Tuesday 23 March 2021

'हमारी विरासत, हमारी धरोहर: 13: लोहिया बनाम लौह पुरुष: डॉ राम मनोहर लोहिया एवं के. बी. सहाय (23/03/2021)

डॉ राम मनोहर लोहिया (23 मार्च 1910- 12 अक्तूबर 1967)

कृष्ण बल्लभ सहाय (31 दिसंबर 1898-3 जून 1974)


देश में समाजवादी विचारधारा के सबसे प्रबल हस्ताक्षर माने जाते हैं डॉ राम मनोहर लोहिया। आज इनकी 112वीं जन्म जयंती है।  इस कद्दावर शख्सियत का कृष्ण बल्लभ सहाय के साथ राजनीतिक सम्बन्धों पर प्रकाश डालता है यह ब्लॉग पढ़ें। 

डॉ. राम मनोहर लोहिया का जन्म 23 मार्च 1910 को अकबरपुर, उत्तर-प्रदेश में हुआ था। 1934 में जयप्रकाश नारायण और आचार्य नरेंद्र देव के साथ मिलकर इन्होंने काँग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना की। इस पार्टी के सदस्य एक-दूसरे को कामरेड से संबोधित करते थे जिसे बाद में कम्यूनिस्टों ने भी अपनाया। तथापि स्वतन्त्रता प्राप्ति तक यह पार्टी काँग्रेस की ही अभिन्न अंग बनी रही ठीक उसी प्रकार जैसे कभी काँग्रेस स्वराज पार्टी हुआ करती थी। स्वतन्त्रता के बाद काँग्रेस से परे सोशलिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया के नाम से इसने अपनी अलग पहचान बनाई। हालांकि प्रारम्भिक चुनावों में यह पार्टी काँग्रेस के समक्ष खास सफल नहीं रही, तथापि राम मनोहर लोहिया ने हार नहीं मानी और काँग्रेस के समानान्तर विकल्प देने के प्रयास में लगे रहे। इसी संघर्ष में इनका सामना तीसरे आम चुनावों से पहले बिहार में कृष्ण बल्लभ बाबू से हुआ।  

1965 में मॉनसून न होने के कारण पैदावार में हुई कमी की वजह से बिहार भीषण सुखाड़ से जूझ रहा था। सूबे के मुख्यमंत्री कृष्ण बल्लभ सहाय इस प्रकृतिक विपदा से निपटने के तमाम उपाय कर रहे थे। खाद्यान अनुलबद्धता को उत्तरोतर संकटग्रस्त बनाने में केंद्र सरकार की कतिपय नीतियाँ भी दोषी थीं जिनमें केंद्र सरकार द्वारा यथोचित मात्र में खाद्यान उपलब्ध न करा पाना, भारत सरकार द्वारा खाद्यानों के अंतर-प्रांतीय एवं अंतर-क्षेत्रीय यातायात पर प्रतिबंध एवं धान पर लगाया गया लेवी प्रमुख थे।

राज्य सरकार जमाखोरों के खिलाफ सख्त कदम उठा रही थी। दूसरी ओर कृषकों से उनके उपज का एक निश्चित हिस्सा वसूल कर जरूरतमंदों के बीच अनाज मुहैया करवाने का प्रयास भी जारी था। किन्तु सूबे की इस स्थिति से बेखबर शून्यचित्त अराजपत्रित कर्मचारी वेतन वृद्धि को लेकर अलग आन्दोलन की राह पर थे तो कॉलेज में फीस में वृद्धि को लेकर छात्र भी आंदोलनरत थे। ऐसे में इस प्रकृतिक आपदा का राजनीतिक दोहन के लिए समाजवादी व्यग्र थे और उन्होंने अराजपत्रित कर्मचारी और छात्रों को उकसाना शुरू किया। 1965 में इसी सिलसिले में डॉ राम मनोहर लोहिया पटना में थे। कृष्ण बल्लभ बाबू समाजवादियों के इस राजनीतिक चरित्र से अनभिज्ञ नहीं थे। 9 दिसंबर 1964 को बिहार विधान सभा में एक बहस के दौरान उन्होंने तुलसीदास की चौपाई उद्धृत करते हुए कहा था कि समाजवादी नेता कितने रूप धारण करते हैं इसका कोई ठिकाना नहीं है- केशव कहि न जाय का कहिये, रचना तोहि विचित्र अति समुझि समुझि मन रहिये।  

