Wednesday 1 December 2021

हमारी विरासत, हमारी धरोहर: 25: बजरंग सहाय एवं कृष्ण बल्लभ सहाय (01/12/2021)

 







बाबू बजरंग सहाय (1 दिसंबर1896- 18 दिसंबर 1968)

कृष्ण बल्लभ सहाय (31 दिसंबर 1898- 3 जून 1974)



बाबू बजरंग सहाय एवं उनकी धर्मपत्नी 


छट्ठूराम होरिलराम द्वारा बाबू बजरंग सहाय को भेंट की गयी मोटोरकर 
 

जिला स्कूल, हजारीबाग से स्कूली शिक्षा समाप्त करने के बाद, कृष्ण बल्लभ सहाय ने 1914-15 सत्र में सेंट कोलम्बस कॉलेज में प्रवेश लिया। बजरंग सहाय उसी कॉलेज में उनके सीनियर थे। इन दोनों ही शख्स के व्यक्तित्व में कुछ समानताएँ थीं जिससे महाविद्यालय शिक्षा के दौरान ये निकट आए - दोनों कुशाग्र थे, दोनों अपनी भाषण शैली के कारण कॉलेज में लोकप्रिय थे और किसी भी तरह के अन्याय के प्रबल विरोधी थे। साथी देशवासियों पर किसी भी प्रकार के शोषण के वे सख़्त खिलाफ थे और ऐसे मुद्दे उठाने में वे कभी पीछे नहीं रहे। जनहित के मुद्दे सक्षम अधिकारी के समक्ष उठाने में उन्होंने कभी संकोच नहीं किया- फिर चाहे वो महाविद्यालय प्रशासन रहा हो अथवा फिर स्थानीय प्रशासनिक अमला रहा हो। छात्र जीवन से ही दोनों महात्मा गांधी के नेतृत्व से प्रेरित थे। अतः इनमें ऐसे चारित्रिक गुण विकसित हुए जिसमें महात्मा गांधी के व्यक्तित्व का प्रभाव स्पष्ट देखा जा सकता था।

देश का प्रबुद्ध युवा होने के नाते वे राष्ट्र के प्रति अपनी उत्तरदायित्व से भली भांति वाकिफ थे। छात्र जीवन से ही वे स्वतंत्रता संग्राम की विभिन्न गतिविधियों में रुचि लेने लग गए थे। उनमें इस यज्ञ में योगदान देने की उत्कंठ इच्छा थी। उनके हृदय में अपने साथियों के प्रति करुणा का भाव कॉलेज के दिनों में भी था। इसका प्रमाण तब सामने आया जब उन्होंने अपने उस सहपाठी का मामला उठाया, जिसे पुलिस और स्थानीय प्रशासन ने एक झूठे मामले में फंसाया था। उन्होंने दमनकारी विदेशी निरंकुश शासन के खिलाफ महात्मा गांधी के बताए सत्य और अहिंसा के हथियारों का प्रभावी एवं सफल इस्तेमाल अपने सहपाठी को बचाने में किया।

वाकया 18 दिसंबर 1918 का है जब हजारीबाग पुलिस मुजफ्फरपुर के एक पुलिस कर्मचारी जयकिशन सिंह के बेटे रामबिनोद सिंह को गिरफ्तार करने के लिए सेंट कोलम्बस कॉलेज परिसर में जबरन प्रवेश कर गई। पुलिस को शक था कि रामबिनोद सिंह मुजफ्फरपुर मामले के क्रांतिकारियों के साथ सांठगांठ में संलग्न था। ज्ञातव्य रहे कि कृष्ण बल्लभ बाबू के पिता ब्रिटिश सरकार के पुलिस बल में ही थानेदार थे। तथापि के. बी. सहाय ने बजरंग सहाय के साथ मिलकर कॉलेज परिसर में अपने सहयोगी को गिरफ्तार करने के लिए पुलिस के प्रवेश के विरोध में एक 'हड़ताल' का आयोजन किया। विरोध 'हड़ताल' स्वतःस्फूर्त था और इसमें काफी बड़ी संख्या में छात्रों ने भाग लिया। पुलिस को मजबूर होकर कॉलेज प्रशासन पर दबाव बनाना पड़ा। अंतत: 'हड़ताल' के बावजूद पुलिस रामबिनोद सिंह को गिरफ्तार कर हजारीबाग सेंट्रल जेल भेज दी। रामबिनोद सिंह की गिरफ्तारी ने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ छात्रों के आक्रोश को और बढ़ाया। जब पुलिस ने छात्रों की दलील सुनने से इनकार कर दिया, तो बजरंग सहाय और कृष्ण बल्लभ ने उच्च अधिकारियों से मिलकर अपने मित्र का पक्ष रखने का निश्चय किया।  

