Wednesday, 18 November 2020

हमारी विरासत, हमारी धरोहर: 7: इन्दिरा गांधी एवं कृष्ण बल्लभ सहाय (19/10/2020)

 



24 जनवरी 1966 को श्रीमती इन्दिरा गांधी ने भारत के प्रधानमंत्री की पहली बार शपथ ली। श्रीमती इन्दिरा गांधी को प्रधानमंत्री बनाने में तथाकथित सिंडीकेट का हाथ था जिन्हें मोरारजी देसाई के बनिस्बत श्रीमती इन्दिरा गांधी सुनम्य लगीं। किन्तु इन्दिरा गांधी ने सत्ता संभालने के बाद जल्द ही सिंडीकेट को उनकी औकात दिखाते हुए स्पष्ट कर दिया कि उन्हें सस्ते में लेना सिंडीकेट को महंगा पड़ेगा। हालांकि कृष्ण बल्लभ बाबू ने सिंडीकेट के इस निर्णय का तब भी विरोध किया था और वे चाहते थे कि कॉंग्रेस के सबसे वरिष्ठ और अनुभवी नेता नेतृत्व संभाले। यही वजह रही कि श्रीमती इन्दिरा गांधी के नेता पद पर चुनाव के समय वे उदासीन ही रहे थे। 15 जनवरी 1966 को दिल्ली में इन्दिरा गांधी के नाम पर सहमति बनाने के लिए काँग्रेसी मुख्यमंत्रियों की एक अहम बैठक हुई थी जिसमें कृष्ण बल्लभ बाबू ने शिरकत नहीं किया था। सत्ता संभालने के बाद श्रीमती इन्दिरा गांधी ने सिंडीकेटके उन नेताओं को अपनी ओर मिलाना शुरू किया जो उनके नेतृत्व से वाकिफ रखते थे। कृष्ण बल्लभ बाबू को अपने पक्ष में करने के लिए जगजीवन राम की मदद ली गयी। किन्तु जब कृष्ण बल्लभ बाबू को जगजीवन बाबू नहीं तोड़ पाये तब इन्दिरा गांधी ने उनके कैबिनेट वरिष्ठतम मंत्री सत्येंद्र नारायण सिन्हा के समक्ष यह पेशकश की कि वे अपने समर्थकों के साथ उनके पक्ष में आ जाये तो उन्हें मुख्यमंत्री बना दिया जाएगा। किन्तु कतिपय राजनैतिक कारणों से यह चाल भी असफल हो गया। जब मानव हस्तक्षेप असफल सिद्ध हुए तब श्रीमती गांधी ने आपदा में अवसर तलाशते हुए प्रकृतिक आपदा को कृष्ण बल्लभ बाबू के खिलाफ हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया।

