Saturday, 25 September 2021

हमारी विरासत, हमारी धरोहर: 22: कामता प्रसाद सिंह 'काम' एवं कृष्ण बल्लभ सहाय (26/09/2021)

 



कामता प्रसाद सिंह 'काम' 
26 सितंबर 1916- 25 जनवरी 1963)

कृष्ण बल्लभ सहाय 
31 दिसंबर 1898- 3 जून 1974)

26 सितंबर कामता प्रसाद सिंह काम की जन्म-जयंती का दिन है। लेखक और चिंतक कामता प्रसाद सिंह काम साहित्यकारों की उस दुर्लभ श्रेणी से थे जो स्वांत सुखाय के लिए लेखन का कार्य करते थे। स्वतन्त्रता संग्राम के दौरान कितने ही साहित्यकारों ने अपनी लेखनी से स्वतन्त्रता संग्रामियों में जोश भरने का काम किया। कामता प्रसाद सिंह काम ने न केवल अपनी लेखनी से यह पुनीत कार्य किया वरन स्वयं भी स्वतन्त्रता संग्राम के अग्रणी सिपाही रहे। स्वतन्त्रता संग्राम के दिनों में वे कृष्ण बल्लभ बाबू के करीब आए- कब यह तो नहीं मालूम किन्तु बचपन में जब इनके पुत्र डॉ शंकर दयाल सिंह जी का हमारे घर पर आना होता था तब पिताजी उनसे हृदय से मिलते थे। कहने का तात्पर्य यह कि कृष्ण बल्लभ बाबू और कामता प्रसाद सिंह काम के बीच की अंतरंगता अगले पुश्त में भी बनी रही थी। कृष्ण बल्लभ बाबू का जब भी भवानीपुर, देव (गया) आना होता वे अपने मित्र कामता प्रसाद सिंह काम से मिलने उनके घर अवश्य पधारते थे।

बतौर राजस्व-मंत्री कृष्ण बल्लभ बाबू ने 1947 में बकाश्त डिसप्यूट सेटलमेंट एक्ट पारित करवाया था। बकाश्त उस भूमि को कहा जाता था जिसे किसान द्वारा लगान न दे पाने की वजह से जमींदार अपने कब्जे में ले लेते थे। बहुधा सही-गलत हिसाब दिखाकर जमींदार ज़ोर-ज़बरदस्ती से किसानों की भूमि हथिया लेते थे और गरीब एवं निर्बल होने की वजह से किसान इसका विरोध नहीं कर पाते थे। ऐसे बकाश्त ज़मीन पर जमींदार फिर उसी किसान से अथवा फिर अपने बंधुवा मजदूरों से या फिर विश्वसनीय बराहिलों की मदद से खेती करवाकर समस्त उपज अपने कब्जे में ले लेते थे। बकाश्त पर जमींदारों का यह कब्जा जायज़ था अथवा नाजायज इस पर निर्णय लेने के लिए ही बकाश्त डिसप्यूट सेटलमेंट एक्ट पारित हुआ था जिसमें यह व्यवस्था थी कि सरकार प्रत्येक ज़िला में एक बकाश्त कमिटी का गठन करेगी जो बकाश्त ज़मीन के लेखा-जोखा की जांचकर यह तय करेगी कि जमींदारों का दखल जायज़ था अथवा नाजायज। नाजायज होने पर वो ज़मीन किसानों को वापस कर दिया जाता था। कोर्ट-कचहरी के लंबे चक्करों से बचने के लिए बकाश्त कमिटी का गठन प्रत्येक ज़िला में किया गया था। कानून में यह भी व्यवस्था थी कि कमिटी के निर्णय से असंतुष्ट होने पर ही जमींदार कोर्ट का दरवाजा खटखटा सकते थे। किन्तु कोर्ट में ऐसे मामलों में जमींदार को केस बिहार सरकार के खिलाफ करना होता था जो यहाँ किसानों के पक्ष में खड़ा होती थी। यह व्यवस्था भी इसी कानून में की गई थी। इस प्रकार कोर्ट-कचहरी के चक्कर में किसानों को फंसाकर अपना हित साधने की जमींदारों की चाल को कृष्ण बल्लभ बाबू ने सिरे से ही निरस्त किया। किसानों के तथाकथित हितैषी समस्त राजनैतिक नेतृत्व के लिए आज भी यह एक उम्दा उदाहरण है। कृष्ण बल्लभ बाबू की कथनी और करनी में कोई अंतर नहीं था- किसानों के लिए उन्होंने जो कहा वही कर भी दिखाया। 1948 में जब सभी ज़िलों में कमिटी का गठन किया गया तब कृष्ण बल्लभ बाबू ने कामता प्रसाद सिंह काम को मुंगेर ज़िला के बकाश्त कमिटी का चेयरमैन नियुक्त किया। कांधे पर हल और जुआठ है, आगे है बैलों का जोड़ा। हाथों में छोटा पैना है, और बगल में है सत्तू थोड़ा- किसानों की दशा पर इन पंक्तियों को लिखनेवाले अपने कवि मित्र कामता प्रसाद सिंह काम पर कृष्ण बल्लभ बाबू का यह अभेद्य भरोसा ही था कि उन्होंने एक राजपूत को यह भार दिया जबकि जमींदार भी बहुधा राजपूत जाति से ही आते थे। कृष्ण बल्लभ बाबू को विश्वास था कि कामता प्रसाद सिंह काम किसानों के प्रति कभी कोई अन्याय नहीं होने देंगे और कामता प्रसाद सिंह काम ने यह सिद्ध कर दिखाया भी।

