Saturday, 10 October 2020

हमारी विरासत हमारी धरोहर: 1. जयप्रकाश नारायण और कृष्ण बल्लभ सहाय (11/10/2020)

JAI PRAKASH NARAYAN (11OCTOBER 1902-08OCTOBER 1979)

KRISHNA BALLABH SAHAY (31 DECEMBER 1898-3 JUNE 1974)

JAI PRAKASH NARAYAN ADDRESSING A RALLY IN PATNA IN 1977

KRISHNA BALLABH SAHAY ADDRESSING A RALLY IN HAZARIBAG

KRISHNA BALLABH SAHAY WITH SANT VINOBA BHAVE (1964)

KRISHNA BALLABH SAHAY WITH JAI PRAKASH NARAYAN 

THE HISTORIC HAZARIBAG CENTRAL JAIL WHICH HAS NOW BEEN RENAMED AS JAIPRAKASH KENDRIYA KARAGRIHA

JAIPRAKASH NARAYAN ADDRESSING A RALLY AFTER EMERGENCY 

JAI PRAKASH NARAYAN'S ON LOSING KRISHNA BALLABH SAHAY 


8 अगस्त 1942 को बॉम्बे के गोवालिया टैंक मैदान से राष्ट्रपिता महात्मा गांधी द्वारा भारत छोड़ो की घोषणा के साथ ही देश के स्वतन्त्रता संग्राम में आंदोलन का एक नया अध्याय शुरू हुआ। इस आंदोलन से पहले ही जयप्रकाश नारायण और काँग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के उनके अन्य सहयोगी हजारीबाग केंद्रीय कारागार में सजायाफ़्ता थे और विभिन्न अवधि के लिए नज़रबंद थे। 11 अगस्त 1942 को कृष्ण बल्लभ सहाय भी इनसे जुड़ गए जब भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लेने के दंडस्वरूप ब्रिटिश सरकार ने उन्हें जेल की सजा से आभूषित किया। जयप्रकाश नारायण इस बात से चिंतित थे कि काँग्रेस के सभी नेता को जेल हो जाने के बाद आंदोलन को नेतृत्व देने के लिए दूसरी पंक्ति का कोई नेता नहीं बचा था। यह जरूरी था कि कोई अवाम के बीच जाकर उन्हें नेतृत्व प्रदान करे। इसी विचार के तहत 8-9 नवंबर दीपावली की घोर अंधेरी अमावस की रात्रि जेल से निकल भागने की योजना बनी। योजना को सही तरीके से सरंजाम देने के लिए काँग्रेस सोशलिस्ट नेताओं ने कृष्ण बल्लभ सहाय की मदद ली। कृष्ण बल्लभ सहाय ने अपने भाई डॉ दामोदर प्रसाद को बुलवा भेजा और उनसे उस जमाने में पाँच सौ रुपये लिए जो भागने वाले कैदियों को रास्ते में पड़ने वाली जरूरतों के लिए दिया गया। दीपावली की संध्या जेल अधिकारी से पर्व मनाने की आज्ञा लेकर कुछ काँग्रेस सोशलिस्ट कैदी एक जुलूस की शक्ल में जेल में दीपावली का उत्सव मनाने निकल पड़े। साथ ही साथ वे गाते भी जाते थे – दीवाली फिर आ गयी सजनी, दीपक राग सजा ले, हाँ हाँ दीपक राग सजा ले। जब जेल अधिकारी और कर्मचारी दिवाली उत्सव देखने में व्यस्त थे तब अंधेरीया रात का फायदा उठाते हुए जयप्रकाश नारायण अपने पाँच अन्य सहयोगियों यथा योगेंद्र शुक्ल, सूरज नारायण सिंह, शालिग्राम सिंह, रामनन्दन मिश्रा एवं गुलाबचन्द्र गुप्ता के साथ जेल की दीवार फांदकर भाग निकले। इनके जाने के बाद पीछे रह गए काँग्रेस सोशलिस्ट नेताओं को यह भय सताया कि कहीं वार्डबंदी के समय जमादार की नज़र कैदियों की संख्या पर न पड़ जाये। निर्णय लिया गया कि कृष्ण बल्लभ बाबू , सारंगधर बाबू, जदुनाथ बाबू, मुकुटधारी बाबू, अवधेश्वर जी और रामवृक्ष बेनीपुरी जी ताश खेलें ताकि जमादार वार्डबंदी न कर पाये। अपनी पुस्तक ज़ंजीरें और दीवारें में सुप्रसिद्ध लेखक कवि रामवृक्ष बेनीपुरी जी लिखते हैं- कृष्ण बल्लभ बाबू का जेल में बड़ा रोब था। वे हजारीबाग के नेता थे। जेल के सभी आदमी उन्हें जानते थे। पिछली मिनिस्टरी में पार्लियामेंटरी सेक्रेटरी रह चुके थे। अतः किसी जमादार की हिम्मत नहीं होती थी कि हम खेल रहे हैं तो उसमें बाधा डाले। सोच-विचार कर तय किया गया कि जब तक इस जमादार की ड्यूटि नहीं बदली जाती है, हम खेलते ही रहें। जब नया जमादार आएगा तब देखा जाएगा। हो सकता है वो रामनन्दन मिश्रा (जिस सेल से पाँच में से तीन कैदी फरार हो चुके थे) को यों ही बंद कर दे। वे देर रात तक ताश खेलते रहे और कृष्ण बल्लभ बाबू के प्रभाव से जमादार चला गया। दूसरे जमादार को इन लोगों ने कह दिया- सभी लोग सो गए हैं। बस चार-पाँच आदमी ताश खेल रहे हैं। आप धीरे-धीरे बंद करके आइए। आखिर रात्रि बला टली। अपनी सफलता पर हमें गर्व हुआ। यह ज़ोर देकर कहा जा सकता है कि यदि कृष्ण बल्लभ सहाय, सारंगधर बाबू और यदुनाथ सहाय ने मदद नहीं की होती तो उस रात में भंडा फूट जाता और तब यह भी संभव था कि भागे हुए लोग गिरफ्तार कर लिए जाते। ज़ंजीरें लटकती रह गईं, दीवारें खड़ी ताकती रहीं और लो, बंदी बाहर हो गए!

