Tuesday, 21 April 2020

ना भूले हैं ना भूलेंगें - शिव नन्दन प्रसाद ‘हर्षवर्धन’ अवकाश प्राप्त मुख्य अभियंता, पथ निर्माण विभाग, बिहार


ना भूले हैं ना भूलेंगें

शिव नन्दन प्रसाद हर्षवर्धन
अवकाश प्राप्त मुख्य अभियंता, पथ निर्माण विभाग, बिहार
(कृष्ण बल्लभ सहाय जयंती समारोह, द्वारा 31 दिसंबर 1988 को प्रकाशित स्मारिका से साभार)

कलम काँपती है, विशेष कर किसी ऐसे व्यक्ति के संबंध में कुछ लिखते हुए जिसके व्यक्तित्व का विस्तार इतना व्यापक रहा हो। इसलिए नहीं कि क्या लिखा जाये बल्कि इसलिए कि कहीं कुछ छूट न जाये। सहायजी के करीब रहने का अवसर तो मुझे नहीं मिल सका किन्तु उनसे मेरी मुलाक़ात कई बार हुई और जितनी दफा मैं उनसे मिला, एक नया छाप एक नयी छवि लेकर लौटा। हर बार मैंने उनका नया रूप देखा, शायद इसलिए वे मुझे सदा रामनाय लगे- यदा- कदा यवन्मुपैती। तदा तदा ही रमणीयतया। 1964  में मैं उनके पास अपने छोटे भाई के किसी काम की पैरवी करने के उद्देश्य से गया था। पहले तो वे बड़े प्यार से मिले। स्वागत-सत्कार किया। फिर इधर-उधर की बातें होने लगी। अंत में बातों का सिलसिला यानि काम की बात यानि पैरवी पर आकर रुका। पैरवी का जिक्र आते ही उनके तेवर बदल गए। उन्होने साफ इंकार करते हुए कह दिया कि यह मुझसे नहीं होगा। मैं लौट आया। समझ गया कि काम तो होने से रहा। किन्तु यह क्या? मुश्किल से सप्ताह भर बीता होगा, सूचना मिली कि जिस काम के लिए मैं उनके पास गया था, वो हो गया है। बाद में ज्ञात हुआ कि मेरे चले जाने के बाद उस संदर्भ में उन्होने छानबीन कारवाई, और जब उन्होने उसे उचित पाया तो उसके लिए विधिवत आदेश जारी कर दिया। मुझे बचपन में पढ़ा वह उक्ति याद हो आई- महापुरुषों का चरित्र नारियल के समान ऊपर से कठोर पर अंदर से कोमल और स्वच्छ होता है।

सहकारिता विभाग की एक घटना का उल्लेख करना चाहूँगा। एक संचिका पर सहायजी सहमति देते हुए उन्होनें लिखा था, सचिव की टिप्पणी उपयुक्त नहीं है। मैं सहायक की टिप्पणी से जो पृष्ठ संख्या 17 पर है से संतुष्ट हूँ।

बात जितनी साधारण सी दिखती है उतनी है नहीं। आज कितने मंत्रियों के पास इतना अवकाश है कि वे एक-एक संचिका को पृष्ठ दर पृष्ठ पढ़े? वैसे इतना तो कहा ही जा सकता है कि श्री कृष्ण बल्लभ सहाय ने अपनी प्रत्येक जिम्मेवारी चाहे वो एक पिता की रही हो, या एक पुत्र की रही हो या फिर एक राजनीतिज्ञ की रही हो या प्रशासक की रही हो- कुशलतापूर्वक निभाई और सारा कुछ इतना संतुलित रखा कि कहीं भी उनपर प्रश्न-चिह्न नहीं लगाया जा सकता है।

ऊपर मैं अपने छोटे भाई की पैरवी की बात कर चुका हूँ। यह भी कहा है कि सहायजी किसी की पैरवी नहीं करते थे। लेकिन उनके सारे नियम उनकी सारी निष्ठा उस समय समाप्त हो जाया करती थी जब किसी गरीब की मदद का सवाल उठता था। एक दफा जब मैं हजारीबाग में कार्यपालक अभियंता था तो उन्होनें मुझे अपने पास खास तौर से बुला कर कहा कि अमूक किरानी जो मेरे मातहत काम करता था बड़ी मुश्किल में है। बेचारे गरीब के साथ न्याय होना चाहिए। इतना ही नहीं, कुछ दिनों के बाद उन्होने उसके संबंध में पुनः पूछताछ की और मुझे साधुवाद भी दिया। गरीबों और असहायों के प्रति ऐसा भाव शायद ही देखने को मिले।

समय की पाबंदी की चर्चा के बगैर सहायजी की चर्चा शायद अधूरी ही रहेगी। मशहूर था कि यदि आपको घड़ी मिलानी हो तो सहायजी के कार्यक्रमों से मिला सकते हैं। इतने व्यस्त कार्यक्रमों के बावजूद वे किसी भी सभा में देर से नहीं पहुंचे। सवेरे सोने और सवेरे जागने वाला सिद्धान्त उनकी दैनिक क्रिया का अभिन्न अंग था। सुबह ठीक चार बजे जग जाते थे और रात्रि के ठीक नौ बजे सोने को चले जाते थे। उस समय जब वे मुख्यमंत्री थे, एक दफा भागलपुर आए। ढेर सारे लोग उनसे मिलने पहुंचे। मैं भी गया। बातें होने लगी, होती रही। जैसा कि आम तौर पर होता है किसी को समय का भान ही नहीं रहा। एकाएक सहायजी संयमित से उठे और मिलने वालों से विदा ली और शयनकक्ष की ओर बढ़ गए। भीतर जाते ही दरवाजा बंद कर लिए। तभी लोगों ने अपनी अपनी घड़ी पर नज़र डाला- रात्रि के नौ बज चुके थे।      

Sunday, 19 April 2020

कृष्ण बल्लभ बाबू – औद्योगिक बिहार के जनक -डॉक्टर पूर्णेंदू नारायण सिन्हा, भूतपूर्व मंत्री, बिहार सरकार



कृष्ण बल्लभ बाबू – औद्योगिक बिहार के जनक
-डॉक्टर पूर्णेंदू नारायण सिन्हा, भूतपूर्व मंत्री, बिहार सरकार   