वर्ष 1966 था जब बिहार को भीषण दुर्भिक्ष का सामना करना पड़ा था। यों तो ऐसे अवसर पर केंद्र सरकार त्वरित कारवाई करते हुए राज्य सरकार की मदद को सामने आ जाती है किन्तु यहाँ इसका ठीक उलट हुआ। 1966 की गर्मियों में ही कृष्ण बल्लभ बाबू को आनेवाली विपदा का भान हो गया था। अगस्त के अंतिम सप्ताह में ही के. बी. सहाय ने राज्य में अन्न संकट से उत्पन्न स्थिति को दुर्भिक्ष करार करते हुए केंद्र सरकार से त्वरित कारवाई का अनुरोध किया। 4 सितंबर को राज्य खाद्य आयुक्त ने विधिवत घोषणा की कि आनेवाला दुर्भिक्ष इतना भयंकर होगा जो किसी ने अपने जीवन में नहीं देखा होगाहथिया नक्षत्र में भी बारिश न होने पर 1 अक्तूबर 1966 को कृष्ण बल्लभ बाबू ने बिहार में अन्न आपूर्ति की स्थिति को गंभीर बताते हुए केंद्र सरकार से केन्द्रीय भंडार से अन्न उपलब्ध करवाने की आधिकारिक मांग करते हुए इस आशय का पत्र केंद्र सरकार के पास भिजवाया। उनका आकलन था कि राज्य में अन्न का स्टॉक नवंबर में समाप्त होने के बाद भुखमरी वाली स्थिति हो जाएगी। बिहार प्रदेश कॉंग्रेस कमिटी के तात्कालिक अध्यक्ष राजेंद्र मिश्रा और बिहार दौरे पर आए केन्द्रीय मंत्री राम सुभग सिंह ने भी कृष्ण बल्लभ बाबू की बात का समर्थन किया। किन्तु अगस्त में योजना आयोग के विशेषज्ञ ने बिहार दौरा पूरा कर केंद्र सरकार को यह रिपोर्ट सौंपी की बिहार में खरीफ की पैदावार सामान्य से मात्र 20% ही कम होनेवाली है और कुल जोत का केवल 10% क्षेत्र ही बाढ़ की वजह से प्रभावित है। इसी प्रकार 26 अक्तूबर 1966 को केंद्रीय वित्त मंत्री ने अपने बिहार दौरे के बाद कहा कि अन्न उत्पादन बढ़ाने की ज़िम्मेवारी बिहार सरकार की है और उसे ही इस संकट से निपटना होगा। केन्द्रीय मंत्री का यह वक्तव्य हास्यास्पद था और बिहार के स्वाभिमान का मखौल उड़ाता प्रतीत होता था। दुर्भिक्ष के सवाल पर के.बी.सहाय के प्रशासन पर प्रश्न उठने शुरू हो गए और न केवल विपक्ष वरन कॉंग्रेस के भीतर उनसे खफा गुट भी खुलकर उनके विरोध में खड़ा हो गया। उधर दुर्भिक्ष का फायदा उठाने की गरज से अन्न की कालाबाजारी भी शुरू हो गयी। के. बी. सहाय ने जब कालाबाज़ारियों के खिलाफ सख्त कदम उठाने शुरू किए तब पटना के दोनों समाचार पत्र द इंडियन नेशन और सर्चलाइट जो के. बी. सहाय की सख्ती के भुक्तभोगी थे, ने उनके खिलाफ प्रैस में बिगुल फूँक दिया। शोधकर्ता पॉल ब्रास का मंतव्य था कि यह निर्णय कर पाना कठिन था कि ये समाचारपत्र वस्तुस्थिति का कितनी ईमानदारी से रीपोर्टिंग कर रहे हैं और कितना कॉंग्रेस के असंतुष्ट गुट के इशारे पर काम कर रहे थे। स्थिति बद से बदतर होती चली गयी। जनवरी में छात्र भी इस समर में कूद पड़े। फिर 5 जनवरी 1967 को पटना में छात्रों पर बहुचर्चित गोलीकांड हुआ। के. बी. सहाय पर इस घटना पर न्यायिक जांच बैठाने का दबाब डाला गया। किन्तु उनकी यह ज़िद कि, गोलीकांड की न्यायिक जांच का आदेश देकर वे अपने प्रशासन के नैतिक बल को गिरने नहीं देंगें, ने 5 मार्च 1967 को उनके शासन का अंत कर दिया।

20 अप्रैल 1967 को अंततः बिहार में विधिवत दुर्भिक्ष की घोषणा हुई और केंद्र सरकर की मदद यहाँ पहुँचने लगी। इस प्रकार श्रीमती इन्दिरा गांधी एक प्राकृतिक विपदा को मोहर बनाकर राज्य की अपनी ही कॉंग्रेस सरकार को ध्वस्त करने में सफल रही। इस तुच्छ राजनीति के दूरगामी परिणाम हुए जिसका शिकार श्रीमती इन्दिरा गांधी की तीसरी पुश्त हुई जो राज्यों में सबल नेतृत्व के अभाव में स्वयं भी सत्ता से बेदखल हो गई। अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारने का खामियाजा कॉंग्रेस को बहुत महंगा पड़ा। आज समस्त देश में कॉंग्रेस के समक्ष समर्थ नेतृत्व का अकाल पड़ा हुआ है और यह पार्टी इस कदर इस कुपोषण से ग्रस्त है कि भुखमरी के कगार पर पहुँच चुकी है।                                                                                        

(द पॉलिटिकल यूसेस ऑफ क्राइसिस: द बिहार फेमिन ऑफ 1966-1967 – शोधकर्ता: पॉल आर. ब्रास, असोशिएशन फॉर आसियान स्टडीस, 1986)

Friday, 13 November 2020

हमारी विरासत, हमारी धरोहर: 6: पंडित जवाहर लाल नेहरू एवं कृष्ण बल्लभ सहाय (14/11/2020)
















