Thursday, 1 July 2021

‘हमारी विरासत, हमारी धरोहर’:19: बिधान चन्द्र रॉय और कृष्ण बल्लभ सहाय (01/07/2021)

 



आजादी के बाद राज्यों के पुनर्गठन का मुद्दा एक अहम मुद्दा बन कर उभरा। देश के विभाजन के बाद पंजाब और बंगाल का एक बड़ा हिस्सा क्रमश: पाकिस्तान और पूर्वी पाकिस्तान में चला गया। इसका परिणाम यह हुआ कि बंगाल और पंजाब दोनों ही प्रान्तों के पुनर्गठन का मुद्दा इन प्रान्तों के नेतृत्व ने केंद्रीय नेतृत्व के समक्ष ज़ोर-शोर से रखा। उनके तर्क में दम भी था और खंडित बंगाल और पंजाब के घायल स्वाभिमान पर मरहम लगाना वक़्त की मांग भी थी। देश के विभाजन के बाद बंगाल के तात्कालिक प्रधानमंत्री हुसेन शहीद सुहरावर्दी भी पाकिस्तान चले गए और बंगाल की कमान प्रफुल्ल चंद्र घोष को सौंपी गयी जो 15 अगस्त 1947 से 22 जनवरी 1948 तक इस पद पर रहे। 23 जनवरी 1948 को डॉ बिधान चन्द्र रॉय ने बंगाल के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली और इस पद पर मृत्युपर्यंत यानि 1 जुलाई 1962 तक बने रहे।

बंगाल के मुख्यमंत्री पद का पदभार ग्रहण करने के तुरंत बाद ही डॉ रॉय ने केंद्रीय नेतृत्व के समक्ष बंगाल के पुनर्गठन का मुद्दा उठाया और बिहार के कई बंगाली भाषी क्षेत्रों का बंगाल में विलय का दावा कर दिया। बिहार के नेतृत्व के समक्ष एक बार पुनः 1938 वाली स्थिति उत्पन्न हो गयी। तब डॉ सच्चिदानंद सिन्हा बंगाल-बिहार मुद्दे को शांत करने में सफल रहे थे। डॉ बिधान चंद्र रॉय के नेतृत्व में बंगाल के इस दावे ने उन्हें कृष्ण बल्लभ बाबू के आमने सामने ला खड़ा किया। यह दिलचस्प है कि डॉ बिधान चंद्र रॉय और कृष्ण बल्लभ सहाय दोनों ही कायस्थ जाति से थे जिसे अपनी अव्वल बुद्धि के लिए जाना जाता है। यह भी विधि का विधान ही था कि डॉ बिधान चन्द्र रॉय और कृष्ण बल्लभ बाबू दोनों की ही जन्मस्थली बिहार का पटना ज़िला है- डॉ रॉय का जन्म बांकीपुर में हुआ था जबकि कृष्ण बल्लभ बाबू शेखपुरा की पैदाइश हैं। किन्तु डॉ रॉय के इस प्रस्ताव का कि बिहार के कतिपय बंगाली भाषी क्षेत्रों का बंगाल में विलय कर दिया जाये का सबसे पुरजोर विरोध डॉ सच्चिदानंद सिन्हा के इस प्रिय शिष्य कृष्ण बल्लभ बाबू ने ही किया और बिहार सरकार की ओर से कमान संभाला। के. बी. सहाय एक राष्ट्रवादी और सख्त प्रशासक थे। भाषाई आधार पर सूबे के गठन के वे सख्त खिलाफ थे। व्यापक राष्ट्रहित में जहां तक संभव था वे सभी प्रस्तावों को समायोजित करने के लिए तैयार थे, बशर्ते इस प्रक्रिया में बिहार राज्य के हितों से समझौता न किया गया हो।  