कामता प्रसाद सिंह काम और कृष्ण बल्लभ बाबू ऐसे कितने ही मौकों पर साथ-साथ आए। जब भी किसी सरकारी कार्य हेतु कृष्ण बल्लभ बाबू को अपने किसी विश्वासपात्र की तलाश होती थी उनकी नज़र कामता प्रसाद सिंह काम पर ही आकर टिकती थी। 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान जब कृष्ण बल्लभ बाबू जेल से बाहर आए तब कामता प्रसाद सिंह काम ने उनके स्वागत में एक अभिनंदन समारोह का आयोजन किया। साहित्यकार थे अतः एक सांस्कृतिक कार्यक्रम का भी आयोजन किया जिसमें देशभक्ति कविताओं का पाठ हुआ और स्वतन्त्रता संग्राम में में एक बार पुनः कमर कस कर कूद पड़ने का संकल्प लिया गया।

प्रत्येक वर्ष 31 दिसंबर को उनके चाहनेवाले कृष्ण बल्लभ बाबू की जन्मदिन बड़ी धूमधाम से मनाते थे और कामता प्रसाद सिंह काम इसमें सदा आगे रहते थे। साहित्यकार थे अतः बहुधा इस अवसर पर कवि सम्मेलन का आयोजन बड़े जतन से करते और अपने मित्र को आमंत्रित करते। 8 दिसंबर 1955 को अपने पुत्र शंकर दयाल सिंह, जो उस समय बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में अध्यापन कर रहे थे, को संबोधित अपने पत्र में वो लिखते हैं – हजारीबाग के गिरिडीह नामक स्थान में 31 दिसंबर की रात सम्मेलन हो रहा है। उसके प्रबंध का भार मेरे ऊपर पड़ा है। मैं चाहता हूँ कि तुम भी बनारस के दो-चार कवियों को उसके लिए निश्चित करा दो। मार्ग व्यय आदि सब कुछ मैं दूँगा और कवियों को किसी प्रकार का कोई कष्ट न हो पाये इसका भी मैं पूर्ण ध्यान रखूँगा/ लेकिन तुम ऐसे कवियों का चुनाव करो, जो सम्मेलन में चार चाँद लगा सकें और जिनकी उपस्थिति से जनता को प्रेरणा भी मिले। पुराने कवि न हों तो नवयुवक कवियों की भी तलाश तुम कर सकते हो। कृपया फिर लिखो कि इस संबंध में तुम क्या कर सकते हो और किन कवियों को ला सकते हो?’

1952 में कामता प्रसाद सिंह काम बिहार विधान परिषद के सदस्य बने। 1963 में अपनी मृत्यु तक वे इस पद पर बने रहे। उनकी बीमारी के दौरान कृष्ण बल्लभ बाबू का उनके सरकारी आवास 11 नंबर एम. एल.ए. फ्लैट पर प्रायः आना जाना होता था। कृष्ण बल्लभ बाबू तब विनोदानंद झा के मंत्रिमंडल में सहकारिता मंत्री थे। अपने बाबूजी के बारे में 23 जनवरी 1963 को डायरी में डॉ शंकर दयाल सिंह ने लिखा है,‘ज्यादा बातें अँग्रेजी में ही करते हैं जिससे माँ और दादी समझ नहीं सकें। दो आदमियों को बराबर खोजते हैं- कृष्ण बल्लभ बाबू को और मेरे स्वसूर डॉ के.एम.सिंह को।

कामता प्रसाद सिंह काम और उनके अनुज लक्ष्मण प्रसाद सिंह में राम-लक्ष्मण का वही प्रेम देखने को मिलता है जो कृष्ण बल्लभ बाबू और उनके अनुज डॉ दामोदर प्रसाद में देखने को मिलता था। अपने बड़े भैया के अंतिम क्षणों को याद करते हुए लक्ष्मण प्रसाद सिंह लिखते हैं- माँ की रुलाई सुनकर भैया बोले- माँ को गंगा किनारे फूंकने का संकल्प लिया था, पर अब तो मैं ही गंगा किनारे पहुँच गया। पर लक्ष्मण, माँ जहां भी मरे, यह तुम्हारा काम है, इन्हें गंगा किनारे पहुंचाना। बस अब तो एक ही अरमान बाकी रह गया – कृष्ण बल्लभ बाबू को मुख्यमंत्री के रूप में नहीं देख पाया।

