Friday, 28 February 2025

भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद की पुण्य-तिथि पर विशेष (28/02/2025)

 

डॉ राजेंद्र प्रसाद 


स्वतंत्र भारत का पहला मंत्रिमंडल 








डॉ राजेंद्र प्रसाद की लिखी दो पुस्तकें खंडित भारत (INDIA DIVIDED) एवं आत्मकथा (AUTOBIOGRAPHY) से आम पाठक भिज्ञ हैं किन्तु उनकी लिखी अन्य पुस्तकें भी उतने ही बहुमूल्य हैं। भारतीय संस्कृति एवं इतिहास का वर्णन करता पंडित जवाहर लाल नेहरू जी की लिखी पुस्तक भारत की खोज जितना महत्वपूर्ण है उसके समकक्ष ही है डॉ राजेंद्र प्रसाद की लिखी पुस्तक संस्कृत का अध्ययन- उसकी उपयोगिता और उचित दिशा। इस पुस्तक में संस्कृत भाषा की पूर्णता और उसके वागमय का विस्तार और महत्व का वर्णन है। यह पुस्तक स्थापित करती है कि हिन्दू धर्म एवं अध्यात्म और भाषाओं की जननी संस्कृत के प्रति यह प्रेम इन स्वतन्त्रता सेनानियों के दिल में गहरे बसते थे। यह कहना कि इन मुद्दों पर आज जितना बल दिया जा रहा है वो काँग्रेस के इन स्वतन्त्रता सेनानियों के समय नहीं हुआ सर्वथा गलत है। ये और बात है कि ये बहुमूल्य पुस्तकें राष्ट्रीय अभिलेखागार में धूल फांक रही है।

इसी प्रकार देश की शिक्षा पद्धति पर डॉ राजेंद्र प्रसाद की पुस्तक भारतीय शिक्षा एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ है जिसमें उन्होंने शिक्षा एवं आत्मविद्या, नारी-शिक्षा का आदर्श, गुरुकुल एवं राष्ट्रीय शिक्षा का स्वरूप, विज्ञान की साधना और साध्य, व्यावहारिक कृषि शिक्षा, बुनियादी तालिम, विद्यार्थी एवं राजनीति आदि अनेक विषयों पर अपने विचार रखे और स्वतन्त्रता के बाद सरकार ने इस ओर पहल भी किए। डॉ राजेंद्र प्रसाद ने हिन्दी एवं अँग्रेजी में और भी पुस्तकें लिखी हैं। इनमें प्रमुख हैं –MAHATMA GANDHI IN BIHAR’, SATYAGRAHA IN CHAMPARAN आदि आदि।

डॉ राजेंद्र प्रसाद की लिखी ये सभी पुस्तकें स्वतन्त्रता संग्राम के साथ साथ काँग्रेस के संघर्षों का तथ्यात्मक इतिहास है। उस दौर के अन्य स्वतन्त्रता सेनानियों ने भी तात्कालिक इतिहास की तथ्यात्मक जानकारी देते हुए पुस्तकें लिखी हैं। कमी केवल पढ़ने वालों की है। उस दौर के बारे में जिस प्रकार के दुष्प्रचार आजकल हो रहे हैं और जिस प्रकार तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर सोश्ल मीडिया पर जानकारियाँ उपलब्ध कराई जाती हैं वो निश्चय ही भर्त्सना के योग्य है। आजकल यह भी शिकायत होती है कि पढ़ाई के दौरान इतिहास की सही जानकारी नहीं दी गयी। इतिहास की सही जानकारी के लिए राष्ट्रीय अभिलेखागार का खाक छानना पड़ता है और इतिहास की घटनाओं के प्रति मौलिक विचार बनाने की आवश्यकता है जिसके लिए स्वपाठन ही विकल्प है। किन्तु आज की पीढ़ी जो हर चीज़ चीज़ इंस्टेंट चाहती है के पास स्वपाठन के लिए पास समय नहीं है। वो सोश्ल मीडिया के इतिहास से ही अपना ज्ञान संवर्धन कर संतूष्ट है। इसका प्रभाव हर ओर दिखता है।

