Friday, 30 October 2020

हमारी विरासत हमारी धरोहर: 3: लौह पुरुष बनाम लौह पुरुष-सरदार वल्लभ भाई पटेल और के. बी. सहाय (31/10/2020)

सरदार वल्लभ भाई पटेल (31 अक्तूबर 1875-15 दिसंबर 1950)

कृष्ण बल्लभ सहाय (31 दिसंबर 1898- 3 जून 1974)


दिसंबर 1946 में काँग्रेस ने चुनाव पूर्व अपने घोषणा-पत्र में यह स्पष्ट उल्लेख किया कि पार्टी किसान और सरकार के बीच के सभी बिचौलियों को नीतिसंगत मुआवाज़ा देकर हटाने को करबद्ध है। स्वतन्त्रता के बाद देश में एक संप्रभु शासन व्यवस्था की स्थापना हो चुकी थी और राजशाही का स्थान लोकतंत्रशाही ने ले लिया था। देश की समस्त संपत्ति यथा ज़मीनजंगल और प्राकृतिक संसाधनों पर एक संप्रभु सरकार का आधिपत्य स्थापित हो चुका था। अतः कृष्ण बल्लभ बाबू का यह मत था कि अब जब भूमि का स्वामित्व सरकार के अधीन है और वो किसानों से सीधा संपर्क स्थापित करने को कृतसंकल्प हैतब अपनी ही स्वामित्व की ज़मीन के एवज़ में जमींदारों को मुआवजा देने की बात बेमानी है। इसी तर्क पर अमल करते हुए 26 मई 1948 को बिहार विधान सभा में प्रस्तुत जमींदारी उन्मूलन कानून में उन्होंने मुआवजा संबंधी ऐसे आस्थगित प्रावधान रखे जिसने जमींदारों को बेचैन कर दिया। के. बी. सहाय की मुआवजा भुगतान की दीर्घकालिक योजना ने जमींदारों को भयभीत किया कि कहीं आने वाले वर्षों में सरकार मुआवजा देने की बात पर मुकर ही न जाये। इस भय से आक्रांत वे न केवल डॉ राजेंद्र प्रसाद के पास गए वरन सरदार वल्लभ भाई पटेल को भी अपनी आशंका से अवगत कराया। एक ओर जहां मुआवज़े को लेकर कृष्ण बल्लभ बाबू का यह दृष्टिकोण था वहीं दूसरी ओर राजवाड़ों को ‘प्रीवी पर्स’ देने के प्रस्ताव पर केंद्र सरकार अपनी स्वीकृति दे चुकी थी। ऐसी स्थिति में कृष्ण बल्लभ बाबू के प्रस्ताव पर केंद्र सरकार का अनमयस्क होना लाजिमी था। ऐसी स्थिति में में सरदार पटेल को कहना पड़ा कि ‘बिना समुचित मुआवजा दिये जमींदारी लेना एक तरह से चोरी समझी जाएगी।’ (To take away Zamindaris without paying compensation would amount to robbery……compensation must be adequate and not nominal…or how would they feel?’) इसके विरोध में काँग्रेस सोशलिस्ट पार्टी एवं किसान सभा के तमाम नेता उतर आए जिन्होंने ‘मुआवजा’ को ‘कानून सम्मत डकैती’ करार दिया। (……they should feel like a very happy criminal…. as compensation is nothing but ‘legal dacoity’)

कृष्ण बल्लभ बाबू का मत था कि जमींदारों को मुआवजा देने से देश के करोड़ों किसानों के बीच गलत संदेश जाएगा- ‘समरथ के नहीं दोष गोसाईं’ – जमींदार समर्थवान हैं तो काँग्रेस उनके लिए मुआवजा की बातें कर रही हैं जबकि किसान जो निर्बल हैं  के पक्ष की सरकार अनदेखी कर रही हैवो भी तब जब काँग्रेस ने अपने घोषणापत्र में ठीक इसका उलट करने की करबद्धता दिखाई थी। कृष्ण बल्लभ बाबू के तेवर ने केंद्र की कॉंग्रेस नेतृत्व यथा लौह पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल एवं डॉ राजेंद्र प्रसाद को भी हतप्रभ कर रखा था। किसानों की हितैषी होने का दावा करने वाली पार्टी के लिए खुलकर कृष्ण बल्लभ बाबू का विरोध करना भी संभव नहीं था। अंततः कृष्ण बल्लभ के तर्क को काँग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व ने माना और बीच का रास्ता तलाशा गया। मुआवजा के मुद्दे पर एक समिति का गठन किया गया जिसे यह निर्देश था कि इसका अध्ययन कर अपने संस्तुति दे। इस प्रकार कृष्ण बल्लभ बाबू बिहार विधान सभा और परिषद- दोनों ही सदनों में जमींदारी उन्मूलन कानून पारित करवाने में सफल हो पाये। जब समिति विमर्श हेतु बैठी तब इसमें किसान का एक भी प्रतिनिधि नहीं था जबकि जमींदारों का नेतृत्व दरभंगा नरेश एवं बारह अन्य जमींदार कर रहे थे। (अग्रेरियन चेंज फ्राम अबव एंड बीलो अरविंद दास व अन्य संदर्भ)

ज्ञातव्य रहे कि ज़मींदारी प्रथा जाति-व्यवस्था की पूरक थी और गाँव का ज़मींदार बहुधा ऊंची जाति का होता था जबकि किसान पिछड़ी जाति क़ा। भारत क़ा प्रत्येक गाँव इन जातिगत दीवारों से बँटा हुआ था। एक ओर वृहत स्तर पर जहां राजवाड़ों क़ा विलय कर सरदार पटेल ने भौगोलिक रूप से देश को एकता की सूत्र में पिरोया वहीं ग्राम स्तर पर जमींदारी उन्मूलन के अपने प्रयास से के. बी. सहाय अमीरी-गरीबी की खाई को पाट कर सामाजिक न्याय क़ा वह दौर लाने में सफल रहे जहाँ देश क़ा गरीब से गरीब किसान भी स्वतंत्रता के महत्व को समझ पाया। देश क़ा सामाजिक एकीकरण की दिशा में ज़मींदारी उन्मूलन एक महत्वपूर्ण कदम था। यही वजह है कि जहाँ भौगोलिक एकीकरण के लिये सरदार पटेल को भारत क़ा लौह पुरुष कहा जाता है वहीं जमींदारी उन्मूलन कर सामाजिक एकीकरण के प्रयास के लिये बिहार की तत्कालिक मीडिया ने केबीसहाय को बिहार का लौह पुरुष के खिताब से नवाज़ा था। (‘The India Nation’(Patna), 4th June 1974)

