राष्ट्रपति डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन एवं कृष्ण बल्लभ सहाय |
राष्ट्रपति डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन एवं कृष्ण बल्लभ सहाय |
रेवेरेंड एफ.एच.डब्ल्यू. कर |
रेवरेंड एच.जी.एस. कैनेडी |
रेवरेंड ए.ओ. हार्डी |
शिक्षाविद आर्थर फ्रांसिस मार्खम |
आर्थर फ्रांसिस मार्खम, डॉ सतीश चन्द्र बनवर एवं कृष्ण बल्लभ सहाय |
वर्ष 1914-15 में सोलह वर्ष की कच्ची उम्र में कृष्ण बल्लभ सहाय ने अंग्रेजी साहित्य विषय में सेंट कोलंबस कॉलेज में प्रवेश लिया। आयरिश मिशनरी द्वारा स्थापित इस प्रख्यात संस्था के आदर्श वाक्य का युवा कृष्ण बल्लभ के मन-मस्तिष्क पर यथेष्ट प्रभाव पड़ा। यह बाईबल के पंद्रहवें स्तोत्र से उद्धृत था- “डोमिनी क्विस हेबिटाबीट”-"ईश्वर उन्हें अपने आश्रयस्थल में स्थान देना जो चरित्र का पवित्र है, जो धर्म का पालन करता है, जो सच्चाई पर अडिग है, जो किसी के भी प्रति दुर्भावना न रखता है और जो किसी को भी धोखा न देता है।" के. बी. सहाय जीवन पर्यंत इसी रास्ते पर अडिग रहे। बाद के दिनों में तुलसीदास रचित 'रामचरितमानस ' ने उन्हें प्रभावित किया। इसे वे अपना पथप्रदर्शक ग्रंथ मानते थे और प्रतिदिन प्रातः इसका पाठ भी किया करते थे। बिहार विधान सभा में बहस के दौरान प्रायः इसकी चौपाइयों को उद्धृत कर अपनी बात रखते थे। उन्होंने इस पवित्र ग्रंथ को अपने जीवन में आत्मसात कर लिया था। बाईबिल के स्तोत्र, रामचरितमानस की चौपाइयाँ और कॉलेज के आयरिश शिक्षकों का अनुशासन और मानवता के प्रति प्रेम उनके जीवन दर्शन बने और एक ऐसे व्यक्तित्व का विकास हुआ जो अपनी फौलादी दृढ़तता, विद्वत्ता और अनुशासनात्मक जीवन शैली के लिए जाना जाता था। इन शिक्षकों में रेवेरेंड एफ.एच.डब्ल्यू. कर, जो तब प्राचार्य थे जब कृष्ण बल्लभ बाबू ने कॉलेज में दाखिला लिया था, और उनके बाद प्राचार्य बने रेवरेंड एच.जी.एस. कैनेडी और रेवरेंड ए.ओ. हार्डी का विशेष प्रभाव रहा। ये सभी आयरिश मूल के थे। किन्तु इन सबों से परे एक अंग्रेज शिक्षाविद आर्थर फ्रांसिस मार्खम, जो अंग्रेजी साहित्य के शिक्षक थे और बाद में कॉलेज के सबसे लंबे समय तक सेवा देने वाले प्रिंसिपल(1930-1965) बने, का योगदान भी उल्लेखनीय है।
सेंट कोलंबस कॉलेज का शैक्षिक वातावरण विचारों की असहमति और बहस को प्रोत्साहित करता था। इसने कृष्ण बल्लभ के व्यक्तित्व को काफी हद तक निखारा। उनमें एक अच्छे वक्ता के गुण विकसित करने में सहायक सिद्ध हुए। किसी भी विषय पर बहस से पूर्व कृष्ण बल्लभ गहन तैयारी करते और सूक्ष्मतम विवरणों का भी ध्यान रखते। कम बोलते किन्तु खूब सोचकर बोलते। जितना कम बोलते उससे कम लिखते और जो कुछ भी लिखते वो खूब सोच-समझ कर लिखते- ऐसा लिखते कि उनका लिखा प्रायः पत्थर की लकीर साबित होता। उन दिनों को याद करते हुए डॉ एस.ए.