Saturday 26 April 2014

कृष्ण बल्लभ सहाय: कुछ यादें


कृष्ण बल्लभ सहाय: कुछ यादें
गुतुल जी सहाय
लेखक: गुतूल जी सहाय 



यह संस्मरण पटना से प्रकाशित"लोकपत्र समाचार पत्र  के 23वे वार्षिक संस्करण में 31.12.1987 को छपा था। पिता द्वारा सुनाये गए तथ्यों के आधार पर राजेश सहाय ने इसे लिपिबद्ध किया। 

पिछले दिनों जब "लोक पत्र" के संपादक महोदय से बिहार की महान विभूति स्वर्गीय कृष्ण बल्लभ सहाय पर कुछ लिखने का प्रेम भरा निमंत्रण मिला तो इस असमंजस में पड़ गया कि क्या लिखूं और क्या छोडूं- ख़ास कर एक पुत्र द्वारा एक पिता के कार्यों और नीतियों का निष्पक्ष विश्लेषण एक चुनौती नहीं तो और क्या कहा जा सकता है?

हाल की घटना याद आती है। पटना से कोडरमा आ रहा था। यात्रीगण यात्रा की शिथिलता दूर करने के लिए विभिन्न मुद्दों पर बहस कर रहे थे। बिहार की पिछड़ी स्थिति पर बहस छिड़ने पर एक यात्री का मत सुनाने को मिला: आज श्री कृष्ण बाबू और कृष्ण बल्लभ सही सरीखे नेता ही नहीं रहे जो बिहार को इस स्थिति से उबार सकेI जैसी स्थिति में उन्होनें बिहार को छोड़ा था उससे भी बुरी स्थिति में पहुंचा दिया है आज बिहार को इसके नेताओं ने। यह एक्के दुक्के लोगों का मत नहीं है अपितु आम बिहारी की यही राय बन गयी है। यह मत है उन लाखों गरीब किसानों  का जिन्होनें के. बी. सहाय को निर्भय हो कर ज़मींदारों से लोहा लेते देखा था। यह मत है उन गरीब बेरोजगार मजदूरों का जिन्होनें कृष्ण बल्लभ बाबू को बिहार को उसका वाजिब हक दिलाने एवं उन्हें रोज़गार के समुचित अवसर प्रदान करने हेतु केंद्र से सतत संघर्ष कर बिहार में बड़े पैमाने पर कल कारखाने स्थापित करवाते देखा था एवं यह मत आज उन विद्यार्थियो का भी है जो आज भी और तब भी सन 1967 में महामाया बाबू के लुभावने  वायदों में फंस कर अपना जीवन बर्बाद कर लिया था। 

आज बीस वर्ष बाद आम बिहारी कृष्ण बल्लभ बाबू की योग्यता को नकार कर मानो पछता रहा है। परन्तु इसमें दोष किसका है? उन करोड़ों भोले भाले गरीब एवं अनपढ़ बिहारियो का तो हरगिज़ नहीं जिनमें कृष्ण बल्लभ सहाय सरीखे नेता को समझने की सूझ बूझ ही नहीं थी। इसके जिम्मेवार वे चंद स्वार्थपरक नेता के भेष में पूंजीपति एवं भूमिपति थे जिन्हें कृष्ण बल्लभ बाबू ज़मींदारी उन्मूलन के समय से ही रास न आते थे। यह बात काबिलेगौर है कि उन तत्वों ने उस दौर ( 1946-1952) में भी कृष्ण बल्लभ बाबू को न केवल बदनाम करने की कोशिशें की, अपितु सरकार से हटाने की कोशिशें भी की। किन्तु श्री कृष्णसिन्हा जी के अपार विश्वास के समक्ष जब उनकी एक न चली तो उन्होनें कृष्ण बल्लभ बाबू पर घातक हमले भी करवाये। इन सब के बावजूद श्री सहाय बिना विचलित हुए अंततः खून के धब्बों से भरी पट्टी सर पर बांधे बिहार विधान सभा में विधेयक पेश किया तो वे ज़मींदारी उन्मूलन के संघर्ष के सही प्रतीक दिखलाई देते थे। किन्तु ये लोग सही मौके की तलाश में थे और मौका मिलते ही उन्होनें प्रहार किया। न केवल उन्हें महामाया बाबू को मोहर बना कर चुनाओं में हरवाया गया अपितु आयोग के घेरे में लाकर उन्हें पुनः बदनाम करने की कोशिशें की गई।  ऐसे कठिन समय में एक बार पुनः बिहार की जनता ने अपनी भूल सुधारते हुए उन्हें हाथो हाथ उठा लिया जब उन्होनें श्री सहाय को पुनः सदन में भेजा बड़ी आशाएं थी लोगों  में और काफी दृढसंकल्प और इच्छुक थे के. बी. सहाय अपने अधूरे काम को पूरा करने को। ज़मींदारी उन्मूलन हो गया था किन्तु  जमींदार सही मायने में कायम थेI सख्ती से उक्त कानून का क्रियान्वयन नहीं हो पाया थाI ज़मीन हेतु संघर्ष जारी था क्योंकि बेनामी कागजातों के जरिये ज़मींदारों ने भूमि पर अपना कब्ज़ा बनाये रखा था। 70% कृषक तब भी भूमिहीन थे। इस असंतुलन को दूर करने के लिए वे कृतसंकल्प थे। 