12 मार्च 1951 को महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह ऑफ दरभंगा बनाम बिहार सरकार केस में अपना फैसला सुनाते हुए पटना उच्च न्यायालय ने बिहार सरकार में राजस्व मंत्री कृष्ण बल्लभ सहाय द्वारा प्रस्तुत और बिहार विधान सभा में पारित बिहार भूमि सुधार कानून (एक्ट XXX ऑफ 1950) को संविधान द्वारा नागरिकों को प्रदत्त बुनियादी अधिकारों में से एक ‘समानता का अधिकार’ (अनुच्छेद 14) का उल्लंघन मानते हुए निरस्त कर दिया। जमींदारों में हर्ष की लहर दौड़ गयीहालांकि इंसाफ के अन्य मुद्दों पर पटना उच्च न्यायालय ने इस कानून को सही पाया था। पटना उच्च न्यायालय ने यह माना- (i) कि बिहार विधान मण्डल यह कानून बनाने के लिए सक्षम है(ii) कि यह कानून संविधान के अनुच्छेद 31(1) का उल्लंघन नहीं है(iii)कि इस कानून द्वारा जमींदारी का अभिग्रहण लोक-उद्देश्य से किया गया है(iv) कि यह कानून संविधान के अनुच्छेद 31 (4) के अनुरूप है(v) कि यह कानून अनुच्छेद 19(1)(f) के अंतर्गत ‘संपत्ति के अधिकार’ का हनन नहीं है(vi) कि इस कानून द्वारा कार्यपालक को दी गयी शक्तियाँ अनुज्ञय (जायज़) है,  और यह (vii) कि यह कानून संविधान के साथ कोई धोखा (फ्रॉड) नहीं है। किन्तु केवल ‘समानता के अधिकार’ का उल्लंघन मानते हुए उच्च न्यायालय ने इस कानून को निरस्त किया।

जमींदारी उन्मूलन के लिए पिछले चार-पाँच वर्षों में बिहार में कृष्ण बल्लभ बाबू के प्रयास से पंडित जवाहर लाल नेहरू अच्छी तरह वाकिफ थे। वे इस तथ्य से भी वाकिफ थे कि जमींदारी उन्मूलन पर इससे बेहतर कानून की व्याख्या नहीं की जा सकती। दरअसल 1949 में कॉंग्रेस द्वारा भूमि सुधार पर गठित कुमारप्पा कमिटी की जो अनुशंसाएँ थीबिहार जमींदारी उन्मूलन कानून उन सभी अनुशंसाओं पर खरा उतरता था। मसलन सरकार और किसानों के बीच के सभी बिचौलियों (जमींदार) को खत्म किया जाये(ii) भूमि का मालिक ज़मीन जोतने वाला हो(iii) जोत की अधिकतम सीमा निर्धारित हो(iv) दरकिराएदारी/ बटाईदारी केवल महिलाविधवा एवं अव्यस्क के लिए वैध हो  आदि आदि। तथापि कॉंग्रेस में ही एक वर्ग इस मुद्दे पर धीरे-धीरे आगे बढ़ना चाहता थाअथवा यों कहें बढ़ना ही नहीं चाहता थाक्योंकि उस समय बिहार एवं उत्तर प्रदेश के हिन्दी क्षेत्र से आनेवाले कॉंग्रेस के लगभग तमाम वरिष्ठ नेता या तो स्वयं जमींदार थे अथवा जमींदारों के एहसानों तले दबे होने की वजह से उनके प्रति वफादार। ऐसे में तात्कालिक प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू कृष्ण बल्लभ बाबू के पक्ष में खुलकर सामने आए। जमींदारी उन्मूलन कानून का निरस्त होना कॉंग्रेस की समाजवादी सोच और मिश्रित अर्थव्यवस्था पर चोट था। अतः इसे बहाल करने के लिए संविधान में संशोधन आवश्यक हो गया था और जवाहरलाल नेहरू ने ऐसा करने में कोई संकोच नहीं किया।

