मोरारजी देसाई (29/02/1896- 10/04/1995) |
कृष्ण बल्लभ सहाय (31/12/1898-03/06/1974) |
मोरारजी देसाई एवं कृष्ण बल्लभ सहाय बिहारशरीफ़्फ में एक कार्यक्रम के दौरान |
बरौनी थर्मल स्टेशन के उदघाटन समारोह में मोरारजी देसाई के साथ कृष्ण बल्लभ सहाय और उनके कैबिनेट के अन्य मंत्री श्रीमती सुमित्रा देवी, मुंगेरी लाल और महेश प्रसाद सिन्हा |
बिहार मंत्रिमंडल की बैठक में समीक्षा करते हुए मोरारजी देसाई और कृष्ण बल्लभ सहाय साथ में हैं अन्य मंत्री किशोर बाबू, सत्येंद्र नारायण सिन्हा, महेश प्रसाद सिन्हा तथा वीरचंद पटेल |
गुलज़ारी लाल नन्दा के साथ कृष्ण बल्लभ सहाय। साथ में बिहार उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश एवं भूतपूर्व मुख्यमंत्री श्री बिनोदनंद झा |
सन 1964 में केंद्रीय मंत्री श्री यशवंत राव चवहन के साथ कृष्ण बल्लभ सहाय और अन्य मंत्रीगण सुमित्रा देवी, अंबिका प्रसाद सिंह एवं राम लखन सिंह यादव |
11 जनवरी 1966 देश के इतिहास का वो काला दिन था जब सुदूर देश में हमने लाल बहादुर शास्त्रीजी को खो दिया था। शास्त्रीजी की असामयिक मृत्यु ने एक बार पुनः नेतृत्व का सवाल सामने खड़ा कर दिया। जवाहरलाल के बाद कौन- इस प्रश्न को लाल बहादुर शास्त्री ने बेहतर तरीके से सुलझा लिया था। किन्तु शास्त्रीजी के जाने के बाद पुनः यह प्रश्न सामने था। जवाहरलाल नेहरू के निधन के वक़्त नेतृत्व की वर्चस्व में मोरारजी देसाई लाल बहादुर शास्त्री से पीछे रह गए थे।
कृष्ण बल्लभ बाबू द्वारा बिहार के मुख्यमंत्री पद संभालने के तुरंत बाद यानि 20 अक्तूबर 1963 को जवाहर लाल नेहरू की कैबिनेट में केंद्रीय मंत्री मोरारजी देसाई का बिहार आना हुआ था। अवसर था बरौनी ताप विद्युत संयंत्र का उदघाटन समारोह। इस दौरान मोरारजी देसाई प्रदेश काँग्रेस द्वारा आयोजित अन्य कार्यक्रमों में भी शरीक हुए। इसी क्रम में मोरारजी देसाई का बिहारशरीफ़ (नालंदा) भी आना हुआ जहां उन्होंने पावापुरी में वर्द्धमान महावीर के महापरिनिर्वाण स्थल के दर्शन किए। मोरारजी भाई ने राज्य सरकार को केंद्र से हर संभव मदद दिलवाने का आश्वासन दिया और इसी दरम्यान इन दोनों नेताओं में एक विलक्षण सामंजस्य बना- विलक्षण इसलिए क्योंकि ये दोनों ही शख्श अपने अख्खड़ स्वभाव के लिए जाने जाते थे। कदाचित यह अख्खड़ स्वभाव ही दोनों में सामंजस्य स्थापित करने में सहायक सिद्ध हुआ था।
जल्द ही इस मित्रता की परीक्षा की घड़ी सामने आई
जब 18 महीने बाद ही लाल बहादुर शास्त्रीजी के निधन के उपरांत नए नेता का प्रश्न
उठा। एक बार पुनः मोरारजी देसाई काँग्रेस नेतृत्व के निर्णायक प्रतिस्पर्धा में
सामने थे। हालांकि नेतृत्व के प्रश्न पर तात्कालिक गृहमंत्री गुलज़ारी लाल नन्दा और
तात्कालिक रक्षामंत्री यशवंतराव चहवन भी अपनी उम्मीदवारी जता चुके थे और इस
मुक़ाबले का त्रिकोणीय होने के पूरे-पूरे आसार थे। किन्तु इसी समय तात्कालिक
कॉंग्रेस अध्यक्ष कुमारस्वामी कामराज एवं ‘सिंडीकेट’ के अन्य नेता, जिसमें बंगाल के अतुल्य घोष, आंध्र प्रदेश के नीलम संजीव रेड्डी, मैसूर के एस.