के.बी. सहाय और बजरंग सहाय ने रामबिनोद सिंह के माता-पिता की मदद करते हुए हजारीबाग के तत्कालीन उपायुक्त ए.पी. मिडलटन के समक्ष रामविनोद सिंह के मामले को उठाने में उनकी सहायता की, और जेल में अपने बेटे से मिलने की अनुमति प्राप्त करने में भी उनकी मदद की। बजरंग सहाय की प्रतिभा का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि रामबिनोद सिंह को अंततः इस मामले में बरी कर दिया गया। इनकी उम्र को देखते हुए यह इन दोनों की बड़ी जीत थी। इस समस्त घटना अवधि के दौरान के.बी. सहाय अपने सहपाठी और उनके पिता की हर संभव मदद करने के लिए सदा मौजूद रहे। इस छोटी सी घटना से ही इन दोनों शख़्स में अंतर्निहित असीम करुणा भाव का पता चलता है। गरीबों और उत्पीड़ितों के अधिकारों की लड़ाई में ये किस हद तक समर्पित थे इसका उदाहरण स्वतन्त्रता पश्चात तब देखने में आया जब जमींदारी उन्मूलन के क्रम में जहां बाबू बजरंग सहाय विधेयक का मसौदा बनाते हुए जमींदारों के दवाबों से नहीं घबराए वहीं बाबू कृष्ण बल्लभ सहाय इसे लागू करने से पीछे नहीं हटे और जमींदारों का डटकर मुक़ाबला किया।  