10 मई 1951 को प्रथम संविधान संशोधन प्रस्ताव संसद में पेश करते हुए पंडित जवाहरलाल नेहरू ने इस संशोधन के विषय वस्तु के कथन और कारण पर प्रकाश डालते हुए कहा था ‘पिछले पंद्रह महीनों में संविधान सम्मत कार्य करते हुए इसमें प्रदत्त बुनियादी अधिकारों के संदर्भ मेंअनुच्छेद 31 (4) एवं (6) के बावजूदन्यायिक निर्णयों से पिछले तीन वर्षों में राज्य सरकार द्वारा पारित भूमि-सुधार कानून की वैध्यता पर उपजे विवादों ने आम जन को प्रभावित किया है। अतः यह प्रस्ताव है कि विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा जमींदारी उन्मूलन से संबन्धित कानून को संवैधानिक आधार प्रदान किया जाये ताकि भविष्य में कोई कठिनाई न हो। यह प्रस्ताव किया जाता है कि जमींदारी उन्मूलन से संबन्धित कानून को एक अलग अनुसूची में स्थान दिया जाये और अनुच्छेद 31 द्वारा प्रदत्त अधिकार के अप्रतिबंधित उपयोग पर अनुच्छेद  31B  द्वारा सीमित किया जाये।

प्रसिद्ध संविधान विशेषज्ञ रोहींग्टन नरीमन के अनुसार ऐसा विश्व में पहली बार हो रहा था जब संविधान संशोधन द्वारा संविधान के किसी अनुच्छेद के उपयोग पर इस प्रकार बंदिश लगाया गया हो। किन्तु ऐसा हुआ और इसके परिप्रेक्ष्य में था कृष्ण बल्लभ बाबू का जमींदारी उन्मूलन कानून।  

संविधान संशोधन के खिलाफ महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह ने सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। 2 मई 1952 को अपने फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने जमींदारों की याचिका को रद्द करते हुए बिहार भूमि-सुधार कानून (बिहार एक्ट XXX ऑफ 1950)जिसे बोलचाल की भाषा में जमींदारी उन्मूलन कानून कहते थेको वैध करार दिया। यह कृष्ण बल्लभ बाबू की जीवटता एवं जवाहरलाल नेहरू की कर्मठता का ही नतीजा था कि 1793 में लॉर्ड कोर्नवालिस द्वारा लाया गया परमानेंट सेटलमेंट एक्ट सुपुर्दे इतिहास हुआ।

1963 में कृष्ण बल्लभ सहाय ने जब बिहार का मुख्यमंत्री पद संभाला तब जवाहर लाल नेहरू भारत के प्रधानमंत्री थे। के.बी.सहाय के मुख्यमंत्रित्व काल में ‘आधुनिक भारत के मंदिरों’ के उदघाटन अथवा शिलान्यास के सिलसिले में जवाहरलाल नेहरू का कितनी ही दफा बिहार का दौरा हुआ। इन दोनों के बीच के इस दौर की बातें फिर कभी।      

Tuesday, 10 November 2020

हमारी विरासत, हमारी धरोहर:5: जे. बी. बनाम के. बी. (11/11/2020)

 

आज 11 नवंबर जीवतराम भगवनदास कृपलानी यानि जे.बी. कृपलानी का जन्म दिन है। जे. बी. की जन्म-जयंती पर प्रस्तुत है यह ब्लॉग जो उनके और के.बी.सहाय के बीच के पत्राचार पर आधारित है।

