Friday, 30 October 2020

हमारी विरासत हमारी धरोहर: 3: लौह पुरुष बनाम लौह पुरुष-सरदार वल्लभ भाई पटेल और के. बी. सहाय (31/10/2020)

सरदार वल्लभ भाई पटेल (31 अक्तूबर 1875-15 दिसंबर 1950)

कृष्ण बल्लभ सहाय (31 दिसंबर 1898- 3 जून 1974)


दिसंबर 1946 में काँग्रेस ने चुनाव पूर्व अपने घोषणा-पत्र में यह स्पष्ट उल्लेख किया कि पार्टी किसान और सरकार के बीच के सभी बिचौलियों को नीतिसंगत मुआवाज़ा देकर हटाने को करबद्ध है। स्वतन्त्रता के बाद देश में एक संप्रभु शासन व्यवस्था की स्थापना हो चुकी थी और राजशाही का स्थान लोकतंत्रशाही ने ले लिया था। देश की समस्त संपत्ति यथा ज़मीनजंगल और प्राकृतिक संसाधनों पर एक संप्रभु सरकार का आधिपत्य स्थापित हो चुका था। अतः कृष्ण बल्लभ बाबू का यह मत था कि अब जब भूमि का स्वामित्व सरकार के अधीन है और वो किसानों से सीधा संपर्क स्थापित करने को कृतसंकल्प हैतब अपनी ही स्वामित्व की ज़मीन के एवज़ में जमींदारों को मुआवजा देने की बात बेमानी है। इसी तर्क पर अमल करते हुए 26 मई 1948 को बिहार विधान सभा में प्रस्तुत जमींदारी उन्मूलन कानून में उन्होंने मुआवजा संबंधी ऐसे आस्थगित प्रावधान रखे जिसने जमींदारों को बेचैन कर दिया। के. बी. सहाय की मुआवजा भुगतान की दीर्घकालिक योजना ने जमींदारों को भयभीत किया कि कहीं आने वाले वर्षों में सरकार मुआवजा देने की बात पर मुकर ही न जाये। इस भय से आक्रांत वे न केवल डॉ राजेंद्र प्रसाद के पास गए वरन सरदार वल्लभ भाई पटेल को भी अपनी आशंका से अवगत कराया। एक ओर जहां मुआवज़े को लेकर कृष्ण बल्लभ बाबू का यह दृष्टिकोण था वहीं दूसरी ओर राजवाड़ों को ‘प्रीवी पर्स’ देने के प्रस्ताव पर केंद्र सरकार अपनी स्वीकृति दे चुकी थी। ऐसी स्थिति में कृष्ण बल्लभ बाबू के प्रस्ताव पर केंद्र सरकार का अनमयस्क होना लाजिमी था। ऐसी स्थिति में में सरदार पटेल को कहना पड़ा कि ‘बिना समुचित मुआवजा दिये जमींदारी लेना एक तरह से चोरी समझी जाएगी।’ (To take away Zamindaris without paying compensation would amount to robbery……compensation must be adequate and not nominal…or how would they feel?’) इसके विरोध में काँग्रेस सोशलिस्ट पार्टी एवं किसान सभा के तमाम नेता उतर आए जिन्होंने ‘मुआवजा’ को ‘कानून सम्मत डकैती’ करार दिया। (……they should feel like a very happy criminal…. as compensation is nothing but ‘legal dacoity’)

कृष्ण बल्लभ बाबू का मत था कि जमींदारों को मुआवजा देने से देश के करोड़ों किसानों के बीच गलत संदेश जाएगा- ‘समरथ के नहीं दोष गोसाईं’ – जमींदार समर्थवान हैं तो काँग्रेस उनके लिए मुआवजा की बातें कर रही हैं जबकि किसान जो निर्बल हैं  के पक्ष की सरकार अनदेखी कर रही हैवो भी तब जब काँग्रेस ने अपने घोषणापत्र में ठीक इसका उलट करने की करबद्धता दिखाई थी। कृष्ण बल्लभ बाबू के तेवर ने केंद्र की कॉंग्रेस नेतृत्व यथा लौह पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल एवं डॉ राजेंद्र प्रसाद को भी हतप्रभ कर रखा था। किसानों की हितैषी होने का दावा करने वाली पार्टी के लिए खुलकर कृष्ण बल्लभ बाबू का विरोध करना भी संभव नहीं था। अंततः कृष्ण बल्लभ के तर्क को काँग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व ने माना और बीच का रास्ता तलाशा गया। मुआवजा के मुद्दे पर एक समिति का गठन किया गया जिसे यह निर्देश था कि इसका अध्ययन कर अपने संस्तुति दे। इस प्रकार कृष्ण बल्लभ बाबू बिहार विधान सभा और परिषद- दोनों ही सदनों में जमींदारी उन्मूलन कानून पारित करवाने में सफल हो पाये। जब समिति विमर्श हेतु बैठी तब इसमें किसान का एक भी प्रतिनिधि नहीं था जबकि जमींदारों का नेतृत्व दरभंगा नरेश एवं बारह अन्य जमींदार कर रहे थे। (अग्रेरियन चेंज फ्राम अबव एंड बीलो अरविंद दास व अन्य संदर्भ)