निजलिंगप्पा, महाराष्ट्र के एस.के.पाटिल और ओड़ीशा के बीजू
पटनायक शामिल थे, ने
प्रधानमंत्री पद के लिए इन्दिरा गांधी का नाम आगे कर दिया। श्रीमती इन्दिरा गांधी
का नाम सामने आने के साथ ही गुलज़ारी लाल नन्दा और यशवंत राव चहवन ने अपने नाम वापस
ले लिए। अब दो ही नाम रह गए थे- वरिष्ठ नेता मोरारजी देसाई के सामने श्रीमती
इन्दिरा गांधी थीं। इस संघर्ष में मोरारजी रणछोड़ भाई देसाई ने रणक्षेत्र नहीं छोड़ा
और सामने डटे रहे जिसका खामियाजा उन्हें बाद में भुगतना पड़ा।
15 जनवरी 1966 को समाचार एजेंसी पी.टी.आई. ने
निम्न समाचार प्रकाशित किया- ‘दिल्ली में मुख्यमंत्रियों
की बैठक में लाल बहादुर शास्त्री के उत्तराधिकारी के रूप में श्रीमती इन्दिरा
गांधी के पक्ष में समर्थन की घोषणा के बाद श्रीमती गांधी का काँग्रेस संसदीय दल और
भारत के अगले प्रधानमंत्री के लिए चुना जाना लगभग तय। इस बैठक में श्रीमती इन्दिरा
गांधी के समर्थन में अपना मत देने वाले मुख्यमंत्रियों में महाराष्ट्र के वी.पी.
नायक, आंध्र प्रदेश के के. ब्रह्मानन्द रेड्डी, उड़ीसा के सदाशिव त्रिपाठी, मैसूर( अब कर्नाटक) के
एस. निजलिंगप्पा, मध्य-प्रदेश के द्वारकापति मिश्र, मद्रास (अब तमिलनाडु) के एम. भक्तवसलम, राजस्थान के मोहनलाल सुखाड़िया, जम्मू कश्मीर के
जी.एम. सादिक़ प्रमुख हैं’।
समाचार एजेंसी
ने आगे लिखा कि ‘इसके अलावे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री चन्द्रभानु गुप्ता, पश्चिम बंगाल के प्रफुल चन्द्र सेन एवं पंजाब के मुख्यमंत्री राम किशन, जो इस बैठक में किन्हीं कारणों से शामिल नहीं हो पाये, ने भी श्रीमती इन्दिरा गांधी के पक्ष में अपना समर्थन देने की बात कही
है। इस बैठक में असम के मुख्यमंत्री के प्रतिनिधि के तौर पर देवकान्त बरुआ और
फख़रुद्दीन अली अहमद ने मुख्यमंत्री के समर्थन का पत्र काँग्रेस अध्यक्ष कामराज को
सौंपा’।
इतने व्यापक स्तर
पर समर्थन के बाद श्रीमती इन्दिरा गांधी के नेता पद पर चुने जाने में कोई संशय
नहीं बचा था। तथापि कृष्ण बल्लभ बाबू एक ऐसे अकेले मुख्यमंत्री थे जो मोरारजी
देसाई के पक्ष में खड़े थे। मोरारजी देसाई को समर्थन देने के कृष्ण बल्लभ बाबू के
अपने तर्क थे- वे मोरारजी देसाई को बेहतर लीडर मानते थे। उनका मानना था कि श्री
देसाई के व्यापक प्रशासनिक अनुभव के समक्ष श्रीमती इन्दिरा गांधी तुलनात्मक रूप से
राजनीति और प्रशासन में नौसिखिया थी- डॉ राम मनोहर लोहिया की शब्दों में कहें तो ‘गूंगी-गुड़िया’ थी। किन्तु ‘सिंडीकेट’ का मंसूबा इसी ‘गूंगी-गुड़िया’