दूसरे दिन जब यह भेद खुला तब ब्रिटिश हुकूमत ने जेल का मुलाकाती रजिस्टर मंगवाया। तब यह स्वतः स्पष्ट हुआ कि डॉ दामोदर प्रसाद जेल में अपने भाई कृष्ण बल्लभ बाबू से मिलने आए थे। कृष्ण बल्लभ सहाय को सश्रम कारावास की सजा सुनाते हुए भागलपुर जेल रवाना किया गया जबकि डॉ दामोदर प्रसाद को दरियापुर (पटना) वाले मकान को छोड़कर अपने विस्तारित परिवार, जिसमें उनके माता-पिता के अलावे दोनों भाइयों का परिवार भी था, को लेकर शेखपुरा भागना पड़ा। स्थिति सामान्य होने पर ही यह परिवार वापस दरियापुर लौट पाया।

स्वतन्त्रता बाद जयप्रकाश नारायण संत विनोबा भावे के भूदान आंदोलन में सक्रिय रहे। जयप्रकाश जी ने संत विनोबा को बिहार आने का न्योता दिया। एक दृष्टि से देखा जाये तो भूदान आंदोलन के तहत सबसे अधिक भूमि विनोबा को बिहार में मिला और बिहार में भी हजारीबाग अग्रणी ज़िला था। किन्तु यहाँ इस यज्ञ में राजा कामाख्या नारायण सिंह ने ऐसी भूमि दान में दिये जो या तो जंगल थे अथवा पूरी तरह बंजर। दूसरी ओर कृष्ण बल्लभ सहाय ने जमींदारी उन्मूलन कानून पारित कर जमींदारी व्यवस्था का अंत करने का प्रयास में लगे थे ताकि किसान अपनी भूमि के मालिक कहे जा सके। दोनों ही विभूतियों का मकसद एक ऐसे सामाजिक व्यवस्था की स्थापना करना था जिसमें गरीब से गरीब किसान को भी सम्मानपूर्वक जीने का अधिकार मिल सके। ज़मींदारी उन्मूलन के इस संग्राम में कृष्ण बल्लभ सहाय अभिमन्यु की तरह अकेले थे। किन्तु इस दरम्यान उन्हें जयप्रकाश नारायण एवं स्वामी सहजानन्द सरस्वती का नैतिक समर्थन सदा मिला। के.बी.सहाय द्वारा विधायी क़ानून द्वारा सामाजिक परिवर्तन लाने के प्रयास पर भले ही प्रश्न उठाये जाए पर यह भी सच था कि तात्कालिक परिस्थितियों में इसके अलावा और कोई दूसरा रास्ता भी नहीं थाI आचार्य विनोबा भावे ने "भूदान" और "ग्रामदान" द्वारा ज़मींदारों से स्वेक्षा से भूमि दान करने का सविनय अनुरोध किया और बिहार में दर दर ज़मींदारों के सामने हाथ फैलाये, किन्तु उनकी अपील का ज़मींदारों पर कोई विशेष असर नहीं हुआI इससे मर्माहत होकर ही जयप्रकाश नारायण जी को कहना पड़ा था कि "हमने बिहार में 18 महीने से बाबा को रोक कर रखा है इस उम्मीद पर कि बिहार के ज़मींदार 32 लाख एकड़ ज़मीन दान देने के अपने वादे को निभायेगें। किन्तु हम अब तक अपने वादे को पूरा नहीं कर पाए, जो हमारे लिए शर्म की बात है(“I am ashamed. We Biharis took a vow of 32, 00,000 acres in order to solve the land problem of our province. We have kept baba (Vinoba Bhave) with us for 18 months, but still this vow has not been fulfilled. If we have not enough workers to solve the land problems in Bihar, how can we ever solve it in the rest of India?’) (Agrarian Movements in India: Studies in 20th Century Bihar by Arvind N. Das 1982)

