बिहार केसरी श्री कृष्ण सिन्हा (21।अक्तूबर 1887-31 जनवरी 1961) |
1920 की गर्मियों में मात्र एक
वर्ष के पटना प्रवास के बाद कृष्ण बल्लभ बाबू हजारीबाग लौट आए। इसी वर्ष 1 अगस्त
को महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन का आव्हान किया। अपने समस्त युवा जोश के साथ
कृष्ण बल्लभ बाबू इस आंदोलन में कूद पड़े। इसी वर्ष वे पहली मर्तबा जेल गए जो बाद
में इनके जीवन का एक सामान्य क्रम बन गया। असहयोग आंदोलन में भाग लेने की जुर्म में
श्री कृष्ण सिन्हा भी बंदी जीवन गुजार रहे थे जब एक दिन उन्हें जेल में ही दूसरे
बेटे के जन्म की सूचना मिली। साथियों ने पूछा कि बेटे का नाम क्या रखेंगें? श्री कृष्ण सिन्हा ने हंस कर जवाब दिया था कि बंदी का बेटा है। नाम तो
बंदी ही होगा। इस प्रकार श्री कृष्ण सिन्हा के दूसरे बेटे का नाम बंदीशंकर सिंह
पड़ा। 1922 में दोनों कृष्ण जेल से रिहा हुए। 1925 में कृष्ण बल्लभ बाबू शिमला
काँग्रेस पार्टी की एक बैठक में शरीक हुए जहां उनका श्री कृष्ण सिन्हा से प्रथम परिचय
हुआ। किन्तु तब यह परिचय औपचारिक ही रहा था। (के.बी.सहाय- एज़ आई न्यु हिम- नागेश्वर प्रसाद, अधिवक्ता, हजारीबाग)
31
दिसंबर 1922 को गया (बिहार) में आहूत काँग्रेस के सालाना अधिवेशन
में चित्तरंजन दास एवं मोतीलाल नेहरू के काउंसिल चुनाव में भाग लेने के प्रस्ताव
पर काँग्रेस में सहमति नहीं बनी और यह प्रस्ताव खारिज हो गया। किन्तु चित्तरंजन
दास हार मानने वालों में से नहीं थे। उसी दिन उन्होंने टेकारी महाराज के आवास पर
एक बैठक की जहां स्वराज पार्टी के स्थापना की घोषण की गई। गांधीजी काँग्रेस में
टूट के खिलाफ थे। अतः उन्होंने स्वराज पार्टी को काँग्रेस का ही अंग मानते हुए
उन्हें काउंसिल चुनाव में भाग लेने की अनुमति प्रदान की। 26 फरवरी 1923 को बिहार
काँग्रेस स्वराज पार्टी का गठन हुआ। नारायण प्रसाद अध्यक्ष,
एवं कृष्ण बल्लभ बाबू एवं हरनंदन सहाय सहायक सचिव चुने गए। 9 मई को एक अन्य बैठक
में अरुंजय सहाय वर्मा को अध्यक्ष एवं के. बी. सहाय और अब्दुल बारी को सचिव चुना
गया। नवम्बर 1923 में हुए चुनाव में स्वराज पार्टी को बारह में से छ सीट पर विजय
मिली। बाद में कृष्ण बल्लभ सहाय के प्रयास से श्री कृष्ण सिन्हा भी बिहार स्वराज
पार्टी से जुड़े और 1926 में हुए दूसरे चुनाव में वे भी विजयी हुए। काउंसिल में
विभिन्न मुद्दों पर कृष्ण बल्लभ सहाय जोरदार तरीके से अपनी बात रखते थे जिसने श्री
कृष्ण सिन्हा को बहुत प्रभावित किया। कृष्ण बल्लभ में उन्हें एक योग्य और सक्षम
प्रशासक की छवि नज़र आई। काउंसिल में ये दोनों ही आमजन को प्रभावित करने वाले मुद्दे
उठाते थे। इस प्रकार इन दोनों कृष्ण में साथ काम करने का जो सामंजस्य स्थापित हुआ
जो जीवन पर्यंत बना रहा। (गवर्नमेंट एंड पॉलिटिक्स इन कोलोनियल इंडिया
[1920-1937]- जावेद आलम)
सविनय
अवज्ञा आन्दोलन में भाग लेने के जुर्म में कृष्ण बल्लभ बाबू को 1930 से 1934 के
दरम्यान चार बार जेल की सजा हुई थी। इसी क्रम में कृष्ण बल्लभ हजारीबाग जेल में
