Sunday, 9 March 2025

‘कृष्ण बल्लभ बाबू- नमन उन्हें मेरा शतबार’ - योगेश्वर प्रसाद ‘योगेश’, भूतपूर्व, संसद सदस्य (लोक-सभा), भूतपूर्व मंत्री, बिहार सरकार ( 09/03/2025)

 

कृष्ण बल्लभ बाबू

कृष्ण बल्लभ बाबू के बारे में अंतरंगता के साथ लिखना मेरे लिए दुष्कर कार्य है। हमलोग दो अलग- अलग पीढ़ी के थे। उनके पुत्र गुतूल मेरे सहपाठी थे।

फिर भी उनके विषय में लिखकर मैं स्मृतिदर्पण करने का प्रयास कर रहा हूँ।

बिहार की विभूतियों में जब श्री बाबू एवं अनुग्रह बाबू का नाम लिया जाता है तो स्वतः कृष्ण बल्लभ बाबू का नाम भी मूंह से निकल जाता है। श्रीबाबू एवं अनुग्रह बाबू में मेधाशक्ति एवं माधुर्य का मणिकांचन संयोग था। परंतु कृष्ण बल्लभ बाबू में प्रखर मेधा तो थी पर माधुर्य का अभाव था। उनके मन जो बात स्फुरित होती थी उसे वे दो टूक कह दिया करते थे। अप्रिय सत्य बोलने में उन्हें कोई झिझक नहीं होती थी। पर ऊपर से शुष्क लगनेवाले कृष्ण बल्लभ बाबू भीतर से अत्यंत ही सहृदय थे।

उनकी दृष्टि में प्रतिष्ठित और तथाकथित शीर्षस्थ कार्यकर्ता एवं नए कार्यकर्ता में कोई अंतर नहीं होता था। दोनों के लिए उनके हृदय में समान स्थान रहता था। परंतु इसका भान मुझे बाद में हुआ। कॉलेज जीवन में मैं उनका आलोचक तो नहीं था पर उनका प्रशंसक भी नहीं था। दरअसल उनके पुत्र गुतूल जी (नर्बदेश्वर सहाय) सेंट कोलंबस कॉलेज में मेरे साथ पढ़ते थे। वे बड़े मंत्री के पुत्र थे और उनकी बातें ही कुछ और थी। और मेरे संवेदनशील मन में वे रास नहीं आते थे। यही कारण था कि अनजाने उनके पिता श्री कृष्ण बल्लभ सहाय के विरुद्ध अपने अवचेतन मन में बहुत सी गलत भ्रांतियाँ पाल रखी थी।

कॉलेज की पढ़ाई समाप्त करने के बाद जब मैंने राजनीतिक जीवन में प्रवेश किया तो उनके विरत व्यक्तित्व से निकट का संबंध हुआ। मुझे बड़ा ही दुख हुआ कि अनजाने मैंने कैसे भ्रामक विचार उनके संबंध में बना रखे थे। मैंने अपना राजनीतिक जीवन मजदूर आंदोलन के कार्यकर्ता के रूप में शुरू किया। मजदूर आंदोलन में हमारे नेता स्वर्गीय बी. पी. सिन्हा साहब थे। स्वर्गीय सिन्हा कृष्ण बल्लभ बाबू के निकटतम सहयोगी थे। दोनों का आपस में घनिष्ठ संबंध था। एक घटना स्मरण हो रही है। जब कृष्ण बल्लभ बाबू मुख्यमंत्री थे तो एक दिन उन्होंने हजारीबाग ज़िले के किसी ओद्योगिक अतिथिशाला में बी.पी. सिन्हा साहब और मुझे कुछ बातें करने के हेतु बुलाया। राजनीतिक बातें समाप्त होने के बाद हमलोग दिन के भोजन हेतु मेज पर बैठे। कृष्ण बल्लभ बाबू को नहीं मालूम था कि मैं निरामिष हूँ। निरामिष भोजन में मात्र भात और प्याज़ था। अतः मैंने भोजन नहीं करने का निश्चय किया। कृष्ण बल्लभ बाबू ने देखा कि यह युवक चुपचाप बैठा है और कुछ नहीं खा रहा है तो उन्होंने मुझसे नहीं खाने का कारण पूछा। फिर उन्होंने देखा कि मात्र भात और प्याज़ इसके गले के नीचे नहीं उतर सकता तो उन्होंने अतिथिशाला के प्रबन्धक से पूछा कि क्या दाल नहीं बनी है। प्रबन्धक ने संकोच से कहा “नहीं”। कृष्ण बल्लभ बाबू ने कहा इस मोहल्ले में किसी न किसी के यहाँ दाल तो पकी ही होगी तो जाओ कहीं से दाल ले आओ। और जब तक दाल नहीं आई तब तक कृष्ण बल्लभ बाबू ने भी कुछ नहीं खाया। इस बीच में हमसे कॉलेज जीवन के बारे में कुछ-कुछ पूछते रहे। उन्होंने यह भी पूछा कि गुतूल के साथ मेरा संबंध कैसा था। जब दाल आ गयी तो उन्होंने खाना शुरू किया। मज़ाक में बोले कि चलो तुम्हारे लिए दाल तो आ गयी किन्तु खाना ठंडा हो गया। मैंने भी दबे स्वर में उत्तर दिया कि मेरी दाल भी कुछ कम ठंडी नहीं है। इस पर वे खुल कर हँस पड़े। परंतु उनका आत्मीय व्यवहार से मेरे जैसा एक साधारण कार्यकर्ता उनसे अभिभूत हो गया।

कभी-कभी ऐसा संयोग होता है कि किसी महान व्यक्तित्व के सामने आने के बाद कुछ ऐसे भी लम्हे गुज़र जाते हैं जो मनुष्य के हृदय पटल पर स्थायी रूप से अचल बनकर स्मरण की कल्पना के सुखद प्रेरक परिच्छेद बनकर स्थायित्व ग्रहण कर लेते हैं।

हमारे मित्र श्री वीरेंद्र किशोर शरण, अधिवक्ता (डाल्टनगंज) ने, जो कृष्ण बल्लभ बाबू के संबंधी भी हैं, उनके रोचक प्रसंग का उल्लेख किया। कृष्ण बल्लभ बाबू कुर्ते के नीचे बनियान नहीं पहना करते थे। किसी ने पूछा- आप बनियान क्यों नहीं पहनते हैं’? उनका उत्तर मार्मिक था-कितनी साफ, कितना बेलाग कितना प्रेरक होने के साथ ही कितना निष्ठापूर्ण! कृष्ण बल्लभ बाबू ने कहा- मैं जीवन के प्रारम्भ में कुर्ता एवं बनियान दोनों ही पहनने की स्थिति में नहीं था। मेरी माली हालत उतनी अच्छी नहीं थी। इसलिए मैं कुर्ते के नीचे बनियान नहीं पहनता था। अब वो हमारी आदत बन गयी है। यही वजह थी कि कृष्ण बल्लभ बाबू कुर्ते के नीचे बनियान नहीं पहनते थे।