जमींदारों ने एक साजिश के तहत 1957 में कृष्ण बल्लभ सहाय विधान सभा चुनाव में हरवा दिया। इस चुनाव में भूमिहार नेता महेश प्रसाद सिन्हा भी परास्त हुए थे। तथापि तात्कालिक मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिन्हा ने महेश बाबू को जहां खादी बोर्ड का अध्यक्ष बनाया वहीं कृष्ण बल्लभ सहाय को बिसरा दिया। कृष्ण बल्लभ सहाय की हार का बड़ा कारण उनके खिलाफ जमींदारों की घेराबंदी थी। जमींदारी उन्मूलन भले ही श्रीकृष्ण सिन्हा के मुख्यमंत्री काल में हुआ था किन्तु इसके जनक कृष्ण बल्लभ सहाय ही थे। इस पराजय के बाद जहां वे जमींदारों के निशाने पर थे वहीं जिसके लिए यह लड़ाई उन्होंने लड़ी थी वे श्रीकृष्ण सिन्हा ने भी उन्हें नज़रअंदाज़ कर दिया था। जयप्रकाश नारायण कृष्ण बल्लभ सहाय की यह अनदेखी नहीं सह पाये। वे इतना कुपित हुए कि डॉ राजेंद्र प्रसाद और श्रीकृष्ण सिन्हा को पत्र लिखकर अपनी व्यथा व्यक्त करने से अपने आप को रोक नहीं पाये। 8 अक्टूबर 1957 को डॉ राजेंद्र प्रसाद को संबोधित पत्र में उन्होंने जोरदार ढंग से अपनी बात रखते हुए 13 सितंबर 1957 को श्रीकृष्ण सिन्हा को लिखे पत्र की प्रतिलिपि संलग्न किया और डॉ राजेंद्र प्रसाद से हस्तक्षेप करने का अनुरोध किया। श्रीकृष्ण सिन्हा को लिखे पत्र में जयप्रकाश नारायण ने लिखा था–यदि आप चाहें तो सारा दूषित वातावरण शुद्ध कर सकते हैं और काँग्रेस के आपसी झगड़े मिटा सकते थे। किन्तु आप कौन हमारे साथ था या है और कौन हमारे विरुद्ध था या है केवल इसी दृष्टिकोण से आप काम कर रहे हैं। इसी बात की मिसाल के तौर पर महेश बाबू और कृष्ण बल्लभ बाबू के प्रति आपके व्यवहार का जिक्र किया गया था। मेरा मतलब कृष्ण बल्लभ बाबू की सिफ़ारिश करना नहीं था बल्कि आपके पक्षपातपूर्ण व्यवहार की तरफ ध्यान खींचने का था। आपने काफी विस्तार से बताया है कि कृष्ण बल्लभ बाबू के लिए पहले आपने कितना और क्या-क्या किया है। वह सब मुझे बतलाने की कोई आवश्यकता नहीं थी। परंतु उसके साथ आपको यह भी लिखना चाहिए था कि पिछले बीस वर्षों में कृष्ण बल्लभ बाबू ने भी आपके लिए क्या-क्या नहीं किया और आपके साथ कैसी वफादारी रही। आपने कृष्ण बल्लभ बाबू के लिए सब कुछ किया जब तक वे आपका साथ देते रहे। आज वे आपसे अलग हुए तो आपका रुख बिलकुल उलट गया। इसी प्रकार के व्यवहार की अवांछनीयता की ओर आपका ध्यान पिछले पत्र में खींचा था। छोटानागपुर में अगर काँग्रेस को पुनर्जीवित करना है तो वह कृष्ण बल्लभ को दबाकर के नहीं किया जा सकता है। ...मेरा इतना ही कहना है कि जातीयता से परे रहने पर भी आपकी और अनुग्रह बाबू की प्रतिस्पर्धा के फलस्वरूप प्रांत में जातीयता का वातावरण निर्माण हुआ। आपका राज्य भूमिहार राज्य कहा गया और अनुग्रह बाबू राजपूतों के नेता माने गए। ...अंततः कृष्ण बल्लभ बाबू ने जयप्रकाश नारायण से इस प्रकरण को यहीं समाप्त करने का निवेदन किया। कृष्ण बल्लभ सहाय जनता जनार्दन के निर्णय के खिलाफ नहीं जाना चाहते थे।

