सत्येंद्र नारायण सिन्हा (12 जुलाई 1917- 4 सितंबर 2006) |
कृष्ण बल्लभ सहाय (31 दिसंबर 1898- 3 जून 1974) |
सत्येंद्र नारायण सिन्हा का जन्म 12 जुलाई 1917 को गाँव पोइवा औरंगाबाद ज़िला में अनुग्रह बाबू के घर हुआ। इन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय से कानून में की पढ़ाई पूरी की।
1942
में ये भारत छोड़ो आंदोलन से जुड़ गए। 1950 में प्रोविशनल संसद में सदस्य चुने गए।
पंडित जवाहर लाल नेहरू के सान्निध्य में इनमें नेतृत्व के गुण प्रखर हुए और अपनी
ओजस्वी भाषण शैली की वजह से ‘युवा तुर्क’ कहलाए जाने लगे।
1962
में बिनोदानंद झा ने इन्हें अपने मंत्रिमंडल में शिक्षा मंत्रालय का पदभार दिया। 1963
में कृष्ण बल्लभ बाबू ने इनके विभाग में कोई फेरबदल न करते हुए इन्हें कृषि और
स्थानीय स्वायत्त शासन की अतिरिक्त ज़िम्मेदारी सौंपी। 1961-1967 के दरम्यान बतौर
शिक्षा मंत्री सत्येंद्र नारायण सिन्हा ने बिहार में शिक्षा के उत्थान के लिए जो महती
निर्णय लिए उसकी वजह से वे आज भी एक काबिल प्रशासक के रूप में याद किए जाते हैं। 1962
में गया में मगध विश्वविद्यालय की स्थापना और 1963 में तिलैया में सैनिक स्कूल की
स्थापना इनके सतत प्रयास से ही संभव हुआ। बिहार विधान सभा में रामराज प्रसाद सिंह
एवं प्रभुनाथ तिवारी के एक प्रश्न का जवाब देते हुए अक्तूबर 1963 में सत्येंद्र
नारायण सिन्हा ने घोषणा की थी कि हजारीबाग ज़िला के तिलैया में सैनिक स्कूल कि
स्थापना का निर्णय लिया गया है। पहली मार्च को इस विद्यालय का विधिवत उदघाटन हुआ
और पहला सत्र एक जुलाई 1963 से प्रारम्भ हुआ। इनके काल में प्रारम्भिक शिक्षा के
क्षेत्र में तीसरी योजना के अंत तक 6-11 आयु वर्ग के 60 प्रतिशत बच्चे शिक्षा पा
रहे थे, जो कि तात्कालिक दौर में प्रशंसनीय था।
तात्कालिक राज्य सरकार बालिका शिक्षा के प्रति विशेष रूप से संवेदनशील थी। कृष्ण
बल्लभ बाबू के निर्देश पर सत्येन्द्र बाबू ने सूबे में प्रखण्ड स्तर तक कम-से-कम एक
बालिका विद्यालय स्थापित करने संबंधी एक महत्वाकांक्षी योजना का खाका 29 सितंबर
1966 को बिहार विधान सभा के पटल पर रखा जिसे तुरंत स्वीकृति मिल गयी। इस योजना पर
त्वरित कारवाई करते हुए अगले छ महीने में ही सूबे के प्रत्येक प्रखण्ड में एक
बालिका विद्यालय की स्थापना हुई जो एक महत्वपूर्ण कामयाबी थी। इस योजना के तहत कुल
358 बालिका विद्यालय स्थापित हुए जिनका जिलावर वितरण यों था- पटना (18), गया (27), शाहाबाद (31), सारण
(20), चंपारण (18), मुजजफ्फरपूर (14), दरभंगा (20), मुंगेर (25),
भागलपुर (8), सहरसा (17), पुर्णिया
(14), संथाल परगना (29), हजारीबाग (42), रांची (35), धनबाद (7), पलामू
(13) और सिंहभूम (20)।
कृष्ण
बल्लभ बाबू के इसी त्वरित कारवाई करने की कार्यशैली से विपक्ष भौचक रह जाता था और खीज
मिटाने के लिए विकास के इन कार्यों में तथाकथित भ्रष्टाचार के मुद्दे उठाने में ही
अपना समय जाया करता था। कृष्ण बल्लभ बाबू और सत्येंद्र नारायण सिन्हा के बीच जो तारतम्य
था विपक्ष द्वारा उसे भंग करने की भी कोशिश की गयी। इस रणनीति के तहत विपक्ष ने यह
सोचते हुए सत्येंद्र बाबू पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए गए कि कदाचित कृष्ण बल्लभ
