Friday, 30 April 2021

'हमारी विरासत- हमारी धरोहर: 15: महामाया प्रसाद सिन्हा एवं कृष्ण बल्लभ सहाय (01/05/2021)

महामाया प्रसाद सिन्हा
(1 मई 1909-3 मई 1987)

 


कृष्ण बल्लभ सहाय 
(31  दिसंबर 1898-3 जून 1974)


बिहार में कायस्थ जाति के दो ही मुख्यमंत्री हुए- प्रथम कृष्ण बल्लभ सहाय और उनके बाद महामाया प्रसाद सिन्हा। आज महामाया प्रसाद सिन्हा की 103वीं जन्म-जयंती पर इन दोनों के राजनीतिक सम्बन्धों पर आधारित यह ब्लॉग।

1946-47 वो दौर था जब के.बी.सहाय जमींदारी उन्मूललन कानून को लेकर काफी दवाब में थे। यह दवाब उनपर बाहर से नहीं वरन काँग्रेस के अंदर चंद अग्रणी नेता और कांग्रेसी जमींदार ही बना रहे थे जो चाहते थे कि वे इस मामले में वे धीरे चलें। डॉ राजेंद्र प्रसाद की संवेदनाएँ जमींदारों के पक्ष में थीं ही। महामाया प्रसाद सिन्हा, जिनके विषय में कभी डॉ राजेंद्र प्रसाद ने कहा था कि वे उनके पुत्रवत हैं, तब बिहार प्रदेश काँग्रेस कमिटी के अध्यक्ष थे। इसी समय दो ऐसी घटनाएँ हुईं जिससे यह दवाब स्वतः ही तिरोहित हो गया। एक तो था रेविन्यू बोर्ड द्वारा तात्कालिक उत्पाद कमिश्नर आर.पी.एन. साही को बेतिया के साठी में दो सौ एकड़ भूमि आबंटित करने का मामला और दूसरा था इन्हीं उत्पाद कमिश्नर द्वारा आबंटित शीरा परमिट पर उठा विवाद।