कैसी थी उनकी सादी ज़िंदगी, और कितने अनुकरणीय थे उनके आदर्श! साथ ही सच्चाई को स्वीकारने की शक्ति। जो भी उनके व्यक्तित्व के निकट पहुंचा उसे यह कभी एहसास नहीं हुआ कि वे अनजान हैं। लगता था कि ये उस व्यक्ति को जन्म-जन्मांतर से जानते हैं और वे उतनी ही निकट से उसे अपनाने की कोशिश भी करते थे। मुझे दुख होता है कि जिसने सारी ज़िंदगी ही समाज को बनाने में व्यतीत कर दी, जिन्होंने गरीबों एवं छुटभैयों को उनका हक़ दिलाने में हड्डी गला दी, जिन्होंने बिहार के सर्वांगीण प्रगति हेतु अथक परिश्रम किया, जिन्होंने जमींदारी उन्मूलन के द्वारा शोषण की प्रक्रिया को अवरुद्ध किया तथा  जिन्होंने देश को स्वतन्त्रता दिलाई, आज हम उन्हें भूलते जा रहे हैं। राजनीतिक शास्त्र के विद्वानों को उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व को चीर-स्थायी करने के हेतु उनकी प्रामाणिक जीवनी लिखनी चाहिए।   

(साभार- कृष्ण बल्लभ सहाय स्मृति पत्रिका, जन्म-जयंती समिति द्वारा प्रकाशित 31/12/1986)

      

      

Friday, 28 February 2025

भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद की पुण्य-तिथि पर विशेष (28/02/2025)

 

डॉ राजेंद्र प्रसाद 


स्वतंत्र भारत का पहला मंत्रिमंडल 








डॉ राजेंद्र प्रसाद की लिखी दो पुस्तकें खंडित भारत (INDIA DIVIDED) एवं आत्मकथा (AUTOBIOGRAPHY) से आम पाठक भिज्ञ हैं किन्तु उनकी लिखी अन्य पुस्तकें भी उतने ही बहुमूल्य हैं। भारतीय संस्कृति एवं इतिहास का वर्णन करता पंडित जवाहर लाल नेहरू जी की लिखी पुस्तक भारत की खोज जितना महत्वपूर्ण है उसके समकक्ष ही है डॉ राजेंद्र प्रसाद की लिखी पुस्तक संस्कृत का अध्ययन- उसकी उपयोगिता और उचित दिशा। इस पुस्तक में संस्कृत भाषा की पूर्णता और उसके वागमय का विस्तार और महत्व का वर्णन है। यह पुस्तक स्थापित करती है कि हिन्दू धर्म एवं अध्यात्म और भाषाओं की जननी संस्कृत के प्रति यह प्रेम इन स्वतन्त्रता सेनानियों के दिल में गहरे बसते थे। यह कहना कि इन मुद्दों पर आज जितना बल दिया जा रहा है वो काँग्रेस के इन स्वतन्त्रता सेनानियों के समय नहीं हुआ सर्वथा गलत है। ये और बात है कि ये बहुमूल्य पुस्तकें राष्ट्रीय अभिलेखागार में धूल फांक रही है।

इसी प्रकार देश की शिक्षा पद्धति पर डॉ राजेंद्र प्रसाद की पुस्तक भारतीय शिक्षा एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ है जिसमें उन्होंने शिक्षा एवं आत्मविद्या, नारी-शिक्षा का आदर्श, गुरुकुल एवं राष्ट्रीय शिक्षा का स्वरूप, विज्ञान की साधना और साध्य, व्यावहारिक कृषि शिक्षा, बुनियादी तालिम, विद्यार्थी एवं राजनीति आदि अनेक विषयों पर अपने विचार रखे और स्वतन्त्रता के बाद सरकार ने इस ओर पहल भी किए। डॉ राजेंद्र प्रसाद ने हिन्दी एवं अँग्रेजी में और भी पुस्तकें लिखी हैं। इनमें प्रमुख हैं –MAHATMA GANDHI IN BIHAR’, SATYAGRAHA IN CHAMPARAN आदि आदि।

डॉ राजेंद्र प्रसाद की लिखी ये सभी पुस्तकें स्वतन्त्रता संग्राम के साथ साथ काँग्रेस के संघर्षों का तथ्यात्मक इतिहास है। उस दौर के अन्य स्वतन्त्रता सेनानियों ने भी तात्कालिक इतिहास की तथ्यात्मक जानकारी देते हुए पुस्तकें लिखी हैं। कमी केवल पढ़ने वालों की है। उस दौर के बारे में जिस प्रकार के दुष्प्रचार आजकल हो रहे हैं और जिस प्रकार तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर सोश्ल मीडिया पर जानकारियाँ उपलब्ध कराई जाती हैं वो निश्चय ही भर्त्सना के योग्य है। आजकल यह भी शिकायत होती है कि पढ़ाई के दौरान इतिहास की सही जानकारी नहीं दी गयी। इतिहास की सही जानकारी के लिए राष्ट्रीय अभिलेखागार का खाक छानना पड़ता है और इतिहास की घटनाओं के प्रति मौलिक विचार बनाने की आवश्यकता है जिसके लिए स्वपाठन ही विकल्प है। किन्तु आज की पीढ़ी जो हर चीज़ चीज़ इंस्टेंट चाहती है के पास स्वपाठन के लिए पास समय नहीं है। वो सोश्ल मीडिया के इतिहास से ही अपना ज्ञान संवर्धन कर संतूष्ट है। इसका प्रभाव हर ओर दिखता है।

डॉ राजेंद्र प्रसाद द्वारा लिखी पुस्तकों के अलावे डॉ राजेंद्र प्रसाद की स्मृतियों को समर्पित पुस्तकों की भी कमी नहीं है। देशपूज्य राजेंद्र प्रसाद ऐसा ही संकलन है। किन्तु हिन्दी में लिखी इस पुस्तक को पढ़ने में आज किसे रुचि होगी। इस पुस्तक के रचयिता श्री गदाधर प्रसाद अंबष्ट हैं जिन्होंने पुस्तक की प्रस्तावना में उन्हें इस पुस्तक को लिखने में मिले बुद्धिजनों के सहयोग पर आभार व्यक्त किया है। इन महानुभावों में बाबू कृष्ण बल्लभ सहाय भी थे। इसी प्रकार लोकप्रिय कवि प्रोफेसर शिव पूजन सहाय द्वारा डॉ राजेंद्र प्रसाद पर संकलित लेखों की पुस्तक राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद तात्कालिक इतिहास का गुणात्मक अध्ययन है। आजकल युवाओं में किताबें पढ़ने की आदत नहीं रही है और हिन्दी में लिखी पुस्तकों के पाठक तो नगण्य हैं। किन्तु यदि देश का सही इतिहास पढ़ने का चाव है तो सत्य के दर्शन यहीं होंगें।             