मुज्जफ़्फ़र, जो कृष्ण बल्लभ के समकालीन थे और जो बाद में रांची के सिविल सर्जन के पद से सेवानिवृत हुए कहते हैं कि कॉलेज का माहौल ऐसा था जो कविवर टैगौर के पद 'जहां मन बिना डर के होता है' की याद दिला जाता था। उन्हीं दिनों के एक वाकये का जिक्र करते हुए वे कहते हैं- 'उन दिनों बिहार, उड़ीसा और बंगाल के लड़के इस कॉलेज में आते थे। उनमें से काफी बड़ा हिस्सा कॉलेज में अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता और शिक्षा के एक स्वस्थ वातावरण से प्रभावित होकर इस कॉलेज में दाखिला लेते थे। शिक्षक और छात्रों में उन्मुक्त वाद-विवाद होते। कक्षा के बाहर विद्यार्थियों को प्रोफेसरों, विशेष रूप से आयरिश प्रोफेसरों के साथ स्वतंत्र रूप से मिलने-घुलने का विशेषाधिकार था, और उनके विचारों से परे और यहां तक कि उनके दृष्टिकोण की आलोचना करने की स्वतंत्रता भी थी। 1917-18 की घटना है जब व्हिटनी मेमोरियल हॉल में शिक्षकों और छात्रों के बीच एक वाद-विवाद का आयोजन किया गया। इस हाल का नामकरण छोटानागपुर के पहले बिशप, बिशप व्हिटनी के नाम पर रखा गया था। बहस का विषय था 'क्या भारत होमरूल के लिए उपयुक्त है’? भावनाएं प्रबलतम ऊंचाईयों को छू रही थीं। विशेष रूप से कृष्ण बल्लभ ( (जो उन्हें तब कहा जाता था, जो द्वितीय वर्ष के छात्र थे और एक जन्मजात वक्ता थे, द्वारा दिया भाषण ने हॉल को हिलाकर रख दिया था। विपक्ष के एकमात्र वक्ता प्रिंसिपल कैनेडी थे, जिनका मत था कि देश होम रूल के लिए तैयार नहीं है क्योंकि देश में साक्षरता का प्रतिशत बहुत कम था। के.बी. ने तुरंत जवाब दिया कि अगर भारत निरक्षरता के कारण होमरूल के लिए योग्य नहीं है, तो आयरलैंड के लिए भी ऐसा ही होना चाहिए जहां साक्षरता केवल 3 प्रतिशत थी और फिर भी लोग इसके लिए संघर्षरत थे। माहौल हंगामेदार हो गया। कहने की जरूरत नहीं कि जब वोट पड़े कृष्ण बल्लभ का तर्क स्वीकार हुआ और सकारात्मक संकल्प सर्वसम्मति से पारित हुआ।'
कृष्ण बल्लभ बाबू के हृदय में अपने शिक्षकों के प्रति अपार प्रेम और सम्मान था। प्रोफेसर पी.एस. मुखर्जी, जिन्होंने सेंट कोलंबस कॉलेज, हजारीबाग में अर्थशास्त्र पढ़ाया था, शिक्षक के लिए इस तरह के सम्मान को के.बी. सहाय की एक अंतर्निहित विशेषता मानते हैं। वे सही मायने में एक शिक्षित राजनीतिज्ञ थे और इसलिए सच्चे शिक्षाविदों से प्यार करते थे और उनका सम्मान करते थे। शिक्षाविदों के बीच संत आर्थर फ्रांसिस मार्खम के लिए उनकी इज्जत अनुकरणीय थी। मुखर्जी एक घटना याद करते हैं जब मुख्यमंत्री बनने के बाद के.बी. सहाय का पहली बार हजारीबाग आना हुआ था- ‘हजारीबाग के निकट नागोआ हवाई पट्टी पर उनके स्वागत को भीड़ उमड़ी पड़ी थी। इसी भीड़ में आर्थर फ्रांसिस मार्खम भी खड़े थे। बधाई देने वालों को के.बी. सहाय हाथ जोड़कर जवाब दे रहे थे। लेकिन जब वे ए.