(कृष्ण बल्लभ सहाय जयंती समारोह, द्वारा 31 दिसंबर 1988 को प्रकाशित स्मारिका से साभार)

मुख्यमंत्री बनने के कुछ ही समय बाद कृष्ण बल्लभ सहाय ने कहा था कि भारत के औद्योगिक मानचित्र पर बिहार का प्रमुख स्थान रहे ऐसी ही मेरी परिकल्पना है। इसके निमित्त उन्होने बहुत प्रयास किए।

मेरे समक्ष कभी-कभी एक प्रश्नवाचक चिह्न खड़ा होता है कि ऊपर से रुखड़ा दिखने वाला व्यक्ति विचारों में इतना आधुनिक कैसे था और इसका उत्तर बहुत विश्लेषण करने के बाद भी नहीं मिलता कि उस व्यक्ति में एक साथ परंपरा और आधुनिकता का सह-अस्तित्व कैसे हो सका। कदाचित जीवन का निर्माण काल छोटानागपुर में व्यतीत करने से उन्होने खनिज संपदाओं वनों और टिस्को आदि बड़े-बड़े कल-कारखाने से साक्षात्कार हुआ हो और औद्योगीकरण का प्रभाव क्षेत्र के आर्थिक विकास पर कितना प्रभावशाली होता है उसका भी उनके मानसपटल पर रेखांकन हुआ हो।

कालांतर में 1923 में जब वे बिहार एवं उड़ीसा विधान परिषद के सदस्य स्वराज पार्टी की टिकट पर निर्वाचित हुए तो उन्हें बिहार के पिछड़ेपन का और अधिक एहसास हुआ। वे जानते थे कि बिहार की जनसंख्या प्रतिवर्ष बढ़ रही है और बढ़ती हुई इस जनसंख्या का समुचित रूप से भरण-पोषण जमीन की पैदावार से नहीं हो सकती। यहाँ के लोगों को लघु-कुटीर, मंझौले और बड़े उद्योगों में लगाना आवश्यक ही नहीं वरन अनिवार्य है। उन्हीं के शब्दों में, आज बिहार की वर्तमान जड़ता को मिटाने के लिए इस राज्य में औद्योगीकरण के वृहत कार्यक्रम की आवश्यकता है। इस राज्य के अंदर प्रचूर मात्रा में कच्चे माल हैं, जन-शक्ति की भी कोई कमी नहीं है फिर भी औद्योगिक दृष्टि से यह पिछड़ा राज्य है। आज यहाँ की जनता की जीविका का मुख्य आधार कृषि है, और कृषि पर निर्भर लोगों में सबको इस कार्य में पर्याप्त नियोजन नहीं मिलता। आर्थिक दृष्टि से यह असंतुलन की स्थिति है। यह असंतुलन ठोस औद्योगिक आधार कायम होने पर ही पूरा किया जा सकता है। हमारे राज्य में जो भी साधन सुलभ हैं, उन्हें देखते हुए यह असंभव नहीं दिखा पड़ता। (दैनिक ईस्टर्न टाइम्स, कटक में प्रकाशित लेख का अनुवाद)

वे अक्सर जवाहर लाल नेहरू को अपने लिए औद्योगिक एवं वैज्ञानिक मार्गदर्शन का नेता मानते थे। उनका कहना था कि भारत में पाये जाने वाले तांबे का शतप्रतिशत अभ्रख का 65% कोयले का 60% और बाक्साइट का 56% तथा काफी परिमाण में लोहा भी यहाँ पाया जाता है। अन्य खनिज जैसे चीनी-मिट्टी, पाइराइट, क्वार्ट्ज़, चुना, टिन आदि भी यहाँ पाये जाते हैं। हाल ही में यूरेनियम भी यहाँ मिला है। इस संबंध में यह भी महत्व की बात है कि इन खनिजों में अधिकांश एक दूसरे के पास पाये जाते हैं और साथ ही ये कलकत्ता बन्दरगाह के भी निकट पड़ते हैं। इन खनिजों का यदि सुनियोजित ढंग से उपयोग किया जाये तो इनसे न केवल बिहार की आर्थिक स्थिति में परिवर्तन होगा, बल्कि पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से देश का जो विकास किया जा जा रहा है, उसके अंतर्गत औद्योगीकरण में भी इससे पर्याप्त सहायता मिलेगी।

वे राज्य के योजना मंत्री भी थे। सुनियोजित अर्थव्यवस्था के महत्व को उन्होने मूर्तरूप देने की कोशिश की। उद्योग की स्थापना हेतु उन्नत सिंचाई, बाढ़ नियंत्रण, आवास, जलापूर्ति, बिजली की गाँव में व्यवस्था, पक्की सड़क, रेल एवं सुदृढ़ परिवहन प्रणाली वे आवश्यक मानते थे। अच्छे तकनीकी व्यक्तियों के हेतु वे प्रशिक्षित तकनीकी मानव शक्ति और उसके तकनीकी ज्ञान को समय-समय पर बढ़ाने के लिए वे लघु प्रशिक्षण वर्कशॉप, विचार गोष्ठी, तथा विदेशों में प्रशिक्षण की भी प्रबंध करते थे। तकनीकी प्रशिक्षण संस्थान (विश्वविद्यालय से लेकर आई. टी. आई.) की उन्होने स्थापना की और पुराने संस्थानों का विकास किया। विभिन्न शोध संस्थानों की भी स्थापना उन्होने तकनीकी विभागों में की। वे योजनाओं को समुचित ढंग से कार्यान्वित करने हेतु तकनीकी व्यक्तियों को अक्सर प्रेरित करते थे।

उन्होनें लघु एवं कुटीर उद्योगों को व्यापक रूप देने हेतु खादी एवं ग्रामोद्योग आयोग के अध्यक्ष यू.एन.ढेबर से बातें की ताकि प्रत्येक गाँव में कुछ खादी एवं कुटीर उद्योग स्थापित हों। इससे गाँव की खुशहाली के अतिरिक्त ग्रामीण भाइयों को रोजगार एवं नियोजन का भी प्रबंध कुछ अंश में हुआ।