9 अक्तूबर 1947 को बिहार विधान सभा में उत्पाद मंत्री कृष्ण बल्लभ सहाय जब माननीय सदस्य हरिनाथ मिश्र एवं गौरी शंकर डालमिया के प्रश्न का जवाब देने के लिए खड़े हुए तो किसी को मालूम नहीं था कि वे जो बोलने जा रहे हैं उसकी गूंज दूर-दूर तक सुनी जाएगी। इन दोनों ही सदस्यों ने प्रश्न कर बिहार सरकार से शीरा परमिट के लाभार्थियों के नाम और उनकी अनुशंसा करने वाले शख्स का नाम जानना चाहा था। शीरा गुड़ का ही एक चिपचिपा मीठा द्वि-उत्पाद (बाई-प्रॉडक्ट) है जिसका इस्तेमाल मदिरा बनाने में अथवा फिर तंबाकू में मिलाकर हुक्का में किया जाता है। शीरा नियंत्रण एक्ट के प्रावधानों के अनुसार चीनी मिलों के उत्पादन का 90% शीरा सरकारी डिस्टिलरी को जाता था जबकि शेष 10% ये चीनी मिल खुले बाज़ार में बेचने को स्वतंत्र थे। शीरा का सरकारी मूल्य चार आना (=25 पैसे) प्रति मन (=40 सेर) था जबकि खुले बाज़ार में यह 5/- रुपये प्रति मन बिकता था। तात्कालिक उत्पाद निरीक्षक के अनुशंसा पत्र के आधार पर चीनी मिल उन लाभार्थियों को चार आने मन की दर से शीरा इसी 10% कोटे से मुहैया कराता था जिसे ये खुले बाज़ार में बेचकर प्रति रुपये 4.75/-  प्रति मन का लाभ उठाते थे। तब बिहार सरकार में उत्पाद मंत्री जगलाल चौधरी थे। श्री कृष्ण सिन्हा से किसी वैचारिक मतभेद पर उन्होंने उत्पाद विभाग का मंत्री पद कुछ दिन पहले ही छोड़ा था। अतः इस विभाग को कृष्ण बल्लभ सहाय अस्थायी तौर पर देख रहे थे। बतौर मंत्री कृष्ण बल्लभ बाबू ने परमिट की इस व्यवस्था को बंद करवा दिया था किन्तु ये परमिट उससे पहले के थे। कृष्ण बल्लभ बाबू जब प्रश्न के जवाब में उत्पाद कमिश्नर द्वारा दी गई सूची से लाभार्थियों और उनकी अनुशंसा करने वालों के नाम गिनाने शुरू किए तो तूफान ही मच गया। उन्होंने कुल 93 लाभार्थियों के नाम लिए जिनमें से 23 किसी न किसी काँग्रेस नेता से जुड़े थे। इन्हीं में से एक नाम चंद्रिका प्रसाद सिंह का था। उत्पाद कमिश्नर द्वारा दिये गए लिस्ट में इनके नाम के आगे केयर ऑफ महामाया प्रसाद सिन्हा लिखा था। इसी प्रकार स्वर्गीय मथुरा प्रसाद के पुत्र का नाम भी इस सूची में था। मथुरा प्रसाद डॉ राजेंद्र प्रसाद के निजी सचिव रहे थे। द इंडियन नेशन के लिए यह सूचना कृष्ण बल्लभ सहाय पर हमला करने के लिए काफी था। जवाहरलाल नेहरू ने इस मामले की जांच का दायित्व सरदार पटेल को सौंपा। ज्यों-ज्यों शीरा परमिट कांड की कड़ियाँ खुलती गई यह स्पष्ट होता चला गया कि कृष्ण बल्लभ बाबू अथवा उनके मंत्रलाय का इस मामले में कुछ भी लेना-देना नहीं था और ये परमिट उत्पाद कमिश्नर द्वारा अपने वैधानिक शक्तियों का प्रयोग कर जारी किए गए थे। और तो और उत्पाद विभाग का अतिरिक्त पद-भार संभालने के तुरंत बाद कृष्ण बल्लभ बाबू ने उत्पाद कमिश्नर के इस वैधानिक शक्ति को निष्क्रिय कर दिया था। सरदार पटेल ने अपने रिपोर्ट में लिखा- कृष्ण बल्लभ सहाय ने इन लाभार्थियों के नाम एक अल्प-कालिक प्रश्न के जवाब में इस मंशा से दिया ताकि इससे काँग्रेस की प्रतिष्ठा पर जो प्रश्न उठाए जा रहे थे उसकी सही स्थिति सामने आए और कतिपय नामों की वजह से काँग्रेस का नाम बदनाम न हो। कृष्ण बल्लभ बाबू के इस निर्णय को काँग्रेस आलाकमान ने भी स्वीकार किया।