एफ. मार्खम के पास आए तब उन्होंने बड़े सम्मान और गर्मजोशी उन्हें गले लगा लिया । बाद में के.बी. सहाय ने आर्थर फ्रांसिस मार्खम (जो उनके सबसे सम्मानित शिक्षक थे) को रांची विश्वविद्यालय के कुलपति पद का प्रस्ताव रखा। तात्कालिक राज्यपाल जो विश्वविद्यालय चांसलर होते थे को यह प्रस्ताव स्वीकार्य नहीं था और उन्होंने इस आधार पर आपत्ति जताई कि ए.एफ. मार्खम भारतीय नागरिक नहीं थे। कृष्ण बल्लभ बाबू ने कुलाधिपति को दृढ़ता से जवाब दिया कि जिस व्यक्ति ने अपना सम्पूर्ण जीवन बिहार के एक कॉलेज को समर्पित कर दिया उसे “बिहारी” न मानना न्यायसंगत नहीं होगा। ज्ञातव्य रहे कि ए.एफ. मार्खम 1923 में बिहार आए थे और 1930 से वे सेंट कोलंबस कॉलेज के प्राचार्य थे। कुलाधिपति को अंततः कृष्ण बल्लभ बाबू की दलीलों के सामने झुकना पड़ा और आर्थर फ्रांसिस मार्खम रांची विश्वविद्यालय के कुलपति बनाए गए। कृष्ण बल्लभ बाबू के दृढ़ संकल्प की जीत हुई और रांची विश्वविद्यालय के कुलपति के रूप में आर्थर फ्रांसिस मार्खम 17 नवंबर 1965 से 26 सितंबर 1969 तक योगदान दिया’।
साठ के दशक में जमशेदपुर को-ओपरेटिव कॉलेज जब अपने स्थायी परिसर में स्थानांतरित हुआ तब इस अवसर पर आयोजित समारोह के लिए बिहार सरकार ने तत्कालीन दार्शनिक राष्ट्रपति डॉ. एस. राधाकृष्णन को आमंत्रित किया। यह एक महत्वपूर्ण अवसर था जब महान शिक्षाविद् डॉ. राधाकृष्णन को सुनकर छात्र मंत्रमुग्ध हुए। के.बी. सहाय ने शिक्षा के प्रसार को यथोचित महत्व देते हुए कई निर्णय लिए। इसमें हर प्रखंड में बालिका विद्यालय खोलना, तिलैया में सैनिक स्कूलकी स्थापना, हर जिले में आई.टी.आई. की स्थापना आदि प्रमुख थे। पूरे राज्य में कई स्कूल और कॉलेज स्थापित हुए जिनमें से कुछ के नामकरण उनके नाम पर भी हुआ।1950 में अपने 52वें जन्मदिन पर समर्थकों से प्राप्त 52000/- रुपये से उन्होंने हजारीबाग में कांग्रेस कार्यालय में ‘रुक्मणी पुस्तकालय’ की स्थापना की । रुक्मिणी उनकी पत्नी का नाम था जिनकी स्मृति में इस सार्वजनिक पुस्तकलाय की स्थापना हुई। इस पुस्तकालय को उनके भाई डॉ. दामोदर प्रसाद ने बड़ी संख्या में अपनी किताबें दान देकर समृद्ध किया। गौर चक्रवर्ती बताते हैं कि 1962 में अपने 64वें जन्मदिन पर मिले 64,000/- रुपये का उपयोग कृष्ण बल्लभ बाबू ने हजारीबाग में महिला कॉलेज की स्थापना के लिए किया। आज इसे के.बी. महिला कॉलेज से जानते हैं।
के.बी. सहाय कॉलेज परिसर में अनुशासनहीनता के सख्त खिलाफ थे। इसलिए जब कुछ राजनेताओं ने छात्रों को फीस वृद्धि के खिलाफ आंदोलन शुरू करने के लिए उकसाया तब के.बी. सहाय ने न केवल ऐसे गैर-जिम्मेदार नेताओं को फटकार लगाई वरन छात्रों को भी राजनीति को करियर के रूप में लेने से पहले अनुशासन बनाए रखने और अपनी शिक्षा पूरी करने के लिए आगाह किया। 