इसी दिन यानि 25 जनवरी 1963 को प्रातः पाँच बजे 46 वर्ष की अल्प आयु में ही कामता प्रसाद सिंह काम सदा के लिए हमें छोड़ कर चले गए। कृष्ण बल्लभ बाबू इस समाचार को सुनकर फफक फफक कर रो पड़े थे। हाँ- अपने अभिन्न मित्र की मृत्यु पर लोगों ने इस लौह पुरुष को पिघलते देखा था। यह पहला और अंतिम अवसर था जब लोगों ने कृष्ण बल्लभ सहाय को रोते हुए देखा था। हाँ, इस घटना के आठ माह बाद ही कृष्ण बल्लभ बाबू अपने अज़ीज़ मित्र की अंतिम इच्छा पूर्ण करने में सफल हुए जब 2 अक्तूबर 1963 को उन्होंने बिहार के मुख्यमंत्री के पद की शपथ ली। कामता बाबू के पुत्र डॉ शंकर दयाल सिंह से कृष्ण बल्लभ बाबू पुत्रवत स्नेह करते थे और यह प्रेम जीवनपर्यंत बना रहा।  

 


Saturday, 4 September 2021

शिक्षक हमारे भाग्य विधाता। (शिक्षक दिवस 5 सितंबर पर विशेष)


राष्ट्रपति डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन एवं कृष्ण बल्लभ सहाय 


राष्ट्रपति डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन एवं कृष्ण बल्लभ सहाय 



रेवेरेंड एफ.एच.डब्ल्यू. कर

रेवरेंड एच.जी.एस. कैनेडी

रेवरेंड ए.. हार्डी


शिक्षाविद आर्थर फ्रांसिस मार्खम

शिक्षाविद आर्थर फ्रांसिस मार्खम, प्रोफेसर आर. डी. दासगुप्ता 
एवं कृष्ण बल्लभ सहाय 


आर्थर फ्रांसिस मार्खम, डॉ सतीश चन्द्र बनवर एवं कृष्ण बल्लभ सहाय 

वर्ष 1914-15 में सोलह वर्ष की कच्ची उम्र में कृष्ण बल्लभ सहाय ने अंग्रेजी साहित्य विषय में सेंट कोलंबस कॉलेज में प्रवेश लिया। आयरिश मिशनरी द्वारा स्थापित इस प्रख्यात संस्था के आदर्श वाक्य का युवा कृष्ण बल्लभ के मन-मस्तिष्क पर यथेष्ट प्रभाव पड़ा। यह बाईबल के पंद्रहवें स्तोत्र से उद्धृत था- “डोमिनी क्विस हेबिटाबीट”-"ईश्वर उन्हें अपने आश्रयस्थल में स्थान देना जो चरित्र का पवित्र है, जो धर्म का पालन करता है, जो सच्चाई पर अडिग है, जो किसी के भी प्रति दुर्भावना न रखता है और जो किसी को भी धोखा न देता है।"  के. बी. सहाय जीवन पर्यंत इसी रास्ते पर अडिग रहे। बाद के दिनों में तुलसीदास रचित 'रामचरितमानस ने उन्हें प्रभावित किया। इसे वे अपना पथप्रदर्शक ग्रंथ मानते थे और प्रतिदिन प्रातः इसका पाठ भी किया करते थे। बिहार विधान सभा में बहस के दौरान प्रायः इसकी चौपाइयों को उद्धृत कर अपनी बात रखते थे। उन्होंने इस पवित्र ग्रंथ को अपने जीवन में आत्मसात कर लिया था। बाईबिल के स्तोत्र, रामचरितमानस की चौपाइयाँ और कॉलेज के आयरिश शिक्षकों का अनुशासन और मानवता के प्रति प्रेम उनके जीवन दर्शन बने और एक ऐसे व्यक्तित्व का विकास हुआ जो अपनी फौलादी दृढ़तता, विद्वत्ता और अनुशासनात्मक जीवन शैली के लिए जाना जाता था। इन शिक्षकों में रेवेरेंड एफ.एच.डब्ल्यू. कर, जो तब प्राचार्य थे जब कृष्ण बल्लभ बाबू ने कॉलेज में दाखिला लिया था, और उनके बाद प्राचार्य बने रेवरेंड एच.जी.एस. कैनेडी और रेवरेंड ए.. हार्डी का विशेष प्रभाव रहा। ये सभी आयरिश मूल के थे। किन्तु इन सबों से परे एक अंग्रेज शिक्षाविद आर्थर फ्रांसिस मार्खम, जो अंग्रेजी साहित्य के शिक्षक थे और बाद में कॉलेज के सबसे लंबे समय तक सेवा देने वाले प्रिंसिपल(1930-1965) बने, का योगदान भी उल्लेखनीय है।