संभवतः महामाया बाबू इस घटना को 20 साल बाद भी नहीं भूले थे। उनका समय 1967 में आया जब बिहार सुखाड़ से जूझ रहा था। तब सूबे के मुख्यमंत्री कृष्ण बल्लभ बाबू थे। यह वो समय था जब सरकारी अमला भी वेतन वृद्धि को लेकर हड़ताल पर जाने की धमकी दे रहा था। ऐसे में कॉलेज में फीस वृद्धि को लेकर छात्र आंदोलन भी शुरू हो गया। एक बार फिर महामाया प्रसाद सिन्हा छात्रों की ओर से इस आंदोलन में खूद पड़े। ज्ञातव्य रहे कि1956 में श्रीकृष्ण सिन्हा के समय पटना में जब छात्र आंदोलन हुआ तब भी इन छात्रों को नेतृत्व महामाया प्रसाद सिन्हा ने ही प्रदान किया था। तब जवाहरलाल नेहरू स्वयं पटना आए थे और यहाँ गांधी मैदान में छात्रों को संबोधित कर उनके आक्रोश को शांत किया था। फलतः महामाया बाबू को इससे कोई विशेष राजनीतिक लाभ नहीं मिला था। किन्तु 1967 में परिस्थितियाँ भिन्न थीं। कृष्ण बल्लभ सहाय को केंद्रीय नेतृत्व से ऐसे किसी सहयोग की कोई अपेक्षा नहीं थी और न ही ऐसा हुआ। कृष्ण बल्लभ सहाय राजनीति में छात्रों के हस्तक्षेप को सही नहीं मानते थे। उनका मानना था कि अपनी पढ़ाई समाप्त कर ही छात्रों को राजनीति में भाग लेना चाहिए। किन्तु महामाया प्रसाद सिन्हा के लिए छात्र शक्ति एक प्रबल हथियार था जिसका इस्तेमाल व्यवस्था परिवर्तन के लिए करना किसी भी सूरत में गलत नहीं था। महामाया प्रसाद सिन्हा की भाषण शैली विलक्षण थी और वे छात्रों को प्रभावित करती थी। मेरे जिगर के टुकड़े –वे छात्रों को इसी प्रकार संबोधित करते थे। छात्र उनसे अभिभूत रहते थे। 31 दिसंबर 1966 को महामाया प्रसाद सिन्हा ने काँग्रेस से निकलकर राजा रामगढ़ के साथ एक नई पार्टी का गठन किया जिसे उन्होंने जन क्रांति दल नाम दिया। जनवरी 1967 में पटना में छात्र जुलूस पर पुलिस फ़ाइरिंग में कुछ छात्र हताहत हुए। महामाया बाबू ने मार्च में होनेवाले विधान सभा चुनाव में इस घटना का भरपूर लाभ उठाया। तथापि चुनावों में जन क्रांति दल केवल 13 सीट ही जीत पायी। काँग्रेस (128) तमाम विरोधों के बावजूद सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी। किन्तु लोहिया की संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (68), अटल बिहारी वाजपेयी की जनसंघ (26), भूपेश गुप्ता के नेतृत्व में कम्यूनिस्ट पार्टी (24) और मधु लिमये, कर्पूरी ठाकुर एवं रामानन्द तिवारी के नेतृत्व में  प्रजा सोशलिस्ट पार्टी (18) ने महामाया प्रसाद सिन्हा को सदन का नेता स्वीकार किया और इस प्रकार कृष्ण बल्लभ सहाय को हराकर महामाया प्रसाद सिन्हा 5 मार्च 1967 को बिहार के पांचवे मुख्यमंत्री के रूप में इस पद पर आसीन हुए।  

कृष्ण बल्लभ सहाय इस हार को स्वीकार कर बैठने वालों में से नहीं थे। उन्होंने गैर-काँग्रेसवाद के नाम पर जुटे इस नीतिविहीन और सिद्धांतविहीन राजनीतिक गठबंधन की पोल एक साल के भीतर खोलने का संकल्प किया था। और उन्होंने ऐसा कर भी दिखाया। समाजवाद के नाम पर काँग्रेस से निकलकर डॉ लोहिया के साथ जुडने वाले डॉ बिंदेश्वरी प्रसाद मण्डल की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएँ महामाया बाबू से कमतर नहीं थीं। अतः जब डॉ लोहिया के बनाए नियम, कि किसी भी सांसद को राज्य में मंत्री न बनाया जाये- को धता बताते हुए बिंदेश्वरी प्रसाद मण्डल महामाया बाबू की सरकार में मंत्री बन गए तो गुरु (डॉ लोहिया) और शिष्य (डॉ मण्डल) के बीच का विरोध खुलकर सामने आ गया। यहाँ तक कि बिंदेश्वरी प्रसाद मण्डल को पार्टी तोड़कर अलग पार्टी बनाने में भी उज्र नहीं हुआ। कृष्ण बल्लभ सहाय ने इस पार्टी को काँग्रेस का समर्थन दिलाया और महज 10 महीने और 20 दिन में महामाया प्रसाद सिन्हा की सरकार का अवसान हो गया। इसके साथ ही बिहार में कायस्थ मुख्यमंत्रियों के काल का भी अवसान हुआ।       

