आज 10 नवंबर संविधान सभा के प्रथम अध्यक्ष सच्चिदानंद सिन्हा की 150 वीं जन्म-जयंती है। संवैधानिक सभा के वे पुरोधा पुरुष थे और स्वतन्त्रता बाद लोकतान्त्रिक शासन व्यवस्था के प्रखर मार्गदर्शक। डॉ सच्चिदानंद सिन्हा भारत की संविधान सभा के प्रथम अध्यक्ष थे। 1950 में जब संविधान बनकर तैयार हुआ और इस पर सभी सदस्यों के हस्ताक्षर लेने का समय आया तब अस्सी वर्षीय सच्चिदानंद सिन्हा स्वस्थ नहीं थे। ऐसे में भारत के संविधान को पटना सिन्हा लाइब्ररी रोड स्थित उनके आवास पर लाया गया जहां उन्होंने इस दस्तावेज़ पर अपने हस्ताक्षर किए। आज उन्हें लगभग भुला दिया गया है क्योंकि वे न तो नेहरू गांधी परिवार से थे और न ही दक्षिणपंथी विचारधारा के हिमायती। वरना क्या यह संभव था कि ऐसे युग-पुरुष को उनकी 150वीं जन्म-जयंती पर याद ही न किया जाये? आज जब हम युग पुरुषों को भी जाति और धर्म के नज़रिये से देखने लग गए हैं तब निश्चय ही ऐसे श्लाखा पुरुष इस नज़रिये में दरकिनार कर दिये जाते हैं। यह हमारी ओछी मानसिकता का ही परिचायक है जो हम अपनी विरासत को इतनी जल्दी बिसार चुके हैं। जो व्यक्ति, समाज अथवा कौम अपनी विरासत को बिसार देता है उसका उद्धार ईश्वर भी नहीं कर सकता। इस दौर में यह कटु सत्य और भी प्रखर होकर हमारे सामने है। आज इस अवसर पर पढे महान विभूति सच्चिदानंद सिन्हा के जीवन से जुड़े कुछ अनछुए पहलू और कृष्ण बल्लभ सहाय के साथ उनके गुरु और शिष्य समान रिश्ते की कहानी:
बिहार का इतिहास सच्चिदानन्द सिन्हा से शुरू होता है क्योंकि राजनीतिक स्तर पर सबसे पहले उन्होंने ही बिहार की बात उठाई थी। कहते हैं डा. सिन्हा जब वकालत पास कर इंग्लैंड से लौट रहे थे तब उनसे एक पंजाबी वकील ने पूछा था कि मिस्टर सिन्हा आप किस प्रान्त के रहने वाले हैं। डा. सिन्हा ने जब बिहार का नाम लिया तो वह पंजाबी वकील आश्चर्य में पड़ गया। इसलिए क्योंकि तब बिहार नाम का कोई प्रांत था ही नहीं। उसके यह कहने पर कि बिहार नाम का कोई प्रांत तो है ही नहीं, डा. सिन्हा ने कहा था, नहीं है लेकिन जल्दी ही होगा। यह घटना फरवरी, 1893 की थी। डॉ. सिन्हा को ऐसी और भी घटनाओं ने झकझोरा, जब बिहारी युवाओं (पुलिस) के कंधे पर ‘बंगाल पुलिस’ का बिल्ला देखते तो गुस्से से भर जाते थे। डॉ. सिन्हा ने बिहार की आवाज़ को बुलंद करने के लिए नवजागरण का शंखनाद किया और बंगाल के हिन्दी-भाषी क्षेत्र को संगठित कर अलग बिहार प्रांत का अलख जगाया। उन्हीं के प्रयास से बंगाल का विभाजन कर 1912 में बिहार अलग प्रांत बना। डॉ. सिन्हा का बिहार के नवजागरण में वही स्थान माना जाता है जो बंगाल नवजागरण में राजा राममोहन राय का। किन्तु बंगाल के इस विभाजन से इस क्षेत्र के बंगाली क्षुब्ध थे और वे कभी शांत नहीं बैठे। वे बिहार के उन कतिपय बंगाली भाषी क्षेत्र यथा मानभूम (अब धनबाद), सिंहभूम एवं पुर्णिया ज़िला के वापस बंगाल में विलय के लिए लामबंद हुए। 1935 में जब गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट पारित हुआ तब डोमिसाईल का मुद्दा उठा और इसी मुद्दे पर 1938 में बंगाली प्रेस (‘स्टेट्समेन’, ‘मॉडर्न रिव्यू’) एवं पी. आर. दास के नेतृत्व में बंगालियों ने इन क्षेत्रों को वापस बंगाल में मिलाने के लिए कॉंग्रेस एवं गांधीजी पर दबाब बनाया गया। दो प्रान्तों के बीच के इस कश्मकश को बंगाली-बिहारी विवाद से जाना गया। बंगाल के विरोध का जवाब देने के लिए सच्चिदानंद सिन्हा के नेतृत्व में बिहार में भी लामबंदी शुरू हुई और डॉ. सिन्हा की छत्रछाया में डॉ राजेंद्र प्रसाद, श्री कृष्ण सिन्हा, अनुग्रह नारायण सिन्हा और के.