सेंट कोलंबस कॉलेज का शैक्षिक वातावरण विचारों की असहमति और बहस को प्रोत्साहित करता था। इसने कृष्ण बल्लभ के व्यक्तित्व को काफी हद तक निखारा। उनमें एक अच्छे वक्ता के गुण विकसित करने में सहायक सिद्ध हुए। किसी भी विषय पर बहस से पूर्व कृष्ण बल्लभ गहन तैयारी करते और सूक्ष्मतम विवरणों का भी ध्यान रखते। कम बोलते किन्तु खूब सोचकर बोलते। जितना कम बोलते उससे कम लिखते और जो कुछ भी लिखते वो खूब सोच-समझ कर लिखते- ऐसा लिखते कि उनका लिखा प्रायः पत्थर की लकीर साबित होता। उन दिनों को याद करते हुए डॉ एस.ए.मुज्जफ़्फ़र, जो कृष्ण बल्लभ के समकालीन थे और जो बाद में रांची के सिविल सर्जन के पद से सेवानिवृत हुए कहते हैं कि कॉलेज का माहौल ऐसा था जो कविवर टैगौर के पद 'जहां मन बिना डर ​​के होता है' की याद दिला जाता था। उन्हीं दिनों के एक वाकये का जिक्र करते हुए वे कहते हैं- 'उन दिनों बिहार, उड़ीसा और बंगाल के लड़के इस कॉलेज में आते थे। उनमें से काफी बड़ा हिस्सा कॉलेज में अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता और शिक्षा के एक स्वस्थ वातावरण से प्रभावित होकर इस कॉलेज में दाखिला लेते थे। शिक्षक और छात्रों में उन्मुक्त वाद-विवाद होते। कक्षा के बाहर विद्यार्थियों को प्रोफेसरों, विशेष रूप से आयरिश प्रोफेसरों के साथ स्वतंत्र रूप से मिलने-घुलने का विशेषाधिकार   था, और उनके विचारों से परे और यहां तक ​​कि उनके दृष्टिकोण की आलोचना करने की स्वतंत्रता भी थी। 1917-18 की घटना है जब व्हिटनी मेमोरियल हॉल में शिक्षकों और छात्रों के बीच एक वाद-विवाद का आयोजन किया गया। इस हाल का नामकरण छोटानागपुर के पहले बिशप, बिशप व्हिटनी के नाम पर रखा गया था। बहस का विषय था 'क्या भारत होमरूल के लिए उपयुक्त हैभावनाएं प्रबलतम ऊंचाईयों को छू रही थीं। विशेष रूप से कृष्ण बल्लभ ( (जो उन्हें तब कहा जाता था, जो द्वितीय वर्ष के छात्र थे और एक जन्मजात वक्ता थे, द्वारा दिया भाषण ने हॉल को हिलाकर रख दिया था। विपक्ष के एकमात्र वक्ता प्रिंसिपल कैनेडी थे, जिनका मत था कि देश होम रूल के लिए तैयार नहीं है क्योंकि देश में साक्षरता का प्रतिशत बहुत कम था।  के.बी. ने तुरंत जवाब दिया कि अगर भारत निरक्षरता के कारण होमरूल के लिए योग्य नहीं है, तो आयरलैंड के लिए भी ऐसा ही होना चाहिए जहां साक्षरता केवल 3 प्रतिशत थी और फिर भी लोग इसके लिए संघर्षरत थे। माहौल हंगामेदार हो गया। कहने की जरूरत नहीं कि जब वोट पड़े कृष्ण बल्लभ का तर्क स्वीकार हुआ और सकारात्मक संकल्प सर्वसम्मति से पारित हुआ।'

