Tuesday, 23 March 2021

'हमारी विरासत, हमारी धरोहर: 13: लोहिया बनाम लौह पुरुष: डॉ राम मनोहर लोहिया एवं के. बी. सहाय (23/03/2021)

डॉ राम मनोहर लोहिया (23 मार्च 1910- 12 अक्तूबर 1967)

कृष्ण बल्लभ सहाय (31 दिसंबर 1898-3 जून 1974)


देश में समाजवादी विचारधारा के सबसे प्रबल हस्ताक्षर माने जाते हैं डॉ राम मनोहर लोहिया। आज इनकी 112वीं जन्म जयंती है।  इस कद्दावर शख्सियत का कृष्ण बल्लभ सहाय के साथ राजनीतिक सम्बन्धों पर प्रकाश डालता है यह ब्लॉग पढ़ें। 

डॉ. राम मनोहर लोहिया का जन्म 23 मार्च 1910 को अकबरपुर, उत्तर-प्रदेश में हुआ था। 1934 में जयप्रकाश नारायण और आचार्य नरेंद्र देव के साथ मिलकर इन्होंने काँग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना की। इस पार्टी के सदस्य एक-दूसरे को कामरेड से संबोधित करते थे जिसे बाद में कम्यूनिस्टों ने भी अपनाया। तथापि स्वतन्त्रता प्राप्ति तक यह पार्टी काँग्रेस की ही अभिन्न अंग बनी रही ठीक उसी प्रकार जैसे कभी काँग्रेस स्वराज पार्टी हुआ करती थी। स्वतन्त्रता के बाद काँग्रेस से परे सोशलिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया के नाम से इसने अपनी अलग पहचान बनाई। हालांकि प्रारम्भिक चुनावों में यह पार्टी काँग्रेस के समक्ष खास सफल नहीं रही, तथापि राम मनोहर लोहिया ने हार नहीं मानी और काँग्रेस के समानान्तर विकल्प देने के प्रयास में लगे रहे। इसी संघर्ष में इनका सामना तीसरे आम चुनावों से पहले बिहार में कृष्ण बल्लभ बाबू से हुआ।  

1965 में मॉनसून न होने के कारण पैदावार में हुई कमी की वजह से बिहार भीषण सुखाड़ से जूझ रहा था। सूबे के मुख्यमंत्री कृष्ण बल्लभ सहाय इस प्रकृतिक विपदा से निपटने के तमाम उपाय कर रहे थे। खाद्यान अनुलबद्धता को उत्तरोतर संकटग्रस्त बनाने में केंद्र सरकार की कतिपय नीतियाँ भी दोषी थीं जिनमें केंद्र सरकार द्वारा यथोचित मात्र में खाद्यान उपलब्ध न करा पाना, भारत सरकार द्वारा खाद्यानों के अंतर-प्रांतीय एवं अंतर-क्षेत्रीय यातायात पर प्रतिबंध एवं धान पर लगाया गया लेवी प्रमुख थे।

राज्य सरकार जमाखोरों के खिलाफ सख्त कदम उठा रही थी। दूसरी ओर कृषकों से उनके उपज का एक निश्चित हिस्सा वसूल कर जरूरतमंदों के बीच अनाज मुहैया करवाने का प्रयास भी जारी था। किन्तु सूबे की इस स्थिति से बेखबर शून्यचित्त अराजपत्रित कर्मचारी वेतन वृद्धि को लेकर अलग आन्दोलन की राह पर थे तो कॉलेज में फीस में वृद्धि को लेकर छात्र भी आंदोलनरत थे। ऐसे में इस प्रकृतिक आपदा का राजनीतिक दोहन के लिए समाजवादी व्यग्र थे और उन्होंने अराजपत्रित कर्मचारी और छात्रों को उकसाना शुरू किया। 1965 में इसी सिलसिले में डॉ राम मनोहर लोहिया पटना में थे। कृष्ण बल्लभ बाबू समाजवादियों के इस राजनीतिक चरित्र से अनभिज्ञ नहीं थे। 9 दिसंबर 1964 को बिहार विधान सभा में एक बहस के दौरान उन्होंने तुलसीदास की चौपाई उद्धृत करते हुए कहा था कि समाजवादी नेता कितने रूप धारण करते हैं इसका कोई ठिकाना नहीं है- केशव कहि न जाय का कहिये, रचना तोहि विचित्र अति समुझि समुझि मन रहिये।  

अतः 1965 में डॉ राम मनोहर लोहिया जब पटना पधारे तब तात्कालिक जिलाधिकारी जे. एन. साहू के आदेश पर डीफेंस ऑफ इंडिया एक्ट 1962 के तहत उन्हें नज़रबंद कर लिया गया और हजारीबाग केन्द्रीय कारा भेज दिया गया। हालांकि इस मामले में उन्हें उच्चतम न्यायालय की पाँच सदस्यीय खंडपीठ ( माननीय ए.के. सरकार, एम. हिदायतुल्लाह, आर.एस. बच्छावत, जे.आर. मुधोलकर एवं रघुबर दयाल) से जमानत मिल गयी किन्तु डॉ राम मनोहर लोहिया को इस बात का बेशक अंदाजा हो गया था कि यहाँ उनका मुक़ाबला बिहार के लौह पुरुष से था। अतः समाजवादी सोच और नीति के विरुद्ध, एक बदली हुई रणनीति के तहत, गैर-काँग्रेसवाद के नाम पर लोहिया ने सभी विपक्षी दलों को कृष्ण बल्लभ सहाय की सरकार के खिलाफ गोलबंद करना शुरू किया। उन्होंने इस बात की परवाह नहीं की कि इस गठबंधन में उनकी संयुक्त समाजवादी पार्टी के अलावे वामपंथी दल यथा कम्यूनिस्ट पार्टी, मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी, और अन्य पार्टियां यथा प्रजा सोशलिस्ट पार्टी, रिपब्लिकन पार्टी, जन क्रांति दल, स्वतंत्र पार्टी, झारखंड पार्टी सभी शामिल थे। इन दलों के अपने-अपने सिद्धान्त थे और कुछ मामलों में तो ये एक दूसरे से एकदम विपरीत थे। इसे नज़रअंदाज़ करते हुए डॉ राम मनोहर लोहिया ने इन दलों को गठबंधन में शामिल होने का न्योता देते हुए घोषणा की कि जो दल काँग्रेस के खिलाफ इस गठबंधन में शामिल नहीं होते हैं वे संकीर्ण सोच एवं सांप्रदायिक तत्व के हिमायती माने जाएंगें। अंततः डॉ राम मनोहर लोहिया के नेतृत्व में यह गठबंधन कृष्ण बल्लभ सहाय के नेतृत्व में चुनाव लड़ रही काँग्रेस पार्टी को 1967 के आम चुनाव में शिकस्त देने में सफल रहा। तथापि चुनाव-उपरांत काँग्रेस पार्टी सबसे बड़ा दल के रूप में उभरी और उसके 128 विधायक चुन कर आए। डॉ राम मनोहर लोहिया की संयुक्त समाजवादी पार्टी दूसरा सबसे बड़ा दल था जिसके  68 विधायक चुन कर आए थे। इसी प्रकार भारतीय जनसंघ के 26, दोनों कम्यूनिस्ट पार्टी के 28, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के 18, महामाया प्रसाद सिन्हा की जन क्रांति दल के 13 और रामगढ़ के राजा कामाख्या नारायण सिंह की स्वतंत्र पार्टी के 3 विधायक चुन कर आए थे। निर्दलयों की संख्या 33 थी। चुनाव के बाद अटल बिहारी बाजपेयी की पहल पर भारतीय जनसंघ भी इस जमात में शामिल हो गयी। देश में एक वैकल्पिक प्रजातांत्रिक व्यवस्था आसन्न है। इसे समर्थन न देने से इस प्रक्रिया पर रोक लगेगी जो भारतीय जनसंघ नहीं चाहेगी’- अटल बिहारी बाजपेयी की इस घोषण ने गठबंधन सरकार के पक्ष में मार्ग प्रशस्त  किया। (द इंडियन नेशन अप्रैल 24, 1967) इस प्रकार इस गठबंधन में वामपंथ से लेकर दक्षिणपंथ, समाजवादी से लेकर क्रांतिकारी -सभी विचारधारा के दल मात्र सत्ता-सुख और गैर-काँग्रेसवाद के नाम पर साथ थी। सिद्धान्त गौण हो चुका था।    

