अब ऐसे लोग कहाँ हैं
डॉक्टर शंकर दयाल
सिंह
भूतपूर्व सांसद
शंकर
दयाल सिंह (27 दिसंबर 1937- 27 नवंबर 1995) भारत के राजनेता तथा हिन्दी साहित्यकार
थे। वे राजनीति और साहित्य दोनों क्षेत्रों में समान रूप से लोकप्रिय थे। 1971 में
वे चतरा से लोक सभा के लिए चुने गए। 1990 में वे राज्य सभा के सदस्य बने। 1995 में
उनकी असामयिक मृत्यु हो गई।
जहां
तक मैं अपनी स्मरणशक्ति से उँगलियों पर बिहार के मुख्यमंत्री का नाम जोड़ता हूँ तो
ऐसी गणना निकलती है कि मुख्यमंत्री श्री बिंदेश्वरी दूबे बिहार के चौदहवें मुख्यमंत्री
हैं। नाम ही गिना दूँ- डॉ श्रीकृष्ण सिन्हा, पंडित
बिनोदनंद झा, श्री कृष्ण बल्लभ सहाय,
श्री महामाया प्रसाद सिन्हा, श्री सतीश प्रसाद सिंह (मात्र
तीन दिनों के लिए), श्री बिंदेश्वरी प्रसाद मण्डल, श्री भोला पासवान शास्त्री, श्री सरदार हरिहर सिंह, श्री दारोगा प्रसाद राय, श्री केदार पांडे, श्री अब्दुल गफूर, श्री जगन्नाथ मिश्र, श्री कर्पूरी ठाकुर, श्री राम सुंदर दास, और उसके बाद पुनः डॉ जगन्नाथ मिश्र के बाद श्री चन्द्रशेखर सिंह।
लेकिन
वास्तविकता ये है कि बिहार के तीसरे मुख्यमंत्री श्री कृष्ण बल्लभ सहाय ही प्रांत
के आखिरी मुख्यमंत्री थे। उनके बाद जो मुख्यमंत्री हुए वे महज नाम के थे, काम के नहीं और उनका सिलसिला भी कुछ और ही रहा। दिल्ली ने उन्हें जब चाहा
हटाया और जब चाहा बैठाया। इसके साथ ही जहां तक काम का प्रश्न है, अधिकांशतः मुख्यमंत्री क्लर्को से लेकर अफसरों की हाथ के कठपुतली रहे।
कृष्ण बल्लभ बाबू इसके सर्वदा अपवाद थे।
क्या
मजाल कि लिखने-पढ़ने और फाइल में कोई उन्हें चरा दे। बड़े-बड़े अधिकारी जिनमें
आई.सी.एस. तक थे, उनकी स्पेलिंग को भी श्री
कृष्ण बल्लभ बाबू अपनी लाल कलाम से सुधारकर फाइल वापस करते थे और कोई भी संचिका
उनके पास अड़तालीस घंटे से अधिक नहीं रहती थी।
जैसे
किसी परीक्षा की तैयारी कोई विद्यार्थी करता हो, उसी
भांति वह सवेरे चार बजे अपने ऑफिस में बैठ जाते थे तथा फाइल देखना शुरू करते थे।
छ्ह बजे तक दर्जनों फाइलें देखते, एक-एक पंक्ति पढ़ते और सही
टिप्पणी देकर निबटाते। इसके बाद ही उनकी अन्य दिनचर्याएँ शुरू होती थी।
इसी
भांति ट्रेन में, कार में, अथवा वायुयान में जब भी वे यात्रा कर रहे होते थे तो एक-एक संचिका करीने से
देखते जाते थे और सहायक से लेकर सचिव तक के नोट को पढ़कर,
देखकर, तजबीज करके ही कोई टिप्पणी देते थे या निर्णय लेते
थे।
किसी
ने उन दिनों ठीक ही कहा था कि श्रीबाबू का राज रोब से चलता था, बिनोदा बाबू का राजनीति से लेकिन कृष्ण बल्लभ बाबू का शुद्ध रूप से