कृष्ण बल्लभ बाबू के हृदय में अपने शिक्षकों के प्रति अपार प्रेम और सम्मान था। प्रोफेसर पी.एस. मुखर्जीजिन्होंने सेंट कोलंबस कॉलेज, हजारीबाग में अर्थशास्त्र पढ़ाया था, शिक्षक के लिए इस तरह के सम्मान को के.बी. सहाय की एक अंतर्निहित विशेषता मानते हैं। वे सही मायने में एक शिक्षित राजनीतिज्ञ थे और इसलिए सच्चे शिक्षाविदों से प्यार करते थे और उनका सम्मान करते थे। शिक्षाविदों के बीच संत आर्थर फ्रांसिस मार्खम के लिए उनकी इज्जत अनुकरणीय थी। मुखर्जी एक घटना याद करते हैं जब मुख्यमंत्री बनने के बाद के.बी. सहाय का पहली बार हजारीबाग आना हुआ था- हजारीबाग के निकट नागोआ हवाई पट्टी पर उनके स्वागत को भीड़ उमड़ी पड़ी थी। इसी भीड़ में आर्थर फ्रांसिस मार्खम भी खड़े थे। बधाई देने वालों को के.बी. सहाय हाथ जोड़कर जवाब दे रहे थे। लेकिन जब वे ए.एफ. मार्खम के पास आए तब उन्होंने बड़े सम्मान और गर्मजोशी उन्हें गले लगा लिया  बाद में के.बी. सहाय ने आर्थर फ्रांसिस मार्खम (जो उनके सबसे सम्मानित शिक्षक थे) को रांची विश्वविद्यालय के कुलपति पद का प्रस्ताव रखा। तात्कालिक राज्यपाल जो विश्वविद्यालय चांसलर होते थे  को यह प्रस्ताव स्वीकार्य नहीं था और उन्होंने इस आधार पर आपत्ति जताई कि ए.एफ. मार्खम भारतीय नागरिक नहीं थे। कृष्ण बल्लभ बाबू ने कुलाधिपति को दृढ़ता से जवाब दिया कि जिस व्यक्ति ने अपना सम्पूर्ण जीवन बिहार के एक कॉलेज को समर्पित कर दिया उसे “बिहारी” न  मानना न्यायसंगत नहीं होगा। ज्ञातव्य रहे कि ए.एफ. मार्खम 1923 में बिहार आए थे और 1930 से वे सेंट कोलंबस कॉलेज के प्राचार्य थे। कुलाधिपति को अंततः कृष्ण बल्लभ बाबू की दलीलों के सामने झुकना पड़ा और आर्थर फ्रांसिस मार्खम रांची विश्वविद्यालय के कुलपति बनाए गए। कृष्ण बल्लभ बाबू के दृढ़ संकल्प की जीत हुई और रांची विश्वविद्यालय के कुलपति के रूप में आर्थर फ्रांसिस मार्खम 17 नवंबर 1965 से 26 सितंबर 1969 तक योगदान दिया   

साठ के दशक में जमशेदपुर को-ओपरेटिव कॉलेज जब अपने स्थायी परिसर में स्थानांतरित हुआ तब इस अवसर पर आयोजित समारोह के लिए बिहार सरकार ने तत्कालीन दार्शनिक राष्ट्रपति डॉ. एस. राधाकृष्णन को आमंत्रित किया। यह एक महत्वपूर्ण अवसर था जब महान शिक्षाविद् डॉ. राधाकृष्णन को सुनकर छात्र मंत्रमुग्ध हुए। के.बी. सहाय ने शिक्षा के प्रसार को यथोचित महत्व देते हुए कई निर्णय लिए। इसमें हर प्रखंड में बालिका विद्यालय खोलनातिलैया में सैनिक स्कूलकी स्थापनाहर जिले में आई.टी.आई. की स्थापना आदि प्रमुख थे। पूरे राज्य में कई स्कूल और कॉलेज स्थापित हुए जिनमें से कुछ के नामकरण उनके नाम पर भी हुआ।1950 में अपने 52वें जन्मदिन पर समर्थकों से प्राप्त 52000/- रुपये से उन्होंने हजारीबाग में कांग्रेस कार्यालय में रुक्मणी पुस्तकालय की स्थापना की  रुक्मिणी उनकी पत्नी का नाम था जिनकी स्मृति में इस सार्वजनिक पुस्तकलाय की स्थापना हुई। इस पुस्तकालय को उनके भाई डॉ. दामोदर प्रसाद ने बड़ी संख्या में अपनी किताबें दान देकर समृद्ध किया। गौर चक्रवर्ती बताते हैं कि 1962 में अपने 64वें जन्मदिन पर मिले 64,000/- रुपये का उपयोग कृष्ण बल्लभ बाबू ने हजारीबाग में महिला कॉलेज की स्थापना के लिए किया। आज इसे के.बी. महिला कॉलेज से जानते हैं।

