Thursday 11 March 2021

हमारी विरासत, हमारी धरोहर: 12: राम एवं कृष्ण: राम लखन सिंह यादव एवं कृष्ण बल्लभ सहाय (09/03/2021)

राम लखन सिंह यादव (9 मार्च 1920-2 मार्च 2006)

कृष्ण बल्लभ सहाय (31 दिसंबर 1898-3 जून 1974)








9 मार्च बीते ज़माने के बिहार के लोकप्रिय नेता राम लखन सिंह यादव की जन्म जयंती है। इस अवसर पर कृष्ण बल्लभ सहाय के साथ उनके राजनीतिक संबंधों पर प्रकाश डालता यह ब्लॉग पढ़ें।

सन 1962 में देश भर में हुए तीसरे चुनाव के उपरांत बिहार में एक बार पुनः कांग्रेस की सत्ता में वापसी हुई। कृष्ण बल्लभ सहाय पटना (पश्चिमी) विधान सभा क्षेत्र से रिकॉर्ड मतों से जीत कर विधायक चुने गए। इस चुनाव में उन्होंने राजा रामगढ़ की पार्टी के उम्मीदवार को बाईस हज़ार से अधिक मतों के अंतर से हराया था जो उस चुनाव में किसी भी विधायक द्वारा दर्ज़ सबसे बड़ी चुनावी जीत थी। किन्तु जब कांग्रेस विधायक दल के नेता पद हेतु चुनाव हुए तब श्री सहाय तात्कालिक मुख्यमंत्री श्री विनोदानंद झा की ब्राह्मण-राजपूत गठबंधन से हार गए। विनोदानंद झा ने कृष्ण बल्लभ बाबू को कम महत्वपूर्ण सहकारिता विभाग का मंत्री बनाया। कृष्ण बल्लभ बाबू के आलोचकों ने तो इस हार को उनकी राजनीतिक जीवन का अंत मान लिया और उनकी इस अवनत्ति का जश्न तक मना डाला। कृष्ण बल्लभ बाबू ने इस गरल को भी गले लगाया और आगे की रणनीति पर सक्रिय हो गए। उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ रहा था कि उनके आलोचक उनके बारे में क्या सोचते थे। हाँ, वे इस बात को भली-भांति समझ गए कि तमाम योग्यता और काबिलियत के बावजूद बिहार की राजनीति में यदि शीर्ष तक पहुंचना है तो केवल योग्यता मायने नहीं रखती वरन जातिगत समीकरण का सटीक होना भी आवश्यक था। अब कृष्ण बल्लभ बाबू को उचित समय का इंतज़ार था।

उधर बिनोदानंद झा को भी इस बात का इल्म था कि कृष्ण बल्लभ कांग्रेस विधायक दल के नेता पद का चुनाव भले ही हार गए हों, किन्तु वे इस हार को स्वीकार कर शांत बैठने वालों में से नहीं थे। इसी वर्ष पटना में अखिल भारतीय कांग्रेस महाअधिवेशन का आयोजन हुआ। विनोदानंद झा ने इस महाधिवेशन का सफलतापूर्वक आयोजन कर केंद्रीय हाई कमांड की नज़रों कुछ और पायदान ऊपर उठ गए। कृष्ण बल्लभ बाबू अपने राजनीतिक करियर के न्यूनतम पायदान पर थे। कोई और होता तो शायद कांग्रेस से बगावत का बिगुल फूंक देता। किन्तु कृष्ण बल्लभ बाबू में अदम्य सहनशक्ति थी। यह परीक्षा की घड़ी थी। विनोदानंद झा ने कृष्ण बल्लभ बाबू के राजनीतिक करियर को नेस्तनाबूत करने के इरादे से एक अंतिम दाँव चला जिसे विवादित ''जहरीली मछली काण्ड' से जाना गया। इस काण्ड में कृष्ण बल्लभ बाबू के अनन्य सहयोगी राम लखन सिंह यादव को भी घसीटा गया। कृष्ण बल्लभ बाबू पर यह आरोप लगा कि उन्होंने अपने मित्र विश्वनाथ वर्मा के अगमकुआँ स्थित 'राज होटल' से अपने विश्वासपात्र राम लखन सिंह यादव के मार्फ़त मुख्यमंत्री निवास में जहरीली मछली भेजा जिसका उद्देश्य मुख्यमंत्री की हत्या करवाना था। इस घटना का उल्लेख स्वयं राम लखन सिंह यादव ने बाद में 1998 में पटना के एक समाचार पत्र में छपे अपने संस्मरण में किया था। राम लखन सिंह यादव लिखते हैँ कि राज्य इंटेलीजेंस ब्यूरो ने इस घटना की जांचकर अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपा जिसे मुख्यमंत्री ने आगे की कार्रवाई के लिए केंद्र सरकार के पास भिजवा दिया। यह काफी नाजुक मसला था- एक मुख्यमंत्री की हत्या की साज़िश में उनके ही मंत्रिमंडल के एक अग्रणी मंत्री पर आरोप लगे थे। किन्तु तात्कालिक प्रधानमंत्री श्री जवाहर लाल नेहरू ने इस काण्ड की स्वतंत्र जांच का निर्णय लेते हुए इस मामले को सेंट्रल इन्वेस्टीगेशन डिपार्टमेंट को सौंप दिया। सी.आई.डी. के तात्कालिक प्रमुख श्री मल्लिक और उनके डिप्टी शुक्लाजी ने अगले पांच छ माह तक समस्त घटना की बृहत जांच की। सभी 36 गवाहों के ब्यान दर्ज किये गए। इस बृहत अनवेषण के उपरांत जो रिपोर्ट इस टीम ने केंद्र सरकार को सौपा उसमें इस कथित षड्यंत्र के पीछे की मंशा साफ हो गयी। इस घटना से विनोदानंद झा की छवि को जो जबरदस्त क्षति पहुंची उसका अंतिम नतीजा यह रहा कि 'कामराज योजना' के तहत उनसे इस्तीफा ले लिया गया और एक साल बाद ही कांग्रेस विधयाक दल के नेता पद के लिए एक बार पुनः कवायद शुरू हो गई।