1921 में बिहारी छात्र सम्मेलन का 16वां वार्षिक सत्र श्रीमती सरला देवी की अध्यक्षता में हजारीबाग में आयोजित हुआ। यह आयोजन, जैसा की दस्तूर था, दशहरा के दौरान 5-6 अक्टूबर को किया गया। बिहारी छात्र सम्मेलन की स्थापना 1906 में हुआ था जिसके प्रस्तावकों में ब्रजकिशोर प्रसाद, सच्चिदानंद सिन्हा, महेश नारायण और डॉ राजेंद्र प्रसाद आदि प्रमुख थे। यह पहला मंच था जहां बिहारी छात्र समान रुचि के प्रश्नों पर चर्चा करने के लिए सम्मिलित होते थे। बाबू ब्रजकिशोर प्रसाद, सच्चिदानंद सिन्हा और महेश नारायण जैसे 'बुजुर्गों' द्वारा बिहारी छात्र सम्मेलन का एक गैर-राजनीतिक अभिविन्यास के तौर पर स्थापित करना सोच-समझ कर लिया गया एक सतर्क निर्णय था क्योंकि बाबू ब्रजकिशोर प्रसाद का मन्तव्य था कि, 'छात्र राजनीति के सिद्धांतों में एक अच्छी शिक्षा प्राप्त करें ताकि वे समय आने पर अपनी भूमिका निभा सकें और इसे अच्छी तरह से निभा सकें'। ये शब्द भविष्यसूचक साबित हुए जब चंपारण आंदोलन के दौरान बिहार के छात्रगण महात्मा गांधी की मदद को सामने आए। इसका उल्लेख डॉ राजेंद्र प्रसाद ने अपनी जीवनी-पुस्तक आत्मकथा में किया है। गांधीजी को चंपारण सत्याग्रह के दौरान जिन स्वयंसेवकों की मदद मिली वे बिहारी छात्र सम्मेलन के सजग प्रहरी थे जिन्होंने समय आने पर ब्रजकिशोर प्रसाद, राजकुमार शुक्ला, राजेंद्र प्रसाद और अन्य नेताओं के साथ काम करते हुए वास्तव में अपनी उपादेयता सिद्ध की और वीरतापूर्वक अपनी भूमिका निभाई। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि अगले लगभग दो दशकों तक, बिहार के सभी प्रमुख राजनीतिक और राष्ट्रीय आंदोलन के नेता बिहारी छात्र सम्मेलन के ही युवा थे। वार्षिक सम्मेलनों के दौरान छात्रों को 'बुजुर्गों' की शिक्षा इतनी मजबूत थी कि यह उनकी स्मृति में आजीवन बना रहा और उनमें सबल नेतृत्व के गुण विकसित हुए। 1921 में इस कार्यक्रम का आयोजन बाबू बजरंग सहाय और रामनारायण सिंह द्वारा सक्रिय रूप से किया गया था, जिन्होंने छात्रों से 'आत्मा पर विदेशी प्रभुत्व के जुआठ को उतारने' की अपील की थी। इस सम्मेलन में छात्रों से आह्वान किया गया कि वे -

1) सरकारी स्कूलों और कॉलेजों का बहिष्कार करेंगें;

2) प्रतिदिन कम से कम आधा घंटा और प्रत्येक रविवार को दो घंटे सूत की कताई को समर्पित करेंगें;

3) प्रिंस ऑफ वेल्स की यात्रा से जुड़े उत्सवों का विरोध करेंगें और इनमें भाग नहीं लेंगें।

बजरंग सहाय, कृष्ण बल्लभ सहाय और उनके जैसे अन्य युवाओं ने इस आयोजन को सफल बनाने के लिए कंधे से कंधा मिलाकर काम किया।

सेंट कोलम्बस कॉलेज से स्नातक के बाद, के.बी. सहाय ने स्वतंत्रता संग्राम में प्रवेश किया, जबकि बजरंग सहाय उच्च अध्ययन के लिए प्रेसीडेंसी कॉलेज, कलकत्ता चले गए। इसके बाद उन्होंने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से कानून की पढ़ाई पूरी की और गिरिडीह सदर न्यायालय में प्रैक्टिस शुरू किया। यहाँ यह बताना उचित होगा कि बजरंग सहाय का जन्म हजारीबाग ज़िला (अब गिरिडीह) के पचंबा क़स्बे के एक साधारण कायस्थ परिवार में 1 दिसंबर 1896 को हुआ था। 16 वर्ष की उम्र में ही उन्होंने अपने पिता मुंशी बुद्धप्रकाश लाल को खो दिया था। परिणामतः कम उम्र में ही उनपर परिवार की जिम्मेदारी का बोझ आन पड़ा था। तथापि तमाम कठिनाइयों के बावजूद, उन्होंने अपने परिवार और अपने राष्ट्र के प्रति दोहरी जिम्मेदारी का निर्वहन सफलतापूर्वक और प्रभावी ढंग से किया। कानून की पढ़ाई पूरी करने के बाद बजरंग सहाय गिरिडीह में बस गए और सब-डिवीजन कोर्ट में प्रैक्टिस करने लगे। लेकिन साथ ही साथ वे स्वतंत्रता संग्राम में भी सक्रिय रहे। इस दरम्यान उनकी वकालत इतनी चमकी कि उनका शुमार हजारीबाग के अग्रणी वकीलों में होने लगा। इस बात का अंदाज़ा इस बात से लगा सकते हैं कि एक केस में विजय के बाद उनके मुवक्किल माइका किंग छट्ठूराम होरिलराम उन्हें बतौर फीस मोटरकार भेंट किया जो उस दौर में कतिपय संभ्रांत लोगों के पहुँच की चीज़ थी।     

