कृष्ण बल्लभ सहाय 31 दिसंबर 1898- 3 जून 1974) |
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सितंबर कामता प्रसाद सिंह ‘काम’ की
जन्म-जयंती का दिन है। लेखक और चिंतक कामता प्रसाद सिंह ‘काम’ साहित्यकारों की उस दुर्लभ श्रेणी से थे जो ‘स्वांत
सुखाय’ के लिए लेखन का कार्य करते थे। स्वतन्त्रता संग्राम
के दौरान कितने ही साहित्यकारों ने अपनी लेखनी से स्वतन्त्रता संग्रामियों में जोश
भरने का काम किया। कामता प्रसाद सिंह ‘काम’ ने न केवल अपनी लेखनी से यह पुनीत कार्य किया वरन स्वयं भी स्वतन्त्रता
संग्राम के अग्रणी सिपाही रहे। स्वतन्त्रता संग्राम के दिनों में वे कृष्ण बल्लभ
बाबू के करीब आए- कब यह तो नहीं मालूम किन्तु बचपन में जब इनके पुत्र डॉ शंकर दयाल
सिंह जी का हमारे घर पर आना होता था तब पिताजी उनसे हृदय से मिलते थे। कहने का
तात्पर्य यह कि कृष्ण बल्लभ बाबू और कामता प्रसाद सिंह ‘काम’ के बीच की अंतरंगता अगले पुश्त में भी बनी रही थी। कृष्ण बल्लभ बाबू का
जब भी भवानीपुर, देव (गया) आना होता वे अपने मित्र कामता
प्रसाद सिंह ‘काम’ से मिलने उनके घर अवश्य
पधारते थे।
बतौर
राजस्व-मंत्री कृष्ण बल्लभ बाबू ने 1947 में बकाश्त डिसप्यूट सेटलमेंट एक्ट पारित
करवाया था। बकाश्त उस भूमि को कहा जाता था जिसे किसान द्वारा लगान न दे पाने की
वजह से जमींदार अपने कब्जे में ले लेते थे। बहुधा सही-गलत हिसाब दिखाकर जमींदार
ज़ोर-ज़बरदस्ती से किसानों की भूमि हथिया लेते थे और गरीब एवं निर्बल होने की वजह से
किसान इसका विरोध नहीं कर पाते थे। ऐसे बकाश्त ज़मीन पर जमींदार फिर उसी किसान से
अथवा फिर अपने बंधुवा मजदूरों से या फिर विश्वसनीय बराहिलों की मदद से खेती करवाकर
समस्त उपज अपने कब्जे में ले लेते थे। बकाश्त पर जमींदारों का यह कब्जा जायज़ था
अथवा नाजायज इस पर निर्णय लेने के लिए ही बकाश्त डिसप्यूट सेटलमेंट एक्ट पारित हुआ
था जिसमें यह व्यवस्था थी कि सरकार प्रत्येक ज़िला में एक बकाश्त कमिटी का गठन करेगी
जो बकाश्त ज़मीन के लेखा-जोखा की जांचकर यह तय करेगी कि जमींदारों का दखल जायज़ था
अथवा नाजायज। नाजायज होने पर वो ज़मीन किसानों को वापस कर दिया जाता था। कोर्ट-कचहरी
के लंबे चक्करों से बचने के लिए बकाश्त कमिटी का गठन प्रत्येक ज़िला में किया गया
था। कानून में यह भी व्यवस्था थी कि कमिटी के निर्णय से असंतुष्ट होने पर ही
जमींदार कोर्ट का दरवाजा खटखटा सकते थे। किन्तु कोर्ट में ऐसे मामलों में जमींदार को
केस बिहार सरकार के खिलाफ करना होता था जो यहाँ किसानों के पक्ष में खड़ा होती थी। यह
व्यवस्था भी इसी कानून में की गई थी। इस प्रकार कोर्ट-कचहरी के चक्कर में किसानों
को फंसाकर अपना हित साधने की जमींदारों की चाल को कृष्ण बल्लभ बाबू ने सिरे से ही निरस्त
किया। किसानों के तथाकथित हितैषी समस्त राजनैतिक नेतृत्व के लिए आज भी यह एक उम्दा
उदाहरण है। कृष्ण बल्लभ बाबू की कथनी और करनी में कोई अंतर नहीं था- किसानों के
लिए उन्होंने जो कहा वही कर भी दिखाया। 1948 में जब सभी ज़िलों में कमिटी का गठन
किया गया तब कृष्ण बल्लभ बाबू ने कामता प्रसाद सिंह ‘काम’ को मुंगेर ज़िला के बकाश्त कमिटी का चेयरमैन नियुक्त
किया। ‘कांधे पर हल और जुआठ है, आगे
है बैलों का जोड़ा। हाथों में छोटा पैना है, और बगल में है
सत्तू थोड़ा’- किसानों की दशा पर इन पंक्तियों को
लिखनेवाले अपने कवि मित्र कामता प्रसाद सिंह ‘काम’ पर कृष्ण बल्लभ बाबू का यह अभेद्य भरोसा ही था कि उन्होंने एक राजपूत को
यह भार दिया जबकि जमींदार भी बहुधा राजपूत जाति से ही आते थे। कृष्ण बल्लभ बाबू को
विश्वास था कि कामता प्रसाद सिंह ‘काम’
किसानों के प्रति कभी कोई अन्याय नहीं होने देंगे और कामता प्रसाद सिंह ‘काम’ ने यह सिद्ध कर दिखाया भी।
कामता
प्रसाद सिंह ‘काम’ और कृष्ण बल्लभ