इन दोनों लौह-पुरुषों के बीच हुई एक अन्य भिड़ंत का रोचक किस्सा पूर्व केंद्रीय मंत्री राम लखन सिंह यादव ने बयान किया है। 1946 में भारत के गृहमंत्री और उप-प्रधानमंत्री सरदार पटेल ने बेतिया राज के अंतर्गत साठी जमीन पर बिहार के तात्कालिक मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिन्हा को देहरादून में सफाई देने के लिए बुला भेजा। दरअसल श्रीकृष्ण सिन्हा की सरकार ने बिपिन बिहारी वर्मा को कोर्ट ऑफ वर्ड्स के अधीन बेतिया राज का मैनेजर नियुक्त किया थाजिस पद पर वे 1939-1942 एवं 1946 से 1950 तक रहे। इस दौरान वर्मा ने गलत तरीके से बेतिया राज की 350 एकड़ ज़मीन की बंदोबस्ती तात्कालिक उत्पाद कमिश्नर राम प्रसाद शाही एवं उनके भाई राम रेखा प्रसाद शाही के नाम कर दिया। ये दोनों भाई महेश प्रसाद सिन्हा के संबंधी थे। महेश प्रसाद सिन्हा की मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिन्हा से अंतरंगता थी। चूंकि इस प्रकरण लिप्त सभी नाम ‘भूमिहारों’ के थे अतः श्रीकृष्ण सिन्हा इस विषय पर सरदार पटेल के सामने सफाई देने जाने से कतरा रहे थे। तब कृष्ण बल्लभ बाबू ने स्वयं सरदार पटेल से मिलने की पेशकश की। जब कृष्ण बल्लभ बाबू सरदार पटेल से मिलने पहुंचे वहाँ पर सरदार पटेल की पुत्री सुश्री मणिदेवी पटेल और उनके सचिव श्री शंकर भी मौजूद थे । कृष्ण बल्लभ बाबू कुछ सफाई देते उससे पहले ही सरदार पटेल ने उन्हें निर्देश दिया कि ‘कृष्ण बल्लभ साठी की ज़मीन वापस करनी होगी।’ कृष्ण बल्लभ बाबू ने स्पष्ट कहा कि "साठी की ज़मीन कभी वापस नहीं होगी।सरदार गुस्से से गुर्राते हुए पूछे "क्यों?" कृष्ण बल्लभ बाबू का जवाब था-आप केवल केंद्र सरकार के उप-प्रधानमंत्री ही नहीं अपितु सारे देश के और कांग्रेसजनों की इज़्ज़त के संरक्षक भी हैं। बिना सुने आपके द्वारा फाँसी की सजा नहीं होनी चाहिए।’ कृष्ण बल्लभ के यों जिरह करने पर सरदार पटेल को उनकी बातें सुननी ही पड़ी। जब सरदार ने शांतिपूर्वक जब सारे कागज़ात देखे और कृष्ण बल्लभ बाबू ने बिहार सरकार के निर्णय पर जो सफाई दी उससे सरदार पटेल पूर्णरूपेण संतुष्ट हुए। उलटे जिन लोगों ने चार्ज लगाया था उन्हीं के ऊपर सरदार पटेल ने अपनी नाराज़गी जाहिर किया। सरदार पटेल के आग्रह पर उनकी राय के अनुसार साठी ज़मीन के बारे में कानून बना। लेकिन जैसा कृष्ण बल्लभ बाबू ने कहा था वह कानून कोर्ट द्वारा रद कर दिया गया। उक्त घटना से उनके सख्त प्रशासक और नीडर राजनेता होने का प्रमाण साबित होता है। (आज’ पटना के 31 दिसंबर 1998 के संस्करण में प्रकाशित लेख ‘कृष्ण बल्लभ सहाय को श्रद्धांजलि’ से साभार

Wednesday, 21 October 2020

हमारी विरासत हमारी धरोहर- 2: कृष्णा, कृष्णा (21/10/2020)

बिहार केसरी श्री कृष्ण सिन्हा (21।अक्तूबर 1887-31 जनवरी 1961)

 
कृष्ण बल्लभ सहाय (31 दिसंबर 1898-3 जून 1974)




1920 की गर्मियों में मात्र एक वर्ष के पटना प्रवास के बाद कृष्ण बल्लभ बाबू हजारीबाग लौट आए। इसी वर्ष 1 अगस्त को महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन का आव्हान किया। अपने समस्त युवा जोश के साथ कृष्ण बल्लभ बाबू इस आंदोलन में कूद पड़े। इसी वर्ष वे पहली मर्तबा जेल गए जो बाद में इनके जीवन का एक सामान्य क्रम बन गया। असहयोग आंदोलन में भाग लेने की जुर्म में श्री कृष्ण सिन्हा भी बंदी जीवन गुजार रहे थे जब एक दिन उन्हें जेल में ही दूसरे बेटे के जन्म की सूचना मिली। साथियों ने पूछा कि बेटे का नाम क्या रखेंगें? श्री कृष्ण सिन्हा ने हंस कर जवाब दिया था कि बंदी का बेटा है। नाम तो बंदी ही होगा। इस प्रकार श्री कृष्ण सिन्हा के दूसरे बेटे का नाम बंदीशंकर सिंह पड़ा। 1922 में दोनों कृष्ण जेल से रिहा हुए। 1925 में कृष्ण बल्लभ बाबू शिमला काँग्रेस पार्टी की एक बैठक में शरीक हुए जहां उनका श्री कृष्ण सिन्हा से प्रथम परिचय हुआ। किन्तु तब यह परिचय औपचारिक ही रहा था।  (के.बी.सहाय- एज़ आई न्यु हिम- नागेश्वर प्रसाद, अधिवक्ता, हजारीबाग)  