मुंशीगिरी से। कागज-पत्तर के मामले में क्या मजाल जो कृष्ण बल्लभ बाबू को कोई ठग
दे। बड़े-बड़े दिग्गज अधिकारी उनके सामने जाने से घबड़ाते थे क्योंकि कृष्ण बल्लभ
बाबू का काम सीधा लिखा-पढ़ी का होता था, चालाकी का नहीं।
आज
के मंत्रियों का हाल जब देखता या सुनता हूँ तो हँसी आती है। बफशीट पर बफशीट जा रही
है लेकिन अधिकारी फाइल भी नहीं भेजता है। किसी काम के लिए मंत्री महोदय ने बफशीट
लिखकर भेजा और विभागीय क्लर्क उसे कहीं दबाकर रख देता है या फिर सीधे फाड़ कर फेंक
देता है यह कहकर कि- ‘ऐसा
ऑर्डर तो रोज आता है’।
बात
इतनी ही नहीं है। अनेक मंत्री को अपने अधीनस्थ अधिकारियों की खुशामद व चिरौरी करनी
पड़ती है कि- ‘फलां साहब यह काम हो जाता या एक सप्ताह
पहले जो बफशीट भेजा था उसका क्या हुआ या यह कि जरा इस तरह का नोट बना कर भेज
दीजिये बड़ी कृपा होगी।‘ बात यहीं समाप्त हो जाती तो कोई बात
नहीं थी किन्तु हद तो तब होती है जब इसके आगे यह कहते हैं कि क्या करें, हम तो चाहते थे, लेकिन कमिश्नर साहब या सेक्रेटरी
साहब मान ही नहीं रहे हैं।
लेकिन
कृष्ण बल्लभ बाबू के समय में बात ही कुछ दूसरी थी। फोन से उन्होंने किसी अधिकारी
को कुछ कह दिया या कोई बफशीट भेज दी अथवा संचिका पर आदेश दे दिया तो फिर क्या मजाल
कि चौबीस घंटे के अंदर उनकी तामिली न हो। सामान्य कर्मचारी उनसे घबड़ाते थे, उच्चाधिकारी तक उनके सामने काँपते थे तथा सियासत चलाने के उनके रोब से
थरथरी पैदा हो जाती थी।
अपने
सामने का एक उदाहरण दे दूँ। कृष्ण बल्लभ बाबू ने अपने समय के शिक्षा आयुक्त को
बफशीट पर एक आदेश लिखकर भेजा, लेकिन तीसरे दिन तक
सचिवालय से वो जारी नहीं हुआ। तीसरे दिन जब कृष्ण बल्लभ बाबू को इसकी जानकारी मिली
तो उन्होंने शिक्षा आयुक्त को फोन किया और पूछा कि उस काम का क्या हुआ तो उधर से
जवाब आया –‘सर, मैं इस पर अपनी टिप्पणी
भेज रहा हूँ। दरअसल इसे ऐसे नहीं ऐसा होना चाहिए।‘
कृष्ण
बल्लभ बाबू यह सुनते ही आग बबूला हो गए- ‘मेरे आदेश
देने के बाद आप कौन होते हैं उसे रोक कर रखने वाले? सरकार आप
हैं या मैं हूँ? जनता ने आपको चुना है या मुझे? और इंक्वाइरी यदि होगी तो मेरे ऊपर होगा कि आपके ऊपर? आप सरकार के नौकर हैं और आपका काम है कि जो मिनिस्टर लिखकर आदेश दे या जो
सरकार का आदेश हो उसकी तामिल करना। और आपसे यदि यह भी नहीं होता है तो आप आज ही
इस्तीफा देकर चले जाइए नहीं तो मैं कल आपको सस्पेंड करके रहूँगा।’ कहते हुए कृष्ण बल्लभ बाबू ने फोन पटक दिया।
नतीजा
यह हुआ कि उक्त अधिकारी ने पाँच बजे के बाद भी रुक कर उस काम का आदेश जारी किया तब
सचिवालय से घर गया।
यह
रोब था कृष्ण बल्लभ बाबू का!