कृष्ण बल्लभ बाबू ने छोटानागपुर के पठारी इलाकों में खनिज पदार्थ पर आधारित एवं अन्य अभियंत्रण उद्योगों की स्थापना पर बल दिया। उन्होने छोटानागपुर में कपास की खेती को भी प्रोत्साहित किया। वे कहते थे कि कपास की खेती से किसान को सभी खर्च काट कर प्रति एकड़ 315/- रुपये का मुनाफा होगा। कपास की खेती वाली जमीन में सिंचाई की जरूरत नहीं होती। उन्होने छोटानागपुर क्षेत्र के लिए उर्वरक की व्यवस्था करवाई। उत्तर बिहार में वे गन्ने की खेती को प्रोत्साहित करते थे।

विद्युत आपूर्ति के महत्व को उद्योग, कृषि एवं घरेलू उपयोग को समझते हुए उन्होने विद्युत उत्पादन की क्षमता को बढ़ाया। पतरातू एवं बरौनी में दो बड़ी परियोजनाओं की स्थापना उनके काल में हुई। उन्हीं की प्रेरणा से केन्द्रीय हस्तशिल्प निगम परामर्शदात्री समिति ने चतुर्थ योजना काल में एक हज़ार नई सहकारिता समितियां बनाने की पहल की ताकि हस्तशिल्प उद्योग का विकास हो सके। श्रमिकों को उचित हक दिलाने के लिए तथा उनके जीवन स्तर को ऊंचा उठाने के लिए उन्होने बहुत सारी सहकारी समितियां बनाई।

1965-66 में बिहार राज्य में वन विकास निगम की स्थापना उन्होने की, जिसका मुख्यालय रांची में बना। इसके माध्यम से जंगलों का विकास एवं जंगल की लकड़ियों पर आधारित उद्योगों की आधारशिला रखी गयी। उद्योग के पुनर्जीवन एवं विकास के हेतु कई औद्योगिक प्रांगणों एवं केन्द्रों की तीन करोड़ रुपये में की लागत पर स्थापना हुई। उद्योग विभाग की कार्यप्रणाली की एवं शासन तंत्र में चुस्ती और दुरुस्ती लाने के लिए उन्होने कई कदम उठाए। राज्य सरकार एवं केंद्र सरकार के लोक उपक्रमों में सुरक्षा की व्यवस्था भी उन्होने कराई।

श्री सहाय ने पशु-धन के विकास के लिए उत्तर बिहार में महुआ एवं दलसिंघसराई प्रखंडों को चुना जिसमें 4.78 लाख रुपये का उपबंध किया गया। उन्होने बरौनी में ग्रामीण क्रीमरी के कारखाने की स्थापना की जो पूरी क्षमता में उत्पादन करता था।

उत्तर बिहार और दक्षिण बिहार को जोड़ने हेतु पटना में गंगा पर पुल की परियोजना उन्हीं के समय बनी और उसे सरकारी सहमति भी प्राप्त हुई। आज वह महात्मा गांधी सेतु के रूप में उत्तर बिहार के औद्योगिक विकास का बड़ा माध्यम बन गया है। 1310 मील लंबा राष्ट्रीय उच्च पथ भी इन्हीं के काल में बना।

पटना नगर के योजनाबद्ध विकास हेतु तत्कालीन केंद्रीय वित्त मंत्री टी. टी. कृष्णमचारी ने एक स्टेट्यूटरी परिषद की स्थापना का निर्णय लिया। यह श्री सहाय की प्रेरणा के कारण हुआ। केंद्रीय सरकार की समिति ने एग्रो-इंडस्ट्रियल कार्पोरेशन की स्थापना की भी सिफ़ारिश की । बिहार राज्य में नागरिक आपूर्ति निदेशालय की स्थापना भी श्री सहाय के समय में हुई ताकि वितरण आपूर्ति एवं वाणिज्य के कार्यों को सुचारु रूप दिया जा सके।

श्री सहाय के शासन काल में ही केंद्रीय पैट्रोलियम मंत्री प्रोफेसर हुमायूँ कबीर ने बरौनी तेल शोधक कारखाने का उदघाटन किया। उस समारोह में  कृष्ण बल्लभ बाबू ने मार्मिक भाषण दिया था।

आदित्यपुर औद्योगिक क्षेत्र विकास अथॉरिटी का भी मास्टर प्लान श्री सहाय के कार्यकाल में ही स्वीकृत हुआ। यह क्षेत्र 83 गाँव अर्थात 31883 एकड़ में फैला हुआ था।

बिहार राज्य कृषि उद्योग निगम एवं बिहार राज्य वस्त्र निगम की स्थापना भी इन्हीं के द्वारा सम्पन्न हुई।

सोवियत रूस के सहयोग और उनके द्वारा दिये गए 100.50 करोड़ रुपये ऋण से बोकारो स्टील का विशाल संयंत्र भी इन्हीं के काल में स्थापित हुआ था और उसने उत्पादन भी शुरू कर दिया था।

छोटानागपुर के लिए योजना एवं विकास के लिए क्षेत्रीय परिषद उन्हीं के समय में स्थापित हुआ। आदिवासियों की संस्कृति, सभ्यता, भाषाओं को अक्षुण्ण रखते हुए उनका आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षिनिक एवं सर्वांगीण विकास के हेतु उन्होनें इसके माध्यम से अथक परिश्रम किया। वे चाहते थे कि आदिवासी भाई राष्ट्र की मुख्यधारा से जुड़े।

तेनुघाट बांध का भी कृष्ण बल्लभ बाबू ने 14 मार्च 1966 के दिन उदघाटन किया था। इस परियोजना में 62 करोड़ रुपये खर्च हुए थे। इससे छोटानागपुर के पठारी इलाकों में जलापूर्ति की समस्या का निदान और सर्वांगीण विकास का मार्ग प्रशस्त हुआ।

कृष्ण बल्लभ बाबू इस बात से दुखी रहते थे कि बिहार राज्य में कार्य करने का महत्व लोग नहीं समझ पाये हैं और कठिन श्रम को अपने जीवन का अंग भी नहीं बना पाये हैं। उन्हीं के शब्दों में, हमारे समाज के लोग आज दो वर्गों में बंटे हैं- एक वर्ग उसका है जो किसी न किसी रूप में सरकारी खजाने से पैसे पाते हैं। उस वर्ग में मैं अपने को भी डालता हूँ। चाहे मुख्यमंत्री हो, इंजीनियर हो, ठेकेदार हो, -ये जीतने वर्ग हैं सरकारी कोष से रुपया पाते हैं। लेकिन हम लोग यह नहीं समझते कि यह गरीब का दिया हुआ पैसा है। अगर हम एक रुपया पाते हैं तो उसके बदले में हमें डेढ़ रुपये का काम करना चाहिए, नहीं तो कम से कम एक रुपये का काम तो अवश्य करना चाहिए लेकिन ऐसा होता कहाँ है?’