31 दिसंबर 1922 को गया (बिहार) में आहूत काँग्रेस के सालाना अधिवेशन में चित्तरंजन दास एवं मोतीलाल नेहरू के काउंसिल चुनाव में भाग लेने के प्रस्ताव पर काँग्रेस में सहमति नहीं बनी और यह प्रस्ताव खारिज हो गया। किन्तु चित्तरंजन दास हार मानने वालों में से नहीं थे। उसी दिन उन्होंने टेकारी महाराज के आवास पर एक बैठक की जहां स्वराज पार्टी के स्थापना की घोषण की गई। गांधीजी काँग्रेस में टूट के खिलाफ थे। अतः उन्होंने स्वराज पार्टी को काँग्रेस का ही अंग मानते हुए उन्हें काउंसिल चुनाव में भाग लेने की अनुमति प्रदान की। 26 फरवरी 1923 को बिहार काँग्रेस स्वराज पार्टी का गठन हुआ। नारायण प्रसाद अध्यक्ष, एवं कृष्ण बल्लभ बाबू एवं हरनंदन सहाय सहायक सचिव चुने गए। 9 मई को एक अन्य बैठक में अरुंजय सहाय वर्मा को अध्यक्ष एवं के. बी. सहाय और अब्दुल बारी को सचिव चुना गया। नवम्बर 1923 में हुए चुनाव में स्वराज पार्टी को बारह में से छ सीट पर विजय मिली। बाद में कृष्ण बल्लभ सहाय के प्रयास से श्री कृष्ण सिन्हा भी बिहार स्वराज पार्टी से जुड़े और 1926 में हुए दूसरे चुनाव में वे भी विजयी हुए। काउंसिल में विभिन्न मुद्दों पर कृष्ण बल्लभ सहाय जोरदार तरीके से अपनी बात रखते थे जिसने श्री कृष्ण सिन्हा को बहुत प्रभावित किया। कृष्ण बल्लभ में उन्हें एक योग्य और सक्षम प्रशासक की छवि नज़र आई। काउंसिल में ये दोनों ही आमजन को प्रभावित करने वाले मुद्दे उठाते थे। इस प्रकार इन दोनों कृष्ण में साथ काम करने का जो सामंजस्य स्थापित हुआ जो जीवन पर्यंत बना रहा। (गवर्नमेंट एंड पॉलिटिक्स इन कोलोनियल इंडिया [1920-1937]- जावेद आलम)   

सविनय अवज्ञा आन्दोलन में भाग लेने के जुर्म में कृष्ण बल्लभ बाबू को 1930 से 1934 के दरम्यान चार बार जेल की सजा हुई थी। इसी क्रम में कृष्ण बल्लभ हजारीबाग जेल में सजा काट रहे थे जब श्री कृष्ण सिन्हा को इसी आंदोलन में भाग लेने की जुर्म एक हज़ार रुपये का दंड और दो साल की कारावास हुई और बतौर राजबंदी 9 जनवरी 1932 को उन्हें भी हजारीबाग जेल भेज दिया गया। हजारीबाग जेल में अगले दो वर्ष दोनों राजबंदी साथ रहे और इस जेल प्रवास के दौरान दोनों के बीच की मित्रता और प्रगाढ़ हुई।   

गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया एक्ट 1935 के तहत 1937 में हुए चुनाव में 99 सीट जीतकर काँग्रेस सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी थी। किन्तु सरकार में भाग लेने, न लेने पर पसोपेश बना रहा। अंततः तात्कालिक राज्यपाल जेम्स डेविड शीफ़्टन ने मुस्लिम इंडिपेंडेंट पार्टी, जो 20 सीट पर जीत के साथ दूसरी सबसे बड़ी पार्टी और मुसलमानों की सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी थी, के अध्यक्ष मोहम्मद युनूस को प्रधानमंत्री के पद की शपथ लेने के लिए निमंत्रण भेजा। इस प्रकार 1 अप्रैल 1937 को मोहम्मद युनूस, जो पटना के सुप्रसिद्ध अखबार द सर्चलाइट के संस्थापक भी थे, ने पद और गोपनियता की शपथ ली। किन्तु मोहम्मद युनूस बहुमत सिद्ध करने में असफल रहे। अतः उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। तब काँग्रेस ने सरकार बनाने का दावा राज्यपाल के समक्ष रखा। श्री कृष्ण सिन्हा एवं अनुग्रह बाबू इस समय केन्द्रीय विधान मण्डल (काउंसिल ऑफ स्टेट्स) के सदस्य थे और बिहार की राजनीति से सीधे जुड़े हुए नहीं थे। दूसरी ओर बिहार के एक अन्य प्रमुख नेता सैय्यद महमूद को मौलाना अबुल कलाम आज़ाद का समर्थन प्राप्त था। यह समझा जा रहा था कि उन्हें ही प्रधानमंत्री चुना जाएगा। किन्तु ऐन वक़्त पर श्री कृष्ण सिन्हा के पक्ष में डॉ राजेंद्र प्रसाद सामने आए। डॉ राजेंद्र प्रसाद के प्रस्ताव का अनुग्रह बाबू और कृष्ण बल्लभ बाबू ने भी समर्थन किया। अंततः श्रीकृष्ण सिन्हा के नेतृत्व में बिहार में काँग्रेस मंत्रिमंडल का गठन हुआ। मौलाना आज़ाद को सदा इस बात मलाल रहा। यहाँ तक कि इस वाकये का जिक्र उन्होंने अपनी आत्मकथा इंडिया विंस फ्रीडम के उन तीस पृष्ठों में भी किया जिसका प्रकाशन उनकी इच्छानुसार पुस्तक प्रकाशन के तीस वर्षों बाद 1988 में हुआ था। (इंडिया विंस फ्रीडम- मौलाना अबुल कलाम आज़ाद)

श्रीकृष्ण सिन्हा ने अपने मंत्रिमंडल में कृष्णबल्लभ सहाय को संसदीय सचिव नियुक्त किया और उनकी प्रशासनिक प्रतिभा और योग्यता का समुचित उपयोग प्रधानमंत्री कार्यालय में उनके विचारार्थ आए विभिन्न शासकीय मसलों पर निर्णय लेने के संदर्भ में किया। बतौर संसदीय सचिव, कृष्ण बल्लभ सहाय का राज्य के हर प्रशासनिक मामलों में हस्तक्षेप रहा और वे श्री कृष्ण सिन्हा के सबसे निकटतम सलाहकार के रूप में उभरे। इस दौरान ही कृष्ण बल्लभ बाबू पर श्री कृष्ण सिन्हा की निर्भरता बढ़ती चली गयी। कृष्ण बल्लभ सहाय कुशल प्रशासक के रूप में अपनी छाप छोड़ने में सफल रहे। उन्होंने जल्दी ही राजकीय गतिविधियां और सरकारी तंत्र के काम करने के तौर-तरीकों को समझ लिया और इसमें व्यापक परिवर्तन भी किए। 28 महीने के कांग्रेस शासन में कई अभूतपूर्व निर्णय लिए गए वर्ष 1911 से मालगुजारी में की गई वृद्धि को वापस लिया गया और सामान्य सालाना मालगुजारी में भी कटौती की गई यह पृष्ठभूमि कृष्ण बल्लभ बाबू को भविष्य में जमींदारी उन्मूलन के लिए भी मानसिक तौर पर तैयार करने में सहायक सिद्ध हुआ।