डॉ राजेंद्र प्रसाद द्वारा लिखी पुस्तकों के अलावे डॉ राजेंद्र प्रसाद की स्मृतियों को समर्पित पुस्तकों की भी कमी नहीं है। देशपूज्य राजेंद्र प्रसाद ऐसा ही संकलन है। किन्तु हिन्दी में लिखी इस पुस्तक को पढ़ने में आज किसे रुचि होगी। इस पुस्तक के रचयिता श्री गदाधर प्रसाद अंबष्ट हैं जिन्होंने पुस्तक की प्रस्तावना में उन्हें इस पुस्तक को लिखने में मिले बुद्धिजनों के सहयोग पर आभार व्यक्त किया है। इन महानुभावों में बाबू कृष्ण बल्लभ सहाय भी थे। इसी प्रकार लोकप्रिय कवि प्रोफेसर शिव पूजन सहाय द्वारा डॉ राजेंद्र प्रसाद पर संकलित लेखों की पुस्तक राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद तात्कालिक इतिहास का गुणात्मक अध्ययन है। आजकल युवाओं में किताबें पढ़ने की आदत नहीं रही है और हिन्दी में लिखी पुस्तकों के पाठक तो नगण्य हैं। किन्तु यदि देश का सही इतिहास पढ़ने का चाव है तो सत्य के दर्शन यहीं होंगें।             

Wednesday, 26 February 2025

कृष्ण बल्लभ सहाय का व्यक्तित्व - श्रीमती प्रमोदिनी सिन्हा (26/02/2025)

यह लेख उपरोक्त संग्रह से लिया गया है। 

 कृष्ण बल्लभ सहाय का व्यक्तित्व

श्रीमती प्रमोदिनी सिन्हा

सादा जीवन उच्च विचार में विश्वास करनेवाले बिहार के भूतपूर्व मुख्यमंत्री स्वर्गीय कृष्ण बल्लभ सहाय का जन्म 31 दिसंबर 1898 ईस्वी में पटना ज़िले के शेखपुरा गाँव में एक मध्यम वर्गीय कायस्थ परिवार में हुआ था। श्री सहायजी ने बड़ी ही ईमानदारी, लगन और मेहनत से, कठिनाइयों से संघर्ष करते हुए अपने आप को इस योग्य बनाया कि एक दिन वे बिहार के प्रथम व्यक्ति हो सके।


श्री सहायजी की प्रारम्भिक शिक्षा पी.एन. एंग्लो स्कूल में आरंभ हुई। कुछ कक्षाएँ राम मोहन रॉय सेमीनारी से भी पास की। फिर हजारीबाग ज़िला स्कूल में नाम लिखाया। वहीं पर स्कूल शिक्षा समाप्त कर हजारीबाग के सैंट कोलम्बस कॉलेज में शिक्षा ग्रहण की और 1919 में अँग्रेजी स्नातक की परीक्षा प्रतिष्ठा के साथ पास की। विश्वविद्यालय में वे अव्वल आए और उन्होंने स्वर्ण पदक प्राप्त किया। इनकी तीव्र इच्छा कानून पढ़ने की थी। अतः इन्होंने पटना कॉलेज में कानून और एम.ए. की पढ़ाई साथ-साथ शुरू की। ये अत्यंत ही मेधावी छात्र थे। इनकी स्मरण शक्ति अत्यंत तीव्र थी एवं प्रत्येक विषय को अपनी कुशाग्र बुद्धि द्वारा समझ कर फिर ग्रहण करने का प्रयास करते थे। जो पुस्तक एक बार पढ़ लेते थे, जल्दी नहीं भूलते थे।


तात्कालिन राजनीतिक परिस्थितियों के प्रभाव में श्री के.बी. सहाय अपने आप को पृथक नहीं रख सके। दिन-प्रतिदिन की घटनाएँ उनके मानस पर एक-एक कर अपना अमिट छाप छोड़ती जा रही थी। यही कारण है कि जब 1920 में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन आरंभ किया, इन्होंने इस आंदोलन में भाग लेने के निमित्त अपनी पढ़ाई-लिखाई छोड़ दी। वर्ष 1912 में राष्ट्रीय महाविद्यालय की स्थापना हुई थी। स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद इसके प्राचार्य नियुक्त हुए और श्री कृष्ण बल्लभ सहाय ने इस महाविद्यालय में अँग्रेजी पढ़ाने का भार अपने कंधे पर लिया।