इस सिद्धांतविहीन राजनीतिक गठबंधन के दूरगामी परिणाम हुए। वैकल्पिक राजनीतिक व्यवस्था देने की झोंक में समाजवादी पार्टियां इस चुनाव के बाद अपने सैद्धांतिक पथ से जो भटकी वो फिर कभी नीतिगत पटरी पर वापस नहीं लौट पाई। कभी डॉ राम मनोहर लोहिया गर्व से सरेआम उद्घोष करते थे कि आज मेरे पास कुछ नहीं है सिवाय इसके कि हिंदुस्तान के साधारण और गरीब लोग सोचते हैं कि मैं शायद उनका आदमी हूँकिन्तु इस सिद्धांतविहीन गठबंधन पर अपनी मुहर लगाकर लोहिया ने जो साख खोया वो फिर वापस नहीं हासिल हो पाया।  

दूसरी ओर समाजवादियों के लिए कृष्ण बल्लभ सहाय ने बिहार विधानसभा में जो कहा था उसे इस गठबंधन की सरकार ने सही साबित कर दिखाया। इस सिद्धांतविहीन सरकार को अपदस्थ करने के लिए कृष्ण बल्लभ बाबू को बहुत अधिक प्रयास करने की जरूरत नहीं पड़ी। कभी कृष्ण बल्लभ बाबू द्वारा अपनी मंत्रिमंडल में मंत्री नहीं बनाए जाने से रुष्ट होकर काँग्रेस से निकले बिंदेश्वरी प्रसाद मण्डल, जो अब डॉ राम मनोहर लोहिया के संयुक्त समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ सदस्य थे, की राजनीतिक महत्वाकांक्षा से कृष्ण बल्लभ बाबू अनभिज्ञ नहीं थे। डॉ लोहिया ने काँग्रेस को हटाने के लिए समाजवादी सिद्धांतों से समझौता तो अवश्य किया किन्तु उन्हें इसका भान कदाचित नहीं था कि उन्हें आगे और भी समझौते करने होंगें। डॉ लोहिया की इच्छा थी कि महामाया प्रसाद सिन्हा की मंत्रिमंडल में उनकी पार्टी से महिला, हरिजन अथवा आदिवासी को प्रतिनिधित्व मिले। किन्तु ऐसा हुआ नहीं और बिंदेश्वरी प्रसाद मण्डल महामाया बाबू की मंत्रिमंडल में संयुक्त समाजवादी पार्टी के कोटे से कैबिनेट मंत्री की पद पर काबिज होने में सफल रहे। यह डॉ लोहिया की समाजवादी सोच और नीति पर दूसरा कुठराघात था। बतौर पार्टी प्रमुख डॉ लोहिया ने यह निर्णय लिया था कि कोई भी सांसद राजी सरकार में मंत्री पद स्वीकार नहीं करेगा। किन्तु गठबंधन की सरकार को बरकरार रखने के लिए महामाया बाबू को सहरसा के गोप बिंदेश्वरी प्रसाद मण्डल को, जो उस दौरान मधेपुरा से सांसद थे,  मंत्रीपद देने पर विवश होना पड़ा। डॉ राम मनोहर लोहिया को उनकी ही पार्टी के नेता अप्रासंगिक सिद्ध करने पर तुले थे।    

और यहीं कृष्ण बल्लभ सहाय को डॉ राम मनोहर लोहिया के गैर-काँग्रेसवाद के खोखलेपन को चुनौती देने का अवसर मिला। समाजवाद के नाम पर डॉ राम मनोहर लोहिया द्वारा शुरू किए गए इस गैर-सैद्धान्तिक गठबंधन वाली राजनीति का जवाब कृष्ण बल्लभ सहाय ने उन्हें उन्हीं की भाषा में दिया। यदि डॉ लोहिया ने यह माना कि गैर-काँग्रेसवाद के नाम पर राजनीति में सब जायज़ है तो कृष्ण बल्लभ बाबू ने भी समाजवादियों के चेहरे-पर-चेहरे को बेनकाब करते हुए डॉ राम मनोहर लोहिया के इस प्रयोग की निरर्थकता की बखिया उधेड़ दी। 