1937 की ही एक घटना है जिससे कृष्ण बल्लभ सहाय की प्रशासनिक योग्यता को समझने में सहूलियत होगी। तात्कालिक मुख्य सचिव डब्ल्यू. बी. ब्रेट ने शासनात्मक कार्यविधि के नियम 13 के तहत मंत्रियों के अधिकारों को घटाते हुए इस आशय का एक परिपत्र जारी कर दिया जिस पर प्रधानमंत्री की सहमति नहीं ली गयी। एक तरह से यह प्रधानमंत्री के अधिकार को खुली चुनौती थी। श्री कृष्ण सिन्हा की अनुमति से कृष्ण बल्लभ सहाय ने मुख्य सचिव को बुला भेजा और संदाय सचिव के बतौर उनसे दो टूक लहजे में परिपत्र वापस लेने का आदेश देते हुए इस आशय का संशोधित परिपत्र जारी करने का दिशा निर्देश दिया और भविष्य में सचेत रहने की चेतावनी भी दे डाली। डब्ल्यू. बी. ब्रेट ने यह अच्छे तरीके से समझ लिया कि अब उसकी हैसियत सरकार की नहीं वरन एक सरकारी नौकर की है। 24 दिसंबर 1937 को संशोधित परिपत्र जारी हुआ। इस प्रकार एक आई.सी.एस. को एक देसी प्रशासक से पंगा लेने का स्वाद चखना पड़ा। (कृष्ण बल्लभ सहाय- ए क्रिटिकल  अप्रेजल- ए. मुनीम, अध्यक्ष, डॉ राधाकृष्णन सेंटर ऑफ सोसल एंड कल्चरल स्टडीस, पटना)

1939 में द्वितीय विश्व युद्ध की घोषणा के साथ ही काँग्रेस सरकार ने इस्तीफा दे दिया। 1937-1939 के मध्य काँग्रेस सरकार ने किसानों की हित में कई निर्णय लिए थे। किन्तु कृष्ण बल्लभ बाबू इतने से ही संतुष्ट नहीं थे। उनके जेहन में किसानों के लिए कितनी ही योजनाएँ आकार ले रही थी। इन्हें मूर्त रूप देने के लिए वे किसानों को संगठित करने में लग गए। इसी के तहत कृष्ण बल्लभ बाबू ने जगह-जगह किसान सभाएं की जो काफी सफल भी रहीं। इस क्रम में 11 मई 1942 को डॉ. राजेंद्र प्रसाद की अध्यक्षता में शाहाबाद, कुदरा में इन्होने विशाल किसान सभा का आयोजन किया जहाँ किसानों से जुड़े मुद्दे उठाये गए और सरकार का ध्यान इस ओर आकर्षित किया गया इससे प्रेरित होकर श्रीकृष्ण सिन्हा ने इन्हें मुंगेर आमंत्रित किया मुंगेर के तारापुर में "बनैली राज की किसानों पर जुल्म" विषय पर रैली का सफल आयोजन किया गया। इस सभा में श्री जे. बी. कृपलानी ने भी भाग लिया1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लेने की जुर्म में एक बार पुनः श्री कृष्ण सिन्हा और कृष्ण बल्लभ सहाय को जेल हुई और दोनों ने हजारीबाग जेल में कुछ वर्ष पुनः साथ गुज़ारे।   

1946 में श्री कृष्ण सिन्हा के नेतृत्व में अन्तरिम सरकार का गठन हुआ और इस बार उन्होंने कृष्ण बल्लभ सहाय के जिम्मे वन एवं राजस्व मंत्रालय का महत्वपूर्ण विभाग सौंपा। अब तक कृष्ण बल्लभ बाबू को स्वतंत्र रूप से किसी भी मंत्रालय की जिम्मेवारी नहीं दी गई थी। श्री कृष्ण सिन्हा उम्र और राजनैतिक उपलब्धियों में कृष्ण बल्लभ सहाय से काफी वरिष्ठ थे। इस कारण वे उन्हें "तुम" कह कर ही सम्बोधित करते थे। उनके मंत्रीमंडल में मंत्री बनने के समय कृष्ण बल्लभ बाबू की उम्र बहुत अधिक नहीं थी। इस बात को ध्यान में रखकर श्री बाबू ने उनसे पूछा कि किस आई.सी.एस. अफसर को तुम्हारे विभाग का सचिव बनाऊं जिसके साथ तुम्हें काम करने में असुविधा न हो। उनका यह प्रश्न पूछना ही था कि कृष्ण बल्लभ बाबू ने छूटते ही जवाब दिया "Give me any ICS officer. I will grind him like anything.” (मुझे किसी भी आई.सी.एस. अफसर को दे दीजिये। मैं उससे काम करवा लूँगा।) कृष्ण बल्लभ बाबू का यह जवाब उनके अटूट आत्मविश्वास एवं उत्कृष्ट प्रशासनिक क्षमता का द्योतक था। (सहायजी के व्यक्तित्व की एक झांकी- प्रोफेसर एस.एन.शर्मा)

अगले ग्यारह साल कृष्ण बल्लभ सहाय ने राजस्व मंत्री के रूप में निरवरत काम किया और इस दरम्यान उन्होंने जमींदारी उन्मूलन कानून से लेकर निजी वन (संशोधन) कानून, बकाश्त भूमि बंदोबस्ती कानून, बिहार टेनेन्सी (संशोधन) कानून, छोटनागपुर टेनेन्सी (संशोधन) कानून, बिहार परती भूमि (रेक्लेमेशन, कल्टीवेशन एवं इम्प्रूवमेंट) कानून आदि पारित किए जो न केवल सार्वजनिक संपत्ति पर सरकार के आधिपत्य को स्थापित करने में सहायक रहे वरन किसानों को जमींदारों की चंगुल से छुटकारा दिलाने में भी सफल रहे। इन ग्यारह वर्षों में श्री कृष्ण सिन्हा चट्टान की तरह कृष्ण बल्लभ बाबू के पीछे खड़े रहे और हर मौके पर उनका साथ दिया। दूसरी ओर बिहार विधान सभा में ऐसे कितने ही मौके आए जब के. बी. सहाय मुख्यमंत्री की अनुपस्थिति में उनकी ओर से सरकार का पक्ष सदन में रखने के लिए खड़े हुए। कितने ऐसे भी मौके आए जब केंद्र सरकार से किसी गंभीर मुद्दे पर बिहार का पक्ष रखने हेतु अथवा किसी महत्वपूर्ण बैठक में भाग लेने हेतु श्री कृष्ण सिन्हा ने बल्लभ सहाय को मनोनीत किया और वे अपनी ज़िम्मेवारी भली-भांति निभाकर ही पटना वापस लौटे। कृष्ण बल्लभ बाबू मुख्यमंत्री के विश्वास पर सदा खरा उतरे और बतौर मुख्यमंत्री के प्रतिनिधि केंद्र के समक्ष बिहार का पक्ष जोरदार तरीके से रखने में सफल रहे। जब श्री कृष्ण सिन्हा को जनता की दरबार में सरकार का पक्ष रखने के लिए एक अखबार  की जरूरत महसूस हुई तब उन्होंने इस काम के लिए भी कृष्ण बल्लभ बाबू को चुना और कृष्ण बल्लभ बाबू ने राजस्व मंत्री रहते कितने ही वर्षों तक राष्ट्र-वाणी एवं नवशक्ति अखबारों का सम्पादन भी किया। (श्री के.बी.सहाय एवं कार्यकर्ता- रामेश्वर प्रसाद सिंह, कदमकुआं, पटना)