तीस के दशक के दौरान बाबू बजरंग सहाय की राजनीतिक सक्रियता इतनी बढ़ गयी थी कि स्थानीय प्रशासन को इनके प्रति सचेत होना पड़ा। मार्च 1930 में भारत सरकार के गृह विभाग के सचिव को संबोधित अपनी 'पाक्षिक गोपनीय रिपोर्ट' में बिहार के मुख्य सचिव एच. के. ब्रिस्को ने लिखा कि हजारीबाग ज़िला के दो पूर्व असहयोगी आंदोलनकर्ता बजरंग सहाय एवं पूर्व विधायक रामनारायण सिंह के भाई सुखलाल सिंह पर दंड प्रक्रिया संहिता के तहत कार्यवाई करना अत्यंत आवश्यक जान पड़ता है क्योंकि इसका प्रतिकूल असर ज़िला के छात्रों में देखा जा रहा है

अगस्त 1940 में बिहार सरकार के पॉलिटिकल डिपार्टमेंट द्वारा केंद्र सरकार के गृह विभाग के सचिव को एक अत्यंत गोपनीय पत्र द्वारा राज्य के ऐसे "ए" श्रेणी के स्वतन्त्रता संग्रामियों की सूची प्रेषित की गयी जिन्हें किसी भी आंदोलन के आह्वान पर तुरंत गिरफ्तार किए जाने संबंधी राज्य सरकार के निर्णय से अवगत कराया गया था। जिलावार सूची में हजारीबाग ज़िला के अंतर्गत अन्य स्वतन्त्रता संग्रामियों के अलावे कृष्ण बल्लभ सहाय एवं बाबू बजरंग सहाय- दोनों ही के नाम शामिल थे। अतः महात्मा गांधी ने 1942 में जब भारत छोड़ो आंदोलन का आह्वान किया तब इन दोनों को ही हजारीबाग पुलिस ने गिरफ्तार कर जेल भेज दिया। बाद में इन्हें भागलपुर जेल स्थानांतरित कर दिया गया।