1946 में राजस्व-मंत्री बनने के बाद से कृष्ण बल्लभ बाबू की प्राथमिकता जमींदारी उन्मूलन से संबन्धित कानून का मसौदा तैयार करवाकर इसे बिहार विधान सभा से पारित करवाने की थी। कृष्ण बल्लभ सहाय इस दिशा में प्रयासरत हैं इसकी भनक उनके विरोधियों यानि रामगढ़ के राजा कामाख्या नारायण सिंह और दरभंगा नरेश कामेश्वर सिंह को भी थी। इन विरोधियों ने कृष्ण बल्लभ बाबू को भ्रष्टाचार के आरोपों में घेरने का षड्यंत्र रचा ताकि इसी बहाने उन्हें राजस्व-मंत्री से पदच्युत किया जा सके। इसके लिए उन्होंने हजारीबाग के ही कुछ ऐसे स्थानीय काँग्रेसी नेताओं को चुना जो कृष्ण बल्लभ बाबू की लोकप्रियता से कुंठित थे। उन्हें कृष्ण बल्लभ सहाय फूटी आँख न सुहाते थे क्योंकि अपनी प्रतिभा, संगठनात्मक योग्यता एवं अनवरत जुनूनी परिश्रम के बल पर कृष्ण बल्लभ बाबू पिछले पच्चीस वर्षों में छोटानागपुर क्षेत्र के सबसे प्रभावशाली कांग्रेसी नेता के रूप में स्थापित हो चुके थे। इस षड्यंत्र को अमली जामा पहनाते हुए तात्कालिक काँग्रेस अध्यक्ष जे. बी. कृपलानी को पत्र द्वारा कृष्ण बल्लभ सहाय के खिलाफ शिकायतों का पुलिंदा भेजा गया। यह पुलिंदा कुल 22 शिकायतों का आरोपपत्र था जिसके मद्देनजर काँग्रेस अध्यक्ष से के.बी. पर अनुशासनात्मक कारवाई की अपील की गई थी। जे.बी. कृपलानी ने 1947 में मौलाना अबुल कलाम आज़ाद से काँग्रेस के अध्यक्ष का पद भार संभाला था। यह संजोग ही है कि इन दोनों ही शख़्सियतों की जन्म की तारीख एक ही है- 11 नवंबर। खैर, इस पत्र के आधार पर जे.बी. ने के.बी. को 25 जून 1947 को पत्र लिखकर इन आरोपों पर जवाब तलब किया। शिकायतकर्ताओं में तीन ज़िला स्तर के काँग्रेसी नेता शामिल थे- ज़िला काँग्रेस के भूतपूर्व अध्यक्ष राम नारायण सिंह, हजारीबाग ज़िला महिला खादी केंद्र की अध्यक्षा श्रीमती सरस्वती देवी एवं मोहम्मद सलेह। शिकायतकर्ताओं ने ऐसे-ऐसे शिकायत किए थे जो कहीं-कहीं हास्यास्पद भी हो गए थे – मसलन के.बी. अपने वेतन से कांग्रेसी कार्यकर्ताओं की आर्थिक मदद करते हैं (जिसकी सूचना के.बी. ने डॉ राजेंद्र प्रसाद को भी दे रखी थी), -कि राजा कामाख्या को जंगल काटने के दंडस्वरूप अपने अधिकारियों द्वारा उन्हें अरेस्ट करवाया है जबकि ग्रामीणों को उसी जंगल से लकड़ी लेने की स्वतन्त्रता दे रखी है जो कि के.बी. द्वारा पारित वन संरक्षण कानून के खिलाफ है, - कि के.बी. ने डॉ राजेंद्र प्रसाद को श्रीमती सरस्वती देवी के खादी केंद्र जाने से रोका था, - कि पटना के बाशिंदा होने के बावजूद के.बी. हजारीबाग से स्वतन्त्रता संग्राम में भागीदारी करते हैं, - कि के.बी. की कतिपय उद्योगपतियों से निकटता है जो उनकी पैसे से मदद करते हैं (इन उद्योगपतियों से मिले समस्त सहयोग राशि की सूचना के.बी. ने डॉ राजेंद्र प्रसाद बराबर दिया करते थे; और तो और एक एक पैसे का हिसाब-किताब ज़िला कॉंग्रेस कमिटी द्वारा ही रखा जाता था), -कि उन्होंने बजरंग सहाय को सरकारी वकील नियुक्त किया है (जिनका सहयोग जमींदारी उन्मूलन कानून का मसौदा तैयार करने में के.बी. लिया करते थे), आदि आदि।