बाबू सत्येंद्र नारायण सिन्हा को दरकिनार कर दें। किन्तु विपक्ष की यह मंशा सफल
नहीं हुई। वाकया 1964 में बिहार विधान सभा की बहस से जुड़ी है। मधुबनी पूर्व से
प्रजा समाजवादी पार्टी के नेता सूरज नारायण सिंह ने सत्येंद्र नारायण सिन्हा यानि ‘छोटे साहब’ पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगाते हुए
सरकार से वक्तव्य की मांग की। आरोप यह था कि बतौर मंत्री सत्येन्द्र् नारायण
सिन्हा ने अपना मकान ऊंचे मूल्य में जिस व्यक्ति को बेचा उसके बदले उसी शख्स के
पक्ष में कम बोली पर उन्होंने भागलपुर नौ-घाट का बंदोबस्त किया जो गलत, अन्यायपूर्ण और अनुचित था।
कृष्ण
बल्लभ बाबू विपक्ष की इस कुटील रणनीति से भली-भांति वाकिफ थे। इसलिए जब सूरज
नारायण सिंह ने यह आरोप लगाया तभी उन्होंने भागलपुर के ज़िला अधिकारी से इस बाबत
समस्त रिपोर्ट मँगवा लिया था। 7 अगस्त को जब वे अपने कैबिनेट सहयोगी सत्येंद्र
नारायण सिन्हा के लिए बोलने के लिए खड़े हुए तब वे और दिनों की बनिस्बत शांत और
स्थिर दिख रहे थे। अपनी गरिमामई भाषा में उन्होंने विपक्षी दल के नेताओं को
चरित्र-हनन के प्रयासों को आड़े हाथों लेते हुए उन्हें ऐसी हरकतों से बाज आने की
सलाह दी। फिर मुद्दे पर आते हुए आरोप के संबंध में कृष्ण बल्लभ बाबू ने जो
तथ्यात्मक जानकारी सदन के पटल पर रखा उससे यह आरोप सिरे से ही खारिज हो गया।
सत्येंद्र बाबू की प्रतिष्ठा की रक्षा करते हुए उन्होंने सरकार की ओर से जो
वक्तव्य दिया वो यों था- ‘जहां तक घाटों के
बंदोबस्त का सवाल है इस निर्णय में बंगाल फेरीज़ एक्ट के अधीन स्थानीय स्व-शासन
मंत्री या राज्य-सरकार का कोई अख़्तियार नहीं है। इस विषय में ज़िला-मजिस्ट्रेट और
कमिश्नर को ही आखिरी अख़्तियार मिला हुआ है। इस खास मामले में, बात यों हुई कि भागलपुर के ज़िला-मजिस्ट्रेट ने टेंडर मंगाने के बाद 1963
में 9 साल के लिए उस घाट को अमरेन्द्र नारायण सिंह के साथ बंदोबस्त कर दिया। इस
बंदोबस्ती के खिलाफ अभिवेदन मिलने पर यह बात राज्य सरकार के सामने आई और सत्येंद्र
बाबू ने यह मंतव्य दिया कि टेंडर के जरिये 9 साल के लिए ज़िला-मजिस्ट्रेट ने जो
बंदोबस्त किया है वह गैर-कानूनी और गलत है। ज़िला मजिस्ट्रेट ने पुरानी आदर्श
नियमावली के अधीन यह काम किया जिसमें टेंडर मांगकर 9 साल के लिए बंदोबस्त की
व्यवस्था थी। भागलपुर ज़िला परिषद ने बाद में जो आदर्श नियमावली बनाई उसके अनुसार
बंदोबस्त सार्वजनिक नीलाम के जरिये ही किया जा सकता था और यह बंदोबस्त अधिक से
अधिक तीन वर्षों के लिए किया जा सकता था। इसलिए स्थानीय स्वशासन मंत्री सत्येंद्र
नारायण सिन्हा ने कहा था कि आदर्श नियमावली के अनुसार यह बंदोबस्त गैर-कानूनी है।
भागलपुर के तात्कालिक कमिश्नर अब्राहम उस समय अवकाश पर थे। अतः उनकी जगह नियुक्त
पी.के.जे. मेनन ने उस बंदोबस्ती को रद्द कर दिया। इस प्रकार बंदोबस्त के एक साल
पहले ऊंची कीमत पर मकान खरीदने के पुरस्कार-स्वरूप घाट-ठेकेदार के हित में पक्षपात
का आरोप बिलकुल बेबुनियाद है। मकान के लिए जो कीमत दी गयी,
उसे देखते हुए इस बिक्री को ‘मजबूरी की बिक्री’ ही कहा जा सकता है। अच्छा होता यदि विपक्ष तथ्यों की जांच-पड़ताल कर आरोप लगाता।
यों ही सदन के सम्मानीय सदस्य और सरकार के मंत्री के चरित्र हनन का प्रयास न करता’।
1966