सन 1923 में देशबंधु चित्तरंजन दास ने स्वराज पार्टी की स्थापना की। श्री के.बी. सहाय को बिहार शाखा का सचिव बनाया गया। इसके साथ ही ये बिहार और उड़ीसा परिषद के लिए चुने गए जिसपर ये छ वर्षों तक रहे। उन दिनों विधान मण्डल में एक सदन हुआ करता था। ये अनेक क्रांतिकारी व्यक्तियों एवं संस्थाओं से सम्बद्ध थे। कहते हैं कि लोकनायक जयप्रकाश नारायण जी जब जेल की दीवार फाँद कर भागे थे उस समय उनके लिए बिस्तर पर वे ही हाजरी बोलने के लिए लेटे। इस प्रकार निर्भीकता, अदम्य साहस एवं उत्साह का इन्होंने परिचय दिया।


सन1927 में स्थापित पटना युवक संघ के ये अध्यक्ष चुने गए। इसका मुख्य उद्देश्य था –सशस्त्र विद्रोह कर भारत माता की बेड़ियों को काटकर उसे स्वतंत्र कराना।  देवघर षड्यंत्र केस का जब ट्रायल चल रहा था तो उन्होंने असीम साहस का परिचय देते हुए दुमका जाकर अपनी आखों से ट्रायल देखा और निर्भीकतापूर्वक इन घटनाओं से संबन्धित एक लेख लिखा जो 8 जनवरी 1928 के सर्चलाइट प्रैस में छपा। सन 1930 से 1934 के बीच स्वतंत्र संग्राम में भाग लेने के कारण इन्हें चार बार जेल हुई। सन 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान तो वे स्वतन्त्रता सेनानियों के मध्य अग्रणी रहे। सन 1942 में मौलाना मजरूल हक़ के जेल जाने के बाद अँग्रेजी साप्ताहिक द मदरलैंड का इन्होंने सम्पादन किया। इस पत्रिका से ये पहले से ही जुड़े हुए थे।  


सन 1937 से 1946 के मध्य जब बिहार में श्रीकृष्ण सिन्हा का मंत्रिमंडल बना तो इनको संसदीय सचिव चुना गया। 15 अगस्त 1947 को भारत स्वतन्त्र हुआ। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद स्वतंत्र भारत के बिहार प्रांत में कृष्ण बल्लभ सहाय प्रथम राजस्व मंत्री बनाए गए। बिहार में लॉर्ड कार्नवालिस के समय से ही दमनकारी बंदोबस्ती चला आ रहा था। अतः यहाँ के जमींदारों को उनकी जमींदारी से च्युत करना कोई सरल बात नहीं थी। किन्तु वहाँ भी इन्होंने अपनी साहस और कर्मठता का परिचय देते हुए, सबकी आलोचना-प्रत्यालोचना की परवाह किए बगैर, जमींदारी उन्मूलन को कानूनी जामा पहना ही दिया।


सन 1963 में कृष्ण बल्लभ सहाय बिहार प्रांत के मुख्यमंत्री हुए। सन 1963 से 1967 तक इन्होंने इस पद की शोभा बढ़ाई। सन 1967 में आम चुनाव की घोषणा हुई और पटना निर्वाचन क्षेत्र से श्री महामाया प्रसाद सिन्हा ने इन्हें पराजित कर दिया, तथा बिहार में प्रथम सविंद सरकार की स्थापना हुई जिसमें श्री सिन्हा मुख्यमंत्री चुने गए। इसी सविंद सरकार ने इन पर अय्यर आयोग बैठाया था। पुनः 1974 में श्री कृष्ण बल्लभ सहाय ने स्वशासी निकाय निर्वाचन क्षेत्र से भारी मतों से विजय प्राप्त की।


परंतु नियति को यह मंजूर न था और शपथ ग्रहण करने के पूर्व ही हजारीबाग जाते समय कृष्ण बल्लभ सहाय की गाड़ी को किसी ट्रक ने पीछे से धक्का दे दिया। इस दुर्घटना में भारत माँ का एक सच्चा सिपाही सदा-सदा के लिए 3 जून 1974 को माँ की गोद में विलीन हो गया। यह भी एक विचित्र बात है कि जिस बिहार और उड़ीसा विधान परिषद की सदस्यता से कृष्ण बल्लभ सहाय ने अपना संसदीय जीवन प्रारम्भ किया था, पचास वर्षों के बाद पुनः उसी विधान परिषद से सदस्य निर्वाचित होकर इन्होंने अपने संसदीय जीवन का समापन किया।


