अब्दुल कय्यूम अंसारी (1 जनवरी 1905- 18 जनवरी 1973) |
कृष्ण बल्लभ सहाय (31 दिसंबर 1898- 3 जून 1974) |
‘फ़क्र-ए-क़ौम’ अब्दुल कय्यूम अंसारी स्वतन्त्रता
संग्राम के रौशन सितारों में से एक थे। इनका जन्म 1 जुलाई 1905 देहरी-ऑन-सोन में
एक संभ्रांत परिवार में हुआ और इनकी शिक्षा-दीक्षा देहरी और
सासाराम में हुई। बाद में उच्च शिक्षा के लिए इन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम
विश्वविद्यालय में दाखिला लिया। इसी समय महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन का आह्वान
किया और अब्दुल कय्यूम अंसारी अपनी शिक्षा की तिलांजलि दे मात्र सोलह वर्ष की उम्र
में इस स्वतन्त्रता समर में कूद पड़े। मुस्लिम समाज की दशा सुधारने के लिए ये साक्षरता
के प्रसार के हिमायती थे। देश की कुल मुस्लिम आबादी का आधा हिस्सा मोमिनों का था। अतः मोमिनों के उत्थान के लिए अब्दुल अंसारी ने
‘मोमिन मूवमेंट’ की शुरूआत की। ‘अखिल भारतीय मोमिन कान्फ्रेंस’ की स्थापना कर
मोमिनों का रुख हिन्दू-मुस्लिम वैमनष्य से हटाकर सामाजिक उत्थान की ओर किया।
इन्हीं दिनों इन्होंने दो राष्ट्रवादी समाचार पत्रों का सम्पादन भी शुरू किया- ‘अल-इसलाह’ जो साप्ताहिक उर्दू पत्र था और दूसरा
प्रकाशन ‘मुसवत’ जो एक मासिक उर्दू पत्रिका थी।
जल्द
ही अब्दुल कय्यूम अंसारी साहब मोमिनों के सबसे प्रभावशाली नेता बनकर उभरे। ब्रिटिश
और मुस्लिम लीग की ‘फूट डालो और राज करो’ के सिद्धान्त के ये कट्टर विरोधी थे और इन फिरकापरस्त ताकतों को जवाब
देने के लिए ही इन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर ‘मोमिन मूवमेंट’ शुरू किया जो पसमानदा मूवमेंट (1920-1947) से उभर कर मुस्लिम संप्रदाय
में काफी लोकप्रिय हुआ। इनकी असीम लोकप्रियता मुस्लिम लीग के नेताओं के लिए
परेशानी का सबब बन गया था। अब्दुल कय्यूम अंसारी धर्मनिरपेक्षता के प्रबल पैरोकार
थे जिस वजह से मुस्लिम लीग के नेता सशंकित रहते थे और इस्लाम के प्रति इनकी
वफादारी पर प्रश्न चिह्न लगाने की कोशिश करते थे। किन्तु इससे अब्दुल कय्यूम
अंसारी की लोकप्रियता में कोई कमी नहीं आई। इसी धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण ने इन्हें काँग्रेस
और कृष्ण बल्लभ सहाय के करीब लाया। अब्दुल कय्यूम अंसारी साहब पख्तून के ‘फ़्रंटियर गांधी’ खुदाई ख़िदमतगार खान अब्दुल गफ्फार
खान, सिंध के अल्लाहबख्श और बलोचिस्तान के ‘बलोच गांधी’ अब्दुल समद खान जैसे नेताओं के समकक्ष
थे जिनका जीवन मुस्लिम लीग की सांप्रदायिक राजनीति और उसके द्वारा प्रतिपादित द्विराष्ट्रीय
सिद्धान्त का विरोध करते बीता किन्तु ऐन वक़्त जब काँग्रेस का अग्रणी नेतृत्व भी
विभाजन के लिए सहमत हो गया तब मुस्लिम नेताओं का यह जमात अपने आप को ठगा सा महसूस
किया- ‘जब पड़ा वक़्त गुलिस्ताँ पे तो खूं हमने दिया, जब बहार आई तो कहते हैं, तेरा काम नहीं’।
अपने
धर्मनेरपक्ष दृष्टिकोण की वजह से अब्दुल कय्यूम अंसारी सदा मुस्लिम लीग नेताओं के
व्यंग-बाणों के निशाने पर रहते थे। ऐसे वक़्त में कृष्ण बल्लभ बाबू हमेशा इनके पक्ष
में खड़े दिखते थे। यह बहस आजादी से पहले की है जब श्रीकृष्ण
सिन्हा के नेतृत्व में बिहार में 1946 में दूसरी काँग्रेस सरकार का गठन हुआ था। सदन
में मुस्लिम लीग मेंबर मोहम्मद अली जिन्ना के 'टू नेशन थ्योरी' के पक्ष में जोर-शोर
से बहस कर रहे थे। मुस्लिम लीग के नेता और जमींदार सैय्यद अमीन अहमद उदारवादी मुस्लिम
नेता अब्दुल कय्यूम अंसारी से खासे खफ़ा थे। उनकी ओर इशारा करते हुए सैय्यद अमीन
अहमद ने उन जैसे मुस्लिमों की तूलना पत्थर से करते हुए कहा कि ऐसे मुस्लिम
संवेदनहीन रहते हुए और काँग्रेस का पक्ष लेकर अपने कौम के साथ दगा कर रहे हैं। के.