 बिंदेश्वरी प्रसाद मण्डल, जो किसी भी सदन का सदस्य न रहते हुए मंत्री थे, का छ महीने का कार्यकाल 4 सितंबर 1967 को पूरा होनेवाला था। डॉ लोहिया किसी भी सूरत में उन्हें बिहार मंत्रिमंडल में बने रहना देना नहीं चाहते थे। नतीजा यह हुआ कि बिंदेश्वरी प्रसाद मण्डल अपने राजनीतिक गुरु को धता बताते हुए संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी से अपने 25 समर्थक विधायकों के साथ निकल गए और अपनी अलग पार्टी बनाई जिसे शोषित दल का नाम दिया गया। कहने को तो इस दल के सदस्य स्वयं को शोषित कहते थे क्योंकि ये सभी राज्य सरकार के गैर-कानूनी अनाज भंडारण के खिलाफ की गई कार्रवाई के सताये थे, किन्तु इस दल के अधिकांश सदस्य जमींदार थे और किसी भी सूरत में किसी शोषण के शिकार नहीं थे। कृष्ण बल्लभ सहाय की मदद से शोषित दल को काँग्रेस का समर्थन मिला और इस प्रकार यथा घोषित एक साल के भीतर-भीतर यानि दस महीने और और बीस दिन में ही  28 जनवरी 1968 को महामाया प्रसाद सिन्हा की सरकार का पतन हो गया। किन्तु बिंदेश्वरी प्रसाद मण्डल तब भी किसी भी सदन के सदस्य नहीं थे। राज्यपाल ऐसे किसी भी शक्स को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाना नहीं चाहते थे जो किसी भी सदन का सदस्य न हो जबकि बिंदेश्वरी प्रसाद मण्डल तो ताजा-ताजा 6 माह तक बिना किसी सदन का सदस्य बने मंत्री तक रहे थे।

कृष्ण बल्लभ बाबू ने इस अड़चन को दूर किया और एक अस्थायी व्यवस्था के तहत 28 जनवरी 1968 को सतीश प्रसाद सिंह के नेतृत्व में शोषित दल की सरकार का गठन करवाया। इसी दिन कृष्ण बल्लभ बाबू ने अपने निकटस्थ परमानंद बाबू, जो बिहार विधान परिषद के सदस्य थे, का त्याग-पत्र लिवा लिया। 29 जनवरी 1968 को मुख्यमंत्री सतीश प्रसाद सिंह ने इस रिक्त हुए सीट पर बिंदेश्वरी प्रसाद मण्डल के नाम की अनुशंसा की। 30 जनवरी को राज्यपाल की स्वीकृति मिल गयी। 1 फरवरी को सतीश प्रसाद सिंह ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया और इसी दिन बिंदेश्वरी प्रसाद मण्डल ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। इस प्रकार डॉ राम मनोहर लोहिया के समाजवाद के प्रयोग का अंत हुआ, हालांकि अपनी पार्टी के इस अधोपतन को देखने के लिए वे जीवित नहीं रहे थे। 12 अक्तूबर 1967 को दिल्ली में मात्र 57 वर्ष की उम्र में उनका आकस्मिक निधन हो गया था।   

(उद्धरण: (i) बिहार विधान सभा की कार्रवाई, (ii) कोलिसन पॉलिटिक्स इन इंडिया: पॉल आर. ब्रास (अमेरीकन पॉलिटिकल साइन्स रिव्यू), (iii) मल्टी-पार्टी कोलिसन गवर्नमेंट इन इंडिया- द फेज ऑफ नॉन-काँग्रेस  (iv) द इंडियन नेशन 24 अप्रैल 1967, (v) द पॉलिटिक्स ऑफ डिफेकसन- सुभास सी. कश्यप (vi) द बिहार एक्सपिरियन्स: इंद्रदीप सिन्हा)   


Friday, 19 March 2021

'THE LEGACY': 8: J.B. VERSUS K.B.: JIWATRAM BHAGWANDAS KRIPLANI AND KRISHNA BALLABH SAHAY (19/03/2021)

JIWATRAM BHAGWANDAS KRIPLANI
(11NOVEMBER 1888-19 MARCH 1982)

KRISHNA BALLABH SAHAY
(31 DECEMBER 1898-3 JUNE 1974)

  
 

After he took over as the Revenue Minister in the Sri Krishna Sinha’s Ministry in 1946, Zamindari Abolition became the top priority of Krishna Ballabh Sahay. This alarmed his adversaries who began conspiring against him. K. B. Sahay was aware of the developments but he was steady in his resolve. Raja Kamakhya Narayan Singh of Ramgarh and Sir Kameshwar Singh, Maharajadhiraja of Darbhanga was the chief architect of the ploy against K. B. Sahay. Raja Kamakhya Narayan Singh got a few Congressmen to write to the central leadership forwarding therewith a bunch of 22 complaints against K. B. Sahay. Among the local Congressmen were ex District Congress Chief Ram Narayan Singh, Mohammad Saleh and President of Hazaribagh District Mahila Khadi Kendra Saraswati Devi. These Congressmen belonged to the ‘Old Guards’ who believed that the younger crop of leaders like K. B. Sahay has steered the independence movement in a direction that was totally different from what they had been practising over the years. In fact, after the advent of Mahatma Gandhi, Congress as a party had moved ahead from the phase of laidback ‘drawing-room discussion’ to the phase of constructive changes by involving the common man to the cause of the freedom struggle. Leaders like K. B. Sahay were quite successful in making Congress a potent force in the countryside by dint of his hard labour and organizational capabilities and therefore the ‘old guards’ feared getting completely overshadowed by him. Though he was brought up in Hazaribagh, they considered K. B. Sahay an outsider as Hazaribagh was not his birth-place. Hence they targeted K. B. Sahay with a horde of allegations, some of which were trivial and without any substance. In their complaint, these Congressmen alleged that K. B. Sahay had stopped Dr Rajendra Prasad from visiting the Khadi Kendra run by Saraswati Devi, that K. B. Sahay supplements the income of fellow Congress workers by sharing his salary as Revenue Minister with them ( K. B. Sahay had kept Dr Rajendra Prasad informed of this), that K. B. Sahay was close to many industrialists, that as Minister of Forests, K. B. Sahay had imposed a restriction on free access to forest property, that noted advocate Bajrang Sahay was hired by the Bihar Government at the instance of K.B. Sahay to help him draft the Zamindari Abolition Bill, and so on and so forth. In their concluding remarks, these Congressmen called for disciplinary action against K. B. Sahay. 


This complaint letter was received by J. B. Kriplani, who had just taken over from Maulana Abul Kalam Azad as the President of All India Congress Committee. Kriplani promptly forwarded this letter to K. B. Sahay seeking his comments on the issues raised.