विनोदानंद झा हालांकि मुख्यमंत्री पद छोड़ चुके थे किन्तु उन्होंने अपनी पराजय को नहीं स्वीकारा था। अतः उन्होंने नेता पद के लिए वरिष्ठ कोइरी नेता श्री बीरचंद पटेल का नाम आगे कर दिया। दूसरी ओर कृष्ण बल्लभ बाबू थे जो यह समझ चुके थे कि बिहार में वे शीर्ष स्थान पर तब तक काबिज़ नहीं हो सकते थे जब तक तीन अगड़ी जाति यानी ब्राह्मण, राजपूत और भूमिहार में से दो आपस में कायस्थ के खिलाफ गठबंधन बनाने में सफल रहते हैँ. कहने को तो 'कायस्थ' भी अगड़ी जाति कहलाती थी किन्तु यह वास्तव में अगड़ी जातियों की जमात में हाशिये पर थी। तीन में से दो अगड़ी जातियों का अपने पक्ष में समर्थन जुटा पाना कृष्ण बल्लभ बाबू के लिए संभव नहीं था। तब एक चतुर 'मैथिल ब्राह्मण' को पटकनी देने के लिए 'कुशनयन' कायस्थ कृष्ण बल्लभ बाबू ने जो दांव खेला वो उस दौर में निश्चय ही 'मास्टरस्ट्रोक' था। उन्होंने राम लखन सिंह यादव की मदद से अन्य पिछड़ी जातियों के विधायकों को अपने पक्ष में करना शुरू किया। इस प्रकार कोइरी (कुशवाहा), कुर्मी और यादवों का यह गठबंधन कृष्ण बल्लभ बाबू के पक्ष में बना जो आनेवाले वर्षों में 'त्रिवेणी संघ' के नाम से विख्यात हुआ। बीरचंद पटेल कोइरी को भी अपने पक्ष में लाने में असफल रहे। उधर ब्राह्मण को छोड़कर कृष्ण बल्लभ बाबू राजपूत और भूमिहार नेताओं को भी अपने पक्ष में करने में सफल रहे - अनुग्रह बाबू के पुत्र सत्येंद्र नारायण सिन्हा और बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री, युवा भूमिहार नेता बंदी शंकर सिंह कृष्ण बल्लभ बाबू के पक्ष में उतर आये। अंततः कृष्ण बल्लभ बाबू कांग्रेस विधायक दल के नेता चुने गए और 2 अक्टूबर 1963 को उन्होंने बिहार के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। इस विजय के बाद से ही बिहार के राजनीतिक हलकों में कृष्ण बल्लभ बाबू और राम लखन बाबू की जोड़ी 'राम-हनुमान की जोड़ी' कहलाने लगी। यह और बात थी कि यहाँ कृष्ण (बल्लभ बाबू) के संकट मोचन राम (लखन बाबू) बने और उन्हें (सत्येंद्र) नारायण का सहारा मिला! पिछड़ी जातियों को सशक्त करने के कृष्ण बल्लभ बाबू के इस राजनीतिक दांव के दूरगामी परिणाम हुए। नब्बे के दशक तक आते आते त्रिवेणी संघ बिहार की राजनीति का सबसे सशक्त खेमा बन गया जिसका नतीजा यह हुआ कि पिछले तीस वर्षों में बिहार की चारों अगड़ी जातियां हाशिये पर चली गई। 1990 में लालू प्रसाद बिहार यादव के सशक्त नेता बनकर उभरे और मुख्यमंत्री बने। कृष्ण बल्लभ बाबू के पिछड़े और कमजोर तबके को मुखर बनाने प्रयासों का संज्ञान लेते हुए उन्होंने अपने मुख्यमंत्रितव काल में सचिवालय परिसर में मंगल तालाब के सामने कृष्ण बल्लभ बाबू की आदमकद प्रतिमा की स्थापना की।

