बिनोदानंद झा (17 अप्रैल 1900- 1971) |
कृष्ण बल्लभ सहाय (31 दिसंबर 1898-3 जून 1974) |
दीप नारायण सिंह (25 नवंबर 1894-7 दिसंबर 1977) |
31 जनवरी 1961 को बिहार केसरी श्रीकृष्ण
सिन्हा का निधन हुआ। बिहार ने अपना एक विलक्षण पुत्र खो दिया। श्रीकृष्ण सिन्हा के
बाद दूसरे सबसे वरिष्ठ नेता श्री अनुग्रह नारायण सिन्हा थे जो पहले ही यानि 5
जुलाई 1957 को दिवंगत हो चुके थे। कृष्ण बल्लभ सहाय 1957 का चुनाव हार चुके थे और
किसी भी सदन के सदस्य नहीं थे। कहते हैं 1957 के चुनाव में कृष्ण बल्लभ सहाय और
श्रीकृष्ण सिन्हा के प्रिय श्री महेश प्रसाद सिन्हा की आपसी प्रतिस्पर्धा ही दोनों
की हार का कारण बना था।
इन परिस्थितियों में श्रीकृष्ण सिन्हा के बाद
श्री दीपनारायण सिंह को कार्यवाहक मुख्यमंत्री का कार्यभार दिया गया। काँग्रेस
विधायक दल की बैठक हुई जिसमें महेश प्रसाद सिन्हा के खिलाफ कृष्ण बल्लभ बाबू ने
बिनोदानंद झा का समर्थन किया। बिनोदानंद झा नेता चुने गए और बिहार के तीसरे
मुख्यमंत्री के रूप में उन्होंने 18 फरवरी 1961 को शपथ ली। अगले ही साल आम-चुनाव
होने थे। एक बार पुनः काँग्रेस के भीतर सीटों के बँटवारे को लेकर घमासान मचा था।
एक ओर था बिनोदानंद झा का ब्राह्मण गुट तो दूसरी ओर महेश प्रसाद सिन्हा का भूमिहार
ग्रुप था। इन दोनों के बीच कृष्ण बल्लभ सहाय थे जो चंद छिटपुट नेताओं और जातियों
का समीकरण बनाने में लगे थे। यहाँ यह ज्ञातव्व रहे कि एक समय ऐसा भी था जब कृष्ण
बल्लभ बाबू और बिनोदानंद झा दोनों की स्वतन्त्रता संग्राम में साथ-साथ समान
भागीदारी रहती थी। दरअसल हजारीबाग, जो कृष्ण
बल्लभ बाबू की कर्मभूमि रही और संथाल परगना, जो बिनोदानंद झा
की जन्मभूमि थी दोनों ही क्षेत्र छोटानागपुर में पड़ता है। 1937 में श्रीकृष्ण
सिन्हा के मंत्रिमंडल में ये दोनों ही उनके कैबिनेट में संसदीय सचिव नियुक्त हुए
थे।
बहरहाल हम वापस 1962 के आम चुनाव पर लौटते
हैं। टिकट बँटवारे के मुद्दे पर जब एक राय नहीं बनी तब नेहरू ने स्वर्ण सिंह की
अध्यक्षता में एक केंद्रीय दल को बिहार रवाना किया। इस दल के अन्य सदस्य थे लाल
बहादुर शास्त्री एवं श्रीमती इन्दिरा गांधी। इस कमिटी ने बिनोदानंद झा के समर्थक
उम्मीदवारों को प्रश्रय दिया और कृष्ण बल्लभ सहाय के छ दर्जन से अधिक उम्मीदवारों
को टिकट नहीं मिला। इस प्रकार हाशिये पर डाले जाने के बावजूद कृष्ण बल्लभ सहाय को
केंद्रीय नेतृत्व से कोई शिकायत नहीं थी। वे अब भी प्रांत ही नहीं वरन देश में
काँग्रेस के सबसे प्रभावी फ़ंड-रेजर थे जिसके लिए उनकी पार्टी उनपर निर्भर थी। इसे
याद करते हुए कृष्ण नन्दन सहाय, जो बाद में पटना के
महापौर भी रहे, लिखते हैं- ‘कृष्ण
बल्लभ बाबू चुनाव खर्च के लिए काँग्रेस नुमाइंदों की पैसे से मदद करते थे और उसमें
यह भेद-भाव नहीं रखते थे कि उनके ग्रुप का कौन है और कौन उनके ग्रुप का नहीं है।
एक बार उन्होने मुझको उत्तर बिहार के काँग्रेस प्रत्याशियों के लिए बंद लिफाफे में