काम-काज
की नियमबद्धता भी उनकी विचित्र थी। ठीक समय पर कार्यालय आना, ठीक समय पर लोगों से मिलने बैठ जाना, एक-एक कर
लोगों को बुलाना और मिलना और ठीक समय पर खाना, सोना और उठना।
काँग्रेस
कार्यकर्ताओं की जितनी इज्जत उस समय मंत्रियों के बीच थी उसके बाद नहीं हो पायी।
श्रीबाबू, अनुग्रह बाबू, बिनोदा बाबू,
कृष्ण बल्लभ बाबू, महेश बाबू और वीरचंद पटेल आदि ऐसे नाम थे
जो आज़ादी की लड़ाई में संघर्ष के साथ छन कर उभरे थे। अतः वे कार्यकर्ताओं का
मूल्यांकन भी जानते थे। बाद के दिनों में मंत्रियों और कार्यकर्ताओं दोनों का स्तर
ऐसा गिरा कि सेवा नाम की वस्तु से किसी का वास्ता ही नहीं रहा। बदले में दलाली का
धंधा ही मुख्य हो गया।
एक
जो सबसे बड़ी बात देखने में आती है वह यह है कि कृष्ण बल्लभ बाबू के समय तक बदली, प्रोन्नति, पोस्टिंग और बहाली आदि में अधिकारियों
से पैसे लेने की दुर्व्यवस्था नहीं थी। मंत्री या नेतागण चुनाव आदि के समय अथवा
संस्था को चलाने के लिए बड़े लोगों से या पूँजीपतियों,
ठेकेदारों, उद्योगपतियों से ही पैसा लेते थे। उसके बाद ऐसा
एक माहौल बन गया कि मंत्री खुले-आम अफसरों से घूस लेने लग गए। नतीजा यह हुआ कि
अफसरों की नज़रों में मंत्रियों का कोई स्थान ही नहीं रहा और जो रिश्वत देकर बहाल
हुआ था जिसकी प्रोन्नति हुई अथवा मनचाहे स्थान पर नियुक्ति हुई उसने अपना यह धर्म
माना कि जितना खर्च किया है उसका पाँच-सात गुना वसूल कर लें।
हालांकि
यह भी कहने में मुझे संकोच नहीं हो रहा है कि कृष्ण बल्लभ बाबू के मंत्रिमंडल में
एक मंत्री ने अफसरों से पैसे लेने की शुरुआत कर दी थी, लेकिन चोरी-छिपे। उसके बाद तो यह खुले-आम पद्धति हो गयी। नतीजा यह हुआ कि
कामचोर, बेईमान और रिश्वतखोर अधिकारियों का बोलबाला हो गया
तथा ईमानदार अधिकारी पीसने लगा। इसकी प्रतिक्रिया सरकारी तंत्र पर सबसे अधिक है और
भ्रष्टाचार जो प्रखण्ड स्तर से लेकर सचिवालय की बड़ी कुर्सी तक देखने में आ रहा है, उसका समाजीकरन कर दिया गया।
कृष्ण
बल्लभ बाबू पर संयुक्त विधायक दल की सरकार ने अय्यर कमीशन बहाल किया था जिसमें
उनके मंत्रिमंडल के सात और सदस्यों को शामिल किया गया था। उस समय कृष्ण बल्लभ बाबू
के लॉकर और बैंक से एक लाख रुपये मिले थे
जिसके कारण उन्हें बेईमान करार दिया गया। उनकी सफाई कहीं नहीं सुनी गयी। अय्यर ने
भी उनके वक्तव्य को अपनी रिपोर्ट में स्थान नहीं दिया। यह न्यायसंगत नहीं था।
कृष्ण
बल्लभ बाबू एक सुयोग्य प्रशासक, ऊपर से कठोर लेकिन अंदर