In his reply dated 2nd July 1946, K. B. Sahay gave a point-wise reply to each of these allegations. He informed Kriplani that ‘Dr Rajendra Prasad is well aware of her (Smt. Saraswati Devi) once having made allegations against me and of my having pressed then for an enquiry into the allegations and a reference may be made to him (Dr Rajendra Prasad) as to why the allegations were not enquired into.’ K. B. Sahay further added that he ‘introduced the Forest Act …as an attempt to preserve the forests. I am sure that intelligent sections of people do appreciate my effort to preserve the forests of Chhotanagpur and posterity will do so in future. With regard to the nativity issue, K. B. Sahay considered the charge to be frivolous but nevertheless clarified that ‘though born in Patna I was brought up in Hazaribagh from my childhood and have been working in the district of Hazaribagh for the last 27 years. It is true that I am now a Minister but what prospect was there before me when I courted imprisonment in 1930, 1932, 1933, and 1934 or even in 1940 and 1942 from Hazaribagh district? 


K. B. Sahay further clarified that ‘I appointed Babu Bajrang Sahay as Government pleader during 1937 Ministry. But the appointment was not made against Rule, which does not require a minimum practice of ten years. He was appointed to draft Zamindari Abolition Bill with the full consent of the Ministers in a meeting.’


With regard to the charge of providing financial support to poor Congress workers, K. B. Sahay informed that ‘Before I became Minister I used to raise subscriptions for these workers which were regularly entered in the District Congress Committee accounts and after I became a Minister I have been paying Rs 300/- per month from my salary for the maintenance of some of the workers. I don’t think I have sinned in this respect. ….Babu Ram Narayan Singh’s allegation besides being unjust to me is cruel to the workers who on a small allowance of Rs 50/- or so continue to toil for Congress. I often get money from the capitalists to pay some Congress workers or help some organization…. and all such fund is deposited in the public account of the District Congress Committee.’


K. B. Sahay concluded his reply in the following words ‘I am sorry I have troubled you with this long letter. I could not help it because every specific charge had to be answered. But I welcome the demand of Babu Ram Narayan Singh that the allegations ought to be enquired into. I would suggest that you might depute a member of the All India Congress Working Committee to look into these allegations. The condition of the enquiry must however be that if these allegations are found to be false and malicious Babu Ram Narayan Singh must be turned out of the Congress having tried to lower the prestige of a Congressman who is at present a Minister. It goes without saying that if I am found guilty of moral turpitude I shall not hesitate for two minutes to walk out of Congress and the Ministry. I am sending a copy of this letter to Dr Rajendra Prasad and Mahatma Gandhi. I am also returning the papers containing the allegations’.


This terse reply from K. B. Sahay had the desired impact on J. B. Kriplani, who did not further pursue the matter. He had got a taste of the mettle K. B. Sahay was made of. The reply gives an insight into the manner K. B. Sahay raised Congress from the scratch in Chhotanagpur and made it a potent political force in Chhotanagpur. He was quite candid in accepting that he received donations for furthering the cause of Congress and for helping poor fellow Congress worker. He could do so because his conscience was clear. He kept a detailed account of every donation received and also of every penny spent out of the District Congress Fund. There are scores of correspondences between K. B. Sahay and Dr Rajendra Prasad where he sought Dr Prasad’s permission to draw money from the District Congress Fund for any political purpose. Such conscientiousness is a rarity in present-day leadership.   

Thursday, 11 March 2021

हमारी विरासत, हमारी धरोहर: 12: राम एवं कृष्ण: राम लखन सिंह यादव एवं कृष्ण बल्लभ सहाय (09/03/2021)

राम लखन सिंह यादव (9 मार्च 1920-2 मार्च 2006)

कृष्ण बल्लभ सहाय (31 दिसंबर 1898-3 जून 1974)








9 मार्च बीते ज़माने के बिहार के लोकप्रिय नेता राम लखन सिंह यादव की जन्म जयंती है। इस अवसर पर कृष्ण बल्लभ सहाय के साथ उनके राजनीतिक संबंधों पर प्रकाश डालता यह ब्लॉग पढ़ें।

सन 1962 में देश भर में हुए तीसरे चुनाव के उपरांत बिहार में एक बार पुनः कांग्रेस की सत्ता में वापसी हुई। कृष्ण बल्लभ सहाय पटना (पश्चिमी) विधान सभा क्षेत्र से रिकॉर्ड मतों से जीत कर विधायक चुने गए। इस चुनाव में उन्होंने राजा रामगढ़ की पार्टी के उम्मीदवार को बाईस हज़ार से अधिक मतों के अंतर से हराया था जो उस चुनाव में किसी भी विधायक द्वारा दर्ज़ सबसे बड़ी चुनावी जीत थी। किन्तु जब कांग्रेस विधायक दल के नेता पद हेतु चुनाव हुए तब श्री सहाय तात्कालिक मुख्यमंत्री श्री विनोदानंद झा की ब्राह्मण-राजपूत गठबंधन से हार गए। विनोदानंद झा ने कृष्ण बल्लभ बाबू को कम महत्वपूर्ण सहकारिता विभाग का मंत्री बनाया। कृष्ण बल्लभ बाबू के आलोचकों ने तो इस हार को उनकी राजनीतिक जीवन का अंत मान लिया और उनकी इस अवनत्ति का जश्न तक मना डाला। कृष्ण बल्लभ बाबू ने इस गरल को भी गले लगाया और आगे की रणनीति पर सक्रिय हो गए। उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ रहा था कि उनके आलोचक उनके बारे में क्या सोचते थे। हाँ, वे इस बात को भली-भांति समझ गए कि तमाम योग्यता और काबिलियत के बावजूद बिहार की राजनीति में यदि शीर्ष तक पहुंचना है तो केवल योग्यता मायने नहीं रखती वरन जातिगत समीकरण का सटीक होना भी आवश्यक था। अब कृष्ण बल्लभ बाबू को उचित समय का इंतज़ार था।