एक समय श्री कृष्ण सिन्हा की निर्भरता कृष्ण बल्लभ सहाय पर इस हद तक बढ़ गई थी कि राजनैतिक हलक़ों में लोगों को उनसे रश्क होता था। कृष्ण बल्लभ सहाय की कर्मठता भी अनूठी थी। अधिकतम काम और न्यूनतम विश्राम उनके जीवन का आदर्श सूत्र था। यही कारण रहा कि वे काँग्रेस के एक समान्य कार्यकर्ता के रूप में लोकसेवा की जमीन पर उतरे और शीघ्र ही प्रदेश प्रशासन के शिखरस्थ पुरुष बन गए। कृष्ण बल्लभ बाबू में कल्पनाशीलता और व्यावहारिकता का मणिकांचन संजोग था। जटील से जटील समस्याओं पर भी शीघ्र और सही निर्णय लेने में वे कभी अनावश्यक विलंब नहीं करते थे। सचमुच उनकी सूझ-बूझ बड़ी पैनी थी। उनके इन्हीं खूबियों के कारण आधुनिक बिहार के आद्य निर्माता बिहार केसरी डॉक्टर श्री कृष्ण सिन्हा उन्हें अपना अनन्य स्नेह देते थे। यह कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि कृष्ण बल्लभ बाबू श्रीबाबू के हाथ-पैर ही नहीं, अनेक अवसरों पर मस्तिष्क भी बन जाते थे। श्रीबाबू अनेक बार ऐसा कहते सुने जाते थे कि कृष्ण बल्लभ बाबू उनके लिए निकटतम सहयोगियों में थे, जिनका सरकार संचालन में महत्वपूर्ण योगदान था। जब भी कोई मुद्दा, चाहे वो राजनीति से संबंध हो या प्रशासन से, बहुत जटील रूप में श्रीबाबू के समक्ष उपस्थित होता था, तब निश्चय रूप से श्रीबाबू अपने गंभीरतम सलाहकार कृष्ण बल्लभ बाबू को अवश्य बुलावा भेजते थे। (कृष्ण बल्लभ सहाय- एक अनूठा व्यक्तित्व- राधा नन्दन झा, उपाध्यक्ष, राज्य नागरिक परिषद)

किन्तु जमींदारों से लोहा लेने का खामियाजा कृष्ण बल्लभ बाबू को 1957 के विधान सभा चुनाव में झेलना पड़ा जब सभी जमींदार एकजुट होकर उन्हें चुनाव में हरवाने में सफल हुए। चुनाव के बाद कृष्ण बल्लभ सहाय और श्री कृष्ण सिन्हा में महेश बाबू को लेकर कुछ मतभेद हुए। दरअसल श्री कृष्ण सिन्हा ने चुनाव में हारे महेश बाबू को जहां खादी बोर्ड का अध्यक्ष पद दिया वहीं उन्होंने कृष्ण बल्लभ सहाय को बिलकुल ही बिसार दिया। वे यह सहज भूल गए कि कृष्ण बल्लभ ने जमींदारी उन्मूलन कानून पारित करने के समय क्षुब्ध जमींदारों के प्राणघातक हमले भी सहे थे, जबकि सरकार उनकी थी और कृष्ण बल्लभ उनकी मंत्रिमंडल में फकत एक मंत्री थे। 1957 का चुनाव हारने की एक खास वजह भी यही थी कि कृष्ण बल्लभ ने जमींदारों से दुश्मनी मोल ली थी। अतः चुनाव उपरांत कृष्ण बल्लभ बाबू को श्री कृष्ण सिन्हा से बेहतर बर्ताव की अपेक्षा थी। किन्तु श्री कृष्ण सिन्हा के इस पक्षपात भरे रवैये ने उन्हें काफी क्षुब्ध किया और वे 1957 के बिहार विधान सभा के नेता पद के चुनाव के समय अनुग्रह बाबू के पक्ष में उतर आए। किन्तु अनुग्रह बाबू चुनाव हार गए और श्री कृष्ण सिन्हा पुनः मुख्यमंत्री बने। श्री कृष्ण सिन्हा की जीत के साथ ही जो तात्कालिक कारण थे वे बिहार की राजनैतिक फ़लक पर से हट चुके थे। 1957 में ही अनुग्रह बाबू का इंतकाल हो गया। कृष्ण बल्लभ बाबू ने अपना पक्ष रखते हुए द सर्चलाइट अखबार में एक बृहत बयान दिया। दोनों के बीच की दूरियाँ दूर हुईं। इसके कुछ ही वर्षों बाद श्री कृष्ण सिन्हा भी 1961 में गुजर गए। इस प्रकार बिहार की राजनीति में एक अध्याय का समापन हुआ। 1963 में कृष्ण बल्लभ बाबू बिहार के मुख्यमंत्री बने। उन्होंने श्री कृष्ण सिन्हा के साथ अपनी मित्रता के प्रतिदान स्वरूप उनके पुत्र श्री बंदीशंकर सिंह (जिन्हें स्वतन्त्रता के बाद स्वराज शंकर सिंह कहा जाने लगा था) को अपने कैबिनेट में मंत्री का दर्जा दिया।      

Saturday, 10 October 2020

हमारी विरासत हमारी धरोहर: 1. जयप्रकाश नारायण और कृष्ण बल्लभ सहाय (11/10/2020)

JAI PRAKASH NARAYAN (11OCTOBER 1902-08OCTOBER 1979)

KRISHNA BALLABH SAHAY (31 DECEMBER 1898-3 JUNE 1974)

JAI PRAKASH NARAYAN ADDRESSING A RALLY IN PATNA IN 1977

KRISHNA BALLABH SAHAY ADDRESSING A RALLY IN HAZARIBAG

KRISHNA BALLABH SAHAY WITH SANT VINOBA BHAVE (1964)