के.बी. सहाय कॉलेज परिसर में अनुशासनहीनता के सख्त खिलाफ थे। इसलिए जब कुछ राजनेताओं ने छात्रों को फीस वृद्धि के खिलाफ आंदोलन शुरू करने के लिए उकसाया तब के.बी. सहाय ने न केवल ऐसे गैर-जिम्मेदार नेताओं को फटकार लगाई वरन छात्रों को भी राजनीति को करियर के रूप में लेने से पहले अनुशासन बनाए रखने और अपनी शिक्षा पूरी करने के लिए आगाह किया। 20 फरवरी 1964 को बिहार विधान सभा में दिया गया उनका भाषण छात्रों को उनके कर्तव्य बोध की ओर ध्यान दिलाता है- 'मैं छात्रों को याद दिलाना चाहता हूँ कि उनका भविष्य उनके सामने है। हम बूढ़े हो चले हैं। हमने अपना जीवन जी लिया है। छात्रों का समस्त जीवन उनके सामने है। उन्हें इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि जिस प्रकार उनके माता पिता  उन पर खर्च करते हैं, वैसे ही सरकार उनकी शिक्षा पर खर्च करती है और शिक्षण संस्थान भी उनकी शिक्षा पर खर्च करते हैं। इसलिए सरकार और शिक्षण संस्थान उनके अभिभावक के समान हैं। अतः छात्रों को अपनी पढ़ाई पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। पढ़ाई समाप्त कर ही वे राजनीति में आना चाहें तो आए। छात्रों को कानून-व्यवस्था अपने हाथ में नहीं लेना चाहिए। अगर वे कानून-व्यवस्था भंग करने की कोशिश करते हैं तो सरकार उनके साथ भी वही बर्ताव करेगी जैसे अपराधियों के साथ करती है। इसलिए, मैं उनसे अपील करता हूं कि वे कानून-व्यवस्था को अपने हाथ में न लें अन्यथा सरकार को कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए उनके खिलाफ सख्त कदम उठाने पड़ेगें। इस पर राजनीति करना सही नहीं है। यदि प्रोफेसर जातिवाद और राजनीतिकरण में लिप्त हैं और छात्रों को भड़काते हैं तो उन पर भी कार्रवाई की जाएगी। प्रोफेसरों को छात्रों में अनुशासन वापस लाना चाहिए। यह विश्वविद्यालयों की स्वतंत्रता और स्वायत्तता के लिए परीक्षा की घड़ी है। हम सब को अनुशासन बनाए रखना है।'

इस अपील के बावजूद 1966-67 का आंदोलन नहीं थमा। इसकी पूर्णाहुति 5 जनवरी 1967 को पटना में पुलिस फायरिंग से हुआ जिस घटना में एक अनुमान के अनुसार 9 छात्रों की मौत हुई और 46 अन्य घायल हुए। के.बी. सहाय ने पुलिस फायरिंग की जांच से इनकार किया क्योंकि ऐसा कर वे अपनी पुलिस का मनोबल गिरने देना नहीं चाहते थे। इस प्रकार छात्र अनुशासनहीनता की वेदी पर उन्होंने अपनी सरकार को कुर्बान कर दिया किन्तु अंत तक इस तरह की राजनीति के आगे झुकने से इनकार कर दिया। इतिहास गवाह है इस आंदोलन से पनपी अनुशासनहीनता से छात्रों को अधिकतम नुकसान हुआ। छात्रों के बीच घोर अनुशासनहीनता का जो दौर इसके बाद शुरू हुआ उसकी परिणति कॉलेजों में विलंबित सत्र और बिहार से प्रतिभाओं के पलायन के रूप में हुआ जिसने के.बी. सहाय की भविष्यवाणी को सही सिद्ध किया कि छात्रों को चंद स्वार्थी नेताओं के पीछे अपना जीवन बर्बाद नहीं करना चाहिए। बिहार के प्रतिभावान छात्र अगले कई दशकों तक इस दंश को झेलने को मजबूर हुए। देश में ऐसे ही छात्र आंदोलनों से उभरे नेतृत्व की तूलना जब स्वतन्त्रता संग्राम से उभरे नेतृत्व से करते हैं तब हमारा ध्यान बरबस संसद में बहस के गिरते स्तर की ओर चला जाता है जिसपर गत दिनों उच्चतम न्यायालय के निवर्तमान मुख्य न्यायाधीश ने भी चिंता व्यक्त की थी।  

REMEMBERING OUR FREEDOM FIGHTERS ON THE 75TH YEAR OF INDIA'S INDEPENDENCE: 4


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'THE LEGACY': 17: 'CHHOTE SAHAB' SATYENDRA NARAYAN SINHA AND KRISHNA BALLABH SAHAY (04/09/2021)

 

'CHHOTE SAHAB' SATYENDRA NARAYAN SINHA
(12 JULY 1917- 04 SEPTEMBER 2006)

KRISHNA BALLABH SAHAY
(31 DECEMBER 1898-3 JUNE 1974)


Satyendra Narayan Sinha, popularly known by the nickname of 'Chhote Sahab’ in the political circles in Bihar, was a senior colleague and a strong pillar of Krishna Ballabh Sahay’s ministry. Krishna Ballabh Babu entrusted him the important portfolios of Agriculture, Education and Local Self-Government in his cabinet. His achievements and contribution as the education minister are remembered even today. Krishna Ballabh Babu and Chhote Sahab had a perfect understanding between them and together they worked for the development of the State in the Sixties. 

Satyendra Narayan Sinha was born on 12 July 1917 in village Poiva, Aurangabad district. His father Anugrah Narayan Sinha was a noted freedom-fighter and senior-most cabinet minister in Sri Krishna Sinha’s ministry. Satyendra Narayan Sinha studied Law at Lucknow University.

In 1942, Satyendra Babu joined the freedom struggle and took active participation in the Quit India Movement. He was elected to the Provisional Parliament in 1950. His leadership qualities were sharpened under the able mentoring of Pandit Jawahar Lal Nehru. His flamboyant leadership style and his eloquence in oratory soon earned him the epithet of 'Young Turk'.

