डॉक्टर लक्ष्मी नारायण सुधांशु (15 दिसंबर 1906- 17 अप्रैल 1974) |
डॉ लक्ष्मी नारायण सुधांशु का जन्म 15 दिसंबर
1906 को रूपसपुर पुर्णिया में एक संभ्रांत परिवार में हुआ था। बचपन से ही ये पढ़ने-लिखने
में कुशाग्र थे। इनके पिता श्री धनपत सिंह
ने इस बात का ध्यान रखते हुए इनका दाखिला पुर्णिया के विद्यालय में करवाया। बाद
में ये पढ़ने के लिए भागलपुर गए। उच्च शिक्षा इन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
से पूरी की। शुरू से ही इनकी रूचि साहित्य में थी। कॉलेज जीवन में इनकी कई रचनाएँ
प्रकाशित हो चुकी थी। बाद में ये काँग्रेस में शामिल हुए और 1942 के भारत छोड़ो
आंदोलन में सक्रिय हो गए। 1946 में बिहार विधान सभा के लिए चुने गए। 1950 में
बिहार प्रदेश काँग्रेस कमिटी के अध्यक्ष बने। तथापि साहित्य के प्रति इनकी रुचि
में कभी कोई कमी नहीं आई।
कृष्ण
बल्लभ बाबू की ही तरह डॉ सुधांशु भी विभिन्न पत्रों और पत्रिकाओं से जुड़े रहे।
छात्र जीवन में ही कृष्ण बल्लभ बाबू ‘अमृत बाज़ार
पत्रिका’ के छोटानागपुर संवाददाता रहे थे। बाद में कृष्ण
बल्लभ बाबू ने हजारीबाग से ‘छोटानागपुर दर्पण’ नामक पत्रिका का प्रकाशन प्रारम्भ किया जो कई वर्षों तक निरवरत चला। इसी
प्रकार डॉ लक्ष्मी नारायण सुधांशु जी ने 1939 में ‘राष्ट्र-वाणी’ नामक साप्ताहिक का प्रकाशन प्रारम्भ किया। 1952-1956 के दरम्यान डॉ
सुधांशु ने हिन्दी में ‘अवन्तिका’ नामक
मासिक साहित्यिक पत्रिका का प्रकाशन प्रारम्भ किया। 1955 में पुर्णिया में
इन्होंने कला भवन नामक सांस्कृतिक संस्था की स्थापना की जहां इनके प्रयासों से
नित्य सांस्कृतिक एवं साहित्यिक कार्यक्रम आयोजित हुआ करते थे। 1961 में डॉ
सुधांशु बिहार राष्ट्रभाषा परिषद के सभापति मनोनीत हुए। 1962 के चुनाव में डॉ
सुधांशु काँग्रेस की टिकट पर धमदाहा से विजयी
हुए और बिहार विधान सभा के अध्यक्ष पद पर इन्हें सर्वसम्मति से चुन लिया
गया। बतौर अध्यक्ष इन्होंने सदन की गरिमा को बनाए रखने में महती भूमिका निभाई और
सदा निस्पक्षता से अपनी ज़िम्मेदारी का कार्यवाहन किया। बिहार विधान सभा की कार्यवाही के दौरान ऐसे कई अवसर
आए जब सदस्यों के बीच गहमा-गहमी के माहौल को इन्होंने अपनी वाक्पटुता और साहित्यिक
भाषा से सामान्य बनाने में सफल रहे। सदन की कार्यवाही में कोई खलल न पड़े इसका उन्होंने
सदा ध्यान रखा। इसी दरम्यान ये कृष्ण बल्लभ बाबू के संपर्क में आए। यह वह दौर था
जब सूबे का मुख्यमंत्री अँग्रेजी भाषा का विद्वान था और दूसरी ओर सूबे के विधानसभा
का स्पीकर हिन्दी भाषा का प्रकांड विद्वान था। कृष्ण बल्लभ बाबू बात-बात पर हिन्दी
कवियों यथा तुलसीदास, बिहारी, सूरदास
की कविताओं का उद्धरण के साथ-साथ अँग्रेजी लेखकों और कवियों यथा शेक्सपेयर, वर्ड्सवर्थ आदि की कविताओं और चौपाइयों को उद्धृत करते थे। दूसरी ओर
सुधांशु जी भी बराबर सदन की गरिमा को बनाए रखने का प्रयास करते थे और साहित्यिक शैली