Wednesday, 26 February 2025

कृष्ण बल्लभ सहाय का व्यक्तित्व - श्रीमती प्रमोदिनी सिन्हा (26/02/2025)

यह लेख उपरोक्त संग्रह से लिया गया है। 

 कृष्ण बल्लभ सहाय का व्यक्तित्व

श्रीमती प्रमोदिनी सिन्हा

सादा जीवन उच्च विचार में विश्वास करनेवाले बिहार के भूतपूर्व मुख्यमंत्री स्वर्गीय कृष्ण बल्लभ सहाय का जन्म 31 दिसंबर 1898 ईस्वी में पटना ज़िले के शेखपुरा गाँव में एक मध्यम वर्गीय कायस्थ परिवार में हुआ था। श्री सहायजी ने बड़ी ही ईमानदारी, लगन और मेहनत से, कठिनाइयों से संघर्ष करते हुए अपने आप को इस योग्य बनाया कि एक दिन वे बिहार के प्रथम व्यक्ति हो सके।


श्री सहायजी की प्रारम्भिक शिक्षा पी.एन. एंग्लो स्कूल में आरंभ हुई। कुछ कक्षाएँ राम मोहन रॉय सेमीनारी से भी पास की। फिर हजारीबाग ज़िला स्कूल में नाम लिखाया। वहीं पर स्कूल शिक्षा समाप्त कर हजारीबाग के सैंट कोलम्बस कॉलेज में शिक्षा ग्रहण की और 1919 में अँग्रेजी स्नातक की परीक्षा प्रतिष्ठा के साथ पास की। विश्वविद्यालय में वे अव्वल आए और उन्होंने स्वर्ण पदक प्राप्त किया। इनकी तीव्र इच्छा कानून पढ़ने की थी। अतः इन्होंने पटना कॉलेज में कानून और एम.ए. की पढ़ाई साथ-साथ शुरू की। ये अत्यंत ही मेधावी छात्र थे। इनकी स्मरण शक्ति अत्यंत तीव्र थी एवं प्रत्येक विषय को अपनी कुशाग्र बुद्धि द्वारा समझ कर फिर ग्रहण करने का प्रयास करते थे। जो पुस्तक एक बार पढ़ लेते थे, जल्दी नहीं भूलते थे।


तात्कालिन राजनीतिक परिस्थितियों के प्रभाव में श्री के.बी. सहाय अपने आप को पृथक नहीं रख सके। दिन-प्रतिदिन की घटनाएँ उनके मानस पर एक-एक कर अपना अमिट छाप छोड़ती जा रही थी। यही कारण है कि जब 1920 में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन आरंभ किया, इन्होंने इस आंदोलन में भाग लेने के निमित्त अपनी पढ़ाई-लिखाई छोड़ दी। वर्ष 1912 में राष्ट्रीय महाविद्यालय की स्थापना हुई थी। स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद इसके प्राचार्य नियुक्त हुए और श्री कृष्ण बल्लभ सहाय ने इस महाविद्यालय में अँग्रेजी पढ़ाने का भार अपने कंधे पर लिया।


सन 1923 में देशबंधु चित्तरंजन दास ने स्वराज पार्टी की स्थापना की। श्री के.बी. सहाय को बिहार शाखा का सचिव बनाया गया। इसके साथ ही ये बिहार और उड़ीसा परिषद के लिए चुने गए जिसपर ये छ वर्षों तक रहे। उन दिनों विधान मण्डल में एक सदन हुआ करता था। ये अनेक क्रांतिकारी व्यक्तियों एवं संस्थाओं से सम्बद्ध थे। कहते हैं कि लोकनायक जयप्रकाश नारायण जी जब जेल की दीवार फाँद कर भागे थे उस समय उनके लिए बिस्तर पर वे ही हाजरी बोलने के लिए लेटे। इस प्रकार निर्भीकता, अदम्य साहस एवं उत्साह का इन्होंने परिचय दिया।


सन1927 में स्थापित पटना युवक संघ के ये अध्यक्ष चुने गए। इसका मुख्य उद्देश्य था –सशस्त्र विद्रोह कर भारत माता की बेड़ियों को काटकर उसे स्वतंत्र कराना।  देवघर षड्यंत्र केस का जब ट्रायल चल रहा था तो उन्होंने असीम साहस का परिचय देते हुए दुमका जाकर अपनी आखों से ट्रायल देखा और निर्भीकतापूर्वक इन घटनाओं से संबन्धित एक लेख लिखा जो 8 जनवरी 1928 के सर्चलाइट प्रैस में छपा। सन 1930 से 1934 के बीच स्वतंत्र संग्राम में भाग लेने के कारण इन्हें चार बार जेल हुई। सन 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान तो वे स्वतन्त्रता सेनानियों के मध्य अग्रणी रहे। सन 1942 में मौलाना मजरूल हक़ के जेल जाने के बाद अँग्रेजी साप्ताहिक द मदरलैंड का इन्होंने सम्पादन किया। इस पत्रिका से ये पहले से ही जुड़े हुए थे।  


सन 1937 से 1946 के मध्य जब बिहार में श्रीकृष्ण सिन्हा का मंत्रिमंडल बना तो इनको संसदीय सचिव चुना गया। 15 अगस्त 1947 को भारत स्वतन्त्र हुआ। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद स्वतंत्र भारत के बिहार प्रांत में कृष्ण बल्लभ सहाय प्रथम राजस्व मंत्री बनाए गए। बिहार में लॉर्ड कार्नवालिस के समय से ही दमनकारी बंदोबस्ती चला आ रहा था। अतः यहाँ के जमींदारों को उनकी जमींदारी से च्युत करना कोई सरल बात नहीं थी। किन्तु वहाँ भी इन्होंने अपनी साहस और कर्मठता का परिचय देते हुए, सबकी आलोचना-प्रत्यालोचना की परवाह किए बगैर, जमींदारी उन्मूलन को कानूनी जामा पहना ही दिया।


सन 1963 में कृष्ण बल्लभ सहाय बिहार प्रांत के मुख्यमंत्री हुए। सन 1963 से 1967 तक इन्होंने इस पद की शोभा बढ़ाई। सन 1967 में आम चुनाव की घोषणा हुई और पटना निर्वाचन क्षेत्र से श्री महामाया प्रसाद सिन्हा ने इन्हें पराजित कर दिया, तथा बिहार में प्रथम सविंद सरकार की स्थापना हुई जिसमें श्री सिन्हा मुख्यमंत्री चुने गए। इसी सविंद सरकार ने इन पर अय्यर आयोग बैठाया था। पुनः 1974 में श्री कृष्ण बल्लभ सहाय ने स्वशासी निकाय निर्वाचन क्षेत्र से भारी मतों से विजय प्राप्त की।