When Binodanand Jha took over as the Chief Minister of Bihar in 1961, he requested Pandit Jawahar Lal Nehru to spare Satyendra Babu’s services for the province and thus ‘Chhote Sahab’ joined Binoda Babu as his cabinet colleague. Satyendra Babu was entrusted with the important portfolio of Education. When Krishna Ballabh Babu took over as Chief Minister of Bihar in 1963 after the ‘Kamraj Plan’, he made no change in the portfolio of Satyendra Babu. Acknowledging his ability and efficiency, he was entrusted with the additional charge of the Departments of Agriculture and Local Self-Government. Satyendra Narayan Sinha is remembered as an able administrator because of the pioneering work done by him in improving the educational system in Bihar during this period (1961-1967). Some of these milestone achievements were the establishment of Magadha University in Gaya in 1962 and the establishment of the Sainik School in Tilaiya in 1963. Replying to a question by Ramraj Prasad Singh and Prabhunath Tiwari in the Bihar Legislative Assembly, Satyendra Narayan Sinha announced that a decision had been taken to establish a Sainik School at Tilaiya in Hazaribagh district. This school was formally inaugurated on 1st March and the first session started on 1st July 1963. Satyendra Babu laid stress on extending primary and secondary education and hence was instrumental in approving setting up schools both for boys and girls. Krishna Ballabh Babu was particularly concerned about the spread of education among girl child and Satyendra Babu as an able commander took ahead Krishna Ballabh Babu’s dream and made it a reality. Thus Satyendra Babu came up with a blueprint of establishing a girl’s school in every Block. Krishna Ballabh Babu ensured that there was no shortage of funds to meet this ambitious project. Satyendra Babu announced this decision on the floor of the House on 29th September 1966 and work began in right earnest almost immediately. Within the next six months, a girl's school was established in each Block of the state. A total of 358 girls' schools were thus established under this scheme. District-wise distribution of girl’s schools was as follows- Patna (18), Gaya (27), Shahabad (31), Saran (20), Champaran (18), Muzaffarpur (14), Darbhanga (20), Monghyr (25), Bhagalpur (8), Saharsa (17), Purnea (14), Santhal-Parganas (29), Hazaribagh (42), Ranchi (35), Dhanbad (7), Palamu (13) and Singhbhum (20). As a result of his efforts, 60 per cent of children in the age group of 6-11 years were imparted elementary education by the end of the Third Five Year Plan. This was indeed a commendable achievement given the economic constraints of those days.  

The Opposition was left dumbstruck at such a pace of work which had by now become the trademark style of functioning of Krishna Ballabh Sahay administration- quick decision followed by equally quick implementation of projects. Often the Opposition questioned the motive of such haste. In utter annoyance, the Opposition would charge Krishna Ballabh Babbu and his Government of corruption in development projects in absence of nothing to write home about their contribution. This became a common narrative, so much so, that over the years such tactics lost their relevance. One such incidence would be sufficient to substantiate the statement.

On one such occasion, the Opposition attempted to drive a wedge between Krishna Ballabh Babu and Satyendra Narayan Sinha to weaken the Congress Government. As part of the dubious ploy, the opposition accused Satyendra Babu of corruption. The aim was to reduce Krishna Ballabh Babu’s reliance on Satyendra Babu. During a debate in Bihar Legislative Assembly in 1964, Praja Samajwadi Party leader Suraj Narayan Singh from Madhubani East alleged that as a Minister Satyendra Narayan Sinha i.e. 'Chhote-Saheb' sold his house at a higher price to the same person, who had applied for and in whose favour the settlement of Bhagalpur Nau-Ghat, was made ignoring the rules. The Minister thus indulged in corrupt practices. Such as act by the Minister was blatantly wrong, unjust and unjustified and therefore the opposition demanded a statement from the Government to come clean on the allegation.