उपसंहार: महामाया प्रसाद सिन्हा सही मायने में जायंट-किलर थे। 1957 के विधान सभा चुनावों में उन्होंने श्रीकृष्ण सिन्हा के प्रिय और काँग्रेस के कद्दावर नेता महेश प्रसाद सिन्हा को खुली चुनौती देते हुए उन्हें उनके ही क्षेत्र मुजफ्फरपुर में हराया था। 1967 में महामाया बाबू ने तो इतिहास ही रच डाला जब उन्होंने आसन मुख्यमंत्री के. बी. सहाय को पटना पश्चिम विधान सभा क्षेत्र से लगभग उतने ही वोटों (20000) से हराया जितनी वोटों से जीतकर 1962 में कृष्ण बल्लभ बाबू यहाँ से चुनकर आए थे। 1972 में इस जायंट-किलर एक और दिग्गज शख्स काँग्रेस (संगठन) के लोकप्रिय नेता कृष्णकान्त सिंह को उनके ही सारण ज़िले के गोरियाकोठी क्षेत्र से हराया। 1977 में महामाया बाबू ने सांसद के लिए चुनाव लड़ा और पटना संसदीय क्षेत्र से कम्यूनिस्ट पार्टी के एक और कद्दावर नेता रामवातार शास्त्री को हराया। 3 मई 1987 को इनका निधन हुआ।

(स्रोत: (i) राष्ट्रीय अभिलेखागार, (ii) मल्टी-पार्टी कोलिसन गवर्नमेंट इन इंडिया- द फेज ऑफ नॉन-काँग्रेस  (iii) लल्लनटॉप (iv) इंट्रा-पार्टी कनफ्लिक्ट इन द बिहार काँग्रेस –रामाश्रय रॉय (v) बिहार विधान सभा कार्यवाही)  

 

 




Saturday, 17 April 2021

हमारी विरासत, हमारी धरोहर: 14: बिनोदानंद झा एवं कृष्ण बल्लभ सहाय (17/04/2021)

बिनोदानंद झा (17 अप्रैल 1900- 1971)

कृष्ण बल्लभ सहाय (31 दिसंबर 1898-3 जून 1974)

दीप नारायण सिंह (25 नवंबर 1894-7 दिसंबर 1977)






31 जनवरी 1961 को बिहार केसरी श्रीकृष्ण सिन्हा का निधन हुआ। बिहार ने अपना एक विलक्षण पुत्र खो दिया। श्रीकृष्ण सिन्हा के बाद दूसरे सबसे वरिष्ठ नेता श्री अनुग्रह नारायण सिन्हा थे जो पहले ही यानि 5 जुलाई 1957 को दिवंगत हो चुके थे। कृष्ण बल्लभ सहाय 1957 का चुनाव हार चुके थे और किसी भी सदन के सदस्य नहीं थे। कहते हैं 1957 के चुनाव में कृष्ण बल्लभ सहाय और श्रीकृष्ण सिन्हा के प्रिय श्री महेश प्रसाद सिन्हा की आपसी प्रतिस्पर्धा ही दोनों की हार का कारण बना था।