गरीबों, पिछड़ो और समाज के कमजोर तबके की मदद करने में कृष्ण बल्लभ बाबू सदा आगे रहे। उनका यह समर्थन मात्र राजनीतिक दांव ना होकर इन वर्गों की मदद करने की उनकी फ़िक्रमंद नियत थी। 23 मार्च 1965 को बिहार विधान सभा में यादव महासभा में बतौर मुख्यमंत्री शिरकत को लेकर सदन में उठाए गए सवालों का जवाब देते हुए कृष्ण बल्लभ सहाय का प्रत्युत्तर उनकी इस साफ नियत का आयना है. गरीबों, पिछड़ों और मजलूमों के पक्ष में बोलते हुए उन्होंने जो हुंकार भरा था उसकी गूँज समाज में आज भी सुनी जा सकती हैँ -'मुझसे प्रश्न करने वालों से मैं पूछना चाहता हूँ कि आप भूमिहार महासभा करते हैं, कायस्थ महासभा करते हैं राजपूत महासभा करते हैं तब अगर यादवों ने महासभा किया तो क्यों आपको रंज हुआ? मैंने जो वहाँ कहा उसे सुन लीजिये। मैंने उनसे कहा कि मेरी सहानुभूति उनके साथ है। मेरी सहानुभूति जितने पिछड़े वर्गों के लोगों के साथ है उनके साथ भी है। मैंने इन पिछड़ी जातियों का नाम लिया- कोइरी, कुर्मी, दुसाद आदि हैं उनका नाम लिया और कहा कि उनके साथ मेरी पूरी सहानुभूति रहेगी। मैंने कहा कि गाड़ी को चलाने के लिए चक्के की जरूरत पडती है। अगर चक्के में हवा कम हो जाये तो गाड़ी नहीं चलेगी। पिछड़ी जाति के लोगों में जब तक ताकत नहीं आवेगी, तब तक समाज की गाड़ी नहीं चलेगी। पिछड़ी जाति के साथ काँग्रेस सरकार ने पंद्रह वर्षों के अंदर कुछ न्याय करने की चेष्टा की है और हमारा प्रयास भी इसी दिशा में है।' फिर राजकुमार पुरवे को इशारा करते हुए उन्होंने अपनी बात जारी रखी-आप कम्यूनिस्ट हैं। आप इस झमेले में न पड़े। जब भूमिहार महासभा हो सकती है, जब कायस्थ महासभा हो सकती है तो यदि यादव महासभा हुई है तो उसमें क्या फर्क पड़ा? हमारे पूज्य स्वर्गीय राजेंद्रबाबू कायस्थ महासभा में सभापति हुए थे। श्री बाबू ने खुद कहा था कि भूमिहार महासभा में वे गए थे। इसलिए आप मुझपर जातीयता का आरोप न लगाएँ। जहां पर जातीयता नहीं है वहाँ तो आप जातीयता फैलाने की कोशिश करते हैं। आप कहते हैं कि फलां कायस्थ है तो फलां राजपूत है या भूमिहार है। आप जो कुछ एसम्ब्ली में कहते हैं उससे बाहर वायुमंडल विषाक्त होता है। आप सरकारी नौकरों पर जातीयता का दाग न लगाएँ। समाज में जो लोग ऐसा करते हैं मेरे ख्याल से वे सार्वजनिक सेवा नहीं करते हैं। हम सभी देखते हैं कि हिमालया से गंगा, बागमती, कोशी आदि नदियां निकलती हैं पर ये सभी नदियां वापस आकर गंगा में मिल जाती हैं। काँग्रेस ऐसी ही पार्टी है जहां सभी पार्टी, सभी जाति के लोग आकर मिल जाते हैं। रामचरितमानस में सीताजी ने कहा था पितृ वैभव विपुल मैं दीठा, नृपमणि मुकुट मिलहि पद पीठा’ – अभी तो सभी पार्टी और जाति के लोग काँग्रेस को ही अपना मुकुट अर्पित कर रही है। इन्हीं शब्दों के साथ मैं अपना वक्तव्य समाप्त करता हूँ।

23 मार्च 1965 को बिहार विधान सभा में कृष्ण बल्लभ सहाय का यह भाषण इस मायने में ऐतिहासिक है कि इससे देश में एक नये अध्याय की शुरुआत हुई जिसे आज सारा देश ' सामाजिक न्याय' के नाम से जानता है।

     ( साभार : राम लखन सिंह यादव के संस्मरण ) 

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