Friday, 30 April 2021

'हमारी विरासत- हमारी धरोहर: 15: महामाया प्रसाद सिन्हा एवं कृष्ण बल्लभ सहाय (01/05/2021)

महामाया प्रसाद सिन्हा
(1 मई 1909-3 मई 1987)

 


कृष्ण बल्लभ सहाय 
(31  दिसंबर 1898-3 जून 1974)


बिहार में कायस्थ जाति के दो ही मुख्यमंत्री हुए- प्रथम कृष्ण बल्लभ सहाय और उनके बाद महामाया प्रसाद सिन्हा। आज महामाया प्रसाद सिन्हा की 103वीं जन्म-जयंती पर इन दोनों के राजनीतिक सम्बन्धों पर आधारित यह ब्लॉग।

1946-47 वो दौर था जब के.बी.सहाय जमींदारी उन्मूललन कानून को लेकर काफी दवाब में थे। यह दवाब उनपर बाहर से नहीं वरन काँग्रेस के अंदर चंद अग्रणी नेता और कांग्रेसी जमींदार ही बना रहे थे जो चाहते थे कि वे इस मामले में वे धीरे चलें। डॉ राजेंद्र प्रसाद की संवेदनाएँ जमींदारों के पक्ष में थीं ही। महामाया प्रसाद सिन्हा, जिनके विषय में कभी डॉ राजेंद्र प्रसाद ने कहा था कि वे उनके पुत्रवत हैं, तब बिहार प्रदेश काँग्रेस कमिटी के अध्यक्ष थे। इसी समय दो ऐसी घटनाएँ हुईं जिससे यह दवाब स्वतः ही तिरोहित हो गया। एक तो था रेविन्यू बोर्ड द्वारा तात्कालिक उत्पाद कमिश्नर आर.पी.एन. साही को बेतिया के साठी में दो सौ एकड़ भूमि आबंटित करने का मामला और दूसरा था इन्हीं उत्पाद कमिश्नर द्वारा आबंटित शीरा परमिट पर उठा विवाद।

9 अक्तूबर 1947 को बिहार विधान सभा में उत्पाद मंत्री कृष्ण बल्लभ सहाय जब माननीय सदस्य हरिनाथ मिश्र एवं गौरी शंकर डालमिया के प्रश्न का जवाब देने के लिए खड़े हुए तो किसी को मालूम नहीं था कि वे जो बोलने जा रहे हैं उसकी गूंज दूर-दूर तक सुनी जाएगी। इन दोनों ही सदस्यों ने प्रश्न कर बिहार सरकार से शीरा परमिट के लाभार्थियों के नाम और उनकी अनुशंसा करने वाले शख्स का नाम जानना चाहा था। शीरा गुड़ का ही एक चिपचिपा मीठा द्वि-उत्पाद (बाई-प्रॉडक्ट) है जिसका इस्तेमाल मदिरा बनाने में अथवा फिर तंबाकू में मिलाकर हुक्का में किया जाता है। शीरा नियंत्रण एक्ट के प्रावधानों के अनुसार चीनी मिलों के उत्पादन का 90% शीरा सरकारी डिस्टिलरी को जाता था जबकि शेष 10% ये चीनी मिल खुले बाज़ार में बेचने को स्वतंत्र थे। शीरा का सरकारी मूल्य चार आना (=25 पैसे) प्रति मन (=40 सेर) था जबकि खुले बाज़ार में यह 5/- रुपये प्रति मन बिकता था। तात्कालिक उत्पाद निरीक्षक के अनुशंसा पत्र के आधार पर चीनी मिल उन लाभार्थियों को चार आने मन की दर से शीरा इसी 10% कोटे से मुहैया कराता था जिसे ये खुले बाज़ार में बेचकर प्रति रुपये 4.75/-  प्रति मन का लाभ उठाते थे। तब बिहार सरकार में उत्पाद मंत्री जगलाल चौधरी थे। श्री कृष्ण सिन्हा से किसी वैचारिक मतभेद पर उन्होंने उत्पाद विभाग का मंत्री पद कुछ दिन पहले ही छोड़ा था। अतः इस विभाग को कृष्ण बल्लभ सहाय अस्थायी तौर पर देख रहे थे। बतौर मंत्री कृष्ण बल्लभ बाबू ने परमिट की इस व्यवस्था को बंद करवा दिया था किन्तु ये परमिट उससे पहले के थे। कृष्ण बल्लभ बाबू जब प्रश्न के जवाब में उत्पाद कमिश्नर द्वारा दी गई सूची से लाभार्थियों और उनकी अनुशंसा करने वालों के नाम गिनाने शुरू किए तो तूफान ही मच गया। उन्होंने कुल 93 लाभार्थियों के नाम लिए जिनमें से 23 किसी न किसी काँग्रेस नेता से जुड़े थे। इन्हीं में से एक नाम चंद्रिका प्रसाद सिंह का था। उत्पाद कमिश्नर द्वारा दिये गए लिस्ट में इनके नाम के आगे केयर ऑफ महामाया प्रसाद सिन्हा लिखा था। इसी प्रकार स्वर्गीय मथुरा प्रसाद के पुत्र का नाम भी इस सूची में था। मथुरा प्रसाद डॉ राजेंद्र प्रसाद के निजी सचिव रहे थे। द इंडियन नेशन के लिए यह सूचना कृष्ण बल्लभ सहाय पर हमला करने के लिए काफी था। जवाहरलाल नेहरू ने इस मामले की जांच का दायित्व सरदार पटेल को सौंपा। ज्यों-ज्यों शीरा परमिट कांड की कड़ियाँ खुलती गई यह स्पष्ट होता चला गया कि कृष्ण बल्लभ बाबू अथवा उनके मंत्रलाय का इस मामले में कुछ भी लेना-देना नहीं था और ये परमिट उत्पाद कमिश्नर द्वारा अपने वैधानिक शक्तियों का प्रयोग कर जारी किए गए थे। और तो और उत्पाद विभाग का अतिरिक्त पद-भार संभालने के तुरंत बाद कृष्ण बल्लभ बाबू ने उत्पाद कमिश्नर के इस वैधानिक शक्ति को निष्क्रिय कर दिया था। सरदार पटेल ने अपने रिपोर्ट में लिखा- कृष्ण बल्लभ सहाय ने इन लाभार्थियों के नाम एक अल्प-कालिक प्रश्न के जवाब में इस मंशा से दिया ताकि इससे काँग्रेस की प्रतिष्ठा पर जो प्रश्न उठाए जा रहे थे उसकी सही स्थिति सामने आए और कतिपय नामों की वजह से काँग्रेस का नाम बदनाम न हो। कृष्ण बल्लभ बाबू के इस निर्णय को काँग्रेस आलाकमान ने भी स्वीकार किया।