रुपये दिये उनके पास पहुंचाने के लिए। उनमें से कई नाम ऐसे थे, जो कृष्ण बल्लभ बाबू के हिमायती नहीं थे, बल्कि
बराबर उनके खिलाफ रहते थे। मैं अचंभे में पड़ गया और उनसे पूछने लगा कि क्या
उनलोगों को भी रुपये देने हैं। उन्होंने छूटते कहा कि यह क्यों भूलते हो कि वो
काँग्रेस की ओर से चुनाव लड़ रहे हैं। यह थी उनकी महानता। यह न केवल इलैक्शन में
खर्च करने तक सीमित था बल्कि काँग्रेसजनों की बच्चियों की शादी, उनके बच्चों की पढ़ाई या उनके ऊपर विपत्ति पड़ा हो इन सब में कृष्ण बल्लभ
बाबू उनकी मदद में आगे रहते थे’। यहाँ ये लिखना जरूरी है
कि ताजन्म कृष्ण बल्लभ बाबू पार्टी के लिए फ़ंड एकत्रित करते रहे और इससे उनकी
पार्टी लाभान्वित भी होती रही। डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद से लेकर इन्दिरा गांधी तक
को उन्होंने कृतार्थ किया। यही नहीं उन्होंने इस फ़ंड के एक-एक पाई का हिसाब भी
रखा। किन्तु उनकी प्रशासनिक कठोरता का शिकार जमींदार लॉबी,
तमाम वामपंथी, दक्षिणपंथी और समाजवादी विपक्ष के नेता और
मीडिया ने जब उन्हें बदनाम करने की साजिश रची तो उन्हें यह गरल अकेले पीना पड़ा।
वरिष्ठ पत्रकार एस. एन. विनोद कहते हैं-‘के.बी. सहाय पर
करप्शन के इल्जाम लगे। मगर उन्होंने निजी तौर पर कोई करप्शन नहीं किया था। औरों के
काम करते थे, मगर जबान और प्रशासन के सख्त थे। एक दफा हम लोग
विधानसभा की पत्रकार दीर्घा में बैठे थे। तब तक सहाय भूतपूर्व हो गए थे। वो टहलते
हुए वहां आ गए और बातचीत के दरमियां बोले, ‘राजनीति करने के लिए दिमाग (हेड), ताकत (हैंड) और
मीठी जुबान (टंग) होना जरूरी है। मेरे पास हेड और हैंड तो है लेकिन टंग नहीं है।
तुम लोग बताओ, आजकल कितने नेताओं के पास इन तीनों में से एक
भी चीज है?’
बहरहाल चुनाव में अपने समर्थकों को टिकट न
दिला पाने का खामियाजा कृष्ण बल्लभ बाबू को चुनाव के बाद भुगतना पड़ा। 1962 के
चुनाव में पटना(पश्चिम) से समस्त सूबे में सबसे अधिक मतों से जीतकर आने वाले कृष्ण
बल्लभ सहाय विधायक दल के नेता पद पर हुए चुनाव में बिनोदानंद झा से हार गए और
मुख्यमंत्री बनने से रह गए। बिनोदानंद झा ने अपने मंत्रिमंडल में उन्हें अपेक्षित
कम महत्व वाले सहकारिता विभाग का मंत्री पद दिया। किन्तु कृष्ण बल्लभ बाबू के लिए
कोई विभाग गौण नहीं था। उन्होंने जमकर काम किया और सहकारिता का विस्तार न केवल
कृषि वरन लघु एवं कुटीर उद्योग, सहकारी बैंक द्वारा
लघु-बचत योजनाओं, शिक्षा, बुनकर सहकारी, उपभोक्ता सहकारी एवं दुग्ध उत्पादन के क्षेत्र में भी किया। एक और अभिनव
प्रयोग उन्होंने किया। जंगल का ठीका जो अब तक बड़े लोगों को जाता था को कृष्ण बल्लभ
बाबू ने ग्रामीण सहकारिता समिति बनाकर ग्रामीणों को देना प्रारम्भ किया। बिहार
विधान सभा में भाषण देते हुए उन्होंने इसकी रूपरेखा रखी-‘हमनें
वन सहकारिता समितियां कायम करने की कोशिश की है। हम चाहते हैं कि स्थानीय लोग सहकारिता
