24 जनवरी 1966 को श्रीमती इन्दिरा गांधी ने भारत के प्रधानमंत्री की पहली बार शपथ ली। श्रीमती इन्दिरा गांधी को प्रधानमंत्री बनाने में तथाकथित ‘सिंडीकेट’ का हाथ था जिन्हें मोरारजी देसाई के बनिस्बत श्रीमती इन्दिरा गांधी सुनम्य लगीं। किन्तु इन्दिरा गांधी ने सत्ता संभालने के बाद जल्द ही ‘सिंडीकेट’ को उनकी औकात दिखाते हुए स्पष्ट कर दिया कि उन्हें सस्ते में लेना ‘सिंडीकेट’ को महंगा पड़ेगा। हालांकि कृष्ण बल्लभ बाबू ने ‘सिंडीकेट’ के इस निर्णय का तब भी विरोध किया था और वे चाहते थे कि कॉंग्रेस के सबसे वरिष्ठ और अनुभवी नेता नेतृत्व संभाले। यही वजह रही कि श्रीमती इन्दिरा गांधी के नेता पद पर चुनाव के समय वे उदासीन ही रहे थे। 15 जनवरी 1966 को दिल्ली में इन्दिरा गांधी के नाम पर सहमति बनाने के लिए काँग्रेसी मुख्यमंत्रियों की एक अहम बैठक हुई थी जिसमें कृष्ण बल्लभ बाबू ने शिरकत नहीं किया था। सत्ता संभालने के बाद श्रीमती इन्दिरा गांधी ने ‘सिंडीकेट’के उन नेताओं को अपनी ओर मिलाना शुरू किया जो उनके नेतृत्व से वाकिफ रखते थे। कृष्ण बल्लभ बाबू को अपने पक्ष में करने के लिए जगजीवन राम की मदद ली गयी। किन्तु जब कृष्ण बल्लभ बाबू को जगजीवन बाबू नहीं तोड़ पाये तब इन्दिरा गांधी ने उनके कैबिनेट वरिष्ठतम मंत्री सत्येंद्र नारायण सिन्हा के समक्ष यह पेशकश की कि वे अपने समर्थकों के साथ उनके पक्ष में आ जाये तो उन्हें मुख्यमंत्री बना दिया जाएगा। किन्तु कतिपय राजनैतिक कारणों से यह चाल भी असफल हो गया। जब ‘मानव हस्तक्षेप’ असफल सिद्ध हुए तब श्रीमती गांधी ने ‘आपदा में अवसर’ तलाशते हुए प्रकृतिक आपदा को कृष्ण बल्लभ बाबू के खिलाफ हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया।
वर्ष 1966 था जब बिहार को भीषण दुर्भिक्ष का सामना करना पड़ा था। यों तो ऐसे अवसर पर केंद्र सरकार त्वरित कारवाई करते हुए राज्य सरकार की मदद को सामने आ जाती है किन्तु यहाँ इसका ठीक उलट हुआ। 1966 की गर्मियों में ही कृष्ण बल्लभ बाबू को आनेवाली विपदा का भान हो गया था। अगस्त के अंतिम सप्ताह में ही के. बी. सहाय ने राज्य में अन्न संकट से उत्पन्न स्थिति को ‘दुर्भिक्ष’ करार करते हुए केंद्र सरकार से त्वरित कारवाई का अनुरोध किया। 4 सितंबर को राज्य खाद्य आयुक्त ने विधिवत घोषणा की कि आनेवाला दुर्भिक्ष ‘इतना भयंकर होगा जो किसी ने अपने जीवन में नहीं देखा होगा’। ‘हथिया’ नक्षत्र में भी बारिश न होने पर 1 अक्तूबर 1966 को कृष्ण बल्लभ बाबू ने बिहार में अन्न आपूर्ति की स्थिति को गंभीर बताते हुए केंद्र सरकार से केन्द्रीय भंडार से अन्न उपलब्ध करवाने की आधिकारिक मांग करते हुए इस आशय का पत्र केंद्र सरकार के पास भिजवाया। उनका आकलन था कि राज्य में अन्न का स्टॉक नवंबर में समाप्त होने के बाद भुखमरी वाली स्थिति हो जाएगी। बिहार प्रदेश कॉंग्रेस कमिटी