1946 की शुरुआत से ही यह स्पष्ट हो गया था कि सत्ता हस्तांतरण महज कुछ समय की बात है। मार्च 1946 में बिहार के राज्यपाल टॉमस जॉर्ज रदरफोर्ड ने औपचारिक रूप से श्रीकृष्ण सिन्हा को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया। श्रीकृष्ण सिन्हा ने अनुग्रह नारायण सिन्हा और डॉ सैयद महमूद के साथ पद की शपथ ली। छोटानागपुर क्षेत्र के प्रतिनिधि के रूप में श्रीबाबू के मंत्रालय में कृष्ण बल्लभ बाबू के शामिल होने की चर्चा थी। जमींदार वर्ग कृष्ण बल्लभ बाबू के तेवर से परिचित था और इन्हें भान था कि यदि ये सरकार में आए तो इनकी प्राथमिकता जमींदारी उन्मूलन ही होगा। दरअसल 1937-1939 के दौर में भी कृष्ण बल्लभ बाबू इस दिशा में सक्रिय थे किन्तु विदेशी हुकूमत के समक्ष विवशतावश इस कार्य को वे अंजाम नहीं दे सके थे। अतः कृष्ण बल्लभ बाबू की पात्रता को संदिग्ध बनाने के लिए स्थानीय काँग्रेस नेत्री सरस्वती देवी की मदद से इनलोगों ने डॉ राजेंद्र प्रसाद को एक झूठा तार भेजकर अनुरोध किया कि छोटानागपुर के प्रतिनिधि के तौर पर बाबू बजरंग सहाय को मंत्री बनाया जाये। इस कुचक्र का दूसरा उद्देश्य के.बी. सहाय और बजरंग सहाय के बीच दरार पैदा करना भी था। बाबू बजरंग सहाय को जब यह बात बार एसोसिएशन के उपाध्यक्ष बाबू नवल किशोर प्रसाद के माध्यम से पता चली तब उनके क्रोध का पारावार न रहा। वे दोनों उसी वक़्त सरस्वती देवी से मिले और झूठा तार भेजने के लिए उनसे स्पष्टीकरण मांगा। सरस्वती देवी ने रहस्योद्घाटन किया कि ऐसा उन्होंने नंद किशोर प्रसाद के कहने पर किया। संयोग से नंद किशोर प्रसाद नवल किशोर प्रसाद के ही भाई थे। अजीबोगरीब स्थिति पैदा हो गई थी। इस वाद-विवाद ने बाबू बजरंग सहाय को गहरा दुख पहुंचाया। किन्तु उन्होंने अपना मन और चित्त शांत रखा और तत्काल क्षति नियंत्रण में लग गए। उन्होंने तुरंत डॉ राजेंद्र प्रसाद को एक तार भेजकर उनसे सरस्वती देवी द्वारा भेजे गए तार को अनदेखा करने का अनुरोध किया। साथ ही 24 मार्च 1946 को एक पत्र लिखकर उन्होंने डॉ राजेंद्र प्रसाद को मामले के सभी तथ्यों से अवगत कराते हुए लिखा -'इससे ​​पता चलेगा कि कैसे अर्नगल तार भेजकर कृष्ण बल्लभ बाबू के खिलाफ षड्यंत्र रचा जा रहा है। जहाँ तक मैं जानता हूँ कृष्ण बल्लभ बाबू को इस जिले की पूरी आबादी का विश्वास प्राप्त है। …..मेरे सक्रिय राजनीति से संन्यास लेने के बाद से वह एक ऐसे व्यक्ति हैं जो पार्टी में कांग्रेस का झंडा फहराते रहे हैं और यह कहना कि वे हजारीबाग के नहीं हैं और इस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकते हैं, कृतघ्नता की पराकाष्ठा होगी। मैं सम्मानपूर्वक सुझाव देता हूं कि के. बी. सहाय के खिलाफ झूठे प्रचार को नज़रअंदाज़ किया जाये और उनके साथ न्याय किया जाये

बाबू बजरंग सहाय की इस स्पष्टवादिता से इस षड्यंत्र का अंत हुआ और कुछ दिनों बाद श्रीकृष्ण सिन्हा के मंत्रालय में कृष्ण बल्लभ बाबू ने राजस्व मंत्री के तौर पर शपथ ली। बतौर राजस्व मंत्री के. बी. सहाय की प्राथमिकता जमींदारी उन्मूलन से संबन्धित कानून पारित कराने की थी। इस प्रस्तावित कानून का मसौदा तैयार करने के लिए उन्होंने जिनपर भरोसा जताया वे बाबू बजरंग सहाय थे। बाबू बजरंग सहाय ने अपना पूरा समय जमींदारी उन्मूलन पर कानून का मसौदा तैयार करने में लगाया। सारे देश में बिहार इस मामले में अग्रणी रहा। राज्यों के राजस्व मंत्री को संबोधित अपने पत्र में इस तथ्य को स्वीकारते हुए अखिल भारतीय काँग्रेस कमिटी के स्थायी सचिव सादिक अली ने लिखा- 'जमींदारी उन्मूलन के प्रश्न पर राजस्व मंत्रियों में केवल कृष्ण बल्लभ सहाय ही हैं जिन्होंने त्वरित जवाब दिया है कि बिहार प्रांत इस दिशा में प्रयासरत है। सादिक़ अली को 14 अक्टूबर 1946 लिखे पत्र में कृष्ण बल्लभ सहाय ने पुनः सूचित किया कि -'प्रांतीय सरकार ने न केवल जमींदारी प्रथा के उन्मूलन के लिए एक ज्ञापन तैयार किया है, वरन इसका सम्पूर्ण विवरण की प्रति भी तय कर ली है, जिसकी मैं आपको जल्द ही भेजूंगा'

