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कृष्ण बल्लभ बाबू |
कृष्ण
बल्लभ बाबू के बारे में अंतरंगता के साथ लिखना मेरे लिए दुष्कर कार्य है। हमलोग दो
अलग- अलग पीढ़ी के थे। उनके पुत्र गुतूल मेरे सहपाठी थे।
फिर
भी उनके विषय में लिखकर मैं स्मृतिदर्पण करने का प्रयास कर रहा हूँ।
बिहार
की विभूतियों में जब श्री बाबू एवं अनुग्रह बाबू का नाम लिया जाता है तो स्वतः
कृष्ण बल्लभ बाबू का नाम भी मूंह से निकल जाता है। श्रीबाबू एवं अनुग्रह बाबू में
मेधाशक्ति एवं माधुर्य का मणिकांचन संयोग था। परंतु कृष्ण बल्लभ बाबू में प्रखर
मेधा तो थी पर माधुर्य का अभाव था। उनके मन जो बात स्फुरित होती थी उसे वे दो टूक
कह दिया करते थे। अप्रिय सत्य बोलने में उन्हें कोई झिझक नहीं होती थी। पर ऊपर से
शुष्क लगनेवाले कृष्ण बल्लभ बाबू भीतर से अत्यंत ही सहृदय थे।
उनकी
दृष्टि में प्रतिष्ठित और तथाकथित शीर्षस्थ कार्यकर्ता एवं नए कार्यकर्ता में कोई
अंतर नहीं होता था। दोनों के लिए उनके हृदय में समान स्थान रहता था। परंतु इसका
भान मुझे बाद में हुआ। कॉलेज जीवन में मैं उनका आलोचक तो नहीं था पर उनका प्रशंसक
भी नहीं था। दरअसल उनके पुत्र गुतूल जी (नर्बदेश्वर सहाय) सेंट कोलंबस कॉलेज में
मेरे साथ पढ़ते थे। वे बड़े मंत्री के पुत्र थे और उनकी बातें ही कुछ और थी। और मेरे
संवेदनशील मन में वे रास नहीं आते थे। यही कारण था कि अनजाने उनके पिता श्री कृष्ण
बल्लभ सहाय के विरुद्ध अपने अवचेतन मन में बहुत सी गलत भ्रांतियाँ पाल रखी थी।
कॉलेज
की पढ़ाई समाप्त करने के बाद जब मैंने राजनीतिक जीवन में प्रवेश किया तो उनके विरत
व्यक्तित्व से निकट का संबंध हुआ। मुझे बड़ा ही दुख हुआ कि अनजाने मैंने कैसे भ्रामक
विचार उनके संबंध में बना रखे थे। मैंने अपना राजनीतिक जीवन मजदूर आंदोलन के
कार्यकर्ता के रूप में शुरू किया। मजदूर आंदोलन में हमारे नेता स्वर्गीय बी. पी.
सिन्हा साहब थे। स्वर्गीय सिन्हा कृष्ण बल्लभ बाबू के निकटतम सहयोगी थे। दोनों का
आपस में घनिष्ठ संबंध था। एक घटना स्मरण हो रही है। जब कृष्ण बल्लभ बाबू
मुख्यमंत्री थे तो एक दिन उन्होंने हजारीबाग ज़िले के किसी ओद्योगिक अतिथिशाला में
बी.पी. सिन्हा साहब और मुझे कुछ बातें करने के हेतु बुलाया। राजनीतिक बातें समाप्त
होने के बाद हमलोग दिन के भोजन हेतु मेज पर बैठे। कृष्ण बल्लभ बाबू को नहीं मालूम
था कि मैं निरामिष हूँ। निरामिष भोजन में मात्र भात और प्याज़ था। अतः मैंने भोजन
नहीं करने का निश्चय किया। कृष्ण बल्लभ बाबू ने देखा कि यह युवक चुपचाप बैठा है और
कुछ नहीं खा रहा है तो उन्होंने मुझसे नहीं खाने का कारण पूछा। फिर उन्होंने देखा
कि मात्र भात और प्याज़ इसके गले के नीचे नहीं उतर सकता तो उन्होंने अतिथिशाला के