74 वर्ष की उम्र में उन्होनें जब एक और संघर्ष छेड़ने के अपने इरादे का खुलासा किया था तो मैं दंग रह गया था इस बूढ़े शेर की संघर्ष क्षमता, जुझारूपन और कार्यक्षमता को देख कर। उनके पास इस आखिरी संघर्ष का मानो पूरा नक्शा खिंचा था और इसका जिक्र करते हुए उन्होनें मई 1974 मुझसे चुनावी दौरे के दौरान कहा था" गुतुल, जीतूंगा तो मैं जरूर। बस अगर दो तीन वर्ष और जिन्दा रहा तो बिहार की असंख्य गरीब ग्रामीणों को उनका हक दिलवा कर ही छोडूंगा।"   
   
किन्तु यह होना न था। चुनाव में जीतने के मात्र एक सप्ताह  बाद 3 जून 1974 को पुनः उन्हें एक जबरदस्त कार दुर्घटना का सामना करना पड़ा। परन्तु इस बार का हमला घातक सिद्ध हुआ जिसने उनके प्राण ले लिए।

आज एक दूसरा बूढा शेर इस समस्या से संघर्षरत है। मैं नहीं जानता कि कृष्ण बल्लभ सहाय इस समस्या के प्रति कौन सी नयी रणनीति अपनाते। मैं यह भी नहीं जानता कि निवर्तमान मुख्य मंत्री को नरसंहार और भूमि हेतु संघर्ष को रोकने में सफलता मिलेगी अथवा नहीं। और अगर मिलेगी तो कब? किन्तु मैं यह उम्मीद अवश्य करता हूँ कि कृष्णबल्लभ सहाय सरीखे नेता के साये में रह कर उन्होनें नेतृत्व के कुछ गुण अवश्य ग्रहण किये होंगे जो उनकी सफलता मे सहायक सिद्ध होंगेI सफलता की डगर खतरों से भरी पड़ी है और प्रश्न यह उठता है कि श्री बिन्देश्वरी दुबे जी इस समस्या के समाधान हेतु कितना जोखिम उठाने को तैयार हैI बिहार का ताज हर उस मुख्य मंत्री के लिए काँटों का ताज है जो उक्त समस्या से सख्ती  से निपटना चाहता है। 

प्रस्तुत लेख का अंतिम पैरा पत्रिका में प्रकाशित तो हुआ पर संपादक महोदय ने संभावित विवाद से बचने के लिए प्रिंट से पहले इसे काली स्याही से मिटा दिया। बावजूद इसके यह पैरा पढ़ा जाने लायक था अतः इसे यहाँ ज्यों का त्यों रखा जा रहा हैI    

No comments:

Post a Comment