परंतु नियति को यह मंजूर न था और शपथ ग्रहण करने के पूर्व ही हजारीबाग जाते समय कृष्ण बल्लभ सहाय की गाड़ी को किसी ट्रक ने पीछे से धक्का दे दिया। इस दुर्घटना में भारत माँ का एक सच्चा सिपाही सदा-सदा के लिए 3 जून 1974 को माँ की गोद में विलीन हो गया। यह भी एक विचित्र बात है कि जिस बिहार और उड़ीसा विधान परिषद की सदस्यता से कृष्ण बल्लभ सहाय ने अपना संसदीय जीवन प्रारम्भ किया था, पचास वर्षों के बाद पुनः उसी विधान परिषद से सदस्य निर्वाचित होकर इन्होंने अपने संसदीय जीवन का समापन किया।


राजनीतिक जीवन में अत्यंत व्यस्त रहते हुए भी श्री कृष्ण बल्लभ सहाय परिवार के प्रति कभी उदासीन नहीं रहे। जब भी जो भी समय मिलता ये उसी में सबकी पढ़ाई-लिखाई की ओर ध्यान देते। इनको कई सन्तानें थी। ये सभी की इच्छा पूरी करने के लिए सदैव प्रयास करते।


उच्च से उच्च पद पर पहुँचने पर भी इन्होंने कभी शान- शौकत नहीं की। सदैव खादी की मोटी धोती, कुर्ता और गांधी टोपी ही प्रयोग करते और उसे भी खुद अपनी हाथों से ढोते-फिचते। इस प्रकार दो-तीन सेट कपड़े में ही अपना काम चला लेते थे। वे खानपान में भी उदासीन थे। दाल-भात और आलू का भर्ता उनका प्रिय भोजन था। श्री कृष्ण बल्लभ सहाय का नियम था- नित्य प्रातः ब्रह्म मुहूर्त में बिस्तर छोड़ देना, चाहे सर्दी हो अथवा गर्मी या बरसात। इसी समय ये ऑफिस की फाइलें देखते। फाइलों के मामले में ये कभी अपने सेक्रेटरी पर निर्भर नहीं रहते वरन पूरी की पूरी फाइल एक-एक शब्द ध्यान से पढ़ते और तब उस पर टिप्पणी लिखते। यही कारण है कि बिहारवासी आज भी उन्हें भूल नहीं पाये हैं। उनकी प्रशासनिक योग्यता की सदैव प्रशंसा की जाती है।              

Monday, 10 February 2025

अब ऐसे लोग कहाँ हैं - डॉक्टर शंकर दयाल सिंह भूतपूर्व सांसद (10/02/2025)




 अब ऐसे लोग कहाँ हैं

डॉक्टर शंकर दयाल सिंह

भूतपूर्व सांसद

शंकर दयाल सिंह (27 दिसंबर 1937- 27 नवंबर 1995) भारत के राजनेता तथा हिन्दी साहित्यकार थे। वे राजनीति और साहित्य दोनों क्षेत्रों में समान रूप से लोकप्रिय थे। 1971 में वे चतरा से लोक सभा के लिए चुने गए। 1990 में वे राज्य सभा के सदस्य बने। 1995 में उनकी असामयिक मृत्यु हो गई।

जहां तक मैं अपनी स्मरणशक्ति से उँगलियों पर बिहार के मुख्यमंत्री का नाम जोड़ता हूँ तो ऐसी गणना निकलती है कि मुख्यमंत्री श्री बिंदेश्वरी दूबे बिहार के चौदहवें मुख्यमंत्री हैं। नाम ही गिना दूँ- डॉ श्रीकृष्ण सिन्हा, पंडित बिनोदनंद झा, श्री कृष्ण बल्लभ सहाय, श्री महामाया प्रसाद सिन्हा, श्री सतीश प्रसाद सिंह (मात्र तीन दिनों के लिए), श्री बिंदेश्वरी प्रसाद मण्डल, श्री भोला पासवान शास्त्री, श्री सरदार हरिहर सिंह, श्री दारोगा प्रसाद राय, श्री केदार पांडे, श्री अब्दुल गफूर, श्री जगन्नाथ मिश्र, श्री कर्पूरी ठाकुर, श्री राम सुंदर दास, और उसके बाद पुनः डॉ जगन्नाथ मिश्र के बाद श्री चन्द्रशेखर सिंह।

लेकिन वास्तविकता ये है कि बिहार के तीसरे मुख्यमंत्री श्री कृष्ण बल्लभ सहाय ही प्रांत के आखिरी मुख्यमंत्री थे। उनके बाद जो मुख्यमंत्री हुए वे महज नाम के थे, काम के नहीं और उनका सिलसिला भी कुछ और ही रहा। दिल्ली ने उन्हें जब चाहा हटाया और जब चाहा बैठाया। इसके साथ ही जहां तक काम का प्रश्न है, अधिकांशतः मुख्यमंत्री क्लर्को से लेकर अफसरों की हाथ के कठपुतली रहे। कृष्ण बल्लभ बाबू इसके सर्वदा अपवाद थे।

क्या मजाल कि लिखने-पढ़ने और फाइल में कोई उन्हें चरा दे। बड़े-बड़े अधिकारी जिनमें आई.सी.एस. तक थे, उनकी स्पेलिंग को भी श्री कृष्ण बल्लभ बाबू अपनी लाल कलाम से सुधारकर फाइल वापस करते थे और कोई भी संचिका उनके पास अड़तालीस घंटे से अधिक नहीं रहती थी।

जैसे किसी परीक्षा की तैयारी कोई विद्यार्थी करता हो, उसी भांति वह सवेरे चार बजे अपने ऑफिस में बैठ जाते थे तथा फाइल देखना शुरू करते थे। छ्ह बजे तक दर्जनों फाइलें देखते, एक-एक पंक्ति पढ़ते और सही टिप्पणी देकर निबटाते। इसके बाद ही उनकी अन्य दिनचर्याएँ शुरू होती थी।

इसी भांति ट्रेन में, कार में, अथवा वायुयान में जब भी वे यात्रा कर रहे होते थे तो एक-एक संचिका करीने से देखते जाते थे और सहायक से लेकर सचिव तक के नोट को पढ़कर, देखकर, तजबीज करके ही कोई टिप्पणी देते थे या निर्णय लेते थे।

किसी ने उन दिनों ठीक ही कहा था कि श्रीबाबू का राज रोब से चलता था, बिनोदा बाबू का राजनीति से लेकिन कृष्ण बल्लभ बाबू का शुद्ध रूप से मुंशीगिरी से। कागज-पत्तर के मामले में क्या मजाल जो कृष्ण बल्लभ बाबू को कोई ठग दे। बड़े-बड़े दिग्गज अधिकारी उनके सामने जाने से घबड़ाते थे क्योंकि कृष्ण बल्लभ बाबू का काम सीधा लिखा-पढ़ी का होता था, चालाकी का नहीं।

आज के मंत्रियों का हाल जब देखता या सुनता हूँ तो हँसी आती है। बफशीट पर बफशीट जा रही है लेकिन अधिकारी फाइल भी नहीं भेजता है। किसी काम के लिए मंत्री महोदय ने बफशीट लिखकर भेजा और विभागीय क्लर्क उसे कहीं दबाकर रख देता है या फिर सीधे फाड़ कर फेंक देता है यह कहकर कि- ऐसा ऑर्डर तो रोज आता है