उधर बिनोदानंद झा को भी इस बात का इल्म था कि कृष्ण बल्लभ कांग्रेस विधायक दल के नेता पद का चुनाव भले ही हार गए हों, किन्तु वे इस हार को स्वीकार कर शांत बैठने वालों में से नहीं थे। इसी वर्ष पटना में अखिल भारतीय कांग्रेस महाअधिवेशन का आयोजन हुआ। विनोदानंद झा ने इस महाधिवेशन का सफलतापूर्वक आयोजन कर केंद्रीय हाई कमांड की नज़रों कुछ और पायदान ऊपर उठ गए। कृष्ण बल्लभ बाबू अपने राजनीतिक करियर के न्यूनतम पायदान पर थे। कोई और होता तो शायद कांग्रेस से बगावत का बिगुल फूंक देता। किन्तु कृष्ण बल्लभ बाबू में अदम्य सहनशक्ति थी। यह परीक्षा की घड़ी थी। विनोदानंद झा ने कृष्ण बल्लभ बाबू के राजनीतिक करियर को नेस्तनाबूत करने के इरादे से एक अंतिम दाँव चला जिसे विवादित ''जहरीली मछली काण्ड' से जाना गया। इस काण्ड में कृष्ण बल्लभ बाबू के अनन्य सहयोगी राम लखन सिंह यादव को भी घसीटा गया। कृष्ण बल्लभ बाबू पर यह आरोप लगा कि उन्होंने अपने मित्र विश्वनाथ वर्मा के अगमकुआँ स्थित 'राज होटल' से अपने विश्वासपात्र राम लखन सिंह यादव के मार्फ़त मुख्यमंत्री निवास में जहरीली मछली भेजा जिसका उद्देश्य मुख्यमंत्री की हत्या करवाना था। इस घटना का उल्लेख स्वयं राम लखन सिंह यादव ने बाद में 1998 में पटना के एक समाचार पत्र में छपे अपने संस्मरण में किया था। राम लखन सिंह यादव लिखते हैँ कि राज्य इंटेलीजेंस ब्यूरो ने इस घटना की जांचकर अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपा जिसे मुख्यमंत्री ने आगे की कार्रवाई के लिए केंद्र सरकार के पास भिजवा दिया। यह काफी नाजुक मसला था- एक मुख्यमंत्री की हत्या की साज़िश में उनके ही मंत्रिमंडल के एक अग्रणी मंत्री पर आरोप लगे थे। किन्तु तात्कालिक प्रधानमंत्री श्री जवाहर लाल नेहरू ने इस काण्ड की स्वतंत्र जांच का निर्णय लेते हुए इस मामले को सेंट्रल इन्वेस्टीगेशन डिपार्टमेंट को सौंप दिया। सी.आई.डी. के तात्कालिक प्रमुख श्री मल्लिक और उनके डिप्टी शुक्लाजी ने अगले पांच छ माह तक समस्त घटना की बृहत जांच की। सभी 36 गवाहों के ब्यान दर्ज किये गए। इस बृहत अनवेषण के उपरांत जो रिपोर्ट इस टीम ने केंद्र सरकार को सौपा उसमें इस कथित षड्यंत्र के पीछे की मंशा साफ हो गयी। इस घटना से विनोदानंद झा की छवि को जो जबरदस्त क्षति पहुंची उसका अंतिम नतीजा यह रहा कि 'कामराज योजना' के तहत उनसे इस्तीफा ले लिया गया और एक साल बाद ही कांग्रेस विधयाक दल के नेता पद के लिए एक बार पुनः कवायद शुरू हो गई।

विनोदानंद झा हालांकि मुख्यमंत्री पद छोड़ चुके थे किन्तु उन्होंने अपनी पराजय को नहीं स्वीकारा था। अतः उन्होंने नेता पद के लिए वरिष्ठ कोइरी नेता श्री बीरचंद पटेल का नाम आगे कर दिया। दूसरी ओर कृष्ण बल्लभ बाबू थे जो यह समझ चुके थे कि बिहार में वे शीर्ष स्थान पर तब तक काबिज़ नहीं हो सकते थे जब तक तीन अगड़ी जाति यानी ब्राह्मण, राजपूत और भूमिहार में से दो आपस में कायस्थ के खिलाफ गठबंधन बनाने में सफल रहते हैँ. कहने को तो 'कायस्थ' भी अगड़ी जाति कहलाती थी किन्तु यह वास्तव में अगड़ी जातियों की जमात में हाशिये पर थी। तीन में से दो अगड़ी जातियों का अपने पक्ष में समर्थन जुटा पाना कृष्ण बल्लभ बाबू के लिए संभव नहीं था। तब एक चतुर 'मैथिल ब्राह्मण' को पटकनी देने के लिए 'कुशनयन' कायस्थ कृष्ण बल्लभ बाबू ने जो दांव खेला वो उस दौर में निश्चय ही 'मास्टरस्ट्रोक' था। उन्होंने राम लखन सिंह यादव की मदद से अन्य पिछड़ी जातियों के विधायकों को अपने पक्ष में करना शुरू किया। इस प्रकार कोइरी (कुशवाहा), कुर्मी और यादवों का यह गठबंधन कृष्ण बल्लभ बाबू के पक्ष में बना जो आनेवाले वर्षों में 'त्रिवेणी संघ' के नाम से विख्यात हुआ। बीरचंद पटेल कोइरी को भी अपने पक्ष में लाने में असफल रहे। उधर ब्राह्मण को छोड़कर कृष्ण बल्लभ बाबू राजपूत और भूमिहार नेताओं को भी अपने पक्ष में करने में सफल रहे - अनुग्रह बाबू के पुत्र सत्येंद्र नारायण सिन्हा और बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री, युवा भूमिहार नेता बंदी शंकर सिंह कृष्ण बल्लभ बाबू के पक्ष में उतर आये। अंततः कृष्ण बल्लभ बाबू कांग्रेस विधायक दल के नेता चुने गए और 2 अक्टूबर 1963 को उन्होंने बिहार के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। इस विजय के बाद से ही बिहार के राजनीतिक हलकों में कृष्ण बल्लभ बाबू और राम लखन बाबू की जोड़ी 'राम-हनुमान की जोड़ी' कहलाने लगी। यह और बात थी कि यहाँ कृष्ण (बल्लभ बाबू) के संकट मोचन राम (लखन बाबू) बने और उन्हें (सत्येंद्र) नारायण का सहारा मिला! पिछड़ी जातियों को सशक्त करने के कृष्ण बल्लभ बाबू के इस राजनीतिक दांव के दूरगामी परिणाम हुए। नब्बे के दशक तक आते आते त्रिवेणी संघ बिहार की राजनीति का सबसे सशक्त खेमा बन गया जिसका नतीजा यह हुआ कि पिछले तीस वर्षों में बिहार की चारों अगड़ी जातियां हाशिये पर चली गई। 1990 में लालू प्रसाद बिहार यादव के सशक्त नेता बनकर उभरे और मुख्यमंत्री बने। कृष्ण बल्लभ बाबू के पिछड़े और कमजोर तबके को मुखर बनाने प्रयासों का संज्ञान लेते हुए उन्होंने अपने मुख्यमंत्रितव काल में सचिवालय परिसर में मंगल तालाब के सामने कृष्ण बल्लभ बाबू की आदमकद प्रतिमा की स्थापना की।