संभवतः महामाया बाबू इस घटना को 20 साल बाद भी नहीं भूले थे। उनका समय 1967 में आया जब बिहार सुखाड़ से जूझ रहा था। तब सूबे के मुख्यमंत्री कृष्ण बल्लभ बाबू थे। यह वो समय था जब सरकारी अमला भी वेतन वृद्धि को लेकर हड़ताल पर जाने की धमकी दे रहा था। ऐसे में कॉलेज में फीस वृद्धि को लेकर छात्र आंदोलन भी शुरू हो गया। एक बार फिर महामाया प्रसाद सिन्हा छात्रों की ओर से इस आंदोलन में खूद पड़े। ज्ञातव्य रहे कि1956 में श्रीकृष्ण सिन्हा के समय पटना में जब छात्र आंदोलन हुआ तब भी इन छात्रों को नेतृत्व महामाया प्रसाद सिन्हा ने ही प्रदान किया था। तब जवाहरलाल नेहरू स्वयं पटना आए थे और यहाँ गांधी मैदान में छात्रों को संबोधित कर उनके आक्रोश को शांत किया था। फलतः महामाया बाबू को इससे कोई विशेष राजनीतिक लाभ नहीं मिला था। किन्तु 1967 में परिस्थितियाँ भिन्न थीं। कृष्ण बल्लभ सहाय को केंद्रीय नेतृत्व से ऐसे किसी सहयोग की कोई अपेक्षा नहीं थी और न ही ऐसा हुआ। कृष्ण बल्लभ सहाय राजनीति में छात्रों के हस्तक्षेप को सही नहीं मानते थे। उनका मानना था कि अपनी पढ़ाई समाप्त कर ही छात्रों को राजनीति में भाग लेना चाहिए। किन्तु महामाया प्रसाद सिन्हा के लिए छात्र शक्ति एक प्रबल हथियार था जिसका इस्तेमाल व्यवस्था परिवर्तन के लिए करना किसी भी सूरत में गलत नहीं था। महामाया प्रसाद सिन्हा की भाषण शैली विलक्षण थी और वे छात्रों को प्रभावित करती थी। मेरे जिगर के टुकड़े –वे छात्रों को इसी प्रकार संबोधित करते थे। छात्र उनसे अभिभूत रहते थे। 31 दिसंबर 1966 को महामाया प्रसाद सिन्हा ने काँग्रेस से निकलकर राजा रामगढ़ के साथ एक नई पार्टी का गठन किया जिसे उन्होंने जन क्रांति दल नाम दिया। जनवरी 1967 में पटना में छात्र जुलूस पर पुलिस फ़ाइरिंग में कुछ छात्र हताहत हुए। महामाया बाबू ने मार्च में होनेवाले विधान सभा चुनाव में इस घटना का भरपूर लाभ उठाया। तथापि चुनावों में जन क्रांति दल केवल 13 सीट ही जीत पायी। काँग्रेस (128) तमाम विरोधों के बावजूद सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी। किन्तु लोहिया की संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (68), अटल बिहारी वाजपेयी की जनसंघ (26), भूपेश गुप्ता के नेतृत्व में कम्यूनिस्ट पार्टी (24) और मधु लिमये, कर्पूरी ठाकुर एवं रामानन्द तिवारी के नेतृत्व में  प्रजा सोशलिस्ट पार्टी (18) ने महामाया प्रसाद सिन्हा को सदन का नेता स्वीकार किया और इस प्रकार कृष्ण बल्लभ सहाय को हराकर महामाया प्रसाद सिन्हा 5 मार्च 1967 को बिहार के पांचवे मुख्यमंत्री के रूप में इस पद पर आसीन हुए।  