29 अक्टूबर 1946 को सादिक़ अली को संबोधित अपने पत्र के. बी. सहाय ने बिहार सरकार द्वारा इस दिशा में उठाए गए कदम की चर्चा करते हुए उन्हें बताया कि -'जमींदारी उन्मूलन की योजना तैयार की जा रही है। सरकार ने राज्य और जोतने वाले के बीच के बिचौलियों को हटाने के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया है। एक ओर जहां बिहार सरकार जमींदारी उन्मूलन कानून बनाने की दिशा में इतनी आगे बढ़ चुकी ही वहीं सादिक अली के इसी पत्र के जवाब में, मध्य प्रांत एवं बरार और मद्रास प्रांत ने सूचित किया था कि राज्य सरकार को इस मामले में निर्णय लेना बाकी है। बंबई के तात्कालिक राजस्व मंत्री मोरारजी देसाई ने सूचित किया कि जमींदारी उन्मूलन के प्रस्ताव पर उन्होंने वैज्ञानिक विशेषज्ञों से परामर्श करने का प्रस्ताव रखा है।

के. बी. सहाय ने अखिल भारतीय काँग्रेस कमिटी के सचिव को पुनः यह भी सूचित किया कि 'बिहार सरकार दो विधेयक पेश करने के बारे में पहल कर रही है- पहले का उद्देश्य सरकार द्वारा निजी सम्पदा का अधिग्रहण कर इनका प्रबंधन अपने नियंत्रण में लेना है और दूसरे का उद्देश्य जमींदारी उन्मूलन है'। बिहार सरकार के प्रचार अधिकारी ने अखिल भारतीय काँग्रेस कमिटी को सूचित किया कि हजारीबाग के वकील श्री बजरंग सहाय को जमींदारी उन्मूलन विधेयक का मसौदा तैयार करने के लिए विशेष अधिकारी के तौर पर नियुक्त किया गया है।

बजरंग सहाय और के. बी. सहाय के संयुक्त प्रयासों की सूचना जब जमींदारों तक पहुंची तो उनमें हड़कंप मच गया। वे पुनः कुचक्र रचने में लग गए। इस क्रम में उन्होंने जिला कांग्रेस के अध्यक्ष बाबू राम नारायण सिंह के माध्यम से अखिल भारतीय काँग्रेस कमिटी के तात्कालिक अध्यक्ष जीवतराम भगवानदास कृपलानी को शिकायतें भेजीं। बाबू राम नारायण सिंह को इस बात का मलाल था कि श्रीकृष्ण सिन्हा ने उन्हें अपने मंत्रालय में शामिल नहीं किया था और दूसरे बजरंग बाबू ने इस मुद्दे पर कृष्ण बल्लभ बाबू के पक्ष में डॉ राजेंद्र प्रसाद को खत लिखा था। इन विरोधी ताकतों के लिए बाबू राम नारायण सिंह आसान लक्ष्य बन गए। जीवतराम भगवानदास कृपलानी को प्रेषित 21 शिकायतों के पुलिंदे में एक आरोप यह भी था कि के. बी. सहाय अनावश्यक रूप से विभिन्न सरकारी जिम्मेवारियों में बजरंग सहाय की पात्रता का समर्थन करते रहे हैं। बतौर उदाहरण उन्होंने पिछली कांग्रेस शासन (1937-1939) के दौरान उनकी नियुक्ति का मुद्दा उठाया और आरोप लगाया कि उक्त नियुक्ति सभी नियमों और मानदंडों का उल्लंघन करके की गई थी। दिलचस्प बात यह थी कि 1946 में के. बी. सहाय द्वारा बजरंग सहाय को जमींदारी उन्मूलन पर उक्त विधेयक का मसौदा तैयार करने की जिम्मेदारी सौंपने के निर्णय को 1937-1939 के लिए गए निर्णय के आधार पर चुनौती दी जा रही थी। जमींदार लॉबी की मंशा थी कि इस षड्यंत्र द्वारा किसी भी प्रकार यदि बजरंग सहाय को जमींदारी उन्मूलन कानून का मसौदा तैयार करने के कार्यभार से हटा दिया जाये तो के. बी. सहाय पंगु हो जाएंगें और यह कार्य फौरी तौर ठहर जाएगा।  