बात इतनी ही नहीं है। अनेक मंत्री को अपने अधीनस्थ अधिकारियों की खुशामद व चिरौरी करनी पड़ती है कि- फलां साहब यह काम हो जाता या एक सप्ताह पहले जो बफशीट भेजा था उसका क्या हुआ या यह कि जरा इस तरह का नोट बना कर भेज दीजिये बड़ी कृपा होगी। बात यहीं समाप्त हो जाती तो कोई बात नहीं थी किन्तु हद तो तब होती है जब इसके आगे यह कहते हैं कि क्या करें, हम तो चाहते थे, लेकिन कमिश्नर साहब या सेक्रेटरी साहब मान ही नहीं रहे हैं।

लेकिन कृष्ण बल्लभ बाबू के समय में बात ही कुछ दूसरी थी। फोन से उन्होंने किसी अधिकारी को कुछ कह दिया या कोई बफशीट भेज दी अथवा संचिका पर आदेश दे दिया तो फिर क्या मजाल कि चौबीस घंटे के अंदर उनकी तामिली न हो। सामान्य कर्मचारी उनसे घबड़ाते थे, उच्चाधिकारी तक उनके सामने काँपते थे तथा सियासत चलाने के उनके रोब से थरथरी पैदा हो जाती थी।

अपने सामने का एक उदाहरण दे दूँ। कृष्ण बल्लभ बाबू ने अपने समय के शिक्षा आयुक्त को बफशीट पर एक आदेश लिखकर भेजा, लेकिन तीसरे दिन तक सचिवालय से वो जारी नहीं हुआ। तीसरे दिन जब कृष्ण बल्लभ बाबू को इसकी जानकारी मिली तो उन्होंने शिक्षा आयुक्त को फोन किया और पूछा कि उस काम का क्या हुआ तो उधर से जवाब आया –सर, मैं इस पर अपनी टिप्पणी भेज रहा हूँ। दरअसल इसे ऐसे नहीं ऐसा होना चाहिए।

कृष्ण बल्लभ बाबू यह सुनते ही आग बबूला हो गए- मेरे आदेश देने के बाद आप कौन होते हैं उसे रोक कर रखने वाले? सरकार आप हैं या मैं हूँ? जनता ने आपको चुना है या मुझे? और इंक्वाइरी यदि होगी तो मेरे ऊपर होगा कि आपके ऊपर? आप सरकार के नौकर हैं और आपका काम है कि जो मिनिस्टर लिखकर आदेश दे या जो सरकार का आदेश हो उसकी तामिल करना। और आपसे यदि यह भी नहीं होता है तो आप आज ही इस्तीफा देकर चले जाइए नहीं तो मैं कल आपको सस्पेंड करके रहूँगा। कहते हुए कृष्ण बल्लभ बाबू ने फोन पटक दिया।

नतीजा यह हुआ कि उक्त अधिकारी ने पाँच बजे के बाद भी रुक कर उस काम का आदेश जारी किया तब सचिवालय से घर गया।

यह रोब था कृष्ण बल्लभ बाबू का!

काम-काज की नियमबद्धता भी उनकी विचित्र थी। ठीक समय पर कार्यालय आना, ठीक समय पर लोगों से मिलने बैठ जाना, एक-एक कर लोगों को बुलाना और मिलना और ठीक समय पर खाना, सोना और उठना।

काँग्रेस कार्यकर्ताओं की जितनी इज्जत उस समय मंत्रियों के बीच थी उसके बाद नहीं हो पायी। श्रीबाबू, अनुग्रह बाबू, बिनोदा बाबू, कृष्ण बल्लभ बाबू, महेश बाबू और वीरचंद पटेल आदि ऐसे नाम थे जो आज़ादी की लड़ाई में संघर्ष के साथ छन कर उभरे थे। अतः वे कार्यकर्ताओं का मूल्यांकन भी जानते थे। बाद के दिनों में मंत्रियों और कार्यकर्ताओं दोनों का स्तर ऐसा गिरा कि सेवा नाम की वस्तु से किसी का वास्ता ही नहीं रहा। बदले में दलाली का धंधा ही मुख्य हो गया।

एक जो सबसे बड़ी बात देखने में आती है वह यह है कि कृष्ण बल्लभ बाबू के समय तक बदली, प्रोन्नति, पोस्टिंग और बहाली आदि में अधिकारियों से पैसे लेने की दुर्व्यवस्था नहीं थी। मंत्री या नेतागण चुनाव आदि के समय अथवा संस्था को चलाने के लिए बड़े लोगों से या पूँजीपतियों, ठेकेदारों, उद्योगपतियों से ही पैसा लेते थे। उसके बाद ऐसा एक माहौल बन गया कि मंत्री खुले-आम अफसरों से घूस लेने लग गए। नतीजा यह हुआ कि अफसरों की नज़रों में मंत्रियों का कोई स्थान ही नहीं रहा और जो रिश्वत देकर बहाल हुआ था जिसकी प्रोन्नति हुई अथवा मनचाहे स्थान पर नियुक्ति हुई उसने अपना यह धर्म माना कि जितना खर्च किया है उसका पाँच-सात गुना वसूल कर लें।

हालांकि यह भी कहने में मुझे संकोच नहीं हो रहा है कि कृष्ण बल्लभ बाबू के मंत्रिमंडल में एक मंत्री ने अफसरों से पैसे लेने की शुरुआत कर दी थी, लेकिन चोरी-छिपे। उसके बाद तो यह खुले-आम पद्धति हो गयी। नतीजा यह हुआ कि कामचोर, बेईमान और रिश्वतखोर अधिकारियों का बोलबाला हो गया तथा ईमानदार अधिकारी पीसने लगा। इसकी प्रतिक्रिया सरकारी तंत्र पर सबसे अधिक है और भ्रष्टाचार जो प्रखण्ड स्तर से लेकर सचिवालय की बड़ी कुर्सी तक देखने में आ रहा है, उसका समाजीकरन कर दिया गया।

कृष्ण बल्लभ बाबू पर संयुक्त विधायक दल की सरकार ने अय्यर कमीशन बहाल किया था जिसमें उनके मंत्रिमंडल के सात और सदस्यों को शामिल किया गया था। उस समय कृष्ण बल्लभ बाबू के लॉकर और बैंक  से एक लाख रुपये मिले थे जिसके कारण उन्हें बेईमान करार दिया गया। उनकी सफाई कहीं नहीं सुनी गयी। अय्यर ने भी उनके वक्तव्य को अपनी रिपोर्ट में स्थान नहीं दिया। यह न्यायसंगत नहीं था।