समिति बनाकर जंगल का ठीका लें। 1962-63 से अब तक 226 कोआपरेटिव सोसाइटी के जरिये
स्थानीय लोगों को ठीका मिला। मैं समझता हूँ, आप भी इस बात को
मानेंगें कि यह काम अच्छा है क्योंकि इससे जंगल भी बच जाएगा और स्थानीय लोगों को
रोजगार भी मिलेगा’। टाटानगर में जमशेदपुर-गोलमुरी
कोओपेरटिव यूनियन की संगोष्ठी में भाग लेते हुए उनका यह कहना कि, सहकारिता द्वारा ही वास्तविक स्वराज्य की स्थापना संभव है, उनके व्यापक दृष्टिकोण का एक छोटा सा उदाहरण है।
1962 में चुनाव के बाद पटना में काँग्रेस
अधिवेशन का आयोजन हुआ जिसे सफलतापूर्वक निभाकर बिनोदानंद झा अपनी स्थिति और सबल
बनाने में सफल रहे। किन्तु इसी समय बहुचर्चित मछली कांड हुआ जिसने केंद्रीय
नेतृत्व की नज़रों में उन्हें गिरा दिया। कमराज योजना के तहत श्री बिनोदानंद झा
संगठन के काम के लिए चुने गए और उन्हें मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा। एक
बार पुनः सदाकत आश्रम में काँग्रेस विधायक नेता चुनने के लिए एकत्रित हुए। इस बार
कृष्ण बल्लभ बाबू अपने पक्ष में एक नया जातिगत समीकरण बनाने में सफल रहे। राम लखन
सिंह यादव की मदद से उन्होंने अन्य पिछड़ी जातियों के
विधायकों को अपने पक्ष में करना शुरू किया। इस प्रकार कृष्ण बल्लभ बाबू के पक्ष
में कोइरी (कुशवाहा), कुर्मी और
यादवों का गठबंधन बना जो आनेवाले वर्षों में 'त्रिवेणी संघ'
के नाम से विख्यात हुआ। उधर कृष्ण बल्लभ बाबू के प्रतिद्वंदी बीरचंद
पटेल कोइरी को भी अपने पक्ष में लाने में असफल रहे। अंततः ब्राह्मण को छोड़कर
राजपूत और भूमिहार नेता भी कृष्ण बल्लभ बाबू के पक्ष में आ गए- अनुग्रह बाबू के
पुत्र सत्येंद्र नारायण सिन्हा और बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री श्री कृष्ण सिन्हा
के पुत्र, युवा भूमिहार नेता बंदी शंकर सिंह कृष्ण बल्लभ
बाबू के पक्ष में उतर आये। कृष्ण बल्लभ बाबू कांग्रेस विधायक दल के नेता चुने गए
और 2 अक्टूबर 1963 को उन्होंने बिहार
के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली।
मुख्यमंत्री पद से रुकसत होने
के बावजूद बिनोदानंद झा पुनः मुख्यमंत्री बनने के लिए सक्रिय रहे। खासकर 1967 के
बाद जब काँग्रेस और कृष्ण बल्लभ बाबू चुनाव हार चुके थे। किन्तु उनकी यह मंशा पूरी
नहीं हो पायी। 1971 में इन्दिरा गांधी की काँग्रेस से वे दरभंगा लोक सभा से सांसद
चुने गए। इसी साल उनका निधन हो गया।
(उद्धरण: (i) कोलिसन पॉलिटिक्स इन इंडिया: पॉल आर. ब्रास (अमेरीकन पॉलिटिकल साइन्स
रिव्यू), (ii) मल्टी-पार्टी कोलिसन
गवर्नमेंट इन इंडिया- द फेज ऑफ नॉन-काँग्रेस
(iii) लल्लनटॉप (iv)
इंट्रा-पार्टी कनफ्लिक्ट इन थे बिहार काँग्रेस –रामाश्रय रॉय (v) पॉलिटिक्स एंड गवर्नेंस इन इंडियन स्टेट्स- बिहार,
वेस्ट बंगाल एंड त्रिपुरा- हरिहर भट्टाचार्य एंड सुब्रत मित्रा (vi) बिहार विधान सभा कार्यवाही)
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