Thursday, 23 January 2025

नेताजी सुभास चन्द्र बोस की जयंती पर विशेष - ‘जब के.बी. सहाय का विरोध काले झंडे से हुआ’





सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान स्वतंत्रता संग्राम की पहुंच और प्रभाव को व्यापक बनाने के प्रयास में कृष्ण बल्लभ बाबू ने फैक्ट्री और मिल श्रमिकों को संगठित करना शुरू किया। फलतः यह आंदोलन फैक्ट्री प्रतिष्ठानों तक फैल गया। के. बी. सहाय ने कांग्रेस की ओर से अपील की कि मिल मजदूर अपनी उचित मांगों के लिए दबाव डालते हुए प्रबंधन की अवज्ञा करें। एक घटना जमशेदपुर के टिन प्लेट फैक्ट्री की है जहां मिल मजदूर बेहतर कार्य स्थितियों की मांग करते हुए हड़ताल पर चले गए। विधान सभा और बिहार और उड़ीसा प्रांतीय परिषद के सदस्य यथा श्री जोगिया, राम नारायण सिंह, अब्दुल बारी, जिमतवहन सेन, शशि भूषण राय भी इस आंदोलन में कृष्ण बल्लभ सहाय के साथ जुड़ गए। कृष्ण बल्लभ के निवेदन पर मिल मजदूरों के पक्ष में डॉ राजेंद्र प्रसाद ने सितंबर 1929 के पूर्वार्द्ध में गोलमौरी का दौरा किया। (बिहार में स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास खंड-I, डॉ. काली किंकर दत्ता द्वारा, केंद्रीय सचिवालय पुस्तकालय बिहार सरकार द्वारा प्रकाशित, 1957) इस आंदोलन से नेताजी सुभास चन्द्र बोस भी जुड़े थे। गोलमौरी में एक बैठक में, सुभाष चंद्र बोस ने कहा कि जब तक मामले सुलझ नहीं जाते, वह जगह नहीं छोड़ेंगे। उन्होंने जोर देकर कहा कि यदि आवश्यक हुआ तो वह बारडोली सत्याग्रह की तर्ज पर सत्याग्रह अभियान शुरू करेंगे। राम नारायण सिंह ने 27 अगस्त को टिन प्लेट फैक्ट्री के महाप्रबंधक से मुलाकात की और घोषणा की कि विवाद पूंजीपतियों के साथ नहीं बल्कि सरकार के साथ है। 29 अगस्त को, कृष्ण बल्लभ ने ऐलान किया कि कांग्रेस पार्टी ने मजदूरों को सविनय अवज्ञा अभियान से जोड़ने और उनसे हड़ताल पर जाने की अपील इसलिए की क्योंकि सरकार उनकी जायज़ मांगों को सुनने के लिए भी तैयार नहीं थी। (फ़ाइल संख्या: 257/I/1930 गृह विभाग, पहचानकर्ता: PR_000003032598, संग्रह: डिजिटाइज़्ड पब्लिक रिकॉर्ड्स होम/पॉलिटिकल (सौजन्य: राष्ट्रीय अभिलेखागार, नई दिल्ली) हड़ताल अंततः फ़ैक्टरी मज़दूरों के पक्ष में समाप्त हुई।

मार्च 1940 में भविष्य की रणनीति तैयार करने के लिए रामगढ़ (बिहार, अब झारखंड) में कांग्रेस का अधिवेशन बुलाया गया। अनुग्रह नारायण सिन्हा, कृष्ण बल्लभ सहाय, राम नारायण सिंह और अंबिका कांत सिंह जैसे कांग्रेसियों को सफल व्यवस्था का जिम्मा सौंपा गया। दिलचस्प बात यह है इसी समय में रामगढ़ एक अन्य बड़े सम्मेलन का स्थल भी था। समझौता विरोधी सम्मेलननेताजी सुभाष चंद्र बोस के दिमाग की उपज थी जो द्वितीय विश्व युद्ध के दरम्यान अंग्रेजों से किसी भी प्रकार के सम्झौता के खिलाफ थे। हालाँकि के.बी. सहाय नेताजी के नेतृत्व का पूरा सम्मान करते थे, लेकिन उनके प्रयास कांग्रेस अधिवेशन के सफल आयोजन की ओर निर्देशित थे। फॉरवर्ड ब्लॉक, जिसे नेताजी ने एक साल पूर्व ही 1939 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के भीतर एक रूप में स्थापित किया था, एवं  कांग्रेस के बीच इस तनातनी का उल्लेख डॉ राजेंद्र प्रसाद ने भी अपनी आत्मकथा में संक्षेप में किया है-हालांकि द्वितीय विश्व युद्ध के दरम्यान कांग्रेस कभी भी अंग्रेजों के साथ किसी भी समझौते के पक्ष में नहीं थी, फिर भी यह निराधार आरोप लगाया गया था कि कांग्रेस अंग्रेजों के साथ समझौता करने पर आमादा थी। (डॉ राजेंद्र प्रसाद की आत्मकथा, (पृष्ठ 501-505) (1957), एशिया पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित।) कांग्रेस के भीतर इस तरह के विरोधाभासों के कारण प्रतिद्वंद्वी समूहों के अनुयायियों ने विरोध प्रदर्शन किया। इस पृष्ठभूमि में जब कृष्ण बल्लभ सहाय काँग्रेस के रामगढ़ अधिवेशन के लिए काँग्रेस की नीति का प्रचार प्रसार कर स्वयंसेवकों की भर्ती एवं अधिवेशन के लिए चंदा जुटाने के लिए सामने आए तब उन्हें फॉरवर्ड ब्लॉक के समझौता विरोधी समूह के विरोध का सामना करना पड़ा। फॉरवर्ड ब्लॉक के कार्यकर्ताओं ने उनका स्वागत काले झंडों के साथ किया था। इन परस्पर विरोधाभासों के बावजूद इस कथन में कोई अतिशयोक्ति नहीं कि ये स्वतन्त्रता के इन मतवालों का एक ही ध्येय था और उनमें परस्पर मलिनता नहीं थी। आज यह देखना वाकई दुखद है कि 1947 में एक राष्ट्र के तौर पर हमने जो हासिल किया, उस पर अब सवाल उठाए जा रहे हैं। इस तरह उन स्वतंत्रता सेनानियों के प्रयासों को नकारा जा रहा है जिन्होंने स्वतंत्र भारत के पवित्र लक्ष्य को हासिल करने के लिए खुद को बलिदान कर दिया। इससे भी ज़्यादा दुखद बात यह है कि अक्सर इन स्वतंत्रता सेनानियों के वंशज भी इस तरह के व्हाट्सअप इतिहास के शिकार हो जाते हैं।

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