इन परिस्थितियों में श्रीकृष्ण सिन्हा के बाद श्री दीपनारायण सिंह को कार्यवाहक मुख्यमंत्री का कार्यभार दिया गया। काँग्रेस विधायक दल की बैठक हुई जिसमें महेश प्रसाद सिन्हा के खिलाफ कृष्ण बल्लभ बाबू ने बिनोदानंद झा का समर्थन किया। बिनोदानंद झा नेता चुने गए और बिहार के तीसरे मुख्यमंत्री के रूप में उन्होंने 18 फरवरी 1961 को शपथ ली। अगले ही साल आम-चुनाव होने थे। एक बार पुनः काँग्रेस के भीतर सीटों के बँटवारे को लेकर घमासान मचा था। एक ओर था बिनोदानंद झा का ब्राह्मण गुट तो दूसरी ओर महेश प्रसाद सिन्हा का भूमिहार ग्रुप था। इन दोनों के बीच कृष्ण बल्लभ सहाय थे जो चंद छिटपुट नेताओं और जातियों का समीकरण बनाने में लगे थे। यहाँ यह ज्ञातव्व रहे कि एक समय ऐसा भी था जब कृष्ण बल्लभ बाबू और बिनोदानंद झा दोनों की स्वतन्त्रता संग्राम में साथ-साथ समान भागीदारी रहती थी। दरअसल हजारीबाग, जो कृष्ण बल्लभ बाबू की कर्मभूमि रही और संथाल परगना, जो बिनोदानंद झा की जन्मभूमि थी दोनों ही क्षेत्र छोटानागपुर में पड़ता है। 1937 में श्रीकृष्ण सिन्हा के मंत्रिमंडल में ये दोनों ही उनके कैबिनेट में संसदीय सचिव नियुक्त हुए थे।

बहरहाल हम वापस 1962 के आम चुनाव पर लौटते हैं। टिकट बँटवारे के मुद्दे पर जब एक राय नहीं बनी तब नेहरू ने स्वर्ण सिंह की अध्यक्षता में एक केंद्रीय दल को बिहार रवाना किया। इस दल के अन्य सदस्य थे लाल बहादुर शास्त्री एवं श्रीमती इन्दिरा गांधी। इस कमिटी ने बिनोदानंद झा के समर्थक उम्मीदवारों को प्रश्रय दिया और कृष्ण बल्लभ सहाय के छ दर्जन से अधिक उम्मीदवारों को टिकट नहीं मिला। इस प्रकार हाशिये पर डाले जाने के बावजूद कृष्ण बल्लभ सहाय को केंद्रीय नेतृत्व से कोई शिकायत नहीं थी। वे अब भी प्रांत ही नहीं वरन देश में काँग्रेस के सबसे प्रभावी फ़ंड-रेजर थे जिसके लिए उनकी पार्टी उनपर निर्भर थी। इसे याद करते हुए कृष्ण नन्दन सहाय, जो बाद में पटना के महापौर भी रहे, लिखते हैं- कृष्ण बल्लभ बाबू चुनाव खर्च के लिए काँग्रेस नुमाइंदों की पैसे से मदद करते थे और उसमें यह भेद-भाव नहीं रखते थे कि उनके ग्रुप का कौन है और कौन उनके ग्रुप का नहीं है। एक बार उन्होने मुझको उत्तर बिहार के काँग्रेस प्रत्याशियों के लिए बंद लिफाफे में रुपये दिये उनके पास पहुंचाने के लिए। उनमें से कई नाम ऐसे थे, जो कृष्ण बल्लभ बाबू के हिमायती नहीं थे, बल्कि बराबर उनके खिलाफ रहते थे। मैं अचंभे में पड़ गया और उनसे पूछने लगा कि क्या उनलोगों को भी रुपये देने हैं। उन्होंने छूटते कहा कि यह क्यों भूलते हो कि वो काँग्रेस की ओर से चुनाव लड़ रहे हैं। यह थी उनकी महानता। यह न केवल इलैक्शन में खर्च करने तक सीमित था बल्कि काँग्रेसजनों की बच्चियों की शादी, उनके बच्चों की पढ़ाई या उनके ऊपर विपत्ति पड़ा हो इन सब में कृष्ण बल्लभ बाबू उनकी मदद में आगे रहते थे। यहाँ ये लिखना जरूरी है कि ताजन्म कृष्ण बल्लभ बाबू पार्टी के लिए फ़ंड एकत्रित करते रहे और इससे उनकी पार्टी लाभान्वित भी होती रही। डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद से लेकर इन्दिरा गांधी तक को उन्होंने कृतार्थ किया। यही नहीं उन्होंने इस फ़ंड के एक-एक पाई का हिसाब भी रखा। किन्तु उनकी प्रशासनिक कठोरता का शिकार जमींदार लॉबी, तमाम वामपंथी, दक्षिणपंथी और समाजवादी विपक्ष के नेता और मीडिया ने जब उन्हें बदनाम करने की साजिश रची तो उन्हें यह गरल अकेले पीना पड़ा। वरिष्ठ पत्रकार एस. एन. विनोद कहते हैं-के.बी. सहाय पर करप्शन के इल्जाम लगे। मगर उन्होंने निजी तौर पर कोई करप्शन नहीं किया था। औरों के काम करते थे, मगर जबान और प्रशासन के सख्त थे। एक दफा हम लोग विधानसभा की पत्रकार दीर्घा में बैठे थे। तब तक सहाय भूतपूर्व हो गए थे। वो टहलते हुए वहां आ गए और बातचीत के दरमियां बोले, राजनीति करने के लिए दिमाग (हेड), ताकत (हैंड) और मीठी जुबान (टंग) होना जरूरी है। मेरे पास हेड और हैंड तो है लेकिन टंग नहीं है। तुम लोग बताओ, आजकल कितने नेताओं के पास इन तीनों में से एक भी चीज है?’