बी. सहाय ने मोर्चा संभाला। उधर बिहारी प्रेस यथा ‘द इंडियन नेशन’ एवं ‘द सर्चलाइट’ के श्री मुरली भी बिहार सरकार के पक्ष में उतर आए थे। गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1935 की पृष्टभूमि में ही बिहार सरकार को कॉंग्रेस के समक्ष अपना पक्ष रखना था। श्री कृष्ण सिन्हा की सरकार इस कार्य हेतु भूलाभाई देसाई, सर तेज बहादुर सप्रू एवं सर गोविंद राव मडगावंकर की सेवाएँ लेने का निर्णय ले चुकी थी। किन्तु फिर डॉ सच्चिदानंद सिन्हा और डॉ राजेंद्र प्रसाद के आपसी परामर्श के बाद डॉ सिन्हा ने यह जिम्मेवारी अपने ऊपर ली। किन्तु इस जिम्मेवारी को निभाने की डॉ सिन्हा की अपनी शर्तें भी थी। 7 सितंबर 1938 को श्रीकृष्ण सिन्हा को लिखे पत्र में डॉ सिन्हा ने बिहार सरकार का जवाब तैयार करने के लिए उनसे उनके संसदीय सचिव की सेवाएँ उपलब्ध करवाने का अनुरोध किया। ‘काम बहुत ही महत्वपूर्ण और बृहत है और इसे आपके संसदीय सचिव की मदद के बिना पूरा नहीं किया जा सकता’- डॉ सिन्हा ने अपने पत्र में लिखा था। श्रीकृष्ण सिन्हा के जिस हरफ़नमौला संसदीय सचिव की मांग डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा ने की थी वे और कोई नहीं कृष्ण बल्लभ सहाय थे। खैर श्रीकृष्ण सिन्हा को डॉ. सिन्हा की बात का मान रखते हुए कृष्ण बल्लभ सहाय को रांची उनके पास भेजना पड़ा। यह जवाब तैयार हुआ और एक बार पुनः डॉ सिन्हा ने इस जवाब को लेकर वर्धा जाकर डॉ राजेंद्र प्रसाद को सौंपने की जिम्मेवारी कृष्ण बल्लभ सहाय के युवा कंधों पर डाला जो उनके सबसे विश्वसनीय शिष्य थे। डॉ सिन्हा का मत था कि डॉ राजेंद्र प्रसाद के संभावित प्रश्नों और जिज्ञासाओं का सही जवाब कृष्ण बल्लभ सहाय ही दे पाएंगें चूंकि वे इस कार्य से जुड़े थे। बहरहाल कृष्ण बल्लभ बाबू अपने राजनैतिक गुरु के निर्देश पर वर्धा गए और इस संकल्प पत्र को डॉ राजेंद्र प्रसाद को सौंपा। 2 अक्तूबर 1938 को दिल्ली में बुलाई गयी कॉंग्रेस कार्यकारिणी की बैठक में डॉ राजेंद्र प्रसाद ने यह संकल्प पत्र रखा। इसमें ‘गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1935 की धारा 298 में उल्लेखित ‘डोमिसाईल’ की परिभाषा का कानूनी विवेचना करते हुए यह दलील दिया गया था कि इस धारा के किसी भी क्लॉज़ अथवा सब- क्लॉज़ से बिहार में रहने वाले बंगालियों के प्रति कोई भेदभाव नहीं होता।
इस घटना के अलावे ऐसे कई अवसर आए जब सच्चिदानंद सिन्हा कृष्ण बल्लभ बाबू को विभिन्न शासकीय कार्यों के लिए बुला भेजते थे। दरअसल जब भी डॉ सच्चिदानंद सिन्हा स्वास्थ्य लाभ के लिए रांची प्रवास में रहते, वे कृष्ण बल्लभ सहाय से हर छोटे-बड़े मुद्दों पर विमर्श करते थे जबकि कृष्ण बल्लभ बाबू उनसे उम्र और अनुभव में काफी कनिष्ठ थे। डॉ सच्चिदानंद सिन्हा द्वारा डॉ राजेंद्र प्रसाद को लिखे कितने ही पत्रों में कृष्ण बल्लभ सहाय का जिक्र विभिन्न कार्यों के संदर्भ में आता है जो इस बात का द्योतक था कि डॉ सच्चिदानंद सिन्हा कृष्ण बल्लभ सहाय पर किस हद तक निर्भर थे और वे उनकी की मेधा की कितनी कद्र करते थे। निश्चय ही यदि वे मौजूद होते तो जमींदारी उन्मूलन पर कृष्ण बल्लभ बाबू को उनका समर्थन प्राप्त होता।
राष्ट्रगान के तौर पर जब ‘जन-गण-मन’ पर निर्णय लिया जा रहा था तब 21 जनवरी 1950 को डॉ राजेंद्र प्रसाद को लिखे अपने पत्र में डॉ सिन्हा ने यह इच्छा जताई थी कि इस गीत में बिहार के अलावे उन राज्यों के नामों का समावेश हो जिनका इसमें उल्लेख नहीं है। बिहार के प्रति उनके उत्कंठ प्रेम का यह छोटा सा उदाहरण है।
6 मार्च 1950 को डॉ सच्चिदानंद सिन्हा की मृत्यु हुई।
(राष्ट्रीय अभिलेखागार से साभार)
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