अतः 1965 में डॉ राम मनोहर लोहिया जब पटना पधारे तब तात्कालिक जिलाधिकारी जे. एन. साहू के आदेश पर डीफेंस ऑफ इंडिया एक्ट 1962 के तहत उन्हें नज़रबंद कर लिया गया और हजारीबाग केन्द्रीय कारा भेज दिया गया। हालांकि इस मामले में उन्हें उच्चतम न्यायालय की पाँच सदस्यीय खंडपीठ ( माननीय ए.के. सरकार, एम. हिदायतुल्लाह, आर.एस. बच्छावत, जे.आर. मुधोलकर एवं रघुबर दयाल) से जमानत मिल गयी किन्तु डॉ राम मनोहर लोहिया को इस बात का बेशक अंदाजा हो गया था कि यहाँ उनका मुक़ाबला बिहार के लौह पुरुष से था। अतः समाजवादी सोच और नीति के विरुद्ध, एक बदली हुई रणनीति के तहत, गैर-काँग्रेसवाद के नाम पर लोहिया ने सभी विपक्षी दलों को कृष्ण बल्लभ सहाय की सरकार के खिलाफ गोलबंद करना शुरू किया। उन्होंने इस बात की परवाह नहीं की कि इस गठबंधन में उनकी संयुक्त समाजवादी पार्टी के अलावे वामपंथी दल यथा कम्यूनिस्ट पार्टी, मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी, और अन्य पार्टियां यथा प्रजा सोशलिस्ट पार्टी, रिपब्लिकन पार्टी, जन क्रांति दल, स्वतंत्र पार्टी, झारखंड पार्टी सभी शामिल थे। इन दलों के अपने-अपने सिद्धान्त थे और कुछ मामलों में तो ये एक दूसरे से एकदम विपरीत थे। इसे नज़रअंदाज़ करते हुए डॉ राम मनोहर लोहिया ने इन दलों को गठबंधन में शामिल होने का न्योता देते हुए घोषणा की कि जो दल काँग्रेस के खिलाफ इस गठबंधन में शामिल नहीं होते हैं वे संकीर्ण सोच एवं सांप्रदायिक तत्व के हिमायती माने जाएंगें। अंततः डॉ राम मनोहर लोहिया के नेतृत्व में यह गठबंधन कृष्ण बल्लभ सहाय के नेतृत्व में चुनाव लड़ रही काँग्रेस पार्टी को 1967 के आम चुनाव में शिकस्त देने में सफल रहा। तथापि चुनाव-उपरांत काँग्रेस पार्टी सबसे बड़ा दल के रूप में उभरी और उसके 128 विधायक चुन कर आए। डॉ राम मनोहर लोहिया की संयुक्त समाजवादी पार्टी दूसरा सबसे बड़ा दल था जिसके  68 विधायक चुन कर आए थे। इसी प्रकार भारतीय जनसंघ के 26, दोनों कम्यूनिस्ट पार्टी के 28, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के 18, महामाया प्रसाद सिन्हा की जन क्रांति दल के 13 और रामगढ़ के राजा कामाख्या नारायण सिंह की स्वतंत्र पार्टी के 3 विधायक चुन कर आए थे। निर्दलयों की संख्या 33 थी। चुनाव के बाद अटल बिहारी बाजपेयी की पहल पर भारतीय जनसंघ भी इस जमात में शामिल हो गयी। देश में एक वैकल्पिक प्रजातांत्रिक व्यवस्था आसन्न है। इसे समर्थन न देने से इस प्रक्रिया पर रोक लगेगी जो भारतीय जनसंघ नहीं चाहेगी’- अटल बिहारी बाजपेयी की इस घोषण ने गठबंधन सरकार के पक्ष में मार्ग प्रशस्त  किया। (द इंडियन नेशन अप्रैल 24, 1967) इस प्रकार इस गठबंधन में वामपंथ से लेकर दक्षिणपंथ, समाजवादी से लेकर क्रांतिकारी -सभी विचारधारा के दल मात्र सत्ता-सुख और गैर-काँग्रेसवाद के नाम पर साथ थी। सिद्धान्त गौण हो चुका था।    