बी. सहाय के लिए यह आक्षेप असह्य था। 30 मई 1946 को सदन में अपने जवाबी भाषण में
उन्होंने मुस्लिम लीग और मोहम्मद अली जिन्ना के द्वि-राष्ट्र सिद्धांत को आड़े हाथ
लेते हुए अब्दुल कय्यूम अंसारी का जोरदार बचाव किया। उनका जवाब सैय्यद अमीन अहमद
जैसी फिरकापरस्त ताकतों के लिए एक करारा जवाब था, जिनके
आक्षेप राष्ट्र की एकता और अखंडता पर भारी खतरा का सबब बने हुए थे। के. बी. सहाय
अपने लहजे और तेवर में काफी कठोर थे – "सर, मैं अपने मित्र श्री सैयद अमीन अहमद द्वारा की गई एक टिप्पणी का उल्लेख
करना चाहूंगा। उन्होंने कहा कि माननीय श्री अब्दुल
कय्यूम अंसारी एक पत्थर की तरह अपने कौम के प्रति संवेदनहीन हैं। मैं कहूंगा कि यह
गटर की भाषा है। अमीन अहमद की भाषा और व्यवहार से बरबस ड्राइडन
की याद आती है जिसने अपनी एक रचना में एक ऐसे बहुरूपिये का उल्लेख किया था जो चंद्रमा
के एक ही आवर्तन में एक शातिर वकील, एक चतुर राजनीतिज्ञ और भांड
तीनों ही स्वरूप में स्वयं को ढाल लेता है। अमीन अहमद एक साथ काबिल नागरिक,
मोअज़्ज़िन और योग्य राजनीतिज्ञ होने का ढोंग करते हैं किन्तु ये सब
उनके बहुरूपिये वाले रूप हैं और हकीकत में वे इनमें से कोई भी नहीं हैं। इसलिए माननीय
श्री अंसारी को पत्थर कहने के लिए मैं उन्हें क्षमा करता हूं। हीरा भी एक पत्थर ही
होता है किन्तु उसकी कद्र और कीमत एक जौहरी ही जानता है। कौम को उनपर फ़क्र है। श्रीमान अब्दुल कय्यूम अंसारी हमारे ताज का हीरा हैं जिनकी कद्र और
कीमत की पहचान अमीन अहमद और सामने बैठे उनके अन्य लोगों को नहीं है। तो,
महोदय, मुस्लिम लीग ऐसी पार्टी नहीं है जिसमें
मेरे मित्र माननीय श्री अब्दुल कय्यूम अंसारी का आकलन किया जा सके’।
अपने भाषण में के. बी. सहाय ने सांप्रदायिकता की कुछ प्रमुख
विशेषताओं पर प्रकाश डाला जो समाज को विभाजित करने में मदद करता है। एक सांप्रदायिक व्यक्ति (इस बहस में सैयद अहमद
अमीन) तर्क और तर्क आधारित बहस कभी नहीं करता। सांप्रदायिक
ताकतों के पास समुदाय के विकास और उत्थान के लिए कोई दृष्टि नहीं होती। इसलिए वह
अधिक महत्व के मुद्दों- रोटी, कपड़ा और मकान से समुदाय का ध्यान हटाने
के लिए सांप्रदायिक कार्ड खेलता है। ये सांप्रदायिक
ताक़तें अपने विरोधियों को प्रबुद्ध चर्चा के माध्यम से नहीं वरन उनका चरित्र हनन कर
उन्हें नीचा दिखाने की कोशिश करती है। आजकल की प्रचलित भाषा में इसे 'ट्रोलिंग' कह सकते हैं। विभाजन के समय मुस्लिम लीग
यही करता था। सांप्रदायिक ताक़तें 'मज़हब (धर्म) को राजनीतिक सत्ता पर काबिज होने और उसे नियंत्रित करने के लिए एक अस्त्र
के रूप में इस्तेमाल करता है जिसे आजकल की भाषा में 'मज़हब की सियासत
दुकानदारी' कह सकते हैं। के. बी. सहाय का भाषण आज भी
प्रासंगिक है। यही वजह रही कि विभाजन के दंगों के समय महात्मा