KRISHNA BALLABH SAHAY WITH JAI PRAKASH NARAYAN 

THE HISTORIC HAZARIBAG CENTRAL JAIL WHICH HAS NOW BEEN RENAMED AS JAIPRAKASH KENDRIYA KARAGRIHA

JAIPRAKASH NARAYAN ADDRESSING A RALLY AFTER EMERGENCY 

JAI PRAKASH NARAYAN'S ON LOSING KRISHNA BALLABH SAHAY 


8 अगस्त 1942 को बॉम्बे के गोवालिया टैंक मैदान से राष्ट्रपिता महात्मा गांधी द्वारा भारत छोड़ो की घोषणा के साथ ही देश के स्वतन्त्रता संग्राम में आंदोलन का एक नया अध्याय शुरू हुआ। इस आंदोलन से पहले ही जयप्रकाश नारायण और काँग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के उनके अन्य सहयोगी हजारीबाग केंद्रीय कारागार में सजायाफ़्ता थे और विभिन्न अवधि के लिए नज़रबंद थे। 11 अगस्त 1942 को कृष्ण बल्लभ सहाय भी इनसे जुड़ गए जब भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लेने के दंडस्वरूप ब्रिटिश सरकार ने उन्हें जेल की सजा से आभूषित किया। जयप्रकाश नारायण इस बात से चिंतित थे कि काँग्रेस के सभी नेता को जेल हो जाने के बाद आंदोलन को नेतृत्व देने के लिए दूसरी पंक्ति का कोई नेता नहीं बचा था। यह जरूरी था कि कोई अवाम के बीच जाकर उन्हें नेतृत्व प्रदान करे। इसी विचार के तहत 8-9 नवंबर दीपावली की घोर अंधेरी अमावस की रात्रि जेल से निकल भागने की योजना बनी। योजना को सही तरीके से सरंजाम देने के लिए काँग्रेस सोशलिस्ट नेताओं ने कृष्ण बल्लभ सहाय की मदद ली। कृष्ण बल्लभ सहाय ने अपने भाई डॉ दामोदर प्रसाद को बुलवा भेजा और उनसे उस जमाने में पाँच सौ रुपये लिए जो भागने वाले कैदियों को रास्ते में पड़ने वाली जरूरतों के लिए दिया गया। दीपावली की संध्या जेल अधिकारी से पर्व मनाने की आज्ञा लेकर कुछ काँग्रेस सोशलिस्ट कैदी एक जुलूस की शक्ल में जेल में दीपावली का उत्सव मनाने निकल पड़े। साथ ही साथ वे गाते भी जाते थे – दीवाली फिर आ गयी सजनी, दीपक राग सजा ले, हाँ हाँ दीपक राग सजा ले। जब जेल अधिकारी और कर्मचारी दिवाली उत्सव देखने में व्यस्त थे तब अंधेरीया रात का फायदा उठाते हुए जयप्रकाश नारायण अपने पाँच अन्य सहयोगियों यथा योगेंद्र शुक्ल, सूरज नारायण सिंह, शालिग्राम सिंह, रामनन्दन मिश्रा एवं गुलाबचन्द्र गुप्ता के साथ जेल की दीवार फांदकर भाग निकले। इनके जाने के बाद पीछे रह गए काँग्रेस सोशलिस्ट नेताओं को यह भय सताया कि कहीं वार्डबंदी के समय जमादार की नज़र कैदियों की संख्या पर न पड़ जाये। निर्णय लिया गया कि कृष्ण बल्लभ बाबू , सारंगधर बाबू, जदुनाथ बाबू, मुकुटधारी बाबू, अवधेश्वर जी और रामवृक्ष बेनीपुरी जी ताश खेलें ताकि जमादार वार्डबंदी न कर पाये। अपनी पुस्तक ज़ंजीरें और दीवारें में सुप्रसिद्ध लेखक कवि रामवृक्ष बेनीपुरी जी लिखते हैं- कृष्ण बल्लभ बाबू का जेल में बड़ा रोब था। वे हजारीबाग के नेता थे। जेल के सभी आदमी उन्हें जानते थे। पिछली मिनिस्टरी में पार्लियामेंटरी सेक्रेटरी रह चुके थे। अतः किसी जमादार की हिम्मत नहीं होती थी कि हम खेल रहे हैं तो उसमें बाधा डाले। सोच-विचार कर तय किया गया कि जब तक इस जमादार की ड्यूटि नहीं बदली जाती है, हम खेलते ही रहें। जब नया जमादार आएगा तब देखा जाएगा। हो सकता है वो रामनन्दन मिश्रा (जिस सेल से पाँच में से तीन कैदी फरार हो चुके थे) को यों ही बंद कर दे। वे देर रात तक ताश खेलते रहे और कृष्ण बल्लभ बाबू के प्रभाव से जमादार चला गया। दूसरे जमादार को इन लोगों ने कह दिया- सभी लोग सो गए हैं। बस चार-पाँच आदमी ताश खेल रहे हैं। आप धीरे-धीरे बंद करके आइए। आखिर रात्रि बला टली। अपनी सफलता पर हमें गर्व हुआ। यह ज़ोर देकर कहा जा सकता है कि यदि कृष्ण बल्लभ सहाय, सारंगधर बाबू और यदुनाथ सहाय ने मदद नहीं की होती तो उस रात में भंडा फूट जाता और तब यह भी संभव था कि भागे हुए लोग गिरफ्तार कर लिए जाते। ज़ंजीरें लटकती रह गईं, दीवारें खड़ी ताकती रहीं और लो, बंदी बाहर हो गए!

दूसरे दिन जब यह भेद खुला तब ब्रिटिश हुकूमत ने जेल का मुलाकाती रजिस्टर मंगवाया। तब यह स्वतः स्पष्ट हुआ कि डॉ दामोदर प्रसाद जेल में अपने भाई कृष्ण बल्लभ बाबू से मिलने आए थे। कृष्ण बल्लभ सहाय को सश्रम कारावास की सजा सुनाते हुए भागलपुर जेल रवाना किया गया जबकि डॉ दामोदर प्रसाद को दरियापुर (पटना) वाले मकान को छोड़कर अपने विस्तारित परिवार, जिसमें उनके माता-पिता के अलावे दोनों भाइयों का परिवार भी था, को लेकर शेखपुरा भागना पड़ा। स्थिति सामान्य होने पर ही यह परिवार वापस दरियापुर लौट पाया।