महंगाई का भी कारण उनकी नज़र में तीसरी पंचवर्षीय योजना में हमलोगों ने जितना खर्च किया उसके अनुसार हमलोगों ने धन नहीं पैदा किया। कृष्ण बल्लभ बाबू अत्यंत मेधावी होने के साथ-साथ घोर परिश्रमी भी थे। वे कहा करते थे कि कठिन परिश्रम के बिना बिहार जैसा पिछड़ा राज्य अपरिमित, प्राकृतिक, एवं मानव संसाधनों के रहते हुए भी आगे नहीं बढ़ सकता है।

यदि वे पाँच वर्षों तक मुख्यमंत्री और रह जाते तो बिहार को वे सचमुच ही भारत के मानचित्र पर प्रमुखतम स्थान दिलवा देते।
                
         
       

Friday, 17 April 2020

स्वर्गीय कृष्ण बल्लभ सहाय -श्री राधानन्दन झा, उपाध्यक्ष, राज्य नागरिक परिषद



स्वर्गीय कृष्ण बल्लभ सहाय
-श्री राधानन्दन झा, उपाध्यक्ष, राज्य नागरिक परिषद  

(कृष्ण बल्लभ सहाय जयंती समारोह, द्वारा 31 दिसंबर 1988 को प्रकाशित स्मारिका से साभार)


कर्तव्य-क्षेत्र की परिधि में यहाँ एक ओर अगणित लोग ऐसे मिलते हैं, जो अपने और अपने परिवारजनों के लिए कार्यरत रहे, अपने विचार और व्यक्तित्व का सृजन सम्पादन करते हैं, वहीं अनगिनत में एक ऐसा भी होता है जो अपनी निजता भुला एवं परिवार की परंपरागत निर्दिष्ट सीमाओं के संकोच से बाहर निकल अपने व्यष्टिरूप को समष्टिहित समर्पित कर देता है। ऐसा मानव अपने गुण, धर्म, कार्य और व्यापार के कारण समाज के तत्वों की संपूर्ति का साधन बन जाता है और उसके प्रयत्न और कार्यों से समाज का जो स्वरूप बनता है, वह है उसके व्यष्टिरूप की प्रतिछाया। अतीतकाल में और आधुनिक युग में भी ऐसे अनेक महानुभव हुए हैं जिन्होने अपने व्यष्टिरूप को समष्टिहित अर्पित कर उसका साज-श्रंगार किया है और उसके इस अर्पण समर्पण के कारण ही उनका समकालीन समाज उन्हीं के स्वरूपों में प्रतिबिम्बित और प्रतिभाषित हुआ है। ऐसे महानुभवों की श्रेणी में श्री कृष्ण बल्लभ सहाय थे।

स्वाधीनता प्राप्ति के पश्चात बिहार प्रदेश की सर्वांगीण विकास के पथ पर, बहुत दूर तक आगे ले जाने वाले कुछ एक महान मानवों में स्वर्गीय कृष्ण बल्लभ सहाय का नाम अत्यंत आदरणीय स्थान का अधिकारी है। वस्तुतः बिहार के विकास की दिशा में किए गए उनके प्रयत्नों की विस्मृति कदापि संभव नहीं है। ये प्रतिभा के धनी लोक पुरुष थे। ऊपर-ऊपर से देखने में वे किंचित कठोर प्रतीत होते थे। पर सच्चाई यह नहीं था। वे अत्यंत करुणाशील थे। किसी को भी कष्ट और क्लेश में देखकर कृष्ण बल्लभ बाबू क्षण भर में द्रवित हो जाते थे और उस व्यक्ति को पीड़ामुक्त करने हेतु, अपनी सम्पूर्ण शक्ति से सक्रिय भी हो उठते थे। हाँ, वह दूसरी बात है कि वह उन लोगों में से नहीं थे, जो भावना लोक-लहरियों पर जिधर-तिधर बह जाते हैं। कृष्ण बल्लभ बाबू का हृदय बहुत विशाल अवश्य था, पर वे उसपर अपने मस्तिष्क का अंकुश भी रखते थे। कृष्ण बल्लभ बाबू अनाप-सनाप की बातों में बहुत कम रुचि रखते थे। यही कारण था कि अन्य नेताओं की तरह उनके इर्द-गिर्द हमेशा एक बड़ी भीड़ इकट्ठी नहीं रहती थी। कहा जा सकता है कि वो दरबार पसंद व्यक्ति नहीं थे।

कृष्ण बल्लभ बाबू की प्रशासनिक क्षमता अनेक अर्थों में विलक्षण थी। मोटी से मोटी संचिकाओं को भी देखते-देखते निष्पादित कर देना उनके लिए बाएँ हाथ का खेल था। किसी भी संचिका की जटिलतम टिप्पणियों ने भी उन्हें अपना निर्णय स्थिर करने में कभी कोई बाधा नहीं पहुंचाई। जानकारों को मालूम है कि इसका कारण उनकी अपूर्व मेधा शक्ति ही थी। अँग्रेजी, हिन्दी और उर्दू भाषा पर कृष्ण बल्लभ बाबू का बड़ा गंभीर आधिपत्य था। अँग्रेजी भाषा और साहित्य में उनकी गति का अनुमान इसी सूचना से लगाया जा सकता है कि उन्होने पटना विश्वविद्यालय से अँग्रेजी की प्रतिष्ठा की परीक्षा में प्रथम श्रेणी में स्थान प्राप्त किया था। ज्ञातव्य है कि इनके सहपाठियों में अनेक अंग्रेज़ भी थे।