2 जुलाई के अपने जवाबी पत्र में के.बी. ने जे.बी. को इन सभी आरोपों का बिन्दुवार जवाब देते हुए उनसे आग्रह किया कि कॉंग्रेस अध्यक्ष समस्त आरोपों की निष्पक्ष अन्वेषन करवा लें। उन्होंने जे.बी. को यह भी बताया कि इससे पहले ये लोग डॉ राजेंद्र प्रसाद के समक्ष भी इन्हीं शिकायतों को लेकर गए थे और तब डॉ राजेंद्र प्रसाद से भी उन्होंने निष्पक्ष जांच करवा लेने का आग्रह किया था। के. बी. ने यह रहस्योद्घाटन भी किया राम नारायण सिंह, जो राजपूत हैं, ने राजा कामाख्या नारायण सिंह के इशारे पर यह सब षड्यंत्र रचा है ताकि इन बेहूदे और बेतुके आरोपों के मकड़जाल में फंसकर वे जमींदारी उन्मूलन के मुख्य कार्य से भटक जाएँ। तथापि यदि काँग्रेस अध्यक्ष कि भी यही मंशा है तो वे इन आरोपों का निष्पक्ष जांच करवा लें और यदि इनमें कुछ भी तथ्य पाये गए वे दो मिनट के लिए भी काँग्रेस और मंत्री पद पर नहीं बने रहेंगें और अपना इस्तीफा सौंप देंगें। किन्तु यदि ये आरोप साबित नहीं हुए तो बाबू राम नारायण सिंह और अन्य दोनों कांग्रेसियों को साथी कांग्रेसी के खिलाफ अनर्गल आरोप लगाने की जुर्म में काँग्रेस से बर्खाश्त करने में काँग्रेस अध्यक्ष को कोई उज्र नहीं होना चाहिए। के.बी. ने अपने इस पत्र की प्रतिलिपि महात्मा गांधी को प्रेषित किया जो तब भंगी कॉलोनी, नई दिल्ली में रह रहे थे और इसकी एक प्रतिलिपि डॉ राजेंद्र प्रसाद के 1-क्वीन विक्टोरिया मार्ग वाले पते पर भी प्रेषित कर दिया।

के.बी. के इस दो टूक जवाब का अनुकूल असर हुआ और जे.बी. ने इस अध्याय को यही तिरोहित करना मुनासिब समझा। इस घटना के कुछ महीने बाद ही बाबू राम नारायण सिंह ने अलग झारखंड प्रांत की मांग रखते हुए काँग्रेस छोड़ दिया। ज्ञातव्य रहे कि अलग झारखंड राज्य की मांग रखने वाले बाबू राम नारायण सिंह पहले नेता थे। दूसरी ओर के.बी. के विरोधी अन्य षड्यंत्र रचने में मशगूल हो गए। सितंबर 1947 में के.बी. पर प्राणघातक हमला हुआ, जिसमें वे बाल-बाल बचे। सिर पर खून से सनी पट्टी बांधे जब के.बी. ने बिहार विधान सभा सदन में जमींदारी उन्मूलन कानून प्रस्तुत किया तो वे सच्चे मायने में जमींदारी उन्मूलन के प्रतीक नज़र आ रहे थे। 

(राष्ट्रीय अभिलेखागार, नई दिल्ली से साभार)   

हमारी विरासत, हमारी धरोहर: 4: सच्चिदानंद सिन्हा एवं कृष्ण बल्लभ सहाय (10/11/2020)

 



आज 10 नवंबर संविधान सभा के प्रथम अध्यक्ष सच्चिदानंद सिन्हा की 150 वीं जन्म-जयंती है। संवैधानिक सभा के वे पुरोधा पुरुष थे और स्वतन्त्रता बाद लोकतान्त्रिक शासन व्यवस्था के प्रखर मार्गदर्शक। डॉ सच्चिदानंद सिन्हा भारत की संविधान सभा के प्रथम अध्यक्ष थे। 1950 में जब संविधान बनकर तैयार हुआ और इस पर सभी सदस्यों के हस्ताक्षर लेने का समय आया तब अस्सी वर्षीय सच्चिदानंद सिन्हा स्वस्थ नहीं थे। ऐसे में भारत के संविधान को पटना सिन्हा लाइब्ररी रोड स्थित उनके आवास पर लाया गया जहां उन्होंने इस दस्तावेज़ पर अपने हस्ताक्षर किए। आज उन्हें लगभग भुला दिया गया है क्योंकि वे न तो नेहरू गांधी परिवार से थे और न ही दक्षिणपंथी विचारधारा के हिमायती। वरना क्या यह संभव था कि ऐसे युग-पुरुष को उनकी 150वीं जन्म-जयंती पर याद ही न किया जाये? आज जब हम युग पुरुषों को भी जाति और धर्म के नज़रिये से देखने लग गए हैं तब निश्चय ही ऐसे श्लाखा पुरुष इस नज़रिये में दरकिनार कर दिये जाते हैं। यह हमारी ओछी मानसिकता का ही परिचायक है जो हम अपनी विरासत को इतनी जल्दी बिसार चुके हैं। जो व्यक्ति, समाज अथवा कौम अपनी विरासत को बिसार देता है उसका उद्धार ईश्वर भी नहीं कर सकता। इस दौर में यह कटु सत्य और भी प्रखर होकर हमारे सामने है। आज इस अवसर पर पढे महान विभूति सच्चिदानंद सिन्हा के जीवन से जुड़े कुछ अनछुए पहलू और कृष्ण बल्लभ सहाय के साथ उनके गुरु और शिष्य समान रिश्ते की कहानी:

बिहार का इतिहास सच्चिदानन्द सिन्हा से शुरू होता है क्योंकि राजनीतिक स्तर पर सबसे पहले उन्होंने ही बिहार की बात उठाई थी। कहते हैं डा. सिन्हा जब वकालत पास कर इंग्लैंड से लौट रहे थे तब उनसे एक पंजाबी वकील ने पूछा था कि मिस्टर सिन्हा आप किस प्रान्त के रहने वाले हैं। डा. सिन्हा ने जब बिहार का नाम लिया तो वह पंजाबी वकील आश्चर्य में पड़ गया। इसलिए क्योंकि तब बिहार नाम का कोई प्रांत था ही नहीं। उसके यह कहने पर कि बिहार नाम का कोई प्रांत तो है ही नहीं, डा. सिन्हा ने कहा था, नहीं है लेकिन जल्दी ही होगा। यह घटना फरवरी, 1893 की थी। डॉ. सिन्हा को ऐसी और भी घटनाओं ने झकझोरा, जब बिहारी युवाओं (पुलिस) के कंधे पर बंगाल पुलिसका बिल्ला देखते तो गुस्से से भर जाते थे। डॉ. सिन्हा ने बिहार की आवाज़ को बुलंद करने के लिए नवजागरण का शंखनाद किया और बंगाल के हिन्दी-भाषी क्षेत्र को संगठित कर अलग बिहार प्रांत का अलख जगाया। उन्हीं के प्रयास से बंगाल का विभाजन कर 1912 में बिहार अलग प्रांत बना। डॉ. सिन्हा का बिहार के नवजागरण में वही स्थान माना जाता है जो बंगाल नवजागरण में राजा राममोहन राय का। किन्तु बंगाल के इस विभाजन से इस क्षेत्र के बंगाली क्षुब्ध थे और वे कभी शांत नहीं बैठे। वे बिहार के उन कतिपय बंगाली भाषी क्षेत्र यथा मानभूम (अब धनबाद), सिंहभूम एवं पुर्णिया ज़िला के वापस बंगाल में विलय के लिए लामबंद हुए। 1935 में जब गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट पारित हुआ तब डोमिसाईल का मुद्दा उठा और इसी मुद्दे पर 1938 में बंगाली प्रेस (स्टेट्समेन’, मॉडर्न रिव्यू) एवं पी. आर. दास के नेतृत्व में बंगालियों ने इन क्षेत्रों को वापस बंगाल में मिलाने के लिए कॉंग्रेस एवं गांधीजी पर दबाब बनाया गया। दो प्रान्तों के बीच के इस कश्मकश को बंगाली-बिहारी विवाद से जाना गया। बंगाल के विरोध का जवाब देने के लिए सच्चिदानंद सिन्हा के नेतृत्व में बिहार में भी लामबंदी शुरू हुई और डॉ. सिन्हा की छत्रछाया में डॉ राजेंद्र प्रसाद, श्री कृष्ण सिन्हा, अनुग्रह नारायण सिन्हा और के.बी. सहाय ने मोर्चा संभाला। उधर बिहारी प्रेस यथा द इंडियन नेशन एवं द सर्चलाइट के श्री मुरली भी बिहार सरकार के पक्ष में उतर आए थे। गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1935 की पृष्टभूमि में ही बिहार सरकार को कॉंग्रेस के समक्ष अपना पक्ष रखना था। श्री कृष्ण सिन्हा की सरकार इस कार्य हेतु भूलाभाई देसाई, सर तेज बहादुर सप्रू एवं सर गोविंद राव मडगावंकर की सेवाएँ लेने का निर्णय ले चुकी थी। किन्तु फिर डॉ सच्चिदानंद सिन्हा और डॉ राजेंद्र प्रसाद के आपसी परामर्श के बाद डॉ सिन्हा ने यह जिम्मेवारी अपने ऊपर ली। किन्तु इस जिम्मेवारी को निभाने की डॉ सिन्हा की अपनी शर्तें भी थी। 7 सितंबर 1938 को श्रीकृष्ण सिन्हा को लिखे पत्र में डॉ सिन्हा ने बिहार सरकार का जवाब तैयार करने के लिए उनसे उनके संसदीय सचिव की सेवाएँ उपलब्ध करवाने का अनुरोध किया। काम बहुत ही महत्वपूर्ण और बृहत है और इसे आपके संसदीय सचिव की मदद के बिना पूरा नहीं किया जा सकता- डॉ सिन्हा ने अपने पत्र में लिखा था। श्रीकृष्ण सिन्हा के जिस हरफ़नमौला संसदीय सचिव की मांग डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा ने की थी वे और कोई नहीं कृष्ण बल्लभ सहाय थे। खैर श्रीकृष्ण सिन्हा को डॉ. सिन्हा की बात का मान रखते हुए कृष्ण बल्लभ सहाय को रांची उनके पास भेजना पड़ा। यह जवाब तैयार हुआ और एक बार पुनः डॉ सिन्हा ने इस जवाब को लेकर वर्धा जाकर डॉ राजेंद्र प्रसाद को सौंपने की जिम्मेवारी कृष्ण बल्लभ सहाय के युवा कंधों पर डाला जो उनके सबसे विश्वसनीय शिष्य थे। डॉ सिन्हा का मत था कि डॉ राजेंद्र प्रसाद के संभावित प्रश्नों और जिज्ञासाओं का सही जवाब कृष्ण बल्लभ सहाय ही दे पाएंगें चूंकि वे इस कार्य से जुड़े थे। बहरहाल कृष्ण बल्लभ बाबू अपने राजनैतिक गुरु के निर्देश पर वर्धा गए और इस संकल्प पत्र को डॉ राजेंद्र प्रसाद को सौंपा। 2 अक्तूबर 1938 को दिल्ली में बुलाई गयी कॉंग्रेस कार्यकारिणी की बैठक में डॉ राजेंद्र प्रसाद ने यह संकल्प पत्र रखा। इसमें गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1935 की धारा 298 में उल्लेखित डोमिसाईल की परिभाषा का कानूनी विवेचना करते हुए यह दलील दिया गया था कि इस धारा के किसी भी क्लॉज़ अथवा सब- क्लॉज़ से बिहार में रहने वाले बंगालियों के प्रति कोई भेदभाव नहीं होता।