राजनीतिक जीवन में अत्यंत व्यस्त रहते हुए भी श्री कृष्ण बल्लभ सहाय परिवार के प्रति कभी उदासीन नहीं रहे। जब भी जो भी समय मिलता ये उसी में सबकी पढ़ाई-लिखाई की ओर ध्यान देते। इनको कई सन्तानें थी। ये सभी की इच्छा पूरी करने के लिए सदैव प्रयास करते।


उच्च से उच्च पद पर पहुँचने पर भी इन्होंने कभी शान- शौकत नहीं की। सदैव खादी की मोटी धोती, कुर्ता और गांधी टोपी ही प्रयोग करते और उसे भी खुद अपनी हाथों से ढोते-फिचते। इस प्रकार दो-तीन सेट कपड़े में ही अपना काम चला लेते थे। वे खानपान में भी उदासीन थे। दाल-भात और आलू का भर्ता उनका प्रिय भोजन था। श्री कृष्ण बल्लभ सहाय का नियम था- नित्य प्रातः ब्रह्म मुहूर्त में बिस्तर छोड़ देना, चाहे सर्दी हो अथवा गर्मी या बरसात। इसी समय ये ऑफिस की फाइलें देखते। फाइलों के मामले में ये कभी अपने सेक्रेटरी पर निर्भर नहीं रहते वरन पूरी की पूरी फाइल एक-एक शब्द ध्यान से पढ़ते और तब उस पर टिप्पणी लिखते। यही कारण है कि बिहारवासी आज भी उन्हें भूल नहीं पाये हैं। उनकी प्रशासनिक योग्यता की सदैव प्रशंसा की जाती है।              

Monday, 10 February 2025

अब ऐसे लोग कहाँ हैं - डॉक्टर शंकर दयाल सिंह भूतपूर्व सांसद (10/02/2025)




 अब ऐसे लोग कहाँ हैं

डॉक्टर शंकर दयाल सिंह

भूतपूर्व सांसद

शंकर दयाल सिंह (27 दिसंबर 1937- 27 नवंबर 1995) भारत के राजनेता तथा हिन्दी साहित्यकार थे। वे राजनीति और साहित्य दोनों क्षेत्रों में समान रूप से लोकप्रिय थे। 1971 में वे चतरा से लोक सभा के लिए चुने गए। 1990 में वे राज्य सभा के सदस्य बने। 1995 में उनकी असामयिक मृत्यु हो गई।

जहां तक मैं अपनी स्मरणशक्ति से उँगलियों पर बिहार के मुख्यमंत्री का नाम जोड़ता हूँ तो ऐसी गणना निकलती है कि मुख्यमंत्री श्री बिंदेश्वरी दूबे बिहार के चौदहवें मुख्यमंत्री हैं। नाम ही गिना दूँ- डॉ श्रीकृष्ण सिन्हा, पंडित बिनोदनंद झा, श्री कृष्ण बल्लभ सहाय, श्री महामाया प्रसाद सिन्हा, श्री सतीश प्रसाद सिंह (मात्र तीन दिनों के लिए), श्री बिंदेश्वरी प्रसाद मण्डल, श्री भोला पासवान शास्त्री, श्री सरदार हरिहर सिंह, श्री दारोगा प्रसाद राय, श्री केदार पांडे, श्री अब्दुल गफूर, श्री जगन्नाथ मिश्र, श्री कर्पूरी ठाकुर, श्री राम सुंदर दास, और उसके बाद पुनः डॉ जगन्नाथ मिश्र के बाद श्री चन्द्रशेखर सिंह।

लेकिन वास्तविकता ये है कि बिहार के तीसरे मुख्यमंत्री श्री कृष्ण बल्लभ सहाय ही प्रांत के आखिरी मुख्यमंत्री थे। उनके बाद जो मुख्यमंत्री हुए वे महज नाम के थे, काम के नहीं और उनका सिलसिला भी कुछ और ही रहा। दिल्ली ने उन्हें जब चाहा हटाया और जब चाहा बैठाया। इसके साथ ही जहां तक काम का प्रश्न है, अधिकांशतः मुख्यमंत्री क्लर्को से लेकर अफसरों की हाथ के कठपुतली रहे। कृष्ण बल्लभ बाबू इसके सर्वदा अपवाद थे।