प्रबन्धक से पूछा कि क्या दाल नहीं बनी है। प्रबन्धक ने संकोच से कहा “नहीं”।
कृष्ण बल्लभ बाबू ने कहा इस मोहल्ले में किसी न किसी के यहाँ दाल तो पकी ही होगी
तो जाओ कहीं से दाल ले आओ। और जब तक दाल नहीं आई तब तक कृष्ण बल्लभ बाबू ने भी कुछ
नहीं खाया। इस बीच में हमसे कॉलेज जीवन के बारे में कुछ-कुछ पूछते रहे। उन्होंने
यह भी पूछा कि गुतूल के साथ मेरा संबंध कैसा था। जब दाल आ गयी तो उन्होंने खाना
शुरू किया। मज़ाक में बोले कि चलो तुम्हारे लिए दाल तो आ गयी किन्तु खाना ठंडा हो
गया। मैंने भी दबे स्वर में उत्तर दिया कि मेरी दाल भी कुछ कम ठंडी नहीं है। इस पर
वे खुल कर हँस पड़े। परंतु उनका आत्मीय व्यवहार से मेरे जैसा एक साधारण कार्यकर्ता
उनसे अभिभूत हो गया।
कभी-कभी
ऐसा संयोग होता है कि किसी महान व्यक्तित्व के सामने आने के बाद कुछ ऐसे भी लम्हे
गुज़र जाते हैं जो मनुष्य के हृदय पटल पर स्थायी रूप से अचल बनकर स्मरण की कल्पना
के सुखद प्रेरक परिच्छेद बनकर स्थायित्व ग्रहण कर लेते हैं।
हमारे
मित्र श्री वीरेंद्र किशोर शरण, अधिवक्ता (डाल्टनगंज) ने, जो कृष्ण बल्लभ बाबू के संबंधी भी हैं, उनके रोचक
प्रसंग का उल्लेख किया। कृष्ण बल्लभ बाबू कुर्ते के नीचे बनियान नहीं पहना करते
थे। किसी ने पूछा- ‘आप बनियान क्यों नहीं पहनते हैं’? उनका उत्तर मार्मिक था-कितनी साफ, कितना बेलाग
कितना प्रेरक होने के साथ ही कितना निष्ठापूर्ण! कृष्ण बल्लभ बाबू ने कहा- ‘मैं जीवन के प्रारम्भ में कुर्ता एवं बनियान दोनों ही पहनने की स्थिति में
नहीं था। मेरी माली हालत उतनी अच्छी नहीं थी। इसलिए मैं कुर्ते के नीचे बनियान
नहीं पहनता था। अब वो हमारी आदत बन गयी है’। यही वजह थी कि
कृष्ण बल्लभ बाबू कुर्ते के नीचे बनियान नहीं पहनते थे।
कैसी
थी उनकी सादी ज़िंदगी, और कितने अनुकरणीय थे उनके
आदर्श! साथ ही सच्चाई को स्वीकारने की शक्ति। जो भी उनके व्यक्तित्व के निकट
पहुंचा उसे यह कभी एहसास नहीं हुआ कि वे अनजान हैं। लगता था कि ये उस व्यक्ति को
जन्म-जन्मांतर से जानते हैं और वे उतनी ही निकट से उसे अपनाने की कोशिश भी करते
थे। मुझे दुख होता है कि जिसने सारी ज़िंदगी ही समाज को बनाने में व्यतीत कर दी, जिन्होंने गरीबों एवं छुटभैयों को उनका हक़ दिलाने में हड्डी गला दी, जिन्होंने बिहार के सर्वांगीण प्रगति हेतु अथक परिश्रम किया, जिन्होंने जमींदारी उन्मूलन के द्वारा शोषण की प्रक्रिया को अवरुद्ध किया
तथा जिन्होंने देश को स्वतन्त्रता दिलाई, आज हम उन्हें भूलते जा रहे हैं। राजनीतिक शास्त्र के विद्वानों को उनके
व्यक्तित्व एवं कृतित्व को चीर-स्थायी करने के हेतु उनकी प्रामाणिक जीवनी लिखनी
चाहिए।
(साभार-
कृष्ण बल्लभ सहाय स्मृति पत्रिका, जन्म-जयंती समिति
द्वारा प्रकाशित 31/12/1986)