1963 में जब कृष्ण बल्लभ बाबू मुख्यमंत्री बने तब पटना के गणमान्य नागरिकों से मिलने के अलावे जयप्रकाश नारायण से मिलने सर्वोदय आश्रम भी गए। 1966 में बिहार भीषण में दुर्भिक्ष हुआ जिससे निपटने के लिए कृष्ण बल्लभ सहाय की सरकार जी जान से जुट पड़ी थी और कालाबाज़ारियों के खिलाफ कड़ी कारवाई की गयी थी जिससे समाज का एक तबका कृष्ण बल्लभ बाबू से रुष्ट था। किन्तु इस दौरान जयप्रकाश नारायण सदा कृष्ण बल्लभ बाबू के प्रयासों के साथ रहे और कदम कदम पर उनका हौसला बढ़ाया। अपने मुख्यमंत्री कार्यकाल के अंतिम दौर में कृष्ण बल्लभ बाबू को छात्र आंदोलन से जूझना पड़ा था। किन्तु कृष्ण बल्लभ बाबू ने सार्वजनिक रूप से यह ऐलान किया कि वे छात्रों में अनुशासनहीनता बर्दाश्त नहीं करेंगें और छात्रों को छात्र जीवन में अपनी पढ़ाई पर ध्यान देना चाहिए। जब छात्र अधिक उग्र हुए तब 5 जनवरी 1967 को पटना में उनपर फ़ाइरिंग भी हुआ। जयप्रकाश इससे आहत हुए और उन्होंने कृष्ण बल्लभ बाबू को अपनी नाराजगी से अवगत करते हुए लिखा कि बिहार जैसे संवेदनशील राज्य में उनका सियासी अधिनायकवाद स्वीकार्य नहीं है। कृष्ण बल्लभ बाबू अपने निर्णय पर अड़े रहे कि छात्रों को विध्याद्ध्यन के समय राजनीति में दखल नहीं देनी चाहिए। अपनी इस जिद पर कृष्ण बल्लभ बाबू ने मुख्यमंत्री पद न्योछावर कर दिया।