श्री कृष्ण बल्लभ सहाय की कर्मठता भी अनूठी थी। अधिकतम काम और न्यूनतम विश्राम उनके जीवन का आदर्श सूत्र था। यही कारण रहा कि वे काँग्रेस के एक समान्य कार्यकर्ता के रूप में लोकसेवा की जमीन पर उतरे और शीघ्र ही प्रदेश प्रशासन के शिखरस्थ पुरुष बन गए। कृष्ण बल्लभ बाबू में कल्पनाशीलता और व्यावहारिकता का मणिकांचन संजोग था। जटील से जटील समस्याओं पर भी शीघ्र और सही निर्णय लेने में वे कभी अनावश्यक विलंब नहीं करते थे। सचमुच उनकी सूझ-बूझ बड़ी पैनी थी। उनके इन्हीं खूबियों के कारण आधुनिक बिहार के आद्य निर्माता बिहार केसरी डॉक्टर श्री कृष्ण सिन्हा उन्हें अपना अनन्य स्नेह देते थे। यह कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि कृष्ण बल्लभ बाबू श्रीबाबू के हाथ-पैर ही नहीं, अनेक अवसरों पर मस्तिष्क भी बन जाते थे। श्रीबाबू अनेक बार ऐसा कहते सुने जाते थे कि कृष्ण बल्लभ बाबू उनके लिए निकटतम सहयोगियों में थे, जिनका सरकार संचालन में महत्वपूर्ण योगदान था।

जब भी कोई मुद्दा, चाहे वो राजनीति से संबंध हो या प्रशासन से, बहुत जटील रूप में श्रीबाबू के समक्ष उपस्थित होता था, तब निश्चय रूप से श्रीबाबू अपने गंभीरतम सलाहकार कृष्ण बल्लभ बाबू को अवश्य बुलावा भेजते थे।

कृष्ण बल्लभ बाबू अत्यंत कठोर अनुशासनप्रिय व्यक्ति थे। अनुशासनहीनता, उद्दंडता, अभद्रता, उच्छृखल्ता और अराजकता से उन्होने कभी कोई सम्झौता नहीं किया। अपनी इस कठोर अनुशासनप्रियता के कारण कृष्ण बल्लभ बाबू अनेक बार संकट में भी घिर जाते थे। लेकिन संकट लाख गहरा हो, वे अपनी नीति की लीक से हटना पसंद नहीं करते थे। इसलिए यदा-कदा उन्हें लोग-बाग कठोर मनोवृति का कह देने में भी कोई संकोच नहीं करते थे, लेकिन कृष्ण बल्लभ बाबू हमेशा अडिग रहे। परिणाम चाहे अनुकूल हुआ हो अथवा प्रतिकूल।

मुख्यमंत्री के रूप में कृष्ण बल्लभ बाबू अनेक दृष्टियों से काफी सफल रहे। इसका कारण यह था कि उन्हें अचानक मुख्यमंत्री का पद नहीं मिल गया था। अनेक वर्षों तक अनेक विभागों का मंत्री पद संभालने के बाद वे प्रशासनिक दक्षता पूरी तरह उपलब्ध कर चुके थे। इतिहास साक्षी है कि कृष्ण बल्लभ बाबू ने जिस विभाग का नेतृत्व सूत्र अंगीकृत किया, उसे विकास की शिखर तक उठा ले जाने में उन्होने कोई कोर कसर बाकी नहीं रखी।

कृष्ण बल्लभ बाबू की सर्वोपरि विशेषता यह थी कि वे मित्रवत्सल थे। वे जिनके साथ रहे, पूरी निष्ठा और हार्दिकता के साथ रहे। इन पर इनके मित्र बहुत विश्वास करते थे और कोई भी दायित्व सौंप कर निश्चिंत हो जाया करते थे।

उनका दृष्टिकोण मानवीय था। इसलिए वे प्रत्येक विचार को उसी की कसौटी पर कसते थे। यंत्रों के बारे में उनका कहना था कि मनुष्य यंत्रों के लिए नहीं है यंत्र उसके लिए है। यही नहीं, विज्ञान की शक्तियाँ भी मानव कल्याण के लिए ही है। मानव उन शक्तियों के लिए नहीं। उनका मत था कि भौतिक विज्ञान भले ही अपने तीव्र प्रकाश से मनुष्य को कुछ क्षणों के लिए चकाचौंध कर दे, किन्तु सभ्यता और संस्कृति को चिरस्थाई बनाने के लिए धार्मिक और नैतिक शक्तियाँ अवश्य हैं और इनके लिए बलिदान और त्याग की आवश्यकता है, जो अटूट विश्वास और चिंतन से प्राप्त होता है। कृष्ण बल्लभ बाबू इसी जीवन शक्ति को प्राप्त करके सत्य, सौंदर्य और कला की अनुभूति करना चाहते थे, जिसको जीवन का प्रथम उद्देश्य कहा गया है। यही कारण है कि वे ऐसे वैभव को दूर से ही नमस्कार करते थे जो मनुष्य को धर्म-विमुख कर अनैतिकता की ओर ले जाये। वे वस्तुतः स्वतन्त्रता को प्राप्त करने के लिए मृत्यु का वरन करना भी पसंद करते थे।

इस प्रकार भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम, स्वाधीनता की प्राप्ति, गणराज्य की स्थापना और उसके बाद अनेक वर्षों तक अपने राजनैतिक जीवन काल में कृष्ण बल्लभ बाबू ने अपने जिन भाव-विचार आदर्श और सिद्धांतों को अपने व्यवहार और आचरण में मूर्त रूप दिया, उनके द्वारा उन्होने न केवल इस काल के शासन को सुयोग्यता और सुदक्षता प्रदान की, वरन राज्य की पुरातन संभयता, संस्कृति और उसकी सनातनी मान्यताओं की परिपुष्टि के साथ प्रदेश के जन-जीवन में अपने चरित्र बल से उसकी प्राण-प्रतिष्ठा भी की है। विचार, स्वरूप और आदर्श सभी दृष्टियों से उनमें राष्ट्रीयता की स्पष्ट प्रतिछवि देखी जा सकती थी। उन्होने अपने कार्यकाल में ऐसी परम्पराओं और मान्यताओं की स्थापना की है, जिससे न केवल शासन सूत्र को ही वरन प्रदेश के प्रत्येक जन को प्रेरणा और प्रकाश मिलता रहेगा। उनका त्याग, उनकी कर्मठता, उनकी सेवा भावना, व्यक्तित्व की भव्यता, विचारों की शालीनता और अधिकारों के प्रति निष्प्रहता सभी आगे आने वाली अनेक पीढ़ियों तक आलोक की रश्मियां बिखेरती रहेगी।                           