से कोमल, दोस्तों के लिए सदा तत्पर रहने वाले, अनुभवी और दिलेर व्यक्ति थे। मुख्यमंत्री के रूप में उन्होंने बिहार
प्रांत में जो शासन किया वह किसी भी दूसरे मुख्यमंत्री ने नहीं किया। उनके समय तक
मुख्यमंत्री की एक आब थी, इज्ज़त थी,
रोब था, दबदबा था, और किसी प्रकार की
ढील नहीं थी। बाद के दिनों में मुख्यमंत्री पद की गरिमा ऐसी समाप्त हुई कि उसे न
तो जनता की श्रद्धा मिली, न दल का समर्थन मिला और सदा उनके
ऊपर नंगी तलवार लटकती रही।
कृष्ण
बल्लभ बाबू की साफ़गोई का भी कोई जवाब नहीं था। जिस काम को वे कर सकते थे उसमें ‘हाँ’ कहने के बाद चाहे जैसे भी हो उसे पूरा करते थे
और इसी प्रकार किसी भी काम को ‘ना’
कहने में भी एक सेकंड के लिए भी देर नहीं करते थे। ‘देखेंगें’, ‘अच्छा हो जाएगा’, ‘देखिये ज़ोर लगाता हूँ’, ‘क्या
कहें बहुत कोशिश की लेकिन नीचे वाले मानते ही नहीं हैं’, ‘मैं तो भूल गया, अच्छा किया कि याद दिला दिया’, आदि वाक्य उनके शब्दकोश में नहीं थे। होना होगा तो वो काम तत्काल हो
जाएगा अन्यथा न होना होगा तो उसी समय में ‘न’ भी हो जाएगा। लाग-लपेट और खुशामद-मलानत की ज़िंदगी उनकी थी ही नहीं।
और
उसका बड़ा से बड़ा मूल्य चुकाने के लिए वे तैयार रहते थे और उन्होंने चुकाया भी। 1967
में वे पश्चिमी पटना से विधान सभा के उम्मीदवार हुए। उससे पहले भी वे इसी क्षेत्र
से विधान सभा में चुनकर गए थे। उनके मुख्यमंत्रित्व काल में चुनाव के कुछ दिन पहले
ही पटना में प्रदर्शनकारियों पर गोली चली, जिसमें आठ
आदमी मारे गए।
लोगों
ने बहुतेरा कहा कि अब आप पटना से न खड़े हों, लेकिन वे
नहीं माने। इतना ही नहीं गोलीकांड के लिए कमीशन बिठाना भी उन्होंने स्वीकार नहीं
किया। अपने चुनाव भाषण में हर जगह वे यही कहते रहे मेरे आदेश से गोली चली क्योंकि मैं यहाँ का मुख्यमंत्री हूँ, अतः मेरी ज़िम्मेदारी है। मैं इसे किसी अधिकारी पर थोपना नहीं चाहता। गोली
इसलिए चलायी गयी क्योंकि गुंडे खादी भवन में आग लगा रहे थे और पुलिस मुख्यालय को
लूटना चाहते थे। ऐसे में गोली चली तो क्या बुरा हुआ? मैं यदि
पुनः मुख्यमंत्री हुआ और ऐसी हरकत हुई तो गोली चलाने में मैं कभी पीछे नहीं
हटूँगा।
अपनी
साफ़गोई का उन्हें मूल्य चुकाना पड़ा। लेकिन उन्होंने गलत नीतियों से कभी संधि नहीं
की। यही कारण है आज जब मैं उन्हें याद कर रहा हूँ तो निःसंकोच मेरे मूंह से यह
वाक्य निकल रहा है कि बिहार प्रांत के वे आखिरी मुख्यमंत्री थे, जिन्होंने शान के साथ मुख्यमंत्रित्व किया।
टिप्पणी:
ये विचार लेखक के हैं। “कृष्ण बल्लभ सहाय जयंती समारोह समिति” के नहीं- संपादक
No comments:
Post a Comment