में कालाकांकर के राजा दिनेश सिंह, जो इन्दिरा
गांधी की सरकार में विदेश राज्य मंत्री थे और प्रधान मंत्री के काफी करीबी माने
जाते थे, के बिहार दौरे से राजनीतिक गलियारों इस अफवाह को
हवा मिली कि संभवतः काँग्रेस आलाकमान कृष्ण बल्लभ बाबू से रुष्ट है और उनके स्थान
पर सत्येन्द्र बाबू को मुख्यमंत्री पद के लिए प्रस्तावित करने पर विचार कर रही है।
किन्तु सत्येन्द्र बाबू ने इन अफवाहों का जोरदार खंडन किया और अपने और कृष्ण बल्लभ
बाबू के बीच फूट पड़ने नहीं दिया। बाद में 'छोटे साहब' ने स्पष्ट किया था कि बिना जनता के समर्थन के आलाकमान के निर्देश पर
मुख्यमंत्री बनना उन्हें गवारा नहीं था। अतः उन्होंने इन्दिरा गांधी के प्रस्ताव
को ठुकड़ा दिया था। आज देश के फलक से ऐसे सिद्धांतवादी नेता विलुप्त हो गए हैं। इनकी
इसी योग्यता और कर्तव्यनिष्ठा को देखकर उस दौर में ही इन्हें ‘भविष्य का मुख्यमंत्री’ कहा जाने लगा था हालांकि मुख्यमंत्री
बनने में इन्हें दशकों इंतज़ार करना पड़ा और अंततः 1989 में ये मात्र दस माह (मार्च-
दिसंबर) के लिए बिहार के मुख्यमंत्री रहे। 4 सितंबर 2006 में इनका निधन हुआ। बतौर
शिक्षा मंत्री सत्येंद्र नारायण सिन्हा ने जो कालजयी निर्णय लिए उसके लिए उन्हें
आज भी बिहार में राजनीतिक हल्कों में याद किया जाता है क्योंकि इनके जाने के बाद बिहार
में शिक्षा के पतन का जो दौर शुरू हुआ वह सूबे से प्रतिभावान छात्रों के पलायन का
सबब बना। विश्वविद्यालयों में सत्र पिछड़ गए, छात्रों में अनुशासनहीनता
को प्रोत्साहन मिला और परीक्षाओं में खुलकर नकल होने लगा जिसकी वजह से बिहार के छात्रों
की काबिलियत पर बट्टा लगा। अँग्रेजी विषय में अनुत्तीर्ण होने के बावजूद छात्र पास
किए जाने लगे जिसे इनके बाद के शिक्षा मंत्री कर्पूरी ठाकुर के नाम पर ‘कर्पूरी डिविजन’ कहा जाने लगा क्योंकि उन्होंने ही इस
परंपरा की नींव रखी थी।
1969
में जब इन्दिरा गांधी ने काँग्रेस का विभाजन किया तब भी सत्येन्द्र बाबू कृष्ण
बल्लभ बाबू के साथ काँग्रेस (संगठन) में ही बने रहे। 1974 में जब कृष्ण बल्लभ बाबू
का एक कार हादसे में मृत्यु हुई, उस वक़्त सत्येन्द्र
बाबू बिहार प्रदेश काँग्रेस कमिटी (संगठन) के अध्यक्ष थे। कृष्ण बल्लभ बाबू की
मृत्यु की सूचना से वे उद्ध्वेलित थे-'श्री के.बी.सहाय की
मृत्यु में, बिहार की राजनीति के सबसे प्रभावशाली व्यक्तित्व
में एक का अवसान हो गया है। श्री सहाय "एक सक्षम प्रशासक और देशभक्त, एक महान आयोजक और देश में जमींदारी उन्मूलन के वास्तुकार" थे। उनकी
मृत्यु से पैदा हुए शून्य को भरना मुश्किल होगा’।
दरअसल
कुछ दिन पहले ही इन कृष्ण बल्लभ बाबू की जयप्रकाश नारायण से मुलाक़ात हुई थी। इस
मुलाक़ात के दरम्यान कृष्ण बल्लभ बाबू ने जयप्रकाश बाबू के प्रस्तावित ‘सम्पूर्ण क्रांति’ के लिए काँग्रेस (संगठन) के सहयोग
का भरोसा दिया था। कृष्ण बल्लभ बाबू के यों यकायक चले जाने से सत्येंद्र बाबू और
जय प्रकाश नारायण दोनों ही मर्माहत थे। किन्तु सत्येंद्र नारायण सिन्हा ने कृष्ण
बल्लभ बाबू की बात का मान रखा और जयप्रकाश नारायण के ‘सम्पूर्ण
क्रांति’ अभियान को काँग्रेस (संगठन) का सहयोग मिला। सत्येंद्र
बाबू सम्पूर्ण क्रांति के वे एक मजबूत स्तम्भ बन कर उभरे।
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