गरीबों, पिछड़ो और समाज के कमजोर तबके की मदद करने में कृष्ण बल्लभ बाबू सदा आगे रहे। उनका यह समर्थन मात्र राजनीतिक दांव ना होकर इन वर्गों की मदद करने की उनकी फ़िक्रमंद नियत थी। 23 मार्च 1965 को बिहार विधान सभा में यादव महासभा में बतौर मुख्यमंत्री शिरकत को लेकर सदन में उठाए गए सवालों का जवाब देते हुए कृष्ण बल्लभ सहाय का प्रत्युत्तर उनकी इस साफ नियत का आयना है. गरीबों, पिछड़ों और मजलूमों के पक्ष में बोलते हुए उन्होंने जो हुंकार भरा था उसकी गूँज समाज में आज भी सुनी जा सकती हैँ -'मुझसे प्रश्न करने वालों से मैं पूछना चाहता हूँ कि आप भूमिहार महासभा करते हैं, कायस्थ महासभा करते हैं राजपूत महासभा करते हैं तब अगर यादवों ने महासभा किया तो क्यों आपको रंज हुआ? मैंने जो वहाँ कहा उसे सुन लीजिये। मैंने उनसे कहा कि मेरी सहानुभूति उनके साथ है। मेरी सहानुभूति जितने पिछड़े वर्गों के लोगों के साथ है उनके साथ भी है। मैंने इन पिछड़ी जातियों का नाम लिया- कोइरी, कुर्मी, दुसाद आदि हैं उनका नाम लिया और कहा कि उनके साथ मेरी पूरी सहानुभूति रहेगी। मैंने कहा कि गाड़ी को चलाने के लिए चक्के की जरूरत पडती है। अगर चक्के में हवा कम हो जाये तो गाड़ी नहीं चलेगी। पिछड़ी जाति के लोगों में जब तक ताकत नहीं आवेगी, तब तक समाज की गाड़ी नहीं चलेगी। पिछड़ी जाति के साथ काँग्रेस सरकार ने पंद्रह वर्षों के अंदर कुछ न्याय करने की चेष्टा की है और हमारा प्रयास भी इसी दिशा में है।' फिर राजकुमार पुरवे को इशारा करते हुए उन्होंने अपनी बात जारी रखी-आप कम्यूनिस्ट हैं। आप इस झमेले में न पड़े। जब भूमिहार महासभा हो सकती है, जब कायस्थ महासभा हो सकती है तो यदि यादव महासभा हुई है तो उसमें क्या फर्क पड़ा? हमारे पूज्य स्वर्गीय राजेंद्रबाबू कायस्थ महासभा में सभापति हुए थे। श्री बाबू ने खुद कहा था कि भूमिहार महासभा में वे गए थे। इसलिए आप मुझपर जातीयता का आरोप न लगाएँ। जहां पर जातीयता नहीं है वहाँ तो आप जातीयता फैलाने की कोशिश करते हैं। आप कहते हैं कि फलां कायस्थ है तो फलां राजपूत है या भूमिहार है। आप जो कुछ एसम्ब्ली में कहते हैं उससे बाहर वायुमंडल विषाक्त होता है। आप सरकारी नौकरों पर जातीयता का दाग न लगाएँ। समाज में जो लोग ऐसा करते हैं मेरे ख्याल से वे सार्वजनिक सेवा नहीं करते हैं। हम सभी देखते हैं कि हिमालया से गंगा, बागमती, कोशी आदि नदियां निकलती हैं पर ये सभी नदियां वापस आकर गंगा में मिल जाती हैं। काँग्रेस ऐसी ही पार्टी है जहां सभी पार्टी, सभी जाति के लोग आकर मिल जाते हैं। रामचरितमानस में सीताजी ने कहा था पितृ वैभव विपुल मैं दीठा, नृपमणि मुकुट मिलहि पद पीठा’ – अभी तो सभी पार्टी और जाति के लोग काँग्रेस को ही अपना मुकुट अर्पित कर रही है। इन्हीं शब्दों के साथ मैं अपना वक्तव्य समाप्त करता हूँ।

23 मार्च 1965 को बिहार विधान सभा में कृष्ण बल्लभ सहाय का यह भाषण इस मायने में ऐतिहासिक है कि इससे देश में एक नये अध्याय की शुरुआत हुई जिसे आज सारा देश ' सामाजिक न्याय' के नाम से जानता है।

     ( साभार : राम लखन सिंह यादव के संस्मरण ) 

Friday, 5 March 2021

'THE LEGACY: 7: SACHCHIDANAND SINHA AND KRISHNA BALLABH SAHAY (06/03/2021)

Dr SACHCHIDANAND SINHA

KRISHNA BALLABH SAHAY


71 years have passed since Sachchidanand Sinha left us on this day for his heavenly abode in the year 1950. As we remember him today on his 72nd death anniversary, I take a leaf out from his life which gives a glimpse of his political relations with Krishna Ballabh Sahay. Sachchidanand Sinha was one of the three leaders who mentored Krishna Ballabh Sahay- Dr Rajendra Prasad and Sri Krishna Sinha were the other two.

The name of Sachchidanand Sinha has been erased from the memory of a whole nation though he is regarded as the 'Founder of Bihar’. The history of modern Bihar begins with Sachchidanand Sinha whose efforts led to the creation of a separate state of Bihar.  There is an interesting anecdote related to this. In 1893 Dr Sachchidanand Sinha was on his way back from London after completing his studies, when a Punjabi advocate on board the same ship asked him which native state he belonged to. ‘Bihar’- was Sachchidanand Sinha’s brief reply. The advocate was puzzled to hear this. ‘But we do not have any state by the name Bihar in India’? - He questioned. ‘You will find this State in near future’- was Sinha’s cryptic reply. The Bihari youths in police service during those days had to wear the badge of ‘Bengal Police’ which offended Sachchidanand Sinha a lot. He took up the cause of Bihar and strongly advocated the case of a separate state of Bihar. His concerted efforts led to the creation of a separate State of Bihar after bifurcation of Bengal in 1912. Sachchidanand Sinha finds the same place in Bihar as Raja Ram Mohan Roy finds in Bengal. He was the leading light of renaissance in Bihar.  

The Bengalis never reconciled with this development and they kept sulking at the division of their State. Hence they launched a counter agitation to reunite their state. This agitation found strength especially in the Bengali dominated districts of Manbhum (now Dhanbad), Singhbhum and Purnea. When the Government of India Act was passed in 1935, the issue of division of Bengal was raked up by the disgruntled Bengalis with regard to their locus-standi in the State of Bihar vis-à-vis the provision of Domicile in the Act.  