के तात्कालिक अध्यक्ष राजेंद्र मिश्रा और बिहार दौरे पर आए केन्द्रीय मंत्री राम सुभग सिंह ने भी कृष्ण बल्लभ बाबू की बात का समर्थन किया। किन्तु अगस्त में योजना आयोग के विशेषज्ञ ने बिहार दौरा पूरा कर केंद्र सरकार को यह रिपोर्ट सौंपी की बिहार में खरीफ की पैदावार सामान्य से मात्र 20% ही कम होनेवाली है और कुल जोत का केवल 10% क्षेत्र ही बाढ़ की वजह से प्रभावित है। इसी प्रकार 26 अक्तूबर 1966 को केंद्रीय वित्त मंत्री ने अपने बिहार दौरे के बाद कहा कि ‘अन्न उत्पादन बढ़ाने की ज़िम्मेवारी बिहार सरकार की है और उसे ही इस संकट से निपटना होगा’। केन्द्रीय मंत्री का यह वक्तव्य हास्यास्पद था और बिहार के स्वाभिमान का मखौल उड़ाता प्रतीत होता था। ‘दुर्भिक्ष’ के सवाल पर के.बी.सहाय के प्रशासन पर प्रश्न उठने शुरू हो गए और न केवल विपक्ष वरन कॉंग्रेस के भीतर उनसे खफा गुट भी खुलकर उनके विरोध में खड़ा हो गया। उधर ‘दुर्भिक्ष’ का फायदा उठाने की गरज से अन्न की कालाबाजारी भी शुरू हो गयी। के. बी. सहाय ने जब कालाबाज़ारियों के खिलाफ सख्त कदम उठाने शुरू किए तब पटना के दोनों समाचार पत्र ‘द इंडियन नेशन’ और ‘सर्चलाइट’ जो के. बी. सहाय की सख्ती के भुक्तभोगी थे, ने उनके खिलाफ प्रैस में बिगुल फूँक दिया। शोधकर्ता पॉल ब्रास का मंतव्य था कि यह निर्णय कर पाना कठिन था कि ये समाचारपत्र वस्तुस्थिति का कितनी ईमानदारी से रीपोर्टिंग कर रहे हैं और कितना कॉंग्रेस के असंतुष्ट गुट के इशारे पर काम कर रहे थे। स्थिति बद से बदतर होती चली गयी। जनवरी में छात्र भी इस समर में कूद पड़े। फिर 5 जनवरी 1967 को पटना में छात्रों पर बहुचर्चित गोलीकांड हुआ। के. बी. सहाय पर इस घटना पर न्यायिक जांच बैठाने का दबाब डाला गया। किन्तु उनकी यह ज़िद कि, गोलीकांड की न्यायिक जांच का आदेश देकर वे अपने प्रशासन के नैतिक बल को गिरने नहीं देंगें, ने 5 मार्च 1967 को उनके शासन का अंत कर दिया।
20 अप्रैल 1967 को अंततः बिहार में विधिवत ‘दुर्भिक्ष’ की घोषणा हुई और केंद्र सरकर की मदद यहाँ पहुँचने लगी। इस प्रकार श्रीमती इन्दिरा गांधी एक ‘प्राकृतिक विपदा’ को मोहर बनाकर राज्य की अपनी ही कॉंग्रेस सरकार को ध्वस्त करने में सफल रही। इस तुच्छ राजनीति के दूरगामी परिणाम हुए जिसका शिकार श्रीमती इन्दिरा गांधी की तीसरी पुश्त हुई जो राज्यों में सबल नेतृत्व के अभाव में स्वयं भी सत्ता से बेदखल हो गई। अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारने का खामियाजा कॉंग्रेस को बहुत महंगा पड़ा। आज समस्त देश में कॉंग्रेस के समक्ष समर्थ नेतृत्व का अकाल पड़ा हुआ है और यह पार्टी इस कदर इस कुपोषण से ग्रस्त है कि भुखमरी के कगार पर पहुँच चुकी है।
(‘द पॉलिटिकल यूसेस ऑफ क्राइसिस: द बिहार फेमिन ऑफ 1966-1967 – शोधकर्ता: पॉल आर. ब्रास, असोशिएशन फॉर आसियान स्टडीस, 1986)