Wednesday, 15 April 2020

कृष्ण बल्लभ बाबू- एक असाधारण व्यक्तित्व -कृष्ण नन्दन सहाय, महापौर, पटना



कृष्ण बल्लभ बाबू- एक असाधारण व्यक्तित्व


-कृष्ण नन्दन सहाय, महापौर, पटना

(कृष्ण बल्लभ सहाय जयंती समारोह, द्वारा 31 दिसंबर 1988 को प्रकाशित स्मारिका से साभार)


यो तो बिहार में अब तक एक दर्जन से अधिक मुख्यमंत्री हो चुके हैं और सबों ने कुछ न कुछ काम ऐसा किया ही है जो प्रशंसनीय कहा जा सकता है। किन्तु बिहार के दो ऐसे मुख्यमंत्री हुए जो न केवल प्रांत की नीव को मजबूत करने में प्रयत्नशील रहेबल्कि उनका प्रशासनिक दृष्टिकोणकार्यकलाप और उनका सम्पादन भी अति श्रेस्ठ श्रेणी का माना जाता रहा है। प्रथम मुख्यमंत्री बिहार गौरव स्वर्गीय डॉक्टर श्रीकृष्ण सिन्हा के बारे में अब तक बहुत कुछ कहा जा चुका है और इस वर्ष तो शताब्दी वर्ष होने के नाते कई समारोह भी मनाया जा रहा हैजिसमें माननीय प्रधानमंत्री तक सम्मिलित हो चुके हैं। दूसरे हैं- स्वर्गीय कृष्ण बल्लभ सहायजिनके बारे में निसंदेह बहुत लोग अब तक खामोश ही हैं। जो भी कारण होपर मैं ऐसा मानता हूँ कि यह बिहार के प्रति भी हमारा गलत कदम है।


समय की शिला पर कुछ लकीरें ऐसी जरूर खींच जाती हैं जो समय के धोने से मिटती नहीं और वर्षों बीत जाने पर भी अपनी कहानी स्वयं कहने की शक्ति प्राप्त कर लेती है। कृष्ण बल्लभ बाबू अति साधारण परिवार में जन्म लेकर भी कर्तव्य,निष्ठा ईमानदारी और साफ़गोई के कारण एक महत्वपूर्ण मुख्यमंत्री कहलाते रहे। आरंभ से ही अत्यंत मेधावी छात्र होने के कारण उनकी समझबूझ भी असाधारण रही।


मैं उन व्यक्तियों में हूँजिनको कृष्ण बल्लभ बाबू को समीप से देखने का काफी मौका मिला। मेरे लिए न तो समय की पाबंदी थी और न कोई रुकावट। वो आराम कर रहे हों या संचिकाओं में उलझे रहे होंमैं निःसंकोच उनके पास जाकर बैठ सकता था। मुझसे पारिवारिक बातें करने में भी उन्हें संकोच करते नहीं देखा। अफसरों के नाम जैसे उन्हें कंठस्थ थे। इतना ही नहींहर अफसर और उसकी क्षमता के बारे में उन्हें पूरा-पूरा ज्ञान रहता था। वे काम भी करते जाते थे और मुझसे बातें भी। एक रोज़ सहसा उन्होने अपने पी.ए. को बुला कर कहा- ‘इस अफसर को टिप्पणी लिखने का सऊर नहीं है। इसे बुलवाइए। मैं इससे बात करूंगा। न मुझे यह हिम्मत हुई कि मैं उस अफसर का नाम उनसे पूछ सकूँ और ना उन्होने स्वयं ही उनका नाम बताया। संचिकाओं को पढ़ने और छिपी बातों को ढूंढ निकालने में वे माहिर थे। मैंने देखा है कि विभागीय सचिव ने अपनी टिप्पणी दी है और उसकी पुष्टि के लिए संचिका में कई पताका लगा कर भेजा है और मिनटों में श्री सहाय पन्नों को उलटकर और देखकर सचिव के मंतव्य से विपरीत अपना मंतव्य लिखा है और कुछ और पन्नों में पताका लगाकर संचिका को लौटा दिया हैयह कहकर कि सचिव इन मुद्दों को भी पढ़े और तब अपना मंतव्य दें।

यह एक छोटा सा उदाहरण है कि वे प्रशासनिक कार्यों को किस गरिमा से ढँक कर काम किया करते थे। सुबह 3-4 बजे उठकर टेबल पर बैठ जाना और 9 बजे तक संचिकाओं के अंबार को समुचित टिप्पणियों और आदेशों के साथ निकाल देनाउनकी आदत बन गयी थी। मुझे लगता है कि वे काम के बिना जी नहीं सकते थे। किस प्रकार बिहार को सजाया संवारा जायेयह उनकी व्यथा भरी इच्छा थी।

कृष्ण बल्लभ बाबू चुनाव खर्च के लिए काँग्रेस नुमाइंदों को पैसे से मदद करते थे और उसमें यह भेद-भाव नहीं रखते थे कि उनके ग्रुप का कौन है और कौन उनके ग्रुप का नहीं है। एक बार उन्होने मुझको उत्तर बिहार के काँग्रेस प्रत्याशियों के लिए बंद लिफाफे में रुपये दिये उनके पास पहुंचाने के लिए। उनमें से कई नाम ऐसे थेजो कृष्ण बल्लभ बाबू के हिमायती नहीं थेबल्कि बराबर उनके खिलाफ रहते थे। मैं अचंभे में पड़ गया और उनसे पूछने लगा कि क्या उनलोगों को भी रुपये देने हैं। उन्होने छूटते कहा कि यह क्यों भूलते हो कि वो काँग्रेस की ओर से चुनाव लड़ रहे हैं। यह थी उनकी महानता। यह न केवल इलैक्शन में खर्च करने तक सीमित था बल्कि काँग्रेसजनों की बच्चियों की शादीउनके बच्चों की पढ़ाई या उनके ऊपर विपत्ति पड़ा हो इन सब में कृष्ण बल्लभ बाबू उनकी मदद में आगे रहते थे।