26 मई 1948 में भाषाई आधार पर राज्यों के सीमांकन का मुद्दा जब बिहार विधान सभा में चर्चा के लिए आया तब कृष्ण बल्लभ सहाय ने बिहार सूबे के कुछ हिस्से का बंगाल में विलय के प्रस्ताव का खुलकर विरोध करते हुए बिहार सरकार का पक्ष यों रखा-"सर, सरकार का ध्यान 20 मई, 1948 को एसोसिएटेड प्रेस ऑफ इंडिया, कलकत्ता के सौजन्य से प्रेषित उस संदेश की ओर आकृष्ट हुआ है जिसे स्थानीय अँग्रेजी दैनिक अखबारों ने 21 मई के संस्करण में प्रमुखता से छापा है। इस संदेश में कहा गया है कि पश्चिम बंगाल की डॉ बिधान चंद्र रॉय की सरकार ने भाषाई आधार पर बंगाल से सटे बिहार के कतिपय जिलों को पश्चिम बंगाल में शामिल करने के लिए भारत सरकार को एक ज्ञापन दिया है। पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री डॉ बी. सी. रॉय के हवाले से यह भी कहा गया है कि उन्होंने अपने मंत्रिमंडल के अनुरोध पर यह अभ्यावेदन दिया है जो अब केंद्र सरकार के विचाराधीन है। बिहार सूबे की प्रांतीय सरकार ने पश्चिम बंगाल के इस कदम के खिलाफ कड़ा विरोध दर्ज करने का फैसला किया है। यदि भारत सरकार बिहार और पश्चिम बंगाल की प्रांतीय सीमाओं के पुनर्वितरण के प्रश्न की जांच करने का निर्णय लेती है, तो प्रांतीय सरकार पश्चिम बंगाल के उन क्षेत्रों पर अपना दावा पेश करेगी जो भाषा, संस्कृति और संस्कृति की समानता के कारण बिहार में शामिल नहीं किए गए हैं। यदि राज्यों का पुनर्गठन भाषाई आधार पर ही होना है तो बिहार सरकार बंगाल के उन क्षेत्रों में जहां रहने वाले लोगों की जाति, भाषा और संस्कृति बिहारी है का बिहार में विलय के लिए प्रस्ताव लाएगी। सरकार को मानभूम और सिंहभूम के बाशिंदों से ऐसे स्मारपत्र मिले हैं जिनमें कहा गया है कि वे हिन्दी भाषा सीखना चाहते हैं और बिहार में बने रहना चाहते हैं। बिहार सरकार भी यह मानती है कि ये क्षेत्र हिन्दी भाषी है और हिंदी इन क्षेत्रों के लोगों की राज्य भाषा है और इन क्षेत्रों के लोगों को हिंदी सीखने की पूरी सुविधा मिलनी चाहिए। सरकार भारतीय संघ की किसी अन्य सरकार को बिहार क्षेत्र का एक इंच भी नहीं देगी। सरकार पश्चिम बंगाल के उस हिस्से पर दावा करने के लिए पहले से ही एक ज्ञापन तैयार कर रही है जो बिहार को वैध रूप से बिहार का हिस्सा होना चाहिए। हम सोचते हैं कि हर बंगाली बिहार का नागरिक है। हम बंगाली या उड़िया या कोई अन्य भाषा बोलने के कारण कोई भेद नहीं करते हैं। मैं सदस्यों को विश्वास दिलाता हूं कि हालांकि पश्चिम बंगाल सरकार द्वारा भारत सरकार को दिया गया ज्ञापन मेरे हाथ में नहीं है, फिर भी हम पूर्णिया को कभी भी पश्चिम बंगाल का हिस्सा नहीं बनने देंगे। जब भारत सरकार प्रांतों के पुनर्वितरण का निर्णय लेती है, तो हम अपना विरोध दर्ज कराएंगे और बंगाल के उन क्षेत्रों पर भी अपना दावा करेंगे, जिनके लिए प्रांतीय सरकार एक ज्ञापन तैयार कर रही है        

के. बी. सहाय का बिहार के प्रति गहरा प्रेम बिहार और बंगाल में भाषाई आंदोलन के दौरान शानदार ढंग से सामने आया। 1955 डॉ बी.सी. रॉय कांग्रेस आलाकमान से मानभूम और पूर्णिया जिले के विभाजन और पुरुलिया और किशनगंज क्षेत्र का बंगाल में विलय की मंजूरी पाने में सफल रहे। पूरा बिहार घोर आक्रोश से भर गया। के. बी. सहाय ने मोर्चा संभाला और कांग्रेस आलाकमान के गुस्से और अपने खिलाफ संभावित कारवाई की परवाह न करते हुए बिहार के दावे की अनदेखी करने के लिए केन्द्रीय सरकार के खिलाफ ही मोर्चा खोल दिया। के. बी. सहाय का संगठनात्मक कौशल और उनकी उग्र नेतृत्व शैली तब सामने आई जब उन्होंने बिहार के सभी राजनीतिक दलों के एकजुट प्रयासों को एक ठोस विपक्षी गुट में जोड़ा जिसने कांग्रेस आलाकमान को उनके तर्क पर ध्यान देने के लिए मजबूर किया। जब यह मामला भारत सरकार के साथ चर्चा के लिए आया, तो के. बी. सहाय ने सिंहभूम , मानभूम और पूर्णिया जिलों के पश्चिम बंगाल में विलय का मुखर विरोध किया  यह उनके धैर्य और दृढ़ संकल्प का परिणाम था कि ये तीन जिले बिहार में बने रहे, हालांकि पूर्णिया से सिलीगुड़ी और दार्जिलिंग और मानभूम से पुरुलिया के क्षेत्रों का एक हिस्सा पश्चिम बंगाल में चला गया। मानभूम ज़िले का जो हिस्सा बिहार में रहा वही आज धनबाद ज़िला कहलाता है।  

एक नेता के रूप में, के. बी. सहाय का दृष्टिकोण बहुत व्यापक था। उन्होंने कभी भी भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन का समर्थन नहीं किया। उनका मानना ​​​​था कि इस तरह के निर्णय से राष्ट्रवादी उत्साह कमजोर होगा और इसके परिणाम स्वरूप उप-राष्ट्रवाद जनित प्रवृत्तियाँ प्रबल होगीं। लोग भारतीय के बजाय बंगाली, गुजराती, मराठी या तमिल कहलाने में गर्व महसूस करेंगे। स्वतंत्रता के बाद के भारत में उनकी भविष्यवाणी सही साबित हुई जहां भाषाई आधार पर यह देश कई संघर्षों का साक्षी रहा है- मराठी और द्रविड़ के बीच का संघर्ष, हिंदी भाषी उत्तर भारतीय राज्यों और दक्षिण भारत के द्रविड़ भाषा-आधारित राज्यों के बीच संघर्ष या फिर बिहार और उत्तर-प्रदेश के बिहारी भैया और महाराष्ट्र के शिवसैनिकों के बीच। प्रांतीयता की भावना एक समग्र और मजबूत राष्ट्रवाद के आड़े आता रहा है।

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