कृष्ण बल्लभ बाबू एक सुयोग्य प्रशासक, ऊपर से कठोर लेकिन अंदर से कोमल, दोस्तों के लिए सदा तत्पर रहने वाले, अनुभवी और दिलेर व्यक्ति थे। मुख्यमंत्री के रूप में उन्होंने बिहार प्रांत में जो शासन किया वह किसी भी दूसरे मुख्यमंत्री ने नहीं किया। उनके समय तक मुख्यमंत्री की एक आब थी, इज्ज़त थी, रोब था, दबदबा था, और किसी प्रकार की ढील नहीं थी। बाद के दिनों में मुख्यमंत्री पद की गरिमा ऐसी समाप्त हुई कि उसे न तो जनता की श्रद्धा मिली, न दल का समर्थन मिला और सदा उनके ऊपर नंगी तलवार लटकती रही।

कृष्ण बल्लभ बाबू की साफ़गोई का भी कोई जवाब नहीं था। जिस काम को वे कर सकते थे उसमें हाँ कहने के बाद चाहे जैसे भी हो उसे पूरा करते थे और इसी प्रकार किसी भी काम को ना कहने में भी एक सेकंड के लिए भी देर नहीं करते थे। देखेंगें’, अच्छा हो जाएगा’, देखिये ज़ोर लगाता हूँ’, क्या कहें बहुत कोशिश की लेकिन नीचे वाले मानते ही नहीं हैं’, मैं तो भूल गया, अच्छा किया कि याद दिला दिया’, आदि वाक्य उनके शब्दकोश में नहीं थे। होना होगा तो वो काम तत्काल हो जाएगा अन्यथा न होना होगा तो उसी समय में भी हो जाएगा। लाग-लपेट और खुशामद-मलानत की ज़िंदगी उनकी थी ही नहीं।

और उसका बड़ा से बड़ा मूल्य चुकाने के लिए वे तैयार रहते थे और उन्होंने चुकाया भी। 1967 में वे पश्चिमी पटना से विधान सभा के उम्मीदवार हुए। उससे पहले भी वे इसी क्षेत्र से विधान सभा में चुनकर गए थे। उनके मुख्यमंत्रित्व काल में चुनाव के कुछ दिन पहले ही पटना में प्रदर्शनकारियों पर गोली चली, जिसमें आठ आदमी मारे गए।

लोगों ने बहुतेरा कहा कि अब आप पटना से न खड़े हों, लेकिन वे नहीं माने। इतना ही नहीं गोलीकांड के लिए कमीशन बिठाना भी उन्होंने स्वीकार नहीं किया। अपने चुनाव भाषण में हर जगह वे यही कहते रहे मेरे आदेश से गोली चली  क्योंकि मैं यहाँ का मुख्यमंत्री हूँ, अतः मेरी ज़िम्मेदारी है। मैं इसे किसी अधिकारी पर थोपना नहीं चाहता। गोली इसलिए चलायी गयी क्योंकि गुंडे खादी भवन में आग लगा रहे थे और पुलिस मुख्यालय को लूटना चाहते थे। ऐसे में गोली चली तो क्या बुरा हुआ? मैं यदि पुनः मुख्यमंत्री हुआ और ऐसी हरकत हुई तो गोली चलाने में मैं कभी पीछे नहीं हटूँगा।

अपनी साफ़गोई का उन्हें मूल्य चुकाना पड़ा। लेकिन उन्होंने गलत नीतियों से कभी संधि नहीं की। यही कारण है आज जब मैं उन्हें याद कर रहा हूँ तो निःसंकोच मेरे मूंह से यह वाक्य निकल रहा है कि बिहार प्रांत के वे आखिरी मुख्यमंत्री थे, जिन्होंने शान के साथ मुख्यमंत्रित्व किया।

टिप्पणी: ये विचार लेखक के हैं। “कृष्ण बल्लभ सहाय जयंती समारोह समिति” के नहीं- संपादक   

Thursday, 23 January 2025

नेताजी सुभास चन्द्र बोस की जयंती पर विशेष - ‘जब के.बी. सहाय का विरोध काले झंडे से हुआ’





सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान स्वतंत्रता संग्राम की पहुंच और प्रभाव को व्यापक बनाने के प्रयास में कृष्ण बल्लभ बाबू ने फैक्ट्री और मिल श्रमिकों को संगठित करना शुरू किया। फलतः यह आंदोलन फैक्ट्री प्रतिष्ठानों तक फैल गया। के. बी. सहाय ने कांग्रेस की ओर से अपील की कि मिल मजदूर अपनी उचित मांगों के लिए दबाव डालते हुए प्रबंधन की अवज्ञा करें। एक घटना जमशेदपुर के टिन प्लेट फैक्ट्री की है जहां मिल मजदूर बेहतर कार्य स्थितियों की मांग करते हुए हड़ताल पर चले गए। विधान सभा और बिहार और उड़ीसा प्रांतीय परिषद के सदस्य यथा श्री जोगिया, राम नारायण सिंह, अब्दुल बारी, जिमतवहन सेन, शशि भूषण राय भी इस आंदोलन में कृष्ण बल्लभ सहाय के साथ जुड़ गए। कृष्ण बल्लभ के निवेदन पर मिल मजदूरों के पक्ष में डॉ राजेंद्र प्रसाद ने सितंबर 1929 के पूर्वार्द्ध में गोलमौरी का दौरा किया। (बिहार में स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास खंड-I, डॉ. काली किंकर दत्ता द्वारा, केंद्रीय सचिवालय पुस्तकालय बिहार सरकार द्वारा प्रकाशित, 1957) इस आंदोलन से नेताजी सुभास चन्द्र बोस भी जुड़े थे। गोलमौरी में एक बैठक में, सुभाष चंद्र बोस ने कहा कि जब तक मामले सुलझ नहीं जाते, वह जगह नहीं छोड़ेंगे। उन्होंने जोर देकर कहा कि यदि आवश्यक हुआ तो वह बारडोली सत्याग्रह की तर्ज पर सत्याग्रह अभियान शुरू करेंगे। राम नारायण सिंह ने 27 अगस्त को टिन प्लेट फैक्ट्री के महाप्रबंधक से मुलाकात की और घोषणा की कि विवाद पूंजीपतियों के साथ नहीं बल्कि सरकार के साथ है। 29 अगस्त को, कृष्ण बल्लभ ने ऐलान किया कि कांग्रेस पार्टी ने मजदूरों को सविनय अवज्ञा अभियान से जोड़ने और उनसे हड़ताल पर जाने की अपील इसलिए की क्योंकि सरकार उनकी जायज़ मांगों को सुनने के लिए भी तैयार नहीं थी। (फ़ाइल संख्या: 257/I/1930 गृह विभाग, पहचानकर्ता: PR_000003032598, संग्रह: डिजिटाइज़्ड पब्लिक रिकॉर्ड्स होम/पॉलिटिकल (सौजन्य: राष्ट्रीय अभिलेखागार, नई दिल्ली) हड़ताल अंततः फ़ैक्टरी मज़दूरों के पक्ष में समाप्त हुई।