20 फरवरी 1964 को बिहार विधान सभा में दिया गया उनका भाषण छात्रों को उनके कर्तव्य बोध की ओर ध्यान दिलाता है- 'मैं छात्रों को याद दिलाना चाहता हूँ कि उनका भविष्य उनके सामने है। हम बूढ़े हो चले हैं। हमने अपना जीवन जी लिया है। छात्रों का समस्त जीवन उनके सामने है। उन्हें इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि जिस प्रकार उनके माता पिता उन पर खर्च करते हैं, वैसे ही सरकार उनकी शिक्षा पर खर्च करती है और शिक्षण संस्थान भी उनकी शिक्षा पर खर्च करते हैं। इसलिए सरकार और शिक्षण संस्थान उनके अभिभावक के समान हैं। अतः छात्रों को अपनी पढ़ाई पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। पढ़ाई समाप्त कर ही वे राजनीति में आना चाहें तो आए। छात्रों को कानून-व्यवस्था अपने हाथ में नहीं लेना चाहिए। अगर वे कानून-व्यवस्था भंग करने की कोशिश करते हैं तो सरकार उनके साथ भी वही बर्ताव करेगी जैसे अपराधियों के साथ करती है। इसलिए, मैं उनसे अपील करता हूं कि वे कानून-व्यवस्था को अपने हाथ में न लें अन्यथा सरकार को कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए उनके खिलाफ सख्त कदम उठाने पड़ेगें। इस पर राजनीति करना सही नहीं है। यदि प्रोफेसर जातिवाद और राजनीतिकरण में लिप्त हैं और छात्रों को भड़काते हैं तो उन पर भी कार्रवाई की जाएगी। प्रोफेसरों को छात्रों में अनुशासन वापस लाना चाहिए। यह विश्वविद्यालयों की स्वतंत्रता और स्वायत्तता के लिए परीक्षा की घड़ी है। हम सब को अनुशासन बनाए रखना है।'
इस अपील
के बावजूद 1966-67 का आंदोलन
नहीं थमा। इसकी पूर्णाहुति 5 जनवरी 1967 को पटना में पुलिस फायरिंग से हुआ जिस
घटना में एक अनुमान के अनुसार 9 छात्रों की मौत हुई और 46 अन्य घायल हुए। के.बी. सहाय ने पुलिस फायरिंग
की जांच से
इनकार किया क्योंकि ऐसा कर वे अपनी पुलिस का मनोबल गिरने देना नहीं चाहते थे। इस
प्रकार छात्र
अनुशासनहीनता की वेदी पर उन्होंने अपनी सरकार को कुर्बान कर दिया किन्तु अंत तक इस
तरह की राजनीति के आगे झुकने से इनकार कर दिया। इतिहास गवाह है इस आंदोलन से पनपी अनुशासनहीनता
से छात्रों को अधिकतम नुकसान हुआ। छात्रों के बीच घोर अनुशासनहीनता का जो दौर इसके
बाद शुरू हुआ उसकी परिणति कॉलेजों में विलंबित सत्र और बिहार से प्रतिभाओं के
पलायन के रूप में हुआ जिसने के.बी. सहाय की भविष्यवाणी को सही सिद्ध किया कि छात्रों
को चंद स्वार्थी नेताओं के पीछे अपना जीवन बर्बाद नहीं करना चाहिए। बिहार के
प्रतिभावान छात्र अगले कई दशकों तक इस दंश को झेलने को मजबूर हुए। देश में ऐसे ही
छात्र आंदोलनों से उभरे नेतृत्व की तूलना जब स्वतन्त्रता संग्राम से उभरे नेतृत्व
से करते हैं तब हमारा ध्यान बरबस संसद में बहस के गिरते स्तर की ओर चला जाता है
जिसपर गत दिनों उच्चतम न्यायालय के निवर्तमान मुख्य न्यायाधीश ने भी चिंता व्यक्त
की थी।
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