कृष्ण बल्लभ सहाय इस हार को स्वीकार कर बैठने वालों में से नहीं थे। उन्होंने गैर-काँग्रेसवाद के नाम पर जुटे इस नीतिविहीन और सिद्धांतविहीन राजनीतिक गठबंधन की पोल एक साल के भीतर खोलने का संकल्प किया था। और उन्होंने ऐसा कर भी दिखाया। समाजवाद के नाम पर काँग्रेस से निकलकर डॉ लोहिया के साथ जुडने वाले डॉ बिंदेश्वरी प्रसाद मण्डल की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएँ महामाया बाबू से कमतर नहीं थीं। अतः जब डॉ लोहिया के बनाए नियम, कि किसी भी सांसद को राज्य में मंत्री न बनाया जाये- को धता बताते हुए बिंदेश्वरी प्रसाद मण्डल महामाया बाबू की सरकार में मंत्री बन गए तो गुरु (डॉ लोहिया) और शिष्य (डॉ मण्डल) के बीच का विरोध खुलकर सामने आ गया। यहाँ तक कि बिंदेश्वरी प्रसाद मण्डल को पार्टी तोड़कर अलग पार्टी बनाने में भी उज्र नहीं हुआ। कृष्ण बल्लभ सहाय ने इस पार्टी को काँग्रेस का समर्थन दिलाया और महज 10 महीने और 20 दिन में महामाया प्रसाद सिन्हा की सरकार का अवसान हो गया। इसके साथ ही बिहार में कायस्थ मुख्यमंत्रियों के काल का भी अवसान हुआ।       

उपसंहार: महामाया प्रसाद सिन्हा सही मायने में जायंट-किलर थे। 1957 के विधान सभा चुनावों में उन्होंने श्रीकृष्ण सिन्हा के प्रिय और काँग्रेस के कद्दावर नेता महेश प्रसाद सिन्हा को खुली चुनौती देते हुए उन्हें उनके ही क्षेत्र मुजफ्फरपुर में हराया था। 1967 में महामाया बाबू ने तो इतिहास ही रच डाला जब उन्होंने आसन मुख्यमंत्री के. बी. सहाय को पटना पश्चिम विधान सभा क्षेत्र से लगभग उतने ही वोटों (20000) से हराया जितनी वोटों से जीतकर 1962 में कृष्ण बल्लभ बाबू यहाँ से चुनकर आए थे। 1972 में इस जायंट-किलर एक और दिग्गज शख्स काँग्रेस (संगठन) के लोकप्रिय नेता कृष्णकान्त सिंह को उनके ही सारण ज़िले के गोरियाकोठी क्षेत्र से हराया। 1977 में महामाया बाबू ने सांसद के लिए चुनाव लड़ा और पटना संसदीय क्षेत्र से कम्यूनिस्ट पार्टी के एक और कद्दावर नेता रामवातार शास्त्री को हराया। 3 मई 1987 को इनका निधन हुआ।

(स्रोत: (i) राष्ट्रीय अभिलेखागार, (ii) मल्टी-पार्टी कोलिसन गवर्नमेंट इन इंडिया- द फेज ऑफ नॉन-काँग्रेस  (iii) लल्लनटॉप (iv) इंट्रा-पार्टी कनफ्लिक्ट इन द बिहार काँग्रेस –रामाश्रय रॉय (v) बिहार विधान सभा कार्यवाही)  

 

 




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