The Bengali Press especially ‘The Statesman’ and ‘The Modern Review’ as well as the Bengali intelligentsia led by noted advocate P. R. Das and supported by the then Bengal leaders strongly raised the issue of Domicile. They even exerted pressure on Gandhiji. This conflict between the two states came to be known as the ‘Behari-Bengali Conflict’. Almost immediately the front-rank leaders from Bihar rallied to oppose this move. Sachchidanand Sinha, Dr Rajendra Prasad, Anugrah Narayan Sinha, Sri Krishna Sinha etc and the Bihar Press led by ‘The Searchlight’ and its editor Sri Murali Babu and ‘The Indian Nation’ opposed any move to reconsider the decision vociferously. In the backdrop of this tussle the Bihar Government was asked to submit its case before the Congress. A decision was taken by Sri Krishna Sinha’s government to rope in eminent lawyers of the time namely Sri Bhulabhai Desai, Sir Tej Bahadur Sapru and Sir Govind Rao Mandgaonkar to prepare its argument. At this point of time Sachchidanand Sinha intervened to take up the responsibility and impressed upon Dr Rajendra Prasad to convince Sri Krishna Sinha to leave the job to him.  Accordingly the matter was handed over to Sachchidanand Sinha. However, Sachchidanand Sinha sought certain assistance from the Bihar Government. In a letter dated 7th September 1938, addressed to Sri Krishna Sinha he wrote ‘I shall cheerfully bear the burden of it and shall begin the task as soon as the two conditions are fulfilled- (1) that you must depute immediately for a few days (not more than five) Krishna Ballabh Sahay to come over here, to assist me in sorting out and putting in proper form the huge lot of papers and cuttings in my possession bearing on the various points of the subject under consideration so that we may prepare the reply and (2) also depute two stenographers for taking dictation. I have already given Krishna Ballabh the materials on one particular subject, with a request that he should prepare a tabular statement on which I could dictate a note. The work to be completed is so heavy that I stand badly in need of Krishna Ballabh’s assistance.’

Sri Krishna Sinha had no option but to send Krishna Ballabh Sahay to Ranchi to assist Sachchidanand Babu. The response of the Bihar Government was prepared by Sachchidanand Babu with assistance from K. B. Sahay. Next the issue of delivering it to Dr Rajendra Prasad came up. His health conditions did not permit Sachchidanand Babu to travel while Dr Rajendra Prasad was not in a position to come down to Ranchi. Hence a person was needed to deliver the document and also clarify any possible issues raised by Dr Rajendra Prasad. Once again the mantle of this responsibility fell on the young shoulders of Krishna Ballabh who was entrusted with the responsibility to deliver the document and also explain to Dr Rajendra Prasad the content of the document and clarify his doubts, if any. Krishna Ballabh visited Wardha and handed over the document to Dr Rajendra Prasad.

Dr Rajendra Prasad placed the document before the Congress Working Committee meeting at New Delhi on 2nd October 1938. The Report held that the Section 298 of the Government of India Act, 1935 in no way preclude the Provincial Government from giving preference with regard to the appointed Beharis as against the Non-Beharis. Babu Rajendra Prasad, however, recommended that Rules related to Domicile and other procedure connected with it may not be enforced mechanically.

There are numerous such occasions as the one above, as evident from scores of letters exchanged between Sachchidanand Sinha, Dr Rajendra Prasad and Sri Krishna Sinha, when the services of Krishna Ballabh Sahay was sought by Sachchidanand Sinha for various official works. Sachchidannd Sinha often sojourned in Ranchi as its climate was considered good for health. And whenever he visited Ranchi, Sinha would invariably call on Krishna Ballabh Sahay to discuss with him various official matters. Though Sachchidanand Babu was far older to K. B. Sahay, both in age and experience, he appreciated Sahay’s intelligence and acknowledged it openly. His dependency on Krishna Ballabh Sahay increased over the years. Had he remained alive, Sachchidanand Sinha would have extended his full support to Krishna Ballabh Sahay in his efforts to abolish zamindari- such was the camaraderie between these two leaders.    

When the issue of selecting ‘Jana-Gana-Mana’ as the ‘National Anthem’ came up, Sachchidanand Babu desired that the anthem should be modified to include the name of Bihar in it as one of the State. He wrote to Dr Rajendra Prasad about this on 21st January 1950. This was a small example of his love for Bihar.

Dr Sachchidanand Sinha was the first President of the Constituent Assembly. By the time the Constitution was ready for adoption in 1950 Sachchidanand Sinha had become quite infirm to travel. In an unprecedented historical move, Jawahar Lal Nehru insisted that the original document of the Constitution of India be ferried to Patna to get the signature of Sachchidanand Sinha. Accordingly the Constitution of India came down to Patna to get Sachchidanand Sinha’s signature on it. Sachchidanand Sinha left for his heavenly abode on 6th March 1950. 

(Courtesy: National Archives, New Delhi) 

Tuesday, 2 March 2021

'THE LEGACY': 6: RAM AND KRISHNA: RAM LAKHAN SINGH YADAV AND KRISHNA BALLABH SAHAY (02/03/2021)

      
 Ram Lakhan Singh Yadav (09/03/1920-02/03/2006)

Krishna Ballabh Sahay (31/12/1898-03/06/1974)

Krishna Ballabh Sahay and Ram Lakhan Singh Yadav

Krishna Ballabh Sahay attending the 'Yadav Mahasabha'

Krishna Ballabh Sahay addressing the gathering in the
'Yadav Mahasabha'
 

Krishna Ballabh Sahay attending the Yadav Mahasabha at Gandhi Maidan, Patna

Krishna Ballabh Sahay and Union Minister Yashwant Rao Chavan with K. B. Sahay's cabinet colleagues namely Sumitra Devi, Ambika Prasad Singh and Ram Lakhan Singh Yadav  

Krishna Ballabh Sahay during the Foundation Stone Laying Ceremony of the Dumariya Ghat with Ram Lakhan Singh Yadav and S. B. Joshi.                          

 

In 1962 Congress came back to power in Bihar albeit with a lesser majority. Binodanand Jha, the incumbent Chief Minister, successfully aligned with the Rajputs to achieve the requisite majority among MLAs and defeated K. B. Sahay in the Congress Legislative Assembly leadership elections to once again become the Chief Minister of Bihar. K. B. Sahay’s defeat was rejoiced by his adversaries who claimed that the death-knell of his political career had been sounded. Many of them even wrote off his political obituary. However, as things turned out later, K. B. Sahay proved them wrong once again. 