गांधी ने पुनर्वास कार्यों की देख-रेख के लिए जब डॉ सैयद महमूद के नाम का प्रस्ताव
किया तब 1 अप्रैल 1947 को पत्र लिखकर कृष्ण बल्लभ बाबू ने डॉ राजेंद्र प्रसाद को
सूचित किया कि माननीय सरदार वल्लभ भाई पटेल ने इस कार्य के लिए माननीय अब्दुल
कय्यूम अंसारी को ज़िम्मेदारी सौंपी है जिसे राज्य सरकार ने भी स्वीकार कर लिया है।
अतः पूज्य बापू को राज्य सरकार के इस निर्णय से अवगत करा दिया जाये।
1946
में श्रीकृष्ण सिन्हा ने अब्दुल कय्यूम अंसारी को अपने मंत्रिमंडल में मंत्री बनाया।
अगले सत्रह साल अब्दुल कय्यूम अंसारी बिहार सरकार में मंत्री रहे। स्वतन्त्रता के
बाद इन्होंने मोमिन कान्फ्रेंस का काँग्रेस में विलय कर दिया जो मुस्लिम लीग के
तात्कालिक नेतृत्व को काफी नागवार लगा था। 1948 में इन्होंने हैदराबाद के रजाकारों
के खिलाफ मुस्लिमों खासकर मोमिनों को तैयार किया। वे पहले ऐसे नेता थे जिन्होंने
पाक अधिकृत कश्मीर के लिए पाकिस्तान की भर्त्सना की और 1957 में पाक अधिकृत कश्मीर
को छुड़ाने के लिए कश्मीर के मुस्लिम युवाओं को ‘इंडियन
मुस्लिम कश्मीर यूथ फ्रंट’ के झंडे तले एकत्रित कर भारत
सरकार के प्रयासों में सहयोग किया। 1953 में भारत सरकार द्वारा पिछड़े वर्गों के
सामाजिक एवं आर्थिक उत्थान के लिए गठित ‘अखिल भारतीय पिछड़ा
वर्ग आयोग’ के ये सदस्य बने। जीवन पर्यंत ये पिछड़े वर्ग के
आर्थिक सामाजिक उत्थान के लिए कार्यरत रहे।
कृष्ण
बल्लभ सहाय के मंत्रिमंडल में ये स्वास्थ्य और कारा विभाग के मंत्री थे। साठ के
दशक में भी के. बी. सहाय सांप्रदायिकता के उसी मुद्दे
से उलझे थे जो विभाजन के समय था। किशनगंज से स्वतंत्र पार्टी के मोहम्मद हुसैन
आजाद ने यह मुद्दा उठाया कि कांग्रेस मुसलमानों के कल्याण पर पर्याप्त ध्यान नहीं
दे रही है और उनका सारा ध्यान अपने मुट्ठी भर दोस्तों और भरोसेमंद सहयोगियों (यथा अब्दुल
कय्यूम अंसारी) तक ही सीमित था और उनके जैसे मुसलमान, जो विपक्ष में हैं, पर इनका
ध्यान (तुष्टिकरण पढ़ें) नहीं जाता। के. बी. सहाय ने पलटवार करते हुए कहा कि ' सामान्य तौर पर मुसलमानों को कांग्रेस पर विश्वास है क्योंकि हमने बिहार में दंगों को प्रभावी ढंग
से नियंत्रित किया, भले ही कलकत्ता और पाकिस्तान में गड़बड़ी
की सूचना मिली हो। मैं अपने मुस्लिम भाइयों को विश्वास
दिलाता हूं कि हम उनसे सूबे के अन्य नागरिकों जैसा ही न्यायपरक सुलूक करते हैं और मेरा
प्रशासन उन्हें सभी मामलों में
उचित अवसर प्रदान करता है’। एक उर्दू शेर बोलते हुए उन्होंने अपने बयान को सारांशित किया- ‘'इश्क के गोले बनाकर बाज़ पर फेंका करूँ, तुम मुझे देखो न देखो, मैं तुम्हें देखा करूँ'। सदन ने
काव्यात्मक तरीके से व्यक्त किए गए शेर में छिपे तथ्य की सराहना की। के.बी. सहाय ने सांप्रदायिकता को दूर रखने के