बहरहाल चुनाव में अपने समर्थकों को टिकट न दिला पाने का खामियाजा कृष्ण बल्लभ बाबू को चुनाव के बाद भुगतना पड़ा। 1962 के चुनाव में पटना(पश्चिम) से समस्त सूबे में सबसे अधिक मतों से जीतकर आने वाले कृष्ण बल्लभ सहाय विधायक दल के नेता पद पर हुए चुनाव में बिनोदानंद झा से हार गए और मुख्यमंत्री बनने से रह गए। बिनोदानंद झा ने अपने मंत्रिमंडल में उन्हें अपेक्षित कम महत्व वाले सहकारिता विभाग का मंत्री पद दिया। किन्तु कृष्ण बल्लभ बाबू के लिए कोई विभाग गौण नहीं था। उन्होंने जमकर काम किया और सहकारिता का विस्तार न केवल कृषि वरन लघु एवं कुटीर उद्योग, सहकारी बैंक द्वारा लघु-बचत योजनाओं, शिक्षा, बुनकर सहकारी, उपभोक्ता सहकारी एवं दुग्ध उत्पादन के क्षेत्र में भी किया। एक और अभिनव प्रयोग उन्होंने किया। जंगल का ठीका जो अब तक बड़े लोगों को जाता था को कृष्ण बल्लभ बाबू ने ग्रामीण सहकारिता समिति बनाकर ग्रामीणों को देना प्रारम्भ किया। बिहार विधान सभा में भाषण देते हुए उन्होंने इसकी रूपरेखा रखी-हमनें वन सहकारिता समितियां कायम करने की कोशिश की है। हम चाहते हैं कि स्थानीय लोग सहकारिता समिति बनाकर जंगल का ठीका लें। 1962-63 से अब तक 226 कोआपरेटिव सोसाइटी के जरिये स्थानीय लोगों को ठीका मिला। मैं समझता हूँ, आप भी इस बात को मानेंगें कि यह काम अच्छा है क्योंकि इससे जंगल भी बच जाएगा और स्थानीय लोगों को रोजगार भी मिलेगा। टाटानगर में जमशेदपुर-गोलमुरी कोओपेरटिव यूनियन की संगोष्ठी में भाग लेते हुए उनका यह कहना कि, सहकारिता द्वारा ही वास्तविक स्वराज्य की स्थापना संभव है, उनके व्यापक दृष्टिकोण का एक छोटा सा उदाहरण है। 