में सदस्यों से अनुरोध कर उनका सहयोग पाते थे।
बिहार
विनियोग विधेयक 1965 पर सदन में बहस हो रहा था और कृष्ण बल्लभ बाबू पंचायत
व्यवस्था के महत्व पर प्रकाश डाल रहे थे। अपनी बात रखते हुए कृष्ण बल्लभ बाबू ने
कहा- ‘मेरा अपना ख्याल है कि पंचायती राज का मतलब जनशक्ति को देहात में जगाना
है। पंचायत राज द्वारा ही स्थानीय लोगों के कल्याण के
कार्य हो सकते हैं। मसलन रांची में आदिवासियों की जनसंख्या 60-65% है किन्तु उनके
लिए केवल दस कुएँ हैं। हमें यह देखना होगा कि आदिवासियों और पिछड़ी जातियों के साथ
न्याय होता रहे और यह पंचायती राज द्वारा संभव है। यदि हम गलत काम करते हैं तो
हमारी आलोचना होती है अतः यह हमारी ज़िम्मेदारी है कि उनके साथ न्याय होता रहे’।
‘हम गलत काम करते हैं’- यह सुनकर डॉ लक्ष्मी नारायण
सुधांशु जी चौंक उठे। उधर कृष्ण बल्लभ बाबू अपनी रौ में बोले जा रहे थे। अतः उन्हें
सही हिन्दी का ध्यान नहीं रहा। डॉ लक्ष्मी नारायण सुधांशु जी अपने आप को हस्तक्षेप
करने से रोक नहीं पाये। कृष्ण बल्लभ बाबू को उन्होंने टोका- ‘आप ऐसा नहीं कहें कि ‘हम गलत काम करते हैं’। आप यह कहें कि ‘जब हमसे गलती होती है।’
अध्यक्ष
महोदय को हिन्दी की गलती सुधारने के लिए कृष्ण बल्लभ बाबू ने उन्हें धन्यवाद दिया।
फिर अपना वक्तव्य जारी रखा- ‘अध्यक्ष महोदय, मैं हिन्दी का पंडित नहीं हूँ इसलिए मेरी भाषा में गलती रह सकती है। जो
आप कहते हैं वही ठीक है। हमारे सूबे में हरिजन हैं, आदिवासी
हैं। सरकार को देखना है कि सबों के साथ न्याय हो। इसलिए चार जिलों में पंचायती राज
कायम कर दिया गया है और धीरे-धीरे और जिलों में इसे कायम किया जाएगा’।
डॉ
लक्ष्मी नारायण सुधांशु सदन में अपनी बातें बहुत ही कम किन्तु सटीक शब्दों में इस
तरह रखते थे कि विपक्ष भी उनकी बात का कायल हो जाता था। इस प्रकार डॉ सुधांशु सदन को
बिना किसी स्थगन के सुगमता से संचालित करने में सफल रहते थे। एक ऐसी ही घटना 2
फरवरी 1966 की है। कृष्ण बल्लभ बाबू 1966-67 का वार्षिक आय-व्ययक की मुद्रित
रिपोर्ट सदन में पढ़ रहे थे। यह सरकार के विभिन्न मंत्रालयों के वर्ष भर का लेखा-जोखा
होता है और भाषण के अधिकांश भाग में आंकड़े भरे पड़े होते हैं। निश्चय ही सदस्यों को
यह बहुत ही उबाऊ लग रहा था। नीरसता को तोड़ने के लिए कुछ सदस्य आपस में बातचीत में
लग गए। बतौर अध्यक्ष डॉ लक्ष्मी नारायण सुधांशु जी ने सदन की गरिमा का हवाला देते
हुए सदस्यों से भाषण तन्मयता से सुनने की गुजारिश करते हुए कहा- ‘सदस्यों से निवेदन है कि वे शांति बनाए रखें। अगर
सदस्य मुद्रित भाषण सुनना आवश्यक नहीं समझते हैं तो शांत रहना तो आवश्यक है’।
अध्यक्ष
की ओर देखते हुए कृष्ण बल्लभ बाबू ने प्रस्ताव किया कि ‘अध्यक्ष महोदय यदि आपका आदेश हो तो मैं इस मुद्रित भाषण को मौखिक भी बोल
सकता हूँ क्योंकि देखकर भाषण पढ़ने में मुझे कठिनाई होती है’।
इतने पृष्ठों की मुद्रित भाषण में अंकित आंकड़ों को बिना देखे मौखिक पढ़ देना यह