इस घटना के अलावे ऐसे कई अवसर आए जब सच्चिदानंद सिन्हा कृष्ण बल्लभ बाबू को विभिन्न शासकीय कार्यों के लिए बुला भेजते थे। दरअसल जब भी डॉ सच्चिदानंद सिन्हा स्वास्थ्य लाभ के लिए रांची प्रवास में रहते, वे कृष्ण बल्लभ सहाय से हर छोटे-बड़े मुद्दों पर विमर्श करते थे जबकि कृष्ण बल्लभ बाबू उनसे उम्र और अनुभव में काफी कनिष्ठ थे। डॉ सच्चिदानंद सिन्हा द्वारा डॉ राजेंद्र प्रसाद को लिखे कितने ही पत्रों में कृष्ण बल्लभ सहाय का जिक्र विभिन्न कार्यों के संदर्भ में आता है जो इस बात का द्योतक था कि डॉ सच्चिदानंद सिन्हा कृष्ण बल्लभ सहाय पर किस हद तक निर्भर थे और वे उनकी की मेधा की कितनी कद्र करते थे। निश्चय ही यदि वे मौजूद होते तो जमींदारी उन्मूलन पर कृष्ण बल्लभ बाबू को उनका समर्थन प्राप्त होता।      

राष्ट्रगान के तौर पर जब जन-गण-मन पर निर्णय लिया जा रहा था तब 21 जनवरी 1950 को डॉ राजेंद्र प्रसाद को लिखे अपने पत्र में डॉ सिन्हा ने यह इच्छा जताई थी कि इस गीत में बिहार के अलावे उन राज्यों के नामों का समावेश हो जिनका इसमें उल्लेख नहीं है। बिहार के प्रति उनके उत्कंठ प्रेम का यह छोटा सा उदाहरण है।       

6 मार्च 1950 को डॉ सच्चिदानंद सिन्हा की मृत्यु हुई।   

(राष्ट्रीय अभिलेखागार से साभार)