बाबू ऐसे कितने ही मौकों पर साथ-साथ आए। जब भी किसी सरकारी कार्य हेतु कृष्ण बल्लभ
बाबू को अपने किसी विश्वासपात्र की तलाश होती थी उनकी नज़र कामता प्रसाद सिंह ‘काम’ पर ही आकर टिकती थी। 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन
के दौरान जब कृष्ण बल्लभ बाबू जेल से बाहर आए तब कामता प्रसाद सिंह ‘काम’ ने उनके स्वागत में एक अभिनंदन समारोह का आयोजन
किया। साहित्यकार थे अतः एक सांस्कृतिक कार्यक्रम का भी आयोजन किया जिसमें
देशभक्ति कविताओं का पाठ हुआ और स्वतन्त्रता संग्राम में में एक बार पुनः कमर कस
कर कूद पड़ने का संकल्प लिया गया।
प्रत्येक
वर्ष 31 दिसंबर को उनके चाहनेवाले कृष्ण बल्लभ बाबू की जन्मदिन बड़ी धूमधाम से
मनाते थे और कामता प्रसाद सिंह ‘काम’ इसमें सदा आगे रहते थे। साहित्यकार थे अतः बहुधा इस अवसर पर कवि सम्मेलन का
आयोजन बड़े जतन से करते और अपने मित्र को आमंत्रित करते। 8 दिसंबर 1955 को अपने
पुत्र शंकर दयाल सिंह, जो उस समय बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय
में अध्यापन कर रहे थे, को संबोधित अपने पत्र में वो लिखते
हैं – ‘हजारीबाग के गिरिडीह नामक स्थान में 31 दिसंबर की
रात सम्मेलन हो रहा है। उसके प्रबंध का भार मेरे ऊपर पड़ा है। मैं चाहता हूँ कि तुम
भी बनारस के दो-चार कवियों को उसके लिए निश्चित करा दो। मार्ग व्यय आदि सब कुछ मैं
दूँगा और कवियों को किसी प्रकार का कोई कष्ट न हो पाये इसका भी मैं पूर्ण ध्यान
रखूँगा/ लेकिन तुम ऐसे कवियों का चुनाव करो, जो सम्मेलन में चार चाँद लगा सकें और जिनकी उपस्थिति से जनता को प्रेरणा
भी मिले। पुराने कवि न हों तो नवयुवक कवियों की भी तलाश तुम कर सकते हो। कृपया फिर
लिखो कि इस संबंध में तुम क्या कर सकते हो और किन कवियों को ला सकते हो?’
1952
में कामता प्रसाद सिंह ‘काम’ बिहार विधान परिषद के सदस्य बने। 1963 में अपनी मृत्यु तक वे इस पद पर बने
रहे। उनकी बीमारी के दौरान कृष्ण बल्लभ बाबू का उनके सरकारी आवास 11 नंबर एम.
एल.ए. फ्लैट पर प्रायः आना जाना होता था। कृष्ण बल्लभ बाबू तब विनोदानंद झा के
मंत्रिमंडल में सहकारिता मंत्री थे। अपने बाबूजी के बारे में 23 जनवरी 1963 को डायरी
में डॉ शंकर दयाल सिंह ने लिखा है,‘ज्यादा बातें
अँग्रेजी में ही करते हैं जिससे माँ और दादी समझ नहीं सकें। दो आदमियों को बराबर
खोजते हैं- कृष्ण बल्लभ बाबू को और मेरे स्वसूर डॉ के.एम.सिंह को।’
कामता
प्रसाद सिंह ‘काम’ और उनके अनुज
लक्ष्मण प्रसाद सिंह में राम-लक्ष्मण का वही प्रेम देखने को मिलता है
जो कृष्ण बल्लभ बाबू और उनके अनुज डॉ दामोदर प्रसाद में देखने को मिलता था।
अपने बड़े भैया के अंतिम क्षणों को याद करते हुए लक्ष्मण प्रसाद सिंह लिखते हैं- ‘माँ की रुलाई सुनकर भैया बोले- माँ को गंगा किनारे फूंकने का संकल्प लिया
था, पर अब तो मैं ही गंगा किनारे पहुँच गया। पर लक्ष्मण, माँ जहां भी मरे, यह तुम्हारा काम है, इन्हें गंगा किनारे पहुंचाना। बस अब तो एक ही अरमान बाकी रह गया –
कृष्ण बल्लभ बाबू को मुख्यमंत्री के रूप में नहीं देख पाया।’
इसी
दिन यानि 25 जनवरी 1963 को प्रातः पाँच बजे 46 वर्ष की अल्प आयु में ही कामता
प्रसाद सिंह ‘काम’ सदा के लिए हमें
छोड़ कर चले गए। कृष्ण बल्लभ बाबू इस समाचार को सुनकर फफक फफक कर रो पड़े थे। हाँ-
अपने अभिन्न मित्र की मृत्यु पर लोगों ने इस लौह पुरुष को पिघलते देखा था। यह पहला
और अंतिम अवसर था जब लोगों ने कृष्ण बल्लभ सहाय को रोते हुए देखा था। हाँ, इस घटना के आठ माह बाद ही कृष्ण बल्लभ बाबू अपने अज़ीज़ मित्र की अंतिम
इच्छा पूर्ण करने में सफल हुए जब 2 अक्तूबर 1963 को उन्होंने बिहार के मुख्यमंत्री
के पद की शपथ ली। कामता बाबू के पुत्र डॉ शंकर दयाल सिंह से कृष्ण बल्लभ बाबू पुत्रवत
स्नेह करते थे और यह प्रेम जीवनपर्यंत बना रहा।
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