सजा काट रहे थे जब श्री कृष्ण सिन्हा को इसी आंदोलन में भाग लेने की जुर्म एक हज़ार
रुपये का दंड और दो साल की कारावास हुई और बतौर ‘राजबंदी’ 9 जनवरी 1932 को उन्हें भी हजारीबाग जेल भेज दिया गया। हजारीबाग जेल में अगले दो
वर्ष दोनों ‘राजबंदी’ साथ रहे और इस
जेल प्रवास के दौरान दोनों के बीच की मित्रता और प्रगाढ़ हुई।
गवर्नमेंट
ऑफ़ इंडिया एक्ट
1935 के तहत 1937 में
हुए चुनाव में 99 सीट जीतकर काँग्रेस सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी थी। किन्तु
सरकार में भाग लेने, न लेने पर पसोपेश बना रहा। अंततः तात्कालिक
राज्यपाल जेम्स डेविड शीफ़्टन ने मुस्लिम इंडिपेंडेंट पार्टी,
जो 20 सीट पर जीत के साथ दूसरी सबसे बड़ी पार्टी और मुसलमानों की सबसे बड़ी पार्टी
के रूप में उभरी थी, के अध्यक्ष मोहम्मद युनूस को प्रधानमंत्री
के पद की शपथ लेने के लिए निमंत्रण भेजा। इस प्रकार 1 अप्रैल 1937 को मोहम्मद
युनूस, जो पटना के सुप्रसिद्ध अखबार ‘द
सर्चलाइट’ के संस्थापक भी थे, ने पद और
गोपनियता की शपथ ली। किन्तु मोहम्मद युनूस बहुमत सिद्ध करने में असफल रहे। अतः उन्हें
इस्तीफा देना पड़ा। तब काँग्रेस ने सरकार बनाने का दावा राज्यपाल के समक्ष रखा।
श्री कृष्ण सिन्हा एवं अनुग्रह बाबू इस समय केन्द्रीय विधान मण्डल (काउंसिल ऑफ
स्टेट्स) के सदस्य थे और बिहार की राजनीति से सीधे जुड़े हुए नहीं थे। दूसरी ओर
बिहार के एक अन्य प्रमुख नेता सैय्यद महमूद को मौलाना अबुल कलाम आज़ाद का समर्थन
प्राप्त था। यह समझा जा रहा था कि उन्हें ही प्रधानमंत्री चुना जाएगा। किन्तु ऐन
वक़्त पर श्री कृष्ण सिन्हा के पक्ष में डॉ राजेंद्र प्रसाद सामने आए। डॉ राजेंद्र
प्रसाद के प्रस्ताव का अनुग्रह बाबू और कृष्ण बल्लभ बाबू ने भी समर्थन किया। अंततः
श्रीकृष्ण सिन्हा के नेतृत्व में बिहार में काँग्रेस मंत्रिमंडल का गठन हुआ। मौलाना
आज़ाद को सदा इस बात मलाल रहा। यहाँ तक कि इस वाकये का जिक्र उन्होंने अपनी आत्मकथा
‘इंडिया विंस फ्रीडम’ के उन तीस
पृष्ठों में भी किया जिसका प्रकाशन उनकी इच्छानुसार पुस्तक प्रकाशन के तीस वर्षों
बाद 1988 में हुआ था। (इंडिया विंस फ्रीडम- मौलाना अबुल कलाम आज़ाद)
श्रीकृष्ण
सिन्हा ने अपने मंत्रिमंडल में कृष्णबल्लभ सहाय को संसदीय सचिव नियुक्त किया और उनकी
प्रशासनिक प्रतिभा और योग्यता का समुचित उपयोग प्रधानमंत्री कार्यालय में उनके
विचारार्थ आए विभिन्न शासकीय मसलों पर निर्णय लेने के संदर्भ में किया। बतौर संसदीय
सचिव, कृष्ण बल्लभ सहाय का
राज्य के हर प्रशासनिक मामलों में हस्तक्षेप रहा और वे श्री कृष्ण सिन्हा के सबसे
निकटतम सलाहकार के रूप में उभरे। इस दौरान ही कृष्ण बल्लभ बाबू पर श्री कृष्ण
सिन्हा की निर्भरता बढ़ती चली गयी। कृष्ण बल्लभ सहाय कुशल प्रशासक के रूप में अपनी
छाप छोड़ने में सफल रहे। उन्होंने जल्दी ही राजकीय गतिविधियां और सरकारी तंत्र के
काम करने के तौर-तरीकों को समझ लिया और इसमें व्यापक परिवर्तन भी किए। 28 महीने के कांग्रेस शासन में कई अभूतपूर्व निर्णय लिए गए। वर्ष 1911 से मालगुजारी