क्या मजाल कि लिखने-पढ़ने और फाइल में कोई उन्हें चरा दे। बड़े-बड़े अधिकारी जिनमें आई.सी.एस. तक थे, उनकी स्पेलिंग को भी श्री कृष्ण बल्लभ बाबू अपनी लाल कलाम से सुधारकर फाइल वापस करते थे और कोई भी संचिका उनके पास अड़तालीस घंटे से अधिक नहीं रहती थी।

जैसे किसी परीक्षा की तैयारी कोई विद्यार्थी करता हो, उसी भांति वह सवेरे चार बजे अपने ऑफिस में बैठ जाते थे तथा फाइल देखना शुरू करते थे। छ्ह बजे तक दर्जनों फाइलें देखते, एक-एक पंक्ति पढ़ते और सही टिप्पणी देकर निबटाते। इसके बाद ही उनकी अन्य दिनचर्याएँ शुरू होती थी।

इसी भांति ट्रेन में, कार में, अथवा वायुयान में जब भी वे यात्रा कर रहे होते थे तो एक-एक संचिका करीने से देखते जाते थे और सहायक से लेकर सचिव तक के नोट को पढ़कर, देखकर, तजबीज करके ही कोई टिप्पणी देते थे या निर्णय लेते थे।

किसी ने उन दिनों ठीक ही कहा था कि श्रीबाबू का राज रोब से चलता था, बिनोदा बाबू का राजनीति से लेकिन कृष्ण बल्लभ बाबू का शुद्ध रूप से मुंशीगिरी से। कागज-पत्तर के मामले में क्या मजाल जो कृष्ण बल्लभ बाबू को कोई ठग दे। बड़े-बड़े दिग्गज अधिकारी उनके सामने जाने से घबड़ाते थे क्योंकि कृष्ण बल्लभ बाबू का काम सीधा लिखा-पढ़ी का होता था, चालाकी का नहीं।

आज के मंत्रियों का हाल जब देखता या सुनता हूँ तो हँसी आती है। बफशीट पर बफशीट जा रही है लेकिन अधिकारी फाइल भी नहीं भेजता है। किसी काम के लिए मंत्री महोदय ने बफशीट लिखकर भेजा और विभागीय क्लर्क उसे कहीं दबाकर रख देता है या फिर सीधे फाड़ कर फेंक देता है यह कहकर कि- ऐसा ऑर्डर तो रोज आता है

बात इतनी ही नहीं है। अनेक मंत्री को अपने अधीनस्थ अधिकारियों की खुशामद व चिरौरी करनी पड़ती है कि- फलां साहब यह काम हो जाता या एक सप्ताह पहले जो बफशीट भेजा था उसका क्या हुआ या यह कि जरा इस तरह का नोट बना कर भेज दीजिये बड़ी कृपा होगी। बात यहीं समाप्त हो जाती तो कोई बात नहीं थी किन्तु हद तो तब होती है जब इसके आगे यह कहते हैं कि क्या करें, हम तो चाहते थे, लेकिन कमिश्नर साहब या सेक्रेटरी साहब मान ही नहीं रहे हैं।

लेकिन कृष्ण बल्लभ बाबू के समय में बात ही कुछ दूसरी थी। फोन से उन्होंने किसी अधिकारी को कुछ कह दिया या कोई बफशीट भेज दी अथवा संचिका पर आदेश दे दिया तो फिर क्या मजाल कि चौबीस घंटे के अंदर उनकी तामिली न हो। सामान्य कर्मचारी उनसे घबड़ाते थे, उच्चाधिकारी तक उनके सामने काँपते थे तथा सियासत चलाने के उनके रोब से थरथरी पैदा हो जाती थी।

अपने सामने का एक उदाहरण दे दूँ। कृष्ण बल्लभ बाबू ने अपने समय के शिक्षा आयुक्त को बफशीट पर एक आदेश लिखकर भेजा, लेकिन तीसरे दिन तक सचिवालय से वो जारी नहीं हुआ। तीसरे दिन जब कृष्ण बल्लभ बाबू को इसकी जानकारी मिली तो उन्होंने शिक्षा आयुक्त को फोन किया और पूछा कि उस काम का क्या हुआ तो उधर से जवाब आया –सर, मैं इस पर अपनी टिप्पणी भेज रहा हूँ। दरअसल इसे ऐसे नहीं ऐसा होना चाहिए।