को प्रधानमंत्री बना उसे अपने हाथों की कठपुतली के रूप में इस्तेमाल करने का था। फौरी
तौर पर यह निष्कर्ष निकालना शायद सही न हो कि कृष्ण बल्लभ बाबू वंशवाद के खिलाफ थे
अतः उन्होंने श्रीमती इन्दिरा गांधी का समर्थन नहीं किया किन्तु यह जरूर कहा जा
सकता है कि कृष्ण बल्लभ बाबू को इस किस्म की राजनीति से सदा परहेज था। अतः यह
जानते हुए भी कि वे एक ऐसे वज़ीर का साथ दे रहे हैं जिन्हें उनके प्यादों ने बिसार दिया
था कृष्ण बल्लभ बाबू ने अंत तक मोरारजी भाई को अपना समर्थन दिया। चाहते तो अपनी राजनीतिक
जीवन को सँवारने के लिए कृष्ण बल्लभ बाबू भी मोरारजी देसाई को बिसार सकते थे किन्तु
उन्होंने ऐसा नहीं किया। ऐसा इसलिए क्योंकि कृष्ण बल्लभ बाबू ने अपने राजनीतिक जीवन
में ऊपर उठने के लिए कभी किसी राजनेता का इस्तेमाल सीढ़ी के तौर पर नहीं किया जो कि
आज की राजनीति का सामान्य नियम है। कृष्ण बल्लभ बाबू लोक-जीवन में सही मायने में शुचिता
के पैरोकार थे। कृष्ण बल्लभ बाबू ने राजनीति अपनी सिद्धांतों पर किया और इसमें उन्होंने
कभी कोई समझौता नहीं किया।
श्री मोरारजी देसाई वर्चस्व की इस लड़ाई में
श्रीमती इन्दिरा गांधी से 169 के मुक़ाबले 355 वोटों से हार गए। किन्तु कृष्ण बल्लभ
बाबू ने मोरारजी देसाई का साथ नहीं छोड़ा। 1969 में श्रीमती इन्दिरा गांधी ने ‘सिंडीकेट’ को धता बताते हुए काँग्रेस से निकलकर अलग
काँग्रेस (सत्ता) अथवा काँग्रेस (R) नाम से पार्टी बनाई, जिसका चुनाव चिह्न गाय-बछड़ा था। कृष्ण बल्लभ बाबू मूल काँग्रेस, जिसका चुनाव चिह्न 1952 से ही हल में जुते जोड़ा बैल था और जिसे अब काँग्रेस
(संगठन) अथवा काँग्रेस (O) से जाना गया, में ही बने रहे और कामराज समेत ‘सिंडीकेट’ के तमाम नेताओं को इसी पार्टी की शरण में वापस आना पड़ा। जल्द ही यह
काँग्रेस जो वास्तव में मूल काँग्रेस थी, अपनी पहचान खो बैठी
और कुछ ही वर्षों में यह पार्टी इतिहास में दर्ज़ हो गई, हालांकि
1974 में कृष्ण बल्लभ बाबू इसी काँग्रेस से चुनकर अंतिम बार बिहार विधान परिषद के
सदस्य बने थे। दूसरी ओर स्वार्थ सिद्धि के लिए 1969 में काँग्रेस के विभाजन उपरांत
काँग्रेस (R), का श्रीमती इन्दिरा गांधी ने 1980 में पुनः विभाजन
किया और इस प्रकार काँग्रेस (इन्दिरा) का जन्म हुआ। किन्तु कुछ ही दशकों में कुशल क्षेत्रीय
नेतृत्व के अभाव में यह पार्टी आज अपना वजूद खोने की कगार पर है।
(साभार: राष्ट्रीय संघ्रालय, नई दिल्ली, पी.टी।आई। समाचार एजन्सि की रिपोर्ट)
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