में की गई वृद्धि को वापस लिया गया और सामान्य सालाना मालगुजारी में भी कटौती की गई। यह पृष्ठभूमि कृष्ण बल्लभ बाबू को
भविष्य में जमींदारी उन्मूलन के लिए भी मानसिक तौर पर तैयार करने में सहायक सिद्ध
हुआ।
1937
की ही एक घटना है जिससे कृष्ण बल्लभ सहाय की प्रशासनिक योग्यता को समझने में
सहूलियत होगी। तात्कालिक मुख्य सचिव डब्ल्यू. बी. ब्रेट ने ‘शासनात्मक कार्यविधि’ के नियम 13 के तहत मंत्रियों के अधिकारों को घटाते हुए इस आशय का एक
परिपत्र जारी कर दिया जिस पर प्रधानमंत्री की सहमति नहीं ली गयी। एक तरह से यह
प्रधानमंत्री के अधिकार को खुली चुनौती थी। श्री कृष्ण सिन्हा की अनुमति से कृष्ण
बल्लभ सहाय ने मुख्य सचिव को बुला भेजा और संदाय सचिव के बतौर उनसे दो टूक लहजे
में परिपत्र वापस लेने का आदेश देते हुए इस आशय का संशोधित परिपत्र जारी करने का
दिशा निर्देश दिया और भविष्य में सचेत रहने की चेतावनी भी दे डाली। डब्ल्यू. बी.
ब्रेट ने यह अच्छे तरीके से समझ लिया कि अब उसकी हैसियत सरकार की नहीं वरन एक
सरकारी नौकर की है। 24 दिसंबर 1937 को संशोधित परिपत्र जारी हुआ। इस प्रकार एक आई.सी.एस.
को एक देसी प्रशासक से पंगा लेने का स्वाद चखना पड़ा। (कृष्ण बल्लभ सहाय- ए
क्रिटिकल अप्रेजल- ए. मुनीम, अध्यक्ष, डॉ राधाकृष्णन सेंटर ऑफ सोसल एंड कल्चरल
स्टडीस, पटना)
1939
में द्वितीय विश्व युद्ध की घोषणा के साथ ही काँग्रेस सरकार ने इस्तीफा दे दिया। 1937-1939
के मध्य काँग्रेस सरकार ने किसानों की हित में कई निर्णय लिए थे। किन्तु कृष्ण बल्लभ
बाबू इतने से ही संतुष्ट नहीं थे। उनके जेहन में किसानों के लिए कितनी ही योजनाएँ आकार
ले रही थी। इन्हें मूर्त रूप देने के लिए वे किसानों को संगठित करने में लग गए। इसी
के तहत कृष्ण बल्लभ बाबू ने जगह-जगह किसान सभाएं की जो काफी सफल भी रहीं। इस क्रम
में 11 मई 1942 को डॉ. राजेंद्र प्रसाद की अध्यक्षता में शाहाबाद,
कुदरा में इन्होने विशाल किसान सभा का आयोजन किया जहाँ किसानों से जुड़े
मुद्दे उठाये गए और सरकार का ध्यान इस ओर आकर्षित किया गया। इससे प्रेरित होकर श्रीकृष्ण सिन्हा
ने इन्हें मुंगेर आमंत्रित किया। मुंगेर के तारापुर में "बनैली राज की किसानों
पर जुल्म" विषय पर रैली का सफल आयोजन किया गया। इस सभा
में श्री जे. बी. कृपलानी ने भी भाग लिया। 1942 में ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में भाग लेने की जुर्म में एक बार पुनः श्री कृष्ण सिन्हा और कृष्ण बल्लभ
सहाय को जेल हुई और दोनों ने हजारीबाग जेल में कुछ वर्ष पुनः साथ गुज़ारे।
1946
में श्री कृष्ण सिन्हा के नेतृत्व में अन्तरिम सरकार का गठन हुआ और इस बार उन्होंने
कृष्ण बल्लभ सहाय के जिम्मे वन एवं राजस्व मंत्रालय का महत्वपूर्ण विभाग सौंपा। अब
तक कृष्ण बल्लभ बाबू को स्वतंत्र रूप से किसी भी मंत्रालय की जिम्मेवारी नहीं दी
गई थी। श्री कृष्ण सिन्हा उम्र और राजनैतिक उपलब्धियों में कृष्ण