इस सिद्धांतविहीन राजनीतिक गठबंधन के दूरगामी परिणाम हुए। वैकल्पिक राजनीतिक व्यवस्था देने की झोंक में समाजवादी पार्टियां इस चुनाव के बाद अपने सैद्धांतिक पथ से जो भटकी वो फिर कभी नीतिगत पटरी पर वापस नहीं लौट पाई। कभी डॉ राम मनोहर लोहिया गर्व से सरेआम उद्घोष करते थे कि आज मेरे पास कुछ नहीं है सिवाय इसके कि हिंदुस्तान के साधारण और गरीब लोग सोचते हैं कि मैं शायद उनका आदमी हूँकिन्तु इस सिद्धांतविहीन गठबंधन पर अपनी मुहर लगाकर लोहिया ने जो साख खोया वो फिर वापस नहीं हासिल हो पाया।  

दूसरी ओर समाजवादियों के लिए कृष्ण बल्लभ सहाय ने बिहार विधानसभा में जो कहा था उसे इस गठबंधन की सरकार ने सही साबित कर दिखाया। इस सिद्धांतविहीन सरकार को अपदस्थ करने के लिए कृष्ण बल्लभ बाबू को बहुत अधिक प्रयास करने की जरूरत नहीं पड़ी। कभी कृष्ण बल्लभ बाबू द्वारा अपनी मंत्रिमंडल में मंत्री नहीं बनाए जाने से रुष्ट होकर काँग्रेस से निकले बिंदेश्वरी प्रसाद मण्डल, जो अब डॉ राम मनोहर लोहिया के संयुक्त समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ सदस्य थे, की राजनीतिक महत्वाकांक्षा से कृष्ण बल्लभ बाबू अनभिज्ञ नहीं थे। डॉ लोहिया ने काँग्रेस को हटाने के लिए समाजवादी सिद्धांतों से समझौता तो अवश्य किया किन्तु उन्हें इसका भान कदाचित नहीं था कि उन्हें आगे और भी समझौते करने होंगें। डॉ लोहिया की इच्छा थी कि महामाया प्रसाद सिन्हा की मंत्रिमंडल में उनकी पार्टी से महिला, हरिजन अथवा आदिवासी को प्रतिनिधित्व मिले। किन्तु ऐसा हुआ नहीं और बिंदेश्वरी प्रसाद मण्डल महामाया बाबू की मंत्रिमंडल में संयुक्त समाजवादी पार्टी के कोटे से कैबिनेट मंत्री की पद पर काबिज होने में सफल रहे। यह डॉ लोहिया की समाजवादी सोच और नीति पर दूसरा कुठराघात था। बतौर पार्टी प्रमुख डॉ लोहिया ने यह निर्णय लिया था कि कोई भी सांसद राजी सरकार में मंत्री पद स्वीकार नहीं करेगा। किन्तु गठबंधन की सरकार को बरकरार रखने के लिए महामाया बाबू को सहरसा के गोप बिंदेश्वरी प्रसाद मण्डल को, जो उस दौरान मधेपुरा से सांसद थे,  मंत्रीपद देने पर विवश होना पड़ा। डॉ राम मनोहर लोहिया को उनकी ही पार्टी के नेता अप्रासंगिक सिद्ध करने पर तुले थे।    

और यहीं कृष्ण बल्लभ सहाय को डॉ राम मनोहर लोहिया के गैर-काँग्रेसवाद के खोखलेपन को चुनौती देने का अवसर मिला। समाजवाद के नाम पर डॉ राम मनोहर लोहिया द्वारा शुरू किए गए इस गैर-सैद्धान्तिक गठबंधन वाली राजनीति का जवाब कृष्ण बल्लभ सहाय ने उन्हें उन्हीं की भाषा में दिया। यदि डॉ लोहिया ने यह माना कि गैर-काँग्रेसवाद के नाम पर राजनीति में सब जायज़ है तो कृष्ण बल्लभ बाबू ने भी समाजवादियों के चेहरे-पर-चेहरे को बेनकाब करते हुए डॉ राम मनोहर लोहिया के इस प्रयोग की निरर्थकता की बखिया उधेड़ दी। 