मार्च 1940 में भविष्य की रणनीति तैयार करने के लिए रामगढ़ (बिहार, अब झारखंड) में कांग्रेस का अधिवेशन बुलाया गया। अनुग्रह नारायण सिन्हा, कृष्ण बल्लभ सहाय, राम नारायण सिंह और अंबिका कांत सिंह जैसे कांग्रेसियों को सफल व्यवस्था का जिम्मा सौंपा गया। दिलचस्प बात यह है इसी समय में रामगढ़ एक अन्य बड़े सम्मेलन का स्थल भी था। समझौता विरोधी सम्मेलननेताजी सुभाष चंद्र बोस के दिमाग की उपज थी जो द्वितीय विश्व युद्ध के दरम्यान अंग्रेजों से किसी भी प्रकार के सम्झौता के खिलाफ थे। हालाँकि के.बी. सहाय नेताजी के नेतृत्व का पूरा सम्मान करते थे, लेकिन उनके प्रयास कांग्रेस अधिवेशन के सफल आयोजन की ओर निर्देशित थे। फॉरवर्ड ब्लॉक, जिसे नेताजी ने एक साल पूर्व ही 1939 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के भीतर एक रूप में स्थापित किया था, एवं  कांग्रेस के बीच इस तनातनी का उल्लेख डॉ राजेंद्र प्रसाद ने भी अपनी आत्मकथा में संक्षेप में किया है-हालांकि द्वितीय विश्व युद्ध के दरम्यान कांग्रेस कभी भी अंग्रेजों के साथ किसी भी समझौते के पक्ष में नहीं थी, फिर भी यह निराधार आरोप लगाया गया था कि कांग्रेस अंग्रेजों के साथ समझौता करने पर आमादा थी। (डॉ राजेंद्र प्रसाद की आत्मकथा, (पृष्ठ 501-505) (1957), एशिया पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित।) कांग्रेस के भीतर इस तरह के विरोधाभासों के कारण प्रतिद्वंद्वी समूहों के अनुयायियों ने विरोध प्रदर्शन किया। इस पृष्ठभूमि में जब कृष्ण बल्लभ सहाय काँग्रेस के रामगढ़ अधिवेशन के लिए काँग्रेस की नीति का प्रचार प्रसार कर स्वयंसेवकों की भर्ती एवं अधिवेशन के लिए चंदा जुटाने के लिए सामने आए तब उन्हें फॉरवर्ड ब्लॉक के समझौता विरोधी समूह के विरोध का सामना करना पड़ा। फॉरवर्ड ब्लॉक के कार्यकर्ताओं ने उनका स्वागत काले झंडों के साथ किया था। इन परस्पर विरोधाभासों के बावजूद इस कथन में कोई अतिशयोक्ति नहीं कि ये स्वतन्त्रता के इन मतवालों का एक ही ध्येय था और उनमें परस्पर मलिनता नहीं थी। आज यह देखना वाकई दुखद है कि 1947 में एक राष्ट्र के तौर पर हमने जो हासिल किया, उस पर अब सवाल उठाए जा रहे हैं। इस तरह उन स्वतंत्रता सेनानियों के प्रयासों को नकारा जा रहा है जिन्होंने स्वतंत्र भारत के पवित्र लक्ष्य को हासिल करने के लिए खुद को बलिदान कर दिया। इससे भी ज़्यादा दुखद बात यह है कि अक्सर इन स्वतंत्रता सेनानियों के वंशज भी इस तरह के व्हाट्सअप इतिहास के शिकार हो जाते हैं।

REMEMBERING NETAJI - WHEN K.B. SAHAY FACED BLACK FLAG PROTEST

 







To widen the reach and impact of the Civil Disobedience Movement, K.B. Sahay roped in the support of the factory and mill workers to the noble cause of the freedom struggle. He appealed on behalf of Congress, urging workers to disobey the management civilly while pressing for their just demands. This was followed by a call for a strike in the Tin Plate Factory in Jamshedpur, demanding better working conditions. Other members of the Legislative Assembly and members of the Bihar and Orissa Provincial Council namely Sri Joggiah, Ram Narayan Singh, Abdul Bari, Jimut Bahan Sen, and Sashi Bhushan Ray joined Krishna Ballabh Sahay who also sought the intervention of Dr Rajendra Prasad. Rajendra Prasad was among those who visited Golmouri during the first half of September 1929. (History of the Freedom Movement in Bihar Vol-I, by Dr Kali Kinkar Datta, Published by Central Secretariat Library Government of Bihar, 1957) The issue attained greater importance when in a meeting at Golmouri, Subhas Chandra Bose stated that he would not leave the place until matters had been settled. He asserted that, if necessary, he would launch a Satyagraha campaign on the lines of the Bardoli Satyagraha. Ram Narayan Singh met the General Manager of the Tin Plate Factory on 27th August and announced that the dispute was not with the capitalists but with the government. On the 29th of August, Krishna Ballabh stated that Congress had identified itself with the dispute only because the government was assisting the Company to crush the strikes. (File Title: Possibility of the Congress Party attempting to associate labour strikes with the Civil disobedience Campaign, File No.: 257/I/1930 Home Department, Identifier: PR_000003032598, Collection: Digitised Public Records Home/Political (Courtesy: National Archives, New Delhi) The strike finally ended in favour of the factory workers and a complete charter detailing working conditions was drawn and accepted by both the parties.

 

In March 1940, the Congress Session was called in Ramgarh (Bihar, now Jharkhand) to prepare for future strategy. Congressmen like Anugrah Narayan Sinha, Krishna Ballabh Sahay, Ram Narayan Singh and Ambika Kant Singh were entrusted with the successful arrangements. Interestingly, Ramgarh was also the venue of another big conference that was convened by Subhas Chandra Bose to oppose India’s participation in World War II which the British had been insisting upon. The 'Anti-Compromise Conference' as it was called was the brain-child of Netaji. K.B. Sahay had all regards to the leadership of Netaji but his efforts were directed towards the successful organization of the Congress Session. The perceived difference between the Congress and the Forward Bloc, which Netaji had established just a year earlier in 1939 as a faction within the Indian National Congress, has been succinctly brought out by Dr Rajendra Prasad in his autobiography. ‘Though Congress was never in favour of any compromise with the British’- writes Dr Rajendra Prasad in his ‘Autobiography’, ‘yet it was alleged that the Congress was bent upon compromise with the British even to the detriment to the country’. (Autobiography’ by Dr Rajendra Prasad, (p 501-505) (1957), Published by Asia Publishing house, New Delhi.) 


Such contradictions within Congress led to protests by the followers of rival groups and Krishna Ballabh Sahay was received with black flags by the Anti-Compromise Group when he visited Ramgarh to explain Congress policy to raise subscriptions and enlist volunteers for the Ramgarh session of the Congress. The story of the freedom struggle of India is replete with such push and pull but there were no inherent differences among these freedom fighters who struggled and strived to achieve the same goal- freedom of the nation. It is indeed painful to note that what we achieved as a nation in 1947 is now being questioned, thus negating the efforts of those freedom fighters who sacrificed themselves to achieve the hallowed goal of an independent India. What is more painful is the fact that often the descendants of these freedom fighters fall prey to such insinuation.