लिए अपनी बुद्धि और बुद्धिमत्ता का इस्तेमाल किया और सांप्रदायिक ताकतों का डटकर
मुक़ाबला किया। राजनीतिक लाभ के लिए न कभी तुष्टीकरण का सहारा लिया और न ही
सांप्रदायिक ताकतों की मदद ली।
एक दूसरा वाकया है जब विपक्ष ने मंत्रिमंडल के दो मंत्री-अब्दुल
कय्यूम अंसारी और जाफ़र इमाम की कर्तव्यनिष्ठा पर प्रश्न उठा दिया। कृष्ण बल्लभ
बाबू को यह बहुत नागवार गुजरा। 27 अगस्त
1965 को सदन में दिये अपने भाषण में सांप्रदायिक तत्वों को चेताते हुए कृष्ण बल्लभ
बाबू ने उन्हें सचेत किया कि इस तरह के चरित्र हनन के प्रयास को वे बर्दाश्त नहीं
करेंगें- ‘अध्यक्ष महोदय, मैं समझता हूँ कि जो माननीय सदस्य इस तरह का नारा लगाते हैं कि
मंत्रिमंडल में पाकिस्तानी हैं उनसे मैं कहना चाहता हूँ कि मंत्रिमंडल का संयुक्त
दायित्व होता है और यह एक संस्था है जो मुख्यमंत्री से व्यवस्थित है। मुख्यमंत्री
का कर्तव्य होता है कि वे हर महकमे पर नज़र रखें और सुनिश्चित करें कि प्रत्येक
महकमा ठीक से काम करे और उनके बीच बेहतर समन्वय संपर्क रहे। मंत्रिमंडल की भी यही
जिम्मेवारी है। मैंने श्री अब्दुल क्यूम अंसारी साहब के साथ काम किया है और उनकी
कर्तव्यनिष्ठा पर प्रश्न करना ओछी राजनीति है। मैं ज़ोर देकर कहना चाहता हूँ कि अगर
आपका इशारा जाफ़र इमाम साहब की तरफ है तो यह बिलकुल गलत है। अध्यक्ष महोदय, जब भारत का संविधान बन रहा था उस वक़्त मुसलमानों के लिए अलग मताधिकार की
चर्चा चल रही थी। स्वर्गीय पटेल साहब ने जाफ़र इमाम साहब को बुलाया था और पूछा था
कि आप क्या चाहते हैं, अलग मताधिकार (सेपरेट एलेक्टोरेट) या
सम्मिलित मताधिकार (जाइंट एलेक्टोरेट) चाहते हैं। जाफ़र इमाम साहब ने कहा था, हमें हिंदुस्तान में रहना है, इसलिए हमें अलग
मताधिकार नहीं चाहिए। मैं कहूँगा कि मुसलमान मिनिस्टर के बारे में ऐसा आरोप लगाना
गलत है और जितने मुसलमान हैं, उन्हें आप कहें कि वे
पाकिस्तानी हैं यह भी बिलकुल गलत है। हिंदुस्तान
में हैं तो सभी हिंदुस्तानी हैं। अगर कोई कहता है कि सैकड़े 90% मुसलमान पाकिस्तानी
हैं तो यह देश हित की बात नहीं है। ऐसा कहना भी गलत है’।
‘सबका साथ, सबका विकास, सबका
विश्वास’ भी इसी मूलभूत विचारधारा पर आधारित है कि ‘जब हिंदुस्तान में हैं तब सभी हिंदुस्तानी हैं’-
जैसा कृष्ण बल्लभ बाबू साठ के दशक में कह गए थे।
देहरी-आरा
नहर में हुई क्षति से प्रभावित अपने कस्बे के बाशिंदों की मदद करने के दरम्यान 18
जनवरी 1973 को अपने ग्राम अमियावर में अब्दुल कय्यूम अंसारी का निधन हुआ। वर्ष
2005 में इनकी जन्म-जयंती के दिन भारत सरकार के डाक विभाग ने ‘फ़क्र-ए-क़ौम’ अब्दुल कय्यूम अंसारी की स्मृति में डाक
टिकट जारी किया।
साभार: बिहार विधान सभा की कार्यवाही
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