राजनीति में छात्रों की भूमिका पर राजनैतिक मतभेद के बावजूद जयप्रकाश नारायण और कृष्ण बल्लभ सहाय में कभी व्यक्तिगत मनभेद नहीं हुआ। दोनों अभिन्न राजनैतिक सहयोगी बने रहे। 1971 में जब पटना के गांधी संग्रहालय को स्वायत्तता मिली और जयप्रकाश नारायण इसके चैयरमेन बने तब उन्हें कृष्ण बल्लभ सहाय याद आए। उन्होंने कृष्ण बल्लभ बाबू को अपनी समिति में रखा, हालांकि उस वक़्त श्री सहाय चुनाव हार चुके थे और उनपर एक राजनैतिक साजिश के तहत भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगाकर तात्कालिक सरकार जांच आयोग बिठा रखी थी। कृष्ण बल्लभ बाबू को अपनी समिति में रखना इस बात का द्योतक था कि जयप्रकाश बाबू को कृष्ण बल्लभ बाबू की ईमानदारी और कर्तयवनिष्ठा पर पूर्ण विश्वास था और वे कृष्ण बल्लभ बाबू के खिलाफ चल रही राजनैतिक साजिश से पूरी तरह अवगत थे। इससे पहले भी 1957 में जब जयप्रकाश नारायण अनुग्रह स्मारक समिति के चैयरमेन बने थे तब उन्होंने कृष्ण बल्लभ बाबू को अपनी कमिटी में रखा था, हालांकि कृष्ण बल्लभ बाबू तब भी चुनाव हारकर कृषक का जीवन बिताने अपने पैतृक गाँव वृन्दा लौट गए थे।

1974 में कृष्ण बल्लभ बाबू गिरिडीह शिक्षक क्षेत्र से स्थानीय निकाय चुनाव जीतकर बिहार विधान परिषद के सदस्य बने। कृष्ण बल्लभ बाबू ने यह चुनाव काँग्रेस (संगठन) के टिकट पर लड़ा था और चुनाव में उन्होंने श्रीमती इन्दिरा गांधी की काँग्रेस (रुलिंग) के प्रत्याशी को हराया था। 29 मई को उन्होंने पद की गोपनियता की शपथ ली। उधर वेल्लोर से प्रोस्टेट का ऑपरेशन करवाकर जयप्रकाश बाबू 2 जून को पटना लौटे। कृष्णबल्लभ बाबू से उनकी मुलाक़ात पटना एयरपोर्ट पर ही हुई। वे जयप्रकाश नारायण से आगे की रणनीति पर बातचीत करने आए थे। जयप्रकाश नारायण ने बिहार में अब्दुल गफूर के कुशासन के खिलाफ मोर्चा खोलने की अपनी मंशा से कृष्ण बल्लभ बाबू को अवगत कराया। कृष्ण बल्लभ बाबू ने उनसे देश में काँग्रेस को नेतृत्व देने अनुरोध किया, और श्रीमती गांधी के नेतृत्व में अलग हुए काँग्रेस के खिलाफ लामबंद होने का आव्हान किया। किन्तु यह हो नहीं पाया। 3 जून को सड़क मार्ग से अपने पैतृक ज़िला हजारीबाग लौटने के क्रम में सिंदूर के पास एक विवादास्पद सड़क दुर्घटना में कृष्ण बल्लभ बाबू की मृत्यु हुई। जयप्रकाश इस समाचार को सुनकर स्तब्ध रह गए- I am deeply shocked to hear about Krishna Ballabh Babu’s death in a car accident. Only yesterday he had come to meet me and he looked so cheerful. I had never thought that he would leave us so soon. In his death the country has lost a great freedom fighter, a champion of land reforms and an able administrator. He would be counted as one of the makers of modern Bihar.


श्रीमती इन्दिरा गांधी को 1977 के चुनाव में हरवाकर प्रधानमंत्री के पद पर से हटाने में जयप्रकाश नारायण अंततः सफल रहे। यह कहा जा सकता है यह एक मित्र की ओर से अपने दिवंगत मित्र को एक नायाब तोहफा था। आपातकाल के दौरान श्रीमती गांधी के प्रशासन द्वारा जयप्रकाश नारायण के इलाज़ में जो कोताही बरती गयी उसी का नतीजा था कि जयप्रकाश बाबू भी अधिक समय तक हमारे बीच नहीं रहे। 8 अक्तूबर 1979 को प्रातः उनकी मृत्यु हो गयी। श्रद्धेय अटल बिहारी बाजपेयी की सरकार ने 1999 में उन्हें देश के सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न से मरणोपरांत सम्मानित किया। 

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