आज हम उन्हें याद करते हैं वो सब उनके व्यक्तित्व से छोटा पड़ता है। कर्मठता और स्पष्टवादिता में विश्वास करने वाले कृष्ण बल्लभ बाबू के बारे में आज भी अफसरों का कहना है कि उनके जैसा मुख्यमंत्री कम ही होता है।

भगवान से यही प्रार्थना करता हूँ कि कृष्ण बल्लभ बाबू जैसा कर्मठ और संतुलित प्रशासक को बिहार को सँवारने का मौका बार-बार मिलना चाहिएताकि जिस प्रांत के पिछड़ेपन को लेकर हम आज रोते हैंवह दूर हो सके और एक ऐसे बिहार का निर्माण होजो देश के नक्शे पर चमकता हुआ प्रांत दिखलाई पड़े।              

 




Tuesday, 14 April 2020

श्री कृष्ण बल्लभ सहाय -एक अक्षरञ्जली- डॉक्टर उमेश्वर प्रसाद वर्मा, सभापति, बिहार विधान परिषद (1988)


श्री कृष्ण बल्लभ सहाय- एक अक्षरान्जली

- डॉक्टर उमेश्वर प्रसाद वर्मा, सभापति, बिहार विधान परिषद, बिहार
(कृष्ण बल्लभ सहाय जयंती समारोह, द्वारा 31 दिसंबर 1988 को प्रकाशित स्मारिका से साभार) 

अपनी प्रशंसा सुनने से सबों का हृदय गुदगुदाता है। किन्तु कृष्ण बल्लभ बाबू इस संबंध में अपवाद थे। वे एक ऐसे व्यक्ति थे जो अपनी प्रशंसा या अपना अभिनंदन समारोह या स्तुति कभी पसंद नहीं करते थे। नाम नहीं काम चाहते थे। पता नहीं आज भी स्वर्गीय कृष्ण बल्लभ सहाय की आत्मा को ऐसे समारोहों से कोई तृप्ति मिलेगा या नहीं? पर उनकी जयंती मनाकर हम छोटे व्यक्ति अपने लिए कुछ सुख जरूर अर्जित करेंगें।

कृष्ण बल्लभ बाबू एक बड़े ही मेधावी छत्र थे, किन्तु साथ-साथ उनके हृदय में राष्ट्रीयता का अथाह भाव भी समाहित थे इसलिए तो बी. ए. (प्रतिष्ठा) करने के पश्चात एम.ए. पढ़ने जब पटना आए तो स्नाकोत्तर की पढ़ाई के बदले अपने जीवन और परिवार के भविष्य के संबंध में वगैर सोचे-समझे महात्मा गांधी के आह्वान पर स्वतन्त्रता संग्राम में भाग लेने हेतु उन्होने अपनी आगे की पढ़ाई छोड़ दी। 1930 से 1934 तक वे सविनय अवज्ञा आंदोलन के सिलसिले में चार बार जेल भी गए और फिर 1940, 1941 और 1942 में भी उन्हें अनेकों बार जेल की सजा काटनी पड़ी।

उनका संसदीय जीवन 1924 में आरंभ हुआ था जब उन्होने पहले बिहार विधान परिषद के सदस्य के रूप में बिहार विधान मण्डल में प्रवेश किया। 1937 में जब प्रथम काँग्रेस मंत्रिमंडल गठित हुआ तो उनकी कार्यदक्षता, समाजसेवा एवं राष्ट्रीयता के आलोक में उन्हें संसदीय सचिव नियुक्त किया गया। फिर 1946 से 1957 तक वे बिहार के राजस्व मंत्री के रूप में रहे और 1963 से 1967 तक बिहार के मुख्य-मंत्री भी रहे। मुख्य-मंत्री के रूप में बिहार की सत्ता के शिखर पर भी तलहटी की माटी से- छोटे-बड़े कार्यकर्ताओं से, गरीब किसानों से उनका संपर्क कभी टूटा नहीं, बढ़ा ही। पद की आत्मश्लाघा उन्हें कभी छू नहीं सकी। उनका साधारण खाना-पीना और रहना सभी असाधारण रूप से साधारण ही रहा- अर्थात विचार, व्यवहार और काम में कृष्ण बल्लभ बाबू निश्चित रूप से बड़े आदमी थे।

कृष्ण बल्लभ बाबू एक समाजसेवी थे। समाज में अर्थ-व्यवस्था की समस्याओं की गंभीरता को उन्होने बड़ी गहराई से समझा था। जमींदारी व्यवस्था और काश्तकारों द्वारा खेती का प्रारम्भ उन्नीसवीं सदी के द्वितीय अर्धांश में हुआ था। जमींदारी प्रथा के संक्रामक किटाणुओं ने बिहार की कृषि आबादी के असंख्य लोगों को आदमखोर बना डाला था। जमींदारी प्रथा का भयानक नतीजा इतना घृणित बन गया था कि प्रत्येक वर्ष झुंड के झुंड छोटे-छोटे किसान अपनी जमीन से हाथ धोकर खेतिहर मजदूरों की श्रेणी में आ जाते थे। इस प्रथा ने समाज के सामने बेकार भूखे और अभावग्रश्त लोगों की एक जमात का सृजन कर दिया था।