 

 

Friday, 17 January 2025

Brief History of merger of Seraikela and Kharsawan with Bihar - Remembering the sacrifice of Adivasis on January 1, 1948

 

Krishna Ballabh Babu's pledge for martyr



The Martyr's Memorial at Kharsawan


History records that Sardar Vallabh Bhai Patel approved the merger of the two princely states namely Seraikela and Kharsawan with Orissa on the plea that they formed parts of the “Orissa State”, even though V.P. Menon did not favour the decision, who favoured a referendum to sort out the issue.

The decision was also opposed by the Raja of Kharsawan, who in a meeting in Cuttack on December 14, 1947, specifically favoured the merger of the State with Bihar.(Correspondence with Dr S. K. Sinha’, File No.: 19-C/48, Col.: I, Dr Rajendra Prasad Private Papers, (Courtesy: National Archives, New Delhi)

As soon as these princely States were merged with Orissa, the civil and police administration was taken over by the Orissa Government which posted three companies of police battalions here. The adivasis on the other hand started mobilising themselves to oppose the decision. Popular tribal leader Marang Gomke Jaipal Singh gave a call for a rally at Kharsawan on January 1, 1948.

On that fateful day, adivasis in large numbers gathered at the Haat Maidan in Kharsawan. Unfortunately, Jaipal Singh could not reach the venue. His presence could have averted any unpleasant situation. Worse still, the Orissa Police placed the Raja of Kharsawan under house arrest.

The Orissa police then resorted to indiscriminate firing on the gathering which led to the death of over a hundred innocent tribal. The firing reminded one of the heinous Jallianwala Bagh massacre and it was deplored by leaders across party lines. Sardar Vallabh Bhai Patel who was in Calcutta was particularly severe in his criticism.

The deepening crisis led to an urgent meeting between Hare Krushna Mahtab, Premier of Orissa and Dr S. K. Sinha, the Premier of Bihar, Dr A.N. Sinha, the Finance Minister and K.B. Sahay, the Revenue Minister of Bihar at Patna on March 22, 1948.

In May 1948, the princely states of Seraikela and Kharsawan finally merged with Bihar and became part of the Singhbhum district.

K.B. Sahay did not forget the supreme sacrifice of the tribal. When he became the chief minister of the province fifteen years later, K.B. Sahay built a ‘Martyr’s Memorial’ at the site of the massacre in the year 1965. A library was also established here to commemorate the memory of the martyrs. K.B. Sahay’s government also started a pension scheme for the kin of the 87 tribal who laid down their lives in the shoot-out. Jaipal Singh helped him to prepare the list and the formalities of pension to their dependent were completed. (Addressing a public meeting along with Jaipal Singh and S. K. Bage, Ministers at Kharsawan after inaugurating a Martyr’s Memorial on January 4, 1965, ‘The Searchlight’, January 5, 1965 (Courtesy: Sachchidanand Sinha Library, Patna:1)

On January 1, 1967, the K.B. Sahay government notified January 1, to be observed as ‘Shaheed Diwas’ and made it a State function in remembrance of the 87 tribal who were shot down by Orissa police on January 1, 1948. (‘Shaheed Diwas observed’, ‘The Searchlight’, January 3, 1967(Courtesy: Sachchidanand Sinha Library, Patna:1)

                                         

Friday, 10 January 2025

‘कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे’ (11/01/2025)

  

 कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे







स्वप्न झरे फूल से गीत चुभे शूल से, कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे- अमर कवि गोपाल दास सक्सेना नीरज (4 जनवरी 1925- 19 जुलाई 2018) की यह प्रचलित कविता, जिसे वो वर्षों पहले ही लिख चुके थे, 1966 में सुप्रसिद्ध संगीतकार रोशन ने अपने कर्णप्रिय संगीत से उस वर्ष प्रदर्शित फिल्म नई उमर की नई फसल में पिरोया था। रोशन के संगीत में फिल्म के लिए इसे स्वर दिया था मोहम्मद रफी ने जिनकी जन्म-शताब्दी गत वर्ष 2024 में मनाई गयी। 1925 नीरज की जन्म-शताब्दी का वर्ष है। आर॰ चंद्रा निर्देशित यह फिल्म छात्र राजनीति की पृष्ठभूमि पर बनी थी जो भारत सरकार के उपक्रम मेसर्स फिल्म फ़ाइनेंस कार्पोरेशन लिमिटेड द्वारा वित्त-पोषित थी।

किन्तु इस फिल्म और गीत का कृष्ण बल्लभ बाबू के राजनैतिक जीवन से क्या वास्ता रहा यह एक दिलचस्प पहलू है। 1966 में कृष्ण बल्लभ बाबू की तात्कालिक बिहार सरकार ने इसे बिहार में कर-मुक्त घोषित किया था। संभवतः कृष्ण बल्लभ बाबू छात्रों को राजनीतिज्ञों के कपट-चालों से आगाह करवाना चाहते थे।

किन्तु छात्र राजनीति पर बनी इस फिल्म पर बिहार में 1966 में जो गलीज राजनीति हुई वो वास्तव में शर्मनाक था। कृष्ण बल्लभ बाबू पर भ्रष्टाचार के जो आरोप लगे उनमें से एक यह भी था कि इस फिल्म को कर-मुक्त (टैक्स-फ्री) कर उन्होंने सरकार के राजस्व का नुकसान किया। यह तो न्यायाधीश अय्यर भी सिद्ध नहीं कर पाये कि इस फिल्म को कर-मुक्त करने से सरकार को राजस्व का नुकसान हुआ अथवा नहीं,  किन्तु यह शाश्वत सत्य है कि 1966 के छात्र आंदोलन के बाद बिहार में उच्च शिक्षा में गुणवत्ता का जो ह्रास हुआ और शैक्षणिक सत्र पिछड़ते चले गए उससे असंख्य छात्र अभिशप्त हुए और उनका भविष्य अंधकारमय हुआ। बिहार के छात्र दिल्ली और अन्य शहरों को पलायन को बाध्य हुए। एक पूरी पीढ़ी को इसका खामियाजा भुगतना पड़ा और उनके नुकसान का फायदा चंद राजनीतिज्ञों ने उठाया।

1968 में न्यायाधीश टी॰ एल॰ वेंकटरामा अय्यर की अध्यक्षता में गठित जांच कमीशन को अन्य आरोपों के अलावे इस बात की जांच के भी निर्देश थे। श्री अय्यर ने इस आरोप को सिरे से खारिज कर दिया था।

बिहार में छात्रों को प्यादा बनाकर कितने ही नेता मुख्यमंत्री बने। आज भी इन्हीं छात्रों के बूते कुछ नेता अपनी राजनीति चमकाने में लगे हैं। यह कितना सही है यह निर्णय मैं आप पर छोड़ता हूँ। बहरहाल, यह फिल्म यू-ट्यूब पर उपलब्ध है जिसे देखें और अपना मन्तव्य दें।