Krishna Ballabh Babu was well aware of such devious strategies of the opposition and had therefore done his homework beforehand. This was another remarkable characteristic trait of K. B. Sahay. He would never address the House without making adequate preparations. Therefore even when the matter was listed for discussion in the Assembly and the debate was yet to take place; K. B. Sahay called for all the related reports and documents from the District Officer of Bhagalpur. On 7 August, when K. B. Sahay stood up to speak for his cabinet colleague Satyendra Narayan Sinha, he was calm and composed. In a dignified tone and tenor, he asked the leaders of the opposition parties to desist from such antics and also slammed them for indulging in the character assassination of an honourable Minister. Then turning the table on opposition K. B. Sahay came to the main issue and laid down the factual position of the case on the Table of the House. Protecting the reputation of Satyendra Babu, he made the official statement of the Government- 'As far as the settlement of the ghats is concerned the decision is not taken either by the Minister in charge of the Department of the Local Self-Government or by the State Government as the matter does not fall in their purview as per the Bengal Ferries Act which delegates this power to the District Magistrate and the Commissioner who are the final authorities in such matters. In this particular case, the District Magistrate of Bhagalpur invited tenders for the settlement of ghat in 1963 and based on the rates received awarded the ghat in favour of Amarendra Narayan Singh for 9 years. A representation was received by the State Government against this settlement which was when the matter came to the notice of the State Government. Satyendra Babu examined the issue and found that the settlement for 9 years through tender as made by the District Magistrate was not as per the extant rules. The District Magistrate had entered into this settlement under the old rules which provided for settlement for 9 years after completing the requisite formalities of tender etc. However, as per the latest instructions framed by the Bhagalpur Zilla Parishad, a settlement could have been done only through public auction and such a settlement would have been valid for a maximum period of three years. Therefore, Local Self-Government Minister Satyendra Narayan Sinha promptly cancelled the settlement as it was illegal as per the revised instructions. P.K.J. Menon, who was appointed in place of the regular Commissioner of Bhagalpur Mr Abraham, who was on leave at that time, issued the orders for cancellation of Mr Abraham’s decision. Thus the allegation of favouritism in the interest of the ghat-contractor as a reward for buying a house at a higher price a year before was completely baseless. Given the price of houses, the particular sale could be termed as ‘distress sale’. It would have been better if the opposition had made allegations after verifying the facts. The House could have thus avoided such attempts on the character assassination of a fellow member and an esteemed Minister of the Cabinet’. The issue ended there.

Raja Dinesh Singh, the King of Kalakankar, a close aide of Indira Gandhi and a Minister of State in her Cabinet visited Bihar in 1966 ostensibly to study the state of famine. However, his visit fuelled speculation that everything was not right between the Bihar Chief Minister and the High-Command. Words went out that Dinesh Singh was sent to study the pros and cons of removing Krishna Ballabh Babu and replacing him with Satyendra Narayan Sinha as the Chief Minister. Satyendra Babu vehemently denied these rumours and did not allow any misunderstanding to crop up between him and Krishna Ballabh Babu. Years later 'Chhote Saheb' clarified that he had declined the offer of the High Command as such a decision was bereft of popular sentiment. Today we do not have such leaders who prefer to stick to their ideology and do not hanker for power.

Given his administrative skill, mass base and popularity, Satyendra Narayan Sinha was a Chief Ministerial material and was often referred to as the "Future CM”. Unfortunately, he had to wait for long before he could become Chief Minister in 1989, though this was for a short spell of merely ten months (March-December 1989). Satyendra Narayan Sinha died on 4 September 2006. 

Satyendra Narayan Sinha is still remembered in the political circles in Bihar for the landmark decisions he took as the Education Minister. After his departure as the Education Minister in 1967, Bihar’s education system slipped into a morass from which it could never recover. 1967 was was a watershed year of the education system in Bihar. The year was marked by opposition backed student’s agitations. The opposition shamelessly and selfishly manner used the power of the misled group of youths the ‘jigar ke tukde’ to acquire power. The reputation of the valued educational institutions of Bihar lay in tatters as gross indiscipline on the campus resulted in delayed academic sessions and flight of talent from Bihar to Delhi and other better destinations. The standard of education nose-dived and students were declared to have passed even after failing to clear English as a subject. This came to be known as ‘Karpoori Division’- named after Karpoori Thakur who took over the mantle of Education Ministry from Satyendra Babu.

In 1969 when Indira Gandhi split the Congress, Satyendra Babu stayed back in the original Congress along with Krishna Ballabh Babu. This Congress came to be called the Congress (Organization). Satyendra Babu was the President of the State unit of the Bihar Pradesh Congress Committee (Organization) when news of Krishna Ballabh Babu’s death in a tragic car accident reached him in Patna. He was aghast to hear the news-"In the death of Mr K. B. Sahay, one of the most colorful personalities in Bihar politics had been removed. K. B. sahay was an able administrator and patriot, a great organizer and the architect of Zamindari abolition in the country. The void created by his death would be difficult to fill’.

Just a day before his death on 3rd June 1974, Krishna Ballabh Babu had met Jai Prakash Narayan at the Patna Airport. Jai Prakash Narayan was back in Patna from Vellore where he had gone for treatment of prostate. During this meet, Krishna Ballabh Babu had assured the cooperation of the Congress (Organization) for the proposed 'Sampoorna Kranti' that Jai Prakash Babu had planned to launch. Hence both Satyendra Babu and Jai Prakash Narayan were deeply saddened and were left aghast at the sudden exit of Krishna Ballabh Babu. Satyendra Narayan Sinha was nevertheless true to his words and extended the support of Congress (Organization) to the ‘Sampurna Kranti’ movement. The Congress (Organization) under Satyendra Narayan Sinha emerged as a strong force that rallied behind Jai Prakash Narayan in his quest to dislodge Mrs Indira Gandhi from the seats of power post-emergency.