बल्लभ सहाय से काफी वरिष्ठ थे। इस कारण वे उन्हें "तुम"
कह कर ही सम्बोधित करते थे। उनके मंत्रीमंडल में मंत्री बनने के समय
कृष्ण बल्लभ बाबू की उम्र बहुत अधिक नहीं थी। इस बात को ध्यान में रखकर श्री बाबू ने
उनसे पूछा कि किस आई.सी.एस. अफसर को तुम्हारे विभाग का सचिव बनाऊं जिसके साथ तुम्हें काम करने में असुविधा
न हो। उनका यह प्रश्न पूछना ही था कि कृष्ण बल्लभ बाबू ने छूटते ही जवाब दिया
"Give me any ICS officer. I will grind him like anything.” (मुझे
किसी भी आई.सी.एस. अफसर को दे दीजिये। मैं उससे काम करवा लूँगा।) कृष्ण बल्लभ बाबू का यह जवाब
उनके अटूट आत्मविश्वास एवं उत्कृष्ट प्रशासनिक क्षमता का द्योतक था। (सहायजी के
व्यक्तित्व की एक झांकी- प्रोफेसर एस.एन.शर्मा)
अगले ग्यारह साल कृष्ण बल्लभ सहाय ने राजस्व मंत्री
के रूप में निरवरत काम किया और इस दरम्यान उन्होंने जमींदारी उन्मूलन कानून से
लेकर निजी वन (संशोधन) कानून, बकाश्त भूमि बंदोबस्ती कानून, बिहार टेनेन्सी (संशोधन) कानून, छोटनागपुर टेनेन्सी
(संशोधन) कानून, बिहार परती भूमि (रेक्लेमेशन, कल्टीवेशन एवं इम्प्रूवमेंट) कानून आदि पारित किए जो न केवल सार्वजनिक
संपत्ति पर सरकार के आधिपत्य को स्थापित करने में सहायक रहे वरन किसानों को
जमींदारों की चंगुल से छुटकारा दिलाने में भी सफल रहे। इन ग्यारह वर्षों में श्री
कृष्ण सिन्हा चट्टान की तरह कृष्ण बल्लभ बाबू के पीछे खड़े रहे और हर मौके पर उनका
साथ दिया। दूसरी ओर बिहार विधान सभा में ऐसे कितने ही मौके आए जब के. बी. सहाय
मुख्यमंत्री की अनुपस्थिति में उनकी ओर से सरकार का पक्ष सदन में रखने के लिए खड़े
हुए। कितने ऐसे भी मौके आए जब केंद्र सरकार से किसी गंभीर मुद्दे पर बिहार का पक्ष
रखने हेतु अथवा किसी महत्वपूर्ण बैठक में भाग लेने हेतु श्री कृष्ण सिन्हा ने बल्लभ
सहाय को मनोनीत किया और वे अपनी ज़िम्मेवारी भली-भांति निभाकर ही पटना वापस लौटे। कृष्ण
बल्लभ बाबू मुख्यमंत्री के विश्वास पर सदा खरा उतरे और बतौर मुख्यमंत्री के
प्रतिनिधि केंद्र के समक्ष बिहार का पक्ष जोरदार तरीके से रखने में सफल रहे। जब
श्री कृष्ण सिन्हा को जनता की दरबार में सरकार का पक्ष रखने के लिए एक अखबार की जरूरत महसूस हुई तब उन्होंने इस काम के लिए
भी कृष्ण बल्लभ बाबू को चुना और कृष्ण बल्लभ बाबू ने राजस्व मंत्री रहते कितने ही
वर्षों तक ‘राष्ट्र-वाणी’ एवं ‘नवशक्ति’ अखबारों का सम्पादन भी किया। (श्री के.बी.सहाय एवं कार्यकर्ता- रामेश्वर प्रसाद सिंह, कदमकुआं, पटना)
एक समय श्री कृष्ण सिन्हा की निर्भरता कृष्ण बल्लभ
सहाय पर इस हद तक बढ़ गई थी कि राजनैतिक हलक़ों में लोगों को उनसे रश्क होता था। कृष्ण
बल्लभ सहाय की कर्मठता भी अनूठी थी। अधिकतम काम और न्यूनतम विश्राम उनके जीवन का
आदर्श सूत्र था। यही कारण रहा कि वे काँग्रेस के एक समान्य कार्यकर्ता के रूप में
लोकसेवा की जमीन पर उतरे और शीघ्र ही प्रदेश प्रशासन के शिखरस्थ पुरुष बन गए।
कृष्ण बल्लभ बाबू में कल्पनाशीलता और व्यावहारिकता का मणिकांचन संजोग था। जटील से