2 जुलाई 1947 को अपने जवाब में के. बी. सहाय ने सभी आरोपों का खंडन किया और जे. बी. कृपलानी को विस्तृत जांच करने के लिए आमंत्रित किया। उन्होंने अपने विरोधियों को चुनौती दी कि या तो वे आरोप साबित करें या राजनीति छोड़ दें। खुदपर आरोप साबित होने पर कृष्ण बल्लभ बाबू ने राजनीति छोड़ने की भी पेशकश की। जमींदारी उन्मूलन विधेयक का मसौदा तैयार करने के लिए बाबू बजरंग सहाय की सेवा लेने संबंधी आरोप पर बोलते हुए के. बी. सहाय ने स्पष्ट रूप से कहा कि - 'बीसवां आरोप यह है कि मैंने बाबू बजरंग सहाय को सरकारी वकील नियुक्त किया था। 1937 के मंत्रालय के दौरान बाबू बजरंग सहाय को वास्तव में सरकारी वकील नियुक्त किया गया था। लेकिन नियुक्ति नियम के खिलाफ नहीं की गई थी। आज भी मंत्रालय की बैठक में उपस्थित मंत्रियों की पूर्ण सहमति से जमींदारी उन्मूलन विधेयक का मसौदा तैयार करने के लिए बजरंग सहाय को नियुक्त किया गया है। उनकी सेवाएं अब समाप्त कर दी गई हैं क्योंकि उन्हें केवल 6 महीने के लिए नियुक्त किया गया था। 6 महीने के अतिरिक्त उन्हें सरकारी वकील का कोई पद नहीं दिया गया है। यह विवाद भी यहीं थम गया।