कृष्ण बल्लभ बाबू अपनी सार्वजनिक जीवन में कृषि आबादी के ऐसे असंख्य लोगों को, इस प्रथा के कारण जिनका साधारण जीवन अभाव, ऋण और अपमान में बीतता था, इस शोषण से मुक्त करने का संकल्प बहुत पहले से ही अपने हृदय में संजोय हुए थे। 1951 में अखिल भारतीय काँग्रेस कमिटी की बैठक जो बैंग्लोर में हुई थी उसमें चुनाव घोषणा पत्र के रूप में काँग्रेस ने जो प्रस्ताव पारित किया था उसमें भूमि-सुधार के संबंध में यह कहा गया था कि हमारी भूमि व्यवस्था ऐसी संगठित होनी चाहिए कि भूमि पर मेहनत मजदूरी करने वाले लोगों को अपने परिश्रम का लाभ मिले। भूमि का व्यवहार राष्ट्र की संपत्ति के तौर पर हो। अखिल भारतीय काँग्रेस कमिटी ने इस संबंध में यह भी कहा था कि अपनी ग्रामीण अर्थ-व्यवस्था के पूर्णगठन में पहला कदम पृथक-पृथक व्यक्तिगत स्वार्थों के खिलाफ गाँव को बतौर एक सामाजिक और आर्थिक इकाई के रूप में सुदृढ़ बनाने के लिए प्रभावात्मक शासन व्यवस्था स्थापित करने का है। आर्थिक शोषण प्रणाली की अनियंत्रित गति को कृष्ण बल्लभ बाबू जब राजस्व मंत्री बने तो उन्होने तात्कालिक शासकों ने जमींदारों के सहयोग से जो पूंजीवादी व्यवस्था पर अर्थ-प्रणाली के प्रकृतिक विकास को बनावटी तरीके से रोका था उन्होने अपने कठोर कदमों से उस ढांचे को खत्म कर दिया था। 1947 में बिहार विधान सभा में जमींदारी प्रथा उन्मूलन हेतु कृष्ण बल्लभ बाबू ने विधेयक प्रस्तूत किया था वो 1948 में दोनों सदनों में मंजूर हुआ। किन्तु जमींदार इस नए कानून को सहज रीति से स्वीकार करने को तैयार नहीं थे और उनलोगों द्वारा इसे निष्फल करने हेतु मुक़दमेबाज़ी शुरू हुई। कृष्ण बल्लभ बाबू का दृढ़ संकल्प और शोषित समाज के प्रति दृढ़ सेवा भावना का ही फल था कि भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने सारी आपत्तियों को अस्वीकार कर दिया और बिहार भूमि सुधार अधिनियम यहाँ लागू हुआ। बिहार के किसान और खेतिहर मजदूरों के बीच कृष्ण बल्लभ बाबू का नाम सदा श्रद्धा से याद किया जाएगा।

बिहार में कृष्ण बल्लभ बाबू भूमि सुधार के जनक माने जाएगें। इस राजी में भूमि सुधार और कृष्ण बल्लभ सहाय दोनों पर्यायवाची हो गए हैं। कृष्ण बल्लभ बाबू राष्ट्रीय चेतना और स्वतन्त्रता के लिए होने वाले संघर्षों की उस पीढ़ी के प्रतिनिधि थे जिसने सामाजिक एवं राष्ट्रीय हित में निजी स्वार्थ का परित्याग किया। कृष्ण बल्लभ बाबू पुरानी पीढ़ी के उन महान देशभक्तों और समाज सुधारकों में से थे जिनके स्मरण से राष्ट्रीयता, रचनात्मक कार्यों एवं कार्यकर्ताओं के प्रति प्यार की नयी प्रेरणा मिलती है।

कृष्ण बल्लभ बाबू के संबंध में एक और बात है। बिहार में जात-पांत की दीवारों का तो ऐसा तांता रहा है कि कोई किस-किस से अपना दामन बचाए। लेकिन कृष्ण बल्लभ बाबू अपने अपनापन के दौर से अपना दामन बराबर बचाए रहे।

राजनैतिक व्यक्तियों से भरे आकाश में विशुद्ध समाज सेवा करनेवाले व्यक्तियों की खोज करने के लिए एक महत्वपूर्ण आकांक्षा एवं योजना होनी चाहिए। ऐसे लोगों को हम भूलते जा रहे हैं और उनके कार्यों का मूल्यांकन कुछ मात्र में यदा-कदा केवल जयंती मनाकर समाप्त कर देते हैं। इससे किसी का लाभ होने को नहीं है।

श्री कृष्ण बल्लभ सहाय की जीवन गाथा से नयी पीढ़ी अनभिज्ञ है। आवश्यकता इस बात की है कि उनके जीवन के विविध अंगों से समाज को भिज्ञ बनाया जाये। सामाजिक कार्यकर्ताओं के प्रति बड़े उदार और स्नेहशील थे। अपने जीवन में उन्होने ऐसे असंख्य लोगों को आर्थिक और आँय सहायता देकर उन्हें परेशानियों से जीवन-पर्यंत बचाते रहे। अपने राजनैतिक जीवन में उन्होने समाज सेविकों और कार्यकर्ताओं को बहुत कुछ दिया है- अपने परिवार को कुछ नहीं।

कृष्ण बल्लभ बाबू एक राष्ट्रप्रेमी, समाजसेवी, कुशल प्रशासक, उदार सहानुभूतिपरण, अभाव-पीड़ित-प्रेमी एवं संवेदनशील व्यक्ति थे। ऊपर से जितना ही कठोर दिखते थे उसके विपरीत भीतर से उतना ही कोमल एवं कल्याणमय थे। एक तीखी जिह्वा के सिवा वे सर्व-गुण सम्पन्न थे। परंतु तीखी जिह्वा के नीचे तीखा मन नहीं था, अपितु हृदय की विशालता और मानवीय भावनाएँ थीं। नीति और सिद्धान्त वाले व्यक्ति होने के कारण अपने सिद्धांतों और संकल्पों का वे बड़ी दृढ़ता से पालन करते थे।

यह आश्चर्यजनक संजोग है कि कृष्ण बल्लभ बाबू ने बिहार विधान परिषद के सदस्य के रूप में अपना संसदीय जीवन प्रारम्भ किया था और बिहार विधान परिषद के सदस्य के रूप में ही उनका देहांत हो गया। 1924 में बिहार विधान परिषद की सदस्यता से कृष्ण बल्लभ बाबू का संसदीय जीवन प्रारम्भ हुआ था और 1974 में परिषद के सदस्य के रूप में उनका जीवन समाप्त हुआ। अपने निधन के कुछ ही दिन पूर्व हजारीबाग गिरिडीह स्थानीय प्राधिकार निर्वाचन क्षेत्र से वे बिहार विधान परिषद के रूप में निर्वाचित हुए थे। यह बिहार विधान परिषद के लिए गौरव और विषाद का विषय ही माना जाएगा कि कृष्ण बल्लभ बाबू के संसदीय जीवन का प्रारम्भ और अंत दोनों परिषद के सदस्य के रूप में हुआ। सामाजिक और सार्वजनिक जीवन में कुछ ऐसे भी दौर आते हैं जब बड़े भारी मन से ऐसी क्षति को सहना पड़ता है जिसकी पूर्ति नहीं हो सकती। श्री कृष्ण बल्लभ बाबू का निधन एक ऐसी ही क्षति है।