कृष्ण बल्लभ बाबू जैसे मेधा वाले व्यक्ति के लिए ही संभव था। यह इस बात का द्योतक
था कि कृष्ण बल्लभ बाबू ने न केवल पूरी रिपोर्ट पढ़ रखी थी वरन उसमें अंकित एक-एक
आकडे उन्हें कंठस्थ थे।
किन्तु
डॉ लक्ष्मी नारायण सुधांशु जी ने कृष्ण बल्लभ बाबू के प्रस्ताव को परिपाटी का
हवाला देते हुए अस्वीकार कर दिया- ‘मुद्रित भाषण
पढ़ने की ही परिपाटी चली आ रही है अतः आप मुद्रित भाषण ही पढ़ें’।
माननीय
अध्यक्ष महोदय के इस निर्णय पर चुटकी लेते हुए कपिलदेव सिंह ने कहा कि ‘माननीय मुख्यमंत्री कृष्ण बल्लभ बाबू का मौखिक भाषण ही अच्छा होता है’।
कृष्ण
बल्लभ बाबू ने कपिलदेव सिंह को आश्वस्त करते हुए जवाब दिया ‘इस बजट अधिवेशन में आपको मेरे मौखिक भाषण सुनने के कई मौके मिलेगें’।
दरअसल
कृष्ण बल्लभ बाबू जिस धाराप्रवाह शैली में भाषण देते थे और बीच-बीच में हिन्दी और
अँग्रेजी के कवियों की कविताओं की पंक्तियाँ उद्धृत करते थे उसे सुनने के लिए सदन
के सदस्य ही नहीं वरन दर्शक और पत्रकार दीर्घा में बैठे लोगों को भी उत्सुकता से
इंतज़ार रहता था।
अपने
मुख्यमंत्रित्व काल में कृष्ण बल्लभ बाबू का पुर्णिया जाना हुआ था जहां उन्होंने ‘कला भवन’ के कार्यक्रमों में शिरकत की थी। इस अवसर
पर कृष्ण बल्लभ बाबू और डॉ सुधांशु की ली गयी एक तस्वीर में दोनों को ही प्रसन्न
मुद्रा में आपस में बातचीत करते देखा जा सकता है जो इन दोनों के बीच गहन साहित्यिक
अभिरुचि को दर्शाता है।
1967
में कृष्ण बल्लभ बाबू चुनाव हार गए और एक बार पुनः उन्होंने हजारीबाग से ‘छोटानागपुर दर्पण’ का प्रकाशन प्रारम्भ किया। हालांकि
कृष्ण बल्लभ बाबू चुनाव हार चुके थे, किन्तु साहित्य के
प्रति समान अभिरुचि की वजह से उनके और डॉ सुधांशु के बीच संपर्क बना रहा। 1969 में
डॉ सुधांशु बिहार हिन्दी ग्रंथ अकादमी के अध्यक्ष मनोनीत हुए। अपने जीवन काल में डॉ
सुधांशु और कृष्ण बल्लभ बाबू कितने ही शिक्षण संस्थाओं से जुड़े थे। पुर्णिया कॉलेज, देवघर विद्यापीठ, गोवर्धन साहित्य महाविद्यालय आदि
ऐसे ही कुछ संस्थान थे जिसके डॉ सुधांशु संस्थापक सदस्य थे। इसी प्रकार कृष्ण
बल्लभ बाबू भी शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए सदा प्रयासरत रहे। छोटानागपुर में
इन्होंने कितने ही स्कूल और कॉलेज की स्थापना की जिनमें से कुछ के नाम भी इनके नाम
पर रखे गए। 27 मई 1974 को कृष्ण बल्लभ बाबू बिहार विधान परिषद के लिए पुनः चुने
गए। किन्तु डॉ सुधांशु इस खुशखबरी को सुनने के लिए इस दुनिया में नहीं रहे थे। इसी
वर्ष 17 अप्रैल को उनका निधन हो गया था। कृष्ण बल्लभ बाबू का स्वर्गवास भी इसी
वर्ष 3 जून को एक बेहद विवादास्पद मोटर कार दुर्घटना में हुआ। कुछ महीने के अंतराल
में ही बिहार ने साहित्यिक अभिरुचि के अपने दो पुत्र खो दिये।
[साभार:
(i) राष्ट्रीय अभिलेखागार, नई दिल्ली, (ii) बिहार विधान सभा की कार्यवाही के दस्तावेज़)
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