कृष्ण बल्लभ बाबू यह सुनते ही आग बबूला हो गए- मेरे आदेश देने के बाद आप कौन होते हैं उसे रोक कर रखने वाले? सरकार आप हैं या मैं हूँ? जनता ने आपको चुना है या मुझे? और इंक्वाइरी यदि होगी तो मेरे ऊपर होगा कि आपके ऊपर? आप सरकार के नौकर हैं और आपका काम है कि जो मिनिस्टर लिखकर आदेश दे या जो सरकार का आदेश हो उसकी तामिल करना। और आपसे यदि यह भी नहीं होता है तो आप आज ही इस्तीफा देकर चले जाइए नहीं तो मैं कल आपको सस्पेंड करके रहूँगा। कहते हुए कृष्ण बल्लभ बाबू ने फोन पटक दिया।

नतीजा यह हुआ कि उक्त अधिकारी ने पाँच बजे के बाद भी रुक कर उस काम का आदेश जारी किया तब सचिवालय से घर गया।

यह रोब था कृष्ण बल्लभ बाबू का!

काम-काज की नियमबद्धता भी उनकी विचित्र थी। ठीक समय पर कार्यालय आना, ठीक समय पर लोगों से मिलने बैठ जाना, एक-एक कर लोगों को बुलाना और मिलना और ठीक समय पर खाना, सोना और उठना।

काँग्रेस कार्यकर्ताओं की जितनी इज्जत उस समय मंत्रियों के बीच थी उसके बाद नहीं हो पायी। श्रीबाबू, अनुग्रह बाबू, बिनोदा बाबू, कृष्ण बल्लभ बाबू, महेश बाबू और वीरचंद पटेल आदि ऐसे नाम थे जो आज़ादी की लड़ाई में संघर्ष के साथ छन कर उभरे थे। अतः वे कार्यकर्ताओं का मूल्यांकन भी जानते थे। बाद के दिनों में मंत्रियों और कार्यकर्ताओं दोनों का स्तर ऐसा गिरा कि सेवा नाम की वस्तु से किसी का वास्ता ही नहीं रहा। बदले में दलाली का धंधा ही मुख्य हो गया।

एक जो सबसे बड़ी बात देखने में आती है वह यह है कि कृष्ण बल्लभ बाबू के समय तक बदली, प्रोन्नति, पोस्टिंग और बहाली आदि में अधिकारियों से पैसे लेने की दुर्व्यवस्था नहीं थी। मंत्री या नेतागण चुनाव आदि के समय अथवा संस्था को चलाने के लिए बड़े लोगों से या पूँजीपतियों, ठेकेदारों, उद्योगपतियों से ही पैसा लेते थे। उसके बाद ऐसा एक माहौल बन गया कि मंत्री खुले-आम अफसरों से घूस लेने लग गए। नतीजा यह हुआ कि अफसरों की नज़रों में मंत्रियों का कोई स्थान ही नहीं रहा और जो रिश्वत देकर बहाल हुआ था जिसकी प्रोन्नति हुई अथवा मनचाहे स्थान पर नियुक्ति हुई उसने अपना यह धर्म माना कि जितना खर्च किया है उसका पाँच-सात गुना वसूल कर लें।

हालांकि यह भी कहने में मुझे संकोच नहीं हो रहा है कि कृष्ण बल्लभ बाबू के मंत्रिमंडल में एक मंत्री ने अफसरों से पैसे लेने की शुरुआत कर दी थी, लेकिन चोरी-छिपे। उसके बाद तो यह खुले-आम पद्धति हो गयी। नतीजा यह हुआ कि कामचोर, बेईमान और रिश्वतखोर अधिकारियों का बोलबाला हो गया तथा ईमानदार अधिकारी पीसने लगा। इसकी प्रतिक्रिया सरकारी तंत्र पर सबसे अधिक है और भ्रष्टाचार जो प्रखण्ड स्तर से लेकर सचिवालय की बड़ी कुर्सी तक देखने में आ रहा है, उसका समाजीकरन कर दिया गया।