स्वतन्त्रता बाद जयप्रकाश नारायण संत विनोबा भावे के भूदान आंदोलन में सक्रिय रहे। जयप्रकाश जी ने संत विनोबा को बिहार आने का न्योता दिया। एक दृष्टि से देखा जाये तो भूदान आंदोलन के तहत सबसे अधिक भूमि विनोबा को बिहार में मिला और बिहार में भी हजारीबाग अग्रणी ज़िला था। किन्तु यहाँ इस यज्ञ में राजा कामाख्या नारायण सिंह ने ऐसी भूमि दान में दिये जो या तो जंगल थे अथवा पूरी तरह बंजर। दूसरी ओर कृष्ण बल्लभ सहाय ने जमींदारी उन्मूलन कानून पारित कर जमींदारी व्यवस्था का अंत करने का प्रयास में लगे थे ताकि किसान अपनी भूमि के मालिक कहे जा सके। दोनों ही विभूतियों का मकसद एक ऐसे सामाजिक व्यवस्था की स्थापना करना था जिसमें गरीब से गरीब किसान को भी सम्मानपूर्वक जीने का अधिकार मिल सके। ज़मींदारी उन्मूलन के इस संग्राम में कृष्ण बल्लभ सहाय अभिमन्यु की तरह अकेले थे। किन्तु इस दरम्यान उन्हें जयप्रकाश नारायण एवं स्वामी सहजानन्द सरस्वती का नैतिक समर्थन सदा मिला। के.बी.सहाय द्वारा विधायी क़ानून द्वारा सामाजिक परिवर्तन लाने के प्रयास पर भले ही प्रश्न उठाये जाए पर यह भी सच था कि तात्कालिक परिस्थितियों में इसके अलावा और कोई दूसरा रास्ता भी नहीं थाI आचार्य विनोबा भावे ने "भूदान" और "ग्रामदान" द्वारा ज़मींदारों से स्वेक्षा से भूमि दान करने का सविनय अनुरोध किया और बिहार में दर दर ज़मींदारों के सामने हाथ फैलाये, किन्तु उनकी अपील का ज़मींदारों पर कोई विशेष असर नहीं हुआI इससे मर्माहत होकर ही जयप्रकाश नारायण जी को कहना पड़ा था कि "हमने बिहार में 18 महीने से बाबा को रोक कर रखा है इस उम्मीद पर कि बिहार के ज़मींदार 32 लाख एकड़ ज़मीन दान देने के अपने वादे को निभायेगें। किन्तु हम अब तक अपने वादे को पूरा नहीं कर पाए, जो हमारे लिए शर्म की बात है(“I am ashamed. We Biharis took a vow of 32, 00,000 acres in order to solve the land problem of our province. We have kept baba (Vinoba Bhave) with us for 18 months, but still this vow has not been fulfilled. If we have not enough workers to solve the land problems in Bihar, how can we ever solve it in the rest of India?’) (Agrarian Movements in India: Studies in 20th Century Bihar by Arvind N. Das 1982)

जमींदारों ने एक साजिश के तहत 1957 में कृष्ण बल्लभ सहाय विधान सभा चुनाव में हरवा दिया। इस चुनाव में भूमिहार नेता महेश प्रसाद सिन्हा भी परास्त हुए थे। तथापि तात्कालिक मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिन्हा ने महेश बाबू को जहां खादी बोर्ड का अध्यक्ष बनाया वहीं कृष्ण बल्लभ सहाय को बिसरा दिया। कृष्ण बल्लभ सहाय की हार का बड़ा कारण उनके खिलाफ जमींदारों की घेराबंदी थी। जमींदारी उन्मूलन भले ही श्रीकृष्ण सिन्हा के मुख्यमंत्री काल में हुआ था किन्तु इसके जनक कृष्ण बल्लभ सहाय ही थे। इस पराजय के बाद जहां वे जमींदारों के निशाने पर थे वहीं जिसके लिए यह लड़ाई उन्होंने लड़ी थी वे श्रीकृष्ण सिन्हा ने भी उन्हें नज़रअंदाज़ कर दिया था। जयप्रकाश नारायण कृष्ण बल्लभ सहाय की यह अनदेखी नहीं सह पाये। वे इतना कुपित हुए कि डॉ राजेंद्र प्रसाद और श्रीकृष्ण सिन्हा को पत्र लिखकर अपनी व्यथा व्यक्त करने से अपने आप को रोक नहीं पाये। 8 अक्टूबर 1957 को डॉ राजेंद्र प्रसाद को संबोधित पत्र में उन्होंने जोरदार ढंग से अपनी बात रखते हुए 13 सितंबर 1957 को श्रीकृष्ण सिन्हा को लिखे पत्र की प्रतिलिपि संलग्न किया और डॉ राजेंद्र प्रसाद से हस्तक्षेप करने का अनुरोध किया। श्रीकृष्ण सिन्हा को लिखे पत्र में जयप्रकाश नारायण ने लिखा था–यदि आप चाहें तो सारा दूषित वातावरण शुद्ध कर सकते हैं और काँग्रेस के आपसी झगड़े मिटा सकते थे। किन्तु आप कौन हमारे साथ था या है और कौन हमारे विरुद्ध था या है केवल इसी दृष्टिकोण से आप काम कर रहे हैं। इसी बात की मिसाल के तौर पर महेश बाबू और कृष्ण बल्लभ बाबू के प्रति आपके व्यवहार का जिक्र किया गया था। मेरा मतलब कृष्ण बल्लभ बाबू की सिफ़ारिश करना नहीं था बल्कि आपके पक्षपातपूर्ण व्यवहार की तरफ ध्यान खींचने का था। आपने काफी विस्तार से बताया है कि कृष्ण बल्लभ बाबू के लिए पहले आपने कितना और क्या-क्या किया है। वह सब मुझे बतलाने की कोई आवश्यकता नहीं थी। परंतु उसके साथ आपको यह भी लिखना चाहिए था कि पिछले बीस वर्षों में कृष्ण बल्लभ बाबू ने भी आपके लिए क्या-क्या नहीं किया और आपके साथ कैसी वफादारी रही। आपने कृष्ण बल्लभ बाबू के लिए सब कुछ किया जब तक वे आपका साथ देते रहे। आज वे आपसे अलग हुए तो आपका रुख बिलकुल उलट गया। इसी प्रकार के व्यवहार की अवांछनीयता की ओर आपका ध्यान पिछले पत्र में खींचा था। छोटानागपुर में अगर काँग्रेस को पुनर्जीवित करना है तो वह कृष्ण बल्लभ को दबाकर के नहीं किया जा सकता है। ...मेरा इतना ही कहना है कि जातीयता से परे रहने पर भी आपकी और अनुग्रह बाबू की प्रतिस्पर्धा के फलस्वरूप प्रांत में जातीयता का वातावरण निर्माण हुआ। आपका राज्य भूमिहार राज्य कहा गया और अनुग्रह बाबू राजपूतों के नेता माने गए। ...अंततः कृष्ण बल्लभ बाबू ने जयप्रकाश नारायण से इस प्रकरण को यहीं समाप्त करने का निवेदन किया। कृष्ण बल्लभ सहाय जनता जनार्दन के निर्णय के खिलाफ नहीं जाना चाहते थे।