1962 में चुनाव के बाद पटना में काँग्रेस अधिवेशन का आयोजन हुआ जिसे सफलतापूर्वक निभाकर बिनोदानंद झा अपनी स्थिति और सबल बनाने में सफल रहे। किन्तु इसी समय बहुचर्चित मछली कांड हुआ जिसने केंद्रीय नेतृत्व की नज़रों में उन्हें गिरा दिया। कमराज योजना के तहत श्री बिनोदानंद झा संगठन के काम के लिए चुने गए और उन्हें मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा। एक बार पुनः सदाकत आश्रम में काँग्रेस विधायक नेता चुनने के लिए एकत्रित हुए। इस बार कृष्ण बल्लभ बाबू अपने पक्ष में एक नया जातिगत समीकरण बनाने में सफल रहे। राम लखन सिंह यादव की मदद से उन्होंने अन्य पिछड़ी जातियों के विधायकों को अपने पक्ष में करना शुरू किया। इस प्रकार कृष्ण बल्लभ बाबू के पक्ष में कोइरी (कुशवाहा), कुर्मी और यादवों का गठबंधन बना जो आनेवाले वर्षों में 'त्रिवेणी संघ' के नाम से विख्यात हुआ। उधर कृष्ण बल्लभ बाबू के प्रतिद्वंदी बीरचंद पटेल कोइरी को भी अपने पक्ष में लाने में असफल रहे। अंततः ब्राह्मण को छोड़कर राजपूत और भूमिहार नेता भी कृष्ण बल्लभ बाबू के पक्ष में आ गए- अनुग्रह बाबू के पुत्र सत्येंद्र नारायण सिन्हा और बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री श्री कृष्ण सिन्हा के पुत्र, युवा भूमिहार नेता बंदी शंकर सिंह कृष्ण बल्लभ बाबू के पक्ष में उतर आये। कृष्ण बल्लभ बाबू कांग्रेस विधायक दल के नेता चुने गए और 2 अक्टूबर 1963 को उन्होंने बिहार के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली।

मुख्यमंत्री पद से रुकसत होने के बावजूद बिनोदानंद झा पुनः मुख्यमंत्री बनने के लिए सक्रिय रहे। खासकर 1967 के बाद जब काँग्रेस और कृष्ण बल्लभ बाबू चुनाव हार चुके थे। किन्तु उनकी यह मंशा पूरी नहीं हो पायी। 1971 में इन्दिरा गांधी की काँग्रेस से वे दरभंगा लोक सभा से सांसद चुने गए। इसी साल उनका निधन हो गया। 


(उद्धरण: (i) कोलिसन पॉलिटिक्स इन इंडिया: पॉल आर. ब्रास (अमेरीकन पॉलिटिकल साइन्स रिव्यू), (ii) मल्टी-पार्टी कोलिसन गवर्नमेंट इन इंडिया- द फेज ऑफ नॉन-काँग्रेस  (iii) लल्लनटॉप (iv) इंट्रा-पार्टी कनफ्लिक्ट इन थे बिहार काँग्रेस –रामाश्रय रॉय (v) पॉलिटिक्स एंड गवर्नेंस इन इंडियन स्टेट्स- बिहार, वेस्ट बंगाल एंड त्रिपुरा- हरिहर भट्टाचार्य एंड सुब्रत मित्रा (vi) बिहार विधान सभा कार्यवाही)  

 

Saturday, 10 April 2021

'THE LEGACY': 9: RANCHHOD KRISHNA: MORARJI RANCHHODJI DESAI AND KRISHNA BALLABH SAHAY (10/04/2021)

 

MORARJI RANCHHODJI DESAI
(29 FEBRUARY 1896- 10 APRIL 1995)



KRISHNA BALLABH SAHAY
(31 DECEMBER 1898-3 JULY 1974)












11th January 1966 was a black-letter day in the history of India’s parliamentary democracy. India’s most loved Prime Minister Lal Bahadur Shastri died under mysterious conditions at Tashkent, leaving behind a void that he had so effectively filled after Pandit Jawahar Lal Nehru’s departure.  In 1964 after prime minister's Nehru's death, Morarji Desai was outflanked in the leadership contest by Nehru's protégé, Lal Bahadur Shastri. In early 1966, the unexpected passing away of Prime Minister Lal Bahadur Shastri only after 18 months in power resurrected Morarji Desai as a contender for the top position.