कृष्ण बल्लभ बाबू पर संयुक्त विधायक दल की सरकार ने अय्यर कमीशन बहाल किया था जिसमें उनके मंत्रिमंडल के सात और सदस्यों को शामिल किया गया था। उस समय कृष्ण बल्लभ बाबू के लॉकर और बैंक  से एक लाख रुपये मिले थे जिसके कारण उन्हें बेईमान करार दिया गया। उनकी सफाई कहीं नहीं सुनी गयी। अय्यर ने भी उनके वक्तव्य को अपनी रिपोर्ट में स्थान नहीं दिया। यह न्यायसंगत नहीं था।

कृष्ण बल्लभ बाबू एक सुयोग्य प्रशासक, ऊपर से कठोर लेकिन अंदर से कोमल, दोस्तों के लिए सदा तत्पर रहने वाले, अनुभवी और दिलेर व्यक्ति थे। मुख्यमंत्री के रूप में उन्होंने बिहार प्रांत में जो शासन किया वह किसी भी दूसरे मुख्यमंत्री ने नहीं किया। उनके समय तक मुख्यमंत्री की एक आब थी, इज्ज़त थी, रोब था, दबदबा था, और किसी प्रकार की ढील नहीं थी। बाद के दिनों में मुख्यमंत्री पद की गरिमा ऐसी समाप्त हुई कि उसे न तो जनता की श्रद्धा मिली, न दल का समर्थन मिला और सदा उनके ऊपर नंगी तलवार लटकती रही।

कृष्ण बल्लभ बाबू की साफ़गोई का भी कोई जवाब नहीं था। जिस काम को वे कर सकते थे उसमें हाँ कहने के बाद चाहे जैसे भी हो उसे पूरा करते थे और इसी प्रकार किसी भी काम को ना कहने में भी एक सेकंड के लिए भी देर नहीं करते थे। देखेंगें’, अच्छा हो जाएगा’, देखिये ज़ोर लगाता हूँ’, क्या कहें बहुत कोशिश की लेकिन नीचे वाले मानते ही नहीं हैं’, मैं तो भूल गया, अच्छा किया कि याद दिला दिया’, आदि वाक्य उनके शब्दकोश में नहीं थे। होना होगा तो वो काम तत्काल हो जाएगा अन्यथा न होना होगा तो उसी समय में भी हो जाएगा। लाग-लपेट और खुशामद-मलानत की ज़िंदगी उनकी थी ही नहीं।

और उसका बड़ा से बड़ा मूल्य चुकाने के लिए वे तैयार रहते थे और उन्होंने चुकाया भी। 1967 में वे पश्चिमी पटना से विधान सभा के उम्मीदवार हुए। उससे पहले भी वे इसी क्षेत्र से विधान सभा में चुनकर गए थे। उनके मुख्यमंत्रित्व काल में चुनाव के कुछ दिन पहले ही पटना में प्रदर्शनकारियों पर गोली चली, जिसमें आठ आदमी मारे गए।

लोगों ने बहुतेरा कहा कि अब आप पटना से न खड़े हों, लेकिन वे नहीं माने। इतना ही नहीं गोलीकांड के लिए कमीशन बिठाना भी उन्होंने स्वीकार नहीं किया। अपने चुनाव भाषण में हर जगह वे यही कहते रहे मेरे आदेश से गोली चली  क्योंकि मैं यहाँ का मुख्यमंत्री हूँ, अतः मेरी ज़िम्मेदारी है। मैं इसे किसी अधिकारी पर थोपना नहीं चाहता। गोली इसलिए चलायी गयी क्योंकि गुंडे खादी भवन में आग लगा रहे थे और पुलिस मुख्यालय को लूटना चाहते थे। ऐसे में गोली चली तो क्या बुरा हुआ? मैं यदि पुनः मुख्यमंत्री हुआ और ऐसी हरकत हुई तो गोली चलाने में मैं कभी पीछे नहीं हटूँगा।

अपनी साफ़गोई का उन्हें मूल्य चुकाना पड़ा। लेकिन उन्होंने गलत नीतियों से कभी संधि नहीं की। यही कारण है आज जब मैं उन्हें याद कर रहा हूँ तो निःसंकोच मेरे मूंह से यह वाक्य निकल रहा है कि बिहार प्रांत के वे आखिरी मुख्यमंत्री थे, जिन्होंने शान के साथ मुख्यमंत्रित्व किया।

टिप्पणी: ये विचार लेखक के हैं। “कृष्ण बल्लभ सहाय जयंती समारोह समिति” के नहीं- संपादक