जटील समस्याओं पर भी शीघ्र और सही निर्णय लेने में वे कभी अनावश्यक विलंब नहीं
करते थे। सचमुच उनकी सूझ-बूझ बड़ी पैनी थी। उनके इन्हीं खूबियों के कारण आधुनिक
बिहार के आद्य निर्माता बिहार केसरी डॉक्टर श्री कृष्ण सिन्हा उन्हें अपना अनन्य
स्नेह देते थे। यह कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि कृष्ण बल्लभ बाबू श्रीबाबू के
हाथ-पैर ही नहीं, अनेक अवसरों पर मस्तिष्क भी
बन जाते थे। श्रीबाबू अनेक बार ऐसा कहते सुने जाते थे कि कृष्ण बल्लभ बाबू उनके
लिए निकटतम सहयोगियों में थे, जिनका सरकार संचालन में
महत्वपूर्ण योगदान था। जब भी कोई मुद्दा, चाहे वो राजनीति से
संबंध हो या प्रशासन से, बहुत जटील रूप में श्रीबाबू के
समक्ष उपस्थित होता था, तब निश्चय रूप से श्रीबाबू अपने
गंभीरतम सलाहकार कृष्ण बल्लभ बाबू को अवश्य बुलावा भेजते थे। (कृष्ण बल्लभ सहाय-
एक अनूठा व्यक्तित्व- राधा नन्दन झा, उपाध्यक्ष, राज्य नागरिक परिषद)
किन्तु जमींदारों से लोहा लेने का
खामियाजा कृष्ण बल्लभ बाबू को 1957 के विधान सभा चुनाव में झेलना पड़ा जब सभी
जमींदार एकजुट होकर उन्हें चुनाव में हरवाने में सफल हुए। चुनाव के बाद कृष्ण
बल्लभ सहाय और श्री कृष्ण सिन्हा में महेश बाबू को लेकर कुछ मतभेद हुए। दरअसल श्री
कृष्ण सिन्हा ने चुनाव में हारे महेश बाबू को जहां खादी बोर्ड का अध्यक्ष पद दिया
वहीं उन्होंने कृष्ण बल्लभ सहाय को बिलकुल ही बिसार दिया। वे यह सहज भूल गए कि
कृष्ण बल्लभ ने जमींदारी उन्मूलन कानून पारित करने के समय क्षुब्ध जमींदारों के प्राणघातक
हमले भी सहे थे, जबकि सरकार उनकी थी और कृष्ण बल्लभ उनकी
मंत्रिमंडल में फकत एक मंत्री थे। 1957 का चुनाव हारने की एक खास वजह भी यही थी कि
कृष्ण बल्लभ ने जमींदारों से दुश्मनी मोल ली थी। अतः चुनाव उपरांत कृष्ण बल्लभ
बाबू को श्री कृष्ण सिन्हा से बेहतर बर्ताव की अपेक्षा थी। किन्तु श्री कृष्ण
सिन्हा के इस पक्षपात भरे रवैये ने उन्हें काफी क्षुब्ध किया और वे 1957 के बिहार
विधान सभा के नेता पद के चुनाव के समय अनुग्रह बाबू के पक्ष में उतर आए। किन्तु
अनुग्रह बाबू चुनाव हार गए और श्री कृष्ण सिन्हा पुनः मुख्यमंत्री बने। श्री कृष्ण
सिन्हा की जीत के साथ ही जो तात्कालिक कारण थे वे बिहार की राजनैतिक फ़लक पर से हट
चुके थे। 1957 में ही अनुग्रह बाबू का इंतकाल हो गया। कृष्ण बल्लभ बाबू ने अपना
पक्ष रखते हुए ‘द सर्चलाइट’ अखबार में
एक बृहत बयान दिया। दोनों के बीच की दूरियाँ दूर हुईं। इसके कुछ ही वर्षों बाद श्री
कृष्ण सिन्हा भी 1961 में गुजर गए। इस प्रकार बिहार की राजनीति में एक अध्याय का
समापन हुआ। 1963 में कृष्ण बल्लभ बाबू बिहार के मुख्यमंत्री बने। उन्होंने श्री
कृष्ण सिन्हा के साथ अपनी मित्रता के प्रतिदान स्वरूप उनके पुत्र श्री बंदीशंकर
सिंह (जिन्हें स्वतन्त्रता के बाद स्वराज शंकर सिंह कहा जाने लगा था) को अपने
कैबिनेट में मंत्री का दर्जा दिया।
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