Morarji Desai had visited Bihar on 20th October 1963 for the inauguration of the Barauni Thermal Power Station. K.B. Sahay had taken over the reins of Chief Minister of Bihar just a fortnight ago. During this visit, they developed a unique camaraderie that remained intact in the coming months. This culminated in K.B. Sahay’s support for Morarji Desai’s candidature when the latter threw in his hat for the position after Lal Bahadur Shastri’s exit. However, the ‘Syndicate’ under the leadership of Kumaraswamy Kamaraj along with Atulya Ghosh (Bengal), Biju Patnayak (Orissa), S. Nijalingappa (Mysore), Neelam Sanjiva Reddy (Andhra Pradesh), Darbara Sigh (Punjab), Dr Ram Subhag Singh (Bihar) and S.K. Patil (Maharashtra) had some other plans. Though there were two other candidates, namely the then Home Minister Gulzari Lal Nanda and the then Defence Minister Yahwantrao Balwantrao Chavan in the fray, they withdrew once the name of Indira Gandhi was pushed ahead by the ‘Syndicate’.

The PTI reported on January15, 1966 that the election of Mrs Indira Gandhi to succeed Lal Bahadur Shastri as leader of the Congress Party in Parliament and Prime Minister became assured today after a dramatic meeting of Chief Ministers of States pledging their support to Mrs Gandhi. The Chief Ministers who attended the meeting was V. P. Naik (Maharashtra), K. Brahmananda Reddy (Andhra Pradesh), Sadashiv Tripathi (Orissa), S. Nijalingappa (Mysore now Karnataka), Dwaraka Pati Mishra (Madhya Pradesh), M. Bhaktvaslam (Madras now Tamil Nadu), Mohan Lal Sukhadia (Rajasthan) and G. M. Sadiq (Jammu & Kashmir). Chief Minister of Uttar Pradesh Chandra Bhanu Gupta, P.C. Sen CM of West Bengal and Ram Kishen CM of Punjab who was not in New Delhi at the time of CM Meet reportedly held discussion with Dwarka Pati Mishra and Kumaraswami Kamaraj and pledged their support for Mrs Indira Gandhi, while Assam Chief Minister was represented by Deo Kant Baruah and Fakhruddin Ali Ahmad’.

Amidst this galaxy of Chief Ministers, K. B. Sahay was the lone CM who did not pledge his support to Mrs Indira Gandhi. He instead threw his weight behind Morarji Desai because he considered him a better candidate compared to Mrs Indira Gandhi, both in experience and ability. The concept of dynastic politics though not had exactly taken roots but K. B. Sahay believed that the projection of Mrs Indira Gandhi merely on the ground that she was the daughter of Pandit Jawahar Lal Nehru, ignoring the merit of other senior and meritorious candidates were not fair. Mrs Indira Gandhi was projected by the ‘Syndicate’ merely to take leverage of governance and control the politics since Mrs Indira Gandhi was still a novice in politics- a dumb-doll (‘goongi-gudiya’)- as Dr. Ram Manohar Lohia had christened her once. 

Despite the support extended by K. B. Sahay, Morarji Desai lost the leadership elections by 169-355 votes. The ‘Syndicate’ was soon cut to size by Mrs Indira Gandhi who split the Congress in 1969 and walked out of Congress to form her own party. This party was called Congress (Ruling). The erstwhile ‘Syndicate’ leaders were forced to eat humble pie as they were forced to return to Morarji Desai and K.B. Sahay. These old guards came to be known as Congress (Organization). In a peculiar quirk of fate, this original Congress comprising the old guards lost steam to maintain the momentum. This benefitted Mrs Indira Gandhi who made the party her fiefdom, firstly as Congress ® and later as Congress (I) in the Eighties. This led to the inglorious extinction of the original Congress. The Congress that evolved hereinafter was merely a bunch of unprincipled congregation bereft of its pristine glory. It was definitely not the Congress that had brought independence to India.

(Acknowledgement: (i) National Archives of India, (ii) Press Trust of India News report)