1963 में जब कृष्ण बल्लभ बाबू मुख्यमंत्री बने तब पटना के गणमान्य नागरिकों से मिलने के अलावे जयप्रकाश नारायण से मिलने सर्वोदय आश्रम भी गए। 1966 में बिहार भीषण में दुर्भिक्ष हुआ जिससे निपटने के लिए कृष्ण बल्लभ सहाय की सरकार जी जान से जुट पड़ी थी और कालाबाज़ारियों के खिलाफ कड़ी कारवाई की गयी थी जिससे समाज का एक तबका कृष्ण बल्लभ बाबू से रुष्ट था। किन्तु इस दौरान जयप्रकाश नारायण सदा कृष्ण बल्लभ बाबू के प्रयासों के साथ रहे और कदम कदम पर उनका हौसला बढ़ाया। अपने मुख्यमंत्री कार्यकाल के अंतिम दौर में कृष्ण बल्लभ बाबू को छात्र आंदोलन से जूझना पड़ा था। किन्तु कृष्ण बल्लभ बाबू ने सार्वजनिक रूप से यह ऐलान किया कि वे छात्रों में अनुशासनहीनता बर्दाश्त नहीं करेंगें और छात्रों को छात्र जीवन में अपनी पढ़ाई पर ध्यान देना चाहिए। जब छात्र अधिक उग्र हुए तब 5 जनवरी 1967 को पटना में उनपर फ़ाइरिंग भी हुआ। जयप्रकाश इससे आहत हुए और उन्होंने कृष्ण बल्लभ बाबू को अपनी नाराजगी से अवगत करते हुए लिखा कि बिहार जैसे संवेदनशील राज्य में उनका सियासी अधिनायकवाद स्वीकार्य नहीं है। कृष्ण बल्लभ बाबू अपने निर्णय पर अड़े रहे कि छात्रों को विध्याद्ध्यन के समय राजनीति में दखल नहीं देनी चाहिए। अपनी इस जिद पर कृष्ण बल्लभ बाबू ने मुख्यमंत्री पद न्योछावर कर दिया।

राजनीति में छात्रों की भूमिका पर राजनैतिक मतभेद के बावजूद जयप्रकाश नारायण और कृष्ण बल्लभ सहाय में कभी व्यक्तिगत मनभेद नहीं हुआ। दोनों अभिन्न राजनैतिक सहयोगी बने रहे। 1971 में जब पटना के गांधी संग्रहालय को स्वायत्तता मिली और जयप्रकाश नारायण इसके चैयरमेन बने तब उन्हें कृष्ण बल्लभ सहाय याद आए। उन्होंने कृष्ण बल्लभ बाबू को अपनी समिति में रखा, हालांकि उस वक़्त श्री सहाय चुनाव हार चुके थे और उनपर एक राजनैतिक साजिश के तहत भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगाकर तात्कालिक सरकार जांच आयोग बिठा रखी थी। कृष्ण बल्लभ बाबू को अपनी समिति में रखना इस बात का द्योतक था कि जयप्रकाश बाबू को कृष्ण बल्लभ बाबू की ईमानदारी और कर्तयवनिष्ठा पर पूर्ण विश्वास था और वे कृष्ण बल्लभ बाबू के खिलाफ चल रही राजनैतिक साजिश से पूरी तरह अवगत थे। इससे पहले भी 1957 में जब जयप्रकाश नारायण अनुग्रह स्मारक समिति के चैयरमेन बने थे तब उन्होंने कृष्ण बल्लभ बाबू को अपनी कमिटी में रखा था, हालांकि कृष्ण बल्लभ बाबू तब भी चुनाव हारकर कृषक का जीवन बिताने अपने पैतृक गाँव वृन्दा लौट गए थे।

1974 में कृष्ण बल्लभ बाबू गिरिडीह शिक्षक क्षेत्र से स्थानीय निकाय चुनाव जीतकर बिहार विधान परिषद के सदस्य बने। कृष्ण बल्लभ बाबू ने यह चुनाव काँग्रेस (संगठन) के टिकट पर लड़ा था और चुनाव में उन्होंने श्रीमती इन्दिरा गांधी की काँग्रेस (रुलिंग) के प्रत्याशी को हराया था। 29 मई को उन्होंने पद की गोपनियता की शपथ ली। उधर वेल्लोर से प्रोस्टेट का ऑपरेशन करवाकर जयप्रकाश बाबू 2 जून को पटना लौटे। कृष्णबल्लभ बाबू से उनकी मुलाक़ात पटना एयरपोर्ट पर ही हुई। वे जयप्रकाश नारायण से आगे की रणनीति पर बातचीत करने आए थे। जयप्रकाश नारायण ने बिहार में अब्दुल गफूर के कुशासन के खिलाफ मोर्चा खोलने की अपनी मंशा से कृष्ण बल्लभ बाबू को अवगत कराया। कृष्ण बल्लभ बाबू ने उनसे देश में काँग्रेस को नेतृत्व देने अनुरोध किया, और श्रीमती गांधी के नेतृत्व में अलग हुए काँग्रेस के खिलाफ लामबंद होने का आव्हान किया। किन्तु यह हो नहीं पाया। 3 जून को सड़क मार्ग से अपने पैतृक ज़िला हजारीबाग लौटने के क्रम में सिंदूर के पास एक विवादास्पद सड़क दुर्घटना में कृष्ण बल्लभ बाबू की मृत्यु हुई। जयप्रकाश इस समाचार को सुनकर स्तब्ध रह गए- I am deeply shocked to hear about Krishna Ballabh Babu’s death in a car accident. Only yesterday he had come to meet me and he looked so cheerful. I had never thought that he would leave us so soon. In his death the country has lost a great freedom fighter, a champion of land reforms and an able administrator. He would be counted as one of the makers of modern Bihar.


श्रीमती इन्दिरा गांधी को 1977 के चुनाव में हरवाकर प्रधानमंत्री के पद पर से हटाने में जयप्रकाश नारायण अंततः सफल रहे। यह कहा जा सकता है यह एक मित्र की ओर से अपने दिवंगत मित्र को एक नायाब तोहफा था। आपातकाल के दौरान श्रीमती गांधी के प्रशासन द्वारा जयप्रकाश नारायण के इलाज़ में जो कोताही बरती गयी उसी का नतीजा था कि जयप्रकाश बाबू भी अधिक समय तक हमारे बीच नहीं रहे। 8 अक्तूबर 1979 को प्रातः उनकी मृत्यु हो गयी। श्रद्धेय अटल बिहारी बाजपेयी की सरकार ने 1999 में उन्हें देश के सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न से मरणोपरांत सम्मानित किया।