ज्ञातव्य रहे कि ज़मींदारी प्रथा जाति-व्यवस्था की पूरक थी और गाँव का ज़मींदार बहुधा ऊंची जाति का होता था जबकि किसान पिछड़ी जाति क़ा। भारत क़ा प्रत्येक गाँव इन जातिगत दीवारों से बँटा हुआ था। एक ओर वृहत स्तर पर जहां राजवाड़ों क़ा विलय कर सरदार पटेल ने भौगोलिक रूप से देश को एकता की सूत्र में पिरोया वहीं ग्राम स्तर पर जमींदारी उन्मूलन के अपने प्रयास से के. बी. सहाय अमीरी-गरीबी की खाई को पाट कर सामाजिक न्याय क़ा वह दौर लाने में सफल रहे जहाँ देश क़ा गरीब से गरीब किसान भी स्वतंत्रता के महत्व को समझ पाया। देश क़ा सामाजिक एकीकरण की दिशा में ज़मींदारी उन्मूलन एक महत्वपूर्ण कदम था। यही वजह है कि जहाँ भौगोलिक एकीकरण के लिये सरदार पटेल को भारत क़ा लौह पुरुष कहा जाता है वहीं जमींदारी उन्मूलन कर सामाजिक एकीकरण के प्रयास के लिये बिहार की तत्कालिक मीडिया ने केबीसहाय को बिहार का लौह पुरुष के खिताब से नवाज़ा था। (‘The India Nation’(Patna), 4th June 1974)

इन दोनों लौह-पुरुषों के बीच हुई एक अन्य भिड़ंत का रोचक किस्सा पूर्व केंद्रीय मंत्री राम लखन सिंह यादव ने बयान किया है। 1946 में भारत के गृहमंत्री और उप-प्रधानमंत्री सरदार पटेल ने बेतिया राज के अंतर्गत साठी जमीन पर बिहार के तात्कालिक मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिन्हा को देहरादून में सफाई देने के लिए बुला भेजा। दरअसल श्रीकृष्ण सिन्हा की सरकार ने बिपिन बिहारी वर्मा को कोर्ट ऑफ वर्ड्स के अधीन बेतिया राज का मैनेजर नियुक्त किया थाजिस पद पर वे 1939-1942 एवं 1946 से 1950 तक रहे। इस दौरान वर्मा ने गलत तरीके से बेतिया राज की 350 एकड़ ज़मीन की बंदोबस्ती तात्कालिक उत्पाद कमिश्नर राम प्रसाद शाही एवं उनके भाई राम रेखा प्रसाद शाही के नाम कर दिया। ये दोनों भाई महेश प्रसाद सिन्हा के संबंधी थे। महेश प्रसाद सिन्हा की मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिन्हा से अंतरंगता थी। चूंकि इस प्रकरण लिप्त सभी नाम ‘भूमिहारों’ के थे अतः श्रीकृष्ण सिन्हा इस विषय पर सरदार पटेल के सामने सफाई देने जाने से कतरा रहे थे। तब कृष्ण बल्लभ बाबू ने स्वयं सरदार पटेल से मिलने की पेशकश की। जब कृष्ण बल्लभ बाबू सरदार पटेल से मिलने पहुंचे वहाँ पर सरदार पटेल की पुत्री सुश्री मणिदेवी पटेल और उनके सचिव श्री शंकर भी मौजूद थे । कृष्ण बल्लभ बाबू कुछ सफाई देते उससे पहले ही सरदार पटेल ने उन्हें निर्देश दिया कि ‘कृष्ण बल्लभ साठी की ज़मीन वापस करनी होगी।’ कृष्ण बल्लभ बाबू ने स्पष्ट कहा कि "साठी की ज़मीन कभी वापस नहीं होगी।सरदार गुस्से से गुर्राते हुए पूछे "क्यों?" कृष्ण बल्लभ बाबू का जवाब था-आप केवल केंद्र सरकार के उप-प्रधानमंत्री ही नहीं अपितु सारे देश के और कांग्रेसजनों की इज़्ज़त के संरक्षक भी हैं। बिना सुने आपके द्वारा फाँसी की सजा नहीं होनी चाहिए।’ कृष्ण बल्लभ के यों जिरह करने पर सरदार पटेल को उनकी बातें सुननी ही पड़ी। जब सरदार ने शांतिपूर्वक जब सारे कागज़ात देखे और कृष्ण बल्लभ बाबू ने बिहार सरकार के निर्णय पर जो सफाई दी उससे सरदार पटेल पूर्णरूपेण संतुष्ट हुए। उलटे जिन लोगों ने चार्ज लगाया था उन्हीं के ऊपर सरदार पटेल ने अपनी नाराज़गी जाहिर किया। सरदार पटेल के आग्रह पर उनकी राय के अनुसार साठी ज़मीन के बारे में कानून बना। लेकिन जैसा कृष्ण बल्लभ बाबू ने कहा था वह कानून कोर्ट द्वारा रद कर दिया गया। उक्त घटना से उनके सख्त प्रशासक और नीडर राजनेता होने का प्रमाण साबित होता है। (आज’ पटना के 31 दिसंबर 1998 के संस्करण में प्रकाशित लेख ‘कृष्ण बल्लभ सहाय को श्रद्धांजलि’ से साभार

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