जमींदारों के विरुद्ध संघर्ष में बाबू बजरंग सहाय चट्टान की भांति कृष्ण बल्लभ बाबू के साथ खड़े रहे। चाहे वो जमींदारी उन्मूलन का विधेयक रहा हो अथवा वन अधिग्रहण विधेयक रहा हो अथवा फिर जमींदारों द्वारा दायर विभिन्न मुकदमों में न्यायालय में सरकार का पक्ष रखना रहा हो- बजरंग बाबू का साथ और समर्थन कृष्ण बल्लभ बाबू को सदैव मिलता रहा। जमींदार लॉबी द्वारा उनपर व्यक्तिगत रूप से एवं उनकी सरकार के खिलाफ किसी भी प्रकार के मुकदमों की तमाम धमकियों से यदि के. बी. सहाय विचलित नहीं हुए तो इसकी बड़ी वजह यही थी कि उन्हें बजरंग सहाय का शर्तविहीन सम्पूर्ण सहयोग प्राप्त था। कृष्ण बल्लभ बाबू को बाबू बजरंग सहाय की क्षमताओं पर अत्यधिक विश्वास था। कृष्ण बल्लभ सहाय के लिए बाबू बजरंग सहाय सिर्फ एक दोस्त ही न थे अपितु वे उन्हें अपने बड़े भाई की तरह परिवार का करीबी सदस्य मानते थे। बजरंग सहाय की उपस्थिति ने के. बी. सहाय को न केवल जमींदारों का सामना करने के लिए मनोवैज्ञानिक शक्ति प्रदान की वरन जीवनपर्यंत उनका डटकर मुक़ाबला करते रहने का साहस भी प्रदान किया। बजरंग सहाय एवं कृष्ण बल्लभ बाबू की मेधा का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यह उनके द्वारा रचित जमींदारी उन्मूलन कानून का वह मसौदा ही था जिसने वक़्त की पहियों को मोड़ते हुए इसे कानून सम्मत बनाने के लिए केंद्र सरकार को मजबूर होकर अंततः भारतीय संविधान में पहला संशोधन लाना पड़ा। यह एक कालजयी निर्णय था जिसके प्रणेता बाबू बजरंग सहाय और कृष्ण बल्लभ सहाय थे- इन दोनों की प्रतिभा का इससे बेहतर अभिस्वीकृति और क्या हो सकती है कि मात्र 43 धाराओं में सिमटे इस विधेयक ने देश के संवैधानिक विकास में एक नया इतिहास रच डाला। ये दोनों युग पुरुष थे और सही मायने में किसानों के हितैषी। इस ऐतिहासिक मुकाम पर पहुँचने के लिए उन्होंने कितना संघर्ष किया होगा इसका अंदाज़ा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि दोनों ही ने जीवन की बहुत ही साधारण शुरुआत की थी चूंकि ये सामान्य किसान परिवारों से आते थे, दोनों ही ने अपने भविष्य गढ़ने के क्रम में तमाम संघर्षों का सामना किया और फिर अपने उज्ज्वल भविष्य का बलिदान देते हुए स्वतन्त्रता संग्राम में कूद पड़े और जब स्वतन्त्रता मिली तब दोनों ही ने ज़िंदादिली से एक मजबूत सामंती समाज को चुनौती देते हुए अंततः उस पर विजय हासिल की। इस संघर्ष में उनका एकमात्र हथियार कलम था जिसे 'कायस्थों' का परंपरागत हथियार माना जाता है। इन दोनों का जीवनवृत इस बात का साक्षी है कि एक आम आदमी यदि ठान ले तो वह समाज में बदलाव लाने में सक्षम है। आज जब हम स्वतन्त्रता के 75 वर्ष के उपलक्ष्य में आज़ादी का अमृतोत्सव के तहत आज़ादी के गुमनाम सिपाहियों को याद कर रहे हैं तो यही वह समय है कि एक कृतज्ञ राष्ट्र कृष्ण बल्लभ सहाय और बाबू बजरंग सहाय को उनके योगदान के लिए उचित सम्मान नवाज़े।

18 दिसंबर 1968 को बाबू बजरंग सहाय इस फ़ानी दुनिया को छोड़कर चले गए। बजरंग बाबू का जाना कृष्ण बल्लभ बाबू के लिए एक अपूर्णनीय क्षति थी। बजरंग सहाय जीवनपर्यंत उनके मित्र, हितैषी और मार्गदर्शक रहे थे। छोटानागपुर क्षेत्र में कृष्ण बल्लभ बाबू और बाबू बजरंग सहाय के परस्पर सौहार्दपूर्ण सम्बन्धों को आज भी याद किया जाता है।

(स्रोत: (i) राष्ट्रीय अभिलेखागार, नई दिल्ली में संग्रहीत 'पाक्षिक गोपनीय रिपोर्ट'; (ii) स्थायी सचिव, एआईसीसी द्वारा प्रांतीय सरकार के साथ पत्राचार, राष्ट्रीय अभिलेखागार, नई दिल्ली में उपलब्ध, (iii) बिहार विधानसभा वाद-विवाद (iv) ) 'संक्रमण में एक पीढ़ी को संबोधित करना- बाबू ब्रजा किशोर प्रसाद के अध्यक्षीय भाषण, बिहारी छात्र सम्मेलन, छपरा, 1911 (v) बजरंग सहाय की बिहार में स्वतंत्रता आंदोलन की मेरी यादें (vi डॉ प्रदीप सहाय के संस्मरण)

 

 

 

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