 बिंदेश्वरी प्रसाद मण्डल, जो किसी भी सदन का सदस्य न रहते हुए मंत्री थे, का छ महीने का कार्यकाल 4 सितंबर 1967 को पूरा होनेवाला था। डॉ लोहिया किसी भी सूरत में उन्हें बिहार मंत्रिमंडल में बने रहना देना नहीं चाहते थे। नतीजा यह हुआ कि बिंदेश्वरी प्रसाद मण्डल अपने राजनीतिक गुरु को धता बताते हुए संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी से अपने 25 समर्थक विधायकों के साथ निकल गए और अपनी अलग पार्टी बनाई जिसे शोषित दल का नाम दिया गया। कहने को तो इस दल के सदस्य स्वयं को शोषित कहते थे क्योंकि ये सभी राज्य सरकार के गैर-कानूनी अनाज भंडारण के खिलाफ की गई कार्रवाई के सताये थे, किन्तु इस दल के अधिकांश सदस्य जमींदार थे और किसी भी सूरत में किसी शोषण के शिकार नहीं थे। कृष्ण बल्लभ सहाय की मदद से शोषित दल को काँग्रेस का समर्थन मिला और इस प्रकार यथा घोषित एक साल के भीतर-भीतर यानि दस महीने और और बीस दिन में ही  28 जनवरी 1968 को महामाया प्रसाद सिन्हा की सरकार का पतन हो गया। किन्तु बिंदेश्वरी प्रसाद मण्डल तब भी किसी भी सदन के सदस्य नहीं थे। राज्यपाल ऐसे किसी भी शक्स को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाना नहीं चाहते थे जो किसी भी सदन का सदस्य न हो जबकि बिंदेश्वरी प्रसाद मण्डल तो ताजा-ताजा 6 माह तक बिना किसी सदन का सदस्य बने मंत्री तक रहे थे।

कृष्ण बल्लभ बाबू ने इस अड़चन को दूर किया और एक अस्थायी व्यवस्था के तहत 28 जनवरी 1968 को सतीश प्रसाद सिंह के नेतृत्व में शोषित दल की सरकार का गठन करवाया। इसी दिन कृष्ण बल्लभ बाबू ने अपने निकटस्थ परमानंद बाबू, जो बिहार विधान परिषद के सदस्य थे, का त्याग-पत्र लिवा लिया। 29 जनवरी 1968 को मुख्यमंत्री सतीश प्रसाद सिंह ने इस रिक्त हुए सीट पर बिंदेश्वरी प्रसाद मण्डल के नाम की अनुशंसा की। 30 जनवरी को राज्यपाल की स्वीकृति मिल गयी। 1 फरवरी को सतीश प्रसाद सिंह ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया और इसी दिन बिंदेश्वरी प्रसाद मण्डल ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। इस प्रकार डॉ राम मनोहर लोहिया के समाजवाद के प्रयोग का अंत हुआ, हालांकि अपनी पार्टी के इस अधोपतन को देखने के लिए वे जीवित नहीं रहे थे। 12 अक्तूबर 1967 को दिल्ली में मात्र 57 वर्ष की उम्र में उनका आकस्मिक निधन हो गया था।   

(उद्धरण: (i) बिहार विधान सभा की कार्रवाई, (ii) कोलिसन पॉलिटिक्स इन इंडिया: पॉल आर. ब्रास (अमेरीकन पॉलिटिकल साइन्स रिव्यू), (iii) मल्टी-पार्टी कोलिसन गवर्नमेंट इन इंडिया- द फेज ऑफ नॉन-काँग्रेस  (iv) द इंडियन नेशन 24 अप्रैल 1967, (v) द पॉलिटिक्स ऑफ डिफेकसन- सुभास सी. कश्यप (vi) द बिहार एक्सपिरियन्स: इंद्रदीप सिन्हा)   


No comments:

Post a Comment