं थे और अपने मित्र परमा बाबू के मकान के बाहर बनी खप्पड़पोश कोठरी में रहते थे। जब भी हजारीबाग से आते तो ताला खोलकर अकेले ही रहते। मैं अपने भाई के लिए सीट की पैरवी में उनके पास पहुंचा। प्रणाम पाती के बाद बातें शुरू हुई और वो तख्त पर बैठे-बैठे ही अपने खादी भंडार के झोले से ढाढ़ी बनाने का पूरा सामान निकाल कर वहीं ढाढ़ी बनाने लग गए। देखा उसी झोले में एक धुली हुई धोती और गमछा भी था। यह छठे दशक की बात होगी। पांचवे दशक में वे श्रीबाबू के मंत्रिमंडल में सबसे प्रभावशाली मंत्री रह चुके थे और इसी चुनाव के बाद वह मुख्यमंत्री भी हुए मगर जब भी कुर्सी से दूर रहे उस अंतराल में एक मामूली काँग्रेस कार्यकर्ता की तरह ही रहे। उनके साथ कोई लाम-काफ नहीं था और न कोई भीड़-भाड़ ही। सभी समझते कि कृष्ण बल्लभ बाबू खत्म हो गए मगर उनमें प्रखर राजनीति की ऐसी सूझबूझ थी कि राजनीति में मरकर भी वो भरपूर जिंदा हो जाते। और यह भी आप नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते कि जाति से कमजोर और दुश्मनों से घिरे वो एक राजनेता थे।

यह तो आज सभी मानते हैं और बिहार का इतिहास भी साक्षी है कि श्रीबाबू के पास कृष्ण बल्लभ बाबू ऐसा बलशाली राजस्व मंत्री नहीं होता तो बिहार की जमींदारी प्रथा का इतना सहज अंत नहीं होता। सभी घात-प्रतिघात अपनी सबल छाती पर रोकते हुए वह विधान सभा में जमींदारी उन्मूलन कानून को पास करवा कर ही रहे। श्रीबाबू और कृष्ण बल्लभ बाबू की जोड़ी बिहार जमींदारी उन्मूलन में सदा जीवनी काम करता रहा।

एक बार कृष्ण बल्लभ बाबू मेरे पिता (स्वर्गीय राजा राधिका रमण प्रसाद सिंह) के निमंत्रण पर सूर्यपुरा पहुंचे। वहाँ स्कूल का वार्षिकोत्सव मनाया जा रहा था। उस दिन बड़े समीप से देखा कृष्ण बल्लभ सहाय जी कि कर्मठता। मोटर से उतरते ही प्रणाम कर बाबूजी से बोले राजा साहब मेरे स्टाफ के बैठने और टाइपिस्ट का काम करने की शीघ्र एक कमरे में व्यवस्था करवा दें। फिर उधर उनके सम्मान में आयोजित भोज पर वो बैठे और इधर टाईपिंग मशीन का खट-खट शुरू हुआ। एक ओर सार्वजनिक कार्यक्रम पूरा किया जा रहा था और दूसरी ओर उनके ऑफिस का कार्यक्रम भी पूरा हो रहा था। एक अज़ाब समा था हमारे बंगले पर।

जिस दिन लोकनायक जयप्रकाश नारायण वेल्लोर से अपना सफल ऑपरेशन कराकर सही सलामत पटना लौट रहे थे तो उस भीड़ में बिहार के उस भूतपूर्व मुख्यमंत्री को हाथ में फूल का माला लिए एक पंक्ति में लोकनायक के स्वागतार्थ मैंने खड़े देखा। कभी बिहार के मंत्री या मुख्यमंत्री की ऊंची कुर्सी पर उन्हें बैठे देखा और कभी आम कार्यकर्ताओं की कतार में खड़े भी देखा- दोनों ही स्थान पर मुझे वो सदा एक समान ही दिखे। अपनी धोती की एक खूंट को पकड़े हुए और प्रातः स्मरणीय राजेंद्र प्रसाद की गांधी टोपी कभी सीधी तो कभी आड़ी-तिरछी लगाए हुए। कपड़े और साज-श्रंगार में में सदा एक अनगढ़ किसान की ही तरह रहते थे।

अपनी पिता की मृत्यु के बाद मुझे उनकी फाइलों में वर्ष 1927-28 में कृष्ण बल्लभ बाबू की अपने हाथों लिखी एक चिट्ठी मिली। उन्होने हमारे चाचा स्वर्गीय राजीव रंजन प्रसाद सिंह को लिखा था कि गर्मी की एक मध्य दोपहरिया में विक्रमगंज स्टेशन पर उतरेगें और वहाँ एक इक्का लेकर मेरे गाँव सूर्यपुरा पहुंचेगें तथा मेरे चाचा से मिलकर शीघ्र पटना के लिए लौट जाएंगें। काँग्रेस के लिए रुपयों की आवश्यकता है और पूज्य राजेंद्र प्रसाद जी के आदेश पर वो सूर्यपुरा पहुँच रहे हैं।

मुझे दूसरे और सातवे दशक के कृष्ण बल्लभ सहाय में कोई भी भिन्नता नहीं दिखी। वो अपने को सदा काँग्रेस तथा देश का एक अदना सा सेवक ही मानते रहे।