Binodanand Jha, the wily Brahmin that he was, was very much aware that K. B. Sahay would not lie low despite his defeat. Jha had successfully organized the annual session of the All India Congress Committee at Patna in 1962 and was appreciated for his efforts. He now decided to make the final strike. He forwarded a complaint, based on the inquiry made by the State IB, of a conspiracy to kill him by feeding him with poison laden fish bought from Raj Hotel- an outlet in Agamkuan owned by Vishwanath Verma- purportedly a close confidant of K.B. Sahay. It was also alleged that the plot was hatched by Ram Lakhan Singh Yadav who was another close confidant of K. B. Sahay. Ram Lakhan Singh Yadav has mentioned in a memoir published in 1998 that the matter was got independently investigated by Jawahar Lal Nehru who deputed the then Intelligence Bureau Chief Mallick on the job to unearth the truth behind the allegation. Yadav mentions that the IB chief and the investigating officer Shukla carried out a thorough enquiry which lasted for the next couple of months and as a result of their meticulous investigation they gave him and 36 others accused of the murder of the Chief Minister a clean chit and submitted their report to the Prime Minister in which they lay bare the truth behind the conspiracy theory. Binodanand Jha’s stratagem had backfired and his Machiavellian traits were exposed before the central leadership, which waited for an appropriate moment to remove him. Hence when Kamraj Nadar, the veteran Congress leader came forward with a plan to strengthen the party by roping in leaders for organizational works related to the party which came to be known as the “Kamraj Plan”, Binodanand Jha was short-listed as one of the eight Chief Ministers to be entrusted with organizational works of the party. 

Binodanand Jha did not accept the decision of the Congress High Command to replace him gracefully. A belligerent Jha advocated the candidature of Beer Chand Patel, a koeri leader for the post of Chief Minister of Bihar. On the other hand, K. B. Sahay realized that his intelligence and administrative acumen notwithstanding, he can rise in a caste driven State of Bihar only by stitching an alternative alliance. He was aware that as long as two of the three pre-dominant forward castes come together he, being a ‘Kayastha,’ had no scope whatsoever to stake a claim for the Congress leadership. The ‘Kayastha’, was the marginalized forward caste and was, therefore, no match in the face of a strong alliance between any two of the three forward castes namely the Brahmin, Rajput and the Bhumihar castes. So a crafty ‘Kayastha’ decided to challenge an equally wily ‘Maithil Brahmin’ by mobilizing the marginalized backward castes of the society namely ‘the Kurmi-the Kushwaha (Koeri) and the Yadavas’- popularly known as the ‘Triveni Sangh’ and stitched an alliance with the marginalized ‘Kayasthas’ to challenge the dominance of the ‘Brahmins-Rajput-Bhumihar’ group. Ram Lakhan Singh Yadav, the upcoming Yadava leader earned the confidence of K. B. Sahay during this period and the duo came to be known as the ‘Ram-Hanuman Jodi’. At the same time, K. B. Sahay did not allow other forward casts to drift away. He mobilized the support of Anugrah Babu’s son Satyender Narayan Sinha, as well as “Young Turks’ like Swaraj Shankar Singh (also known as Bandi Shankar Singh), son of Sri Krishna Sinha who was an upcoming Bhumihar leader and along with Ram Lakhan Singh Yadav, the firebrand Yadava leader defeated the Brahmin-Koeri alliance of Binodanand Jha. The rise of Yadavas, the most prominent Other Backward Caste (OBC), post-1960s was largely due to encouragement its leaders received from K. B. Sahay who brought this group into prominence in Bihar politics to check the rising influence of the other three forward castes namely the Brahmins, Bhumihars and Rajput, who never wanted a Kayastha to have a free hand in administration. K. B. Sahay took three leaders from the Yadava community in his ministry and elevated Ram Lakhan Singh Yadav to Cabinet-level minister and assigned him the important portfolio of the Public Works Department (P.W.D.). 

During the period he was the Chief Minister of Bihar, K. B. Sahay attended the Yadava Mahasabha at Patna. This meeting was organized by Ram Lakhan Singh Yadav. K. B. Sahay was criticized by his adversaries for participating in such meeting. K. B. Sahay questioned the intention of the opposition leaders and gave a terse reply to them which silenced them. In an Assembly debate on 23rd March 1965, he said, ‘You question me for attending the Yadav Mahasabha but you do not question when such sabhas are organized by Bhumihars, Rajputs, Brahmins or Kayasthas. I would like you to know what I said at the meeting of the Yadavas. I assured the gathering that I have sympathy for the backward castes- irrespective of whether he is a Koeri, Kurmi or Dushaadh and I stand by what I said. A motor-car runs on four wheels and if one of the wheels is punctured it will not run. Similar is the case here. The Backward casters are one of the wheels of this society who have long been put at disadvantage and so long as they do not acquire strength the vehicle of society would not run. Congress has made effort to help the backward caste.’ 

Pointing towards Rajkumar Purve K. B. Sahay continued, ‘You are a Communist hence you must not interfere in such matters. It does not make any difference if Yadavas have conducted a meeting just like the one conducted by Bhumihars or Rajputs. Our respected Dr Rajendra Prasad had been the office bearer of the Kayastha Mahasabha. Sri Babu had participated in the Bhumihar Mahasabha. Hence do not accuse me of spreading casteism. You must not spit venom in the name of casteism. You must not try to create a rift in the services based on caste. Whatever you say on the floor of the House has an impact on the State. Hence, as a public figure, you must not speak irresponsibly. Several rivers flow from the Himalayas but all these rivers ultimately merge in the plains. Similarly, all the castes form the strength of the nation, the society and the Congress Party. Congress is the only party that looks after the welfare of everyone irrespective of his caste and it is the Congress where people of all caste get uniform treatment. रामचरितमानस में सीता मैया ने कहा था पितृ वैभव विपुल मैं दीठा, नृपमणि मुकुट मिलहि पद पीठा’ – अभी तो सभी पार्टी और जाति के लोग काँग्रेस को ही अपना मुकुट अर्पित कर रही है। इन्हीं शब्दों के साथ मैं अपना वक्तव्य समाप्त करता हूँ।

In his memoir, Ram Lakhan Singh Yadav recalls that K. B. Sahay kept a strict bifurcation of his domestic account and his political account. Ram Lakhan Singh Yadav recalls helping K.B. Sahay financially as Sri Sahay would never touch the political funds despite his hardships. After the Dinanath Pandey shoot out in 1955, K.B. Sahay gave Yadav some funds from the party account for some political purpose. While Ram Lakhan Singh Yadav gave a complete account of expenses along with a receipt, he had no receipt for the miscellaneous expense of Rs. 21/-. K. B. Sahay asked him to submit a self-certified voucher for Rs. 21/- to square up the account. Every evening K.B. Sahay would enter these expenses in a register and put his signature, arrange the vouchers in a file and check the available cash before retiring to bed. It was this register of expense that perplexed Justice Aiyer during his enquiry. He never expected a leader of such stature to maintain such extensive records of expenses.