आज बिहार के भूतपूर्व मुख्यमंत्री श्री
कर्पूरी ठाकुर (24 जनवरी 1924- 17 फरवरी 1988)की 34 वीं पुण्यतिथि है। भारत छोड़ो
आंदोलन से ये स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े और 1952 में ताजपुर से विधायक चुने गए।
1962 में ये ताजपुर से ही प्रजा सोशलिस्ट पार्टी से विधायक चुने गए। 1967 में ये
बिहार के शिक्षा मंत्री बने जिस दौरान उन्होंने बोर्ड परीक्षा में अँग्रेजी में
उत्तीर्ण होने की अनिवार्यता को खत्म किया। नतीजतन बिहार में छात्रों को अँग्रेजी
विषय में अनुत्तीर्ण होने के बावजूद पास कर दिया जाता था। इसे ‘कर्पूरी डिविजन’ का नाम दिया गया। ये दो मर्तबा
बिहार के मुख्यमंत्री पद पर आसीन हुए- पहली बार ‘आयाराम-गयाराम’ के दौर में 22 दिसंबर 1970 से 2 जून 1971 के बीच एवं दूसरी बार जनता
सरकार में 24 जून 1977 से 24 अप्रैल 1979 के बीच। पिछड़े वर्ग को नौकरी में आरक्षण
देने संबंधी मुंगेरी लाल आयोग की सिफारिशों को लागू करने के मुद्दे पर विरोधस्वरूप
1979 में इन्हें हटाकर श्री राम सुंदर दास को मुख्यमंत्री बनाया गया। इस अवसर पर
उन्हें याद करते हुए चौथी बिहार विधान सभा के दौरान सदन में उस दौर में होने वाली
बहसों पर आधारित इस ब्लॉग को पढ़ें जो बीते जमाने की गरिमामयी संसदीय परम्पराओं की
ओर हमारा ध्यान दिलाता है।
वाकया 7 फरवरी 1966 का है। बिहार अन्न संकट के
दौर से गुज़र रहा था। सरकार के खाद्य संग्रह आदेश के तहत प्रत्येक गाँव से अनाज की
वसूली हो रही थी जिस काम को प्रखण्ड विकास अधिकारी ग्राम पंचायत के साथ मिलकर
अंजाम दे रहे थे। मालगुजारी वसूलने का काम भी इसी माध्यम से होता था। इसी क्रम में
बिहार विधान सभा में राज्यपाल के अभिभाषण पर वाद-विवाद चल रहा था और कृष्ण बल्लभ
बाबू सदन को बता रहे थे कि मालगुजारी और अन्न वसूली के लिए प्रखण्ड विकास
पदाधिकारी के पास जीप का होना अत्यंत आवश्यक है। ‘जीप नहीं रहेगा तो अधिकारी काम कैसे करेंगें? हाँ, इसका दुरुपयोग नहीं हो, इसके लिए नियंत्रण लगा दिया
है’।– कृष्ण बल्लभ बाबू ने सदन को आश्वस्त करते हुए बताया।
श्री कर्पूरी ठाकुर- (बैठे-बैठे) ‘आप वारिसनगर और अलड़ेगा के बी.डी.ओ. के बारे में कुछ कहें’।
कृष्ण बल्लभ सहाय –‘आप बैठे-बैठे न बोलें नहीं तो लोग यही कहेंगें कि श्री कर्पूरी ठाकुर को
कृष्ण बल्लभ सहाय ने इतनी मार मारी है कि वे उठ नहीं सकते हैं’।
दरअसल गत वर्ष (1965) अगस्त माह में कतिपय
छात्र संगठनों ने कॉलेज में बढ़े हुए फीस के विरोध में आंदोलन किया था। मौके का राजनीतिक
फायदा उठाने की गरज से विपक्षी दल के नेताओं ने गांधी मैदान में एक सभा का आयोजन
किया था। यह सभा होती उससे पहले ही पटना में धारा 144 लागू कर दिया गया था। तथापि
नियत तिथि को विपक्षी दल के नेता गांधी मैदान में विरोध प्रदर्शन के लिए जमा थे।
पुलिस द्वारा सभा में शामिल नेताओं और लोगों को तितर-बितर हो जाने के लिए एक बार
चेतावनी दी गई जिसके परिणामस्वरूप वहाँ मौजूद जनता जनार्दन सभा से तिरोहित हो गयी।
किन्तु नेतागण मंच पर ही बने रहे। तब पुलिस ने उनपर लाठी चार्ज कर वहाँ मौजूद सभी
नेताओं को गिरफ्तार किया और जेल भेज दिया। बाद में इन्हें छोड़ दिया गया था। इस
लाठी-चार्ज के दौरान कर्पूरी ठाकुर समेत अन्य नेताओं को चोट पहुंची थी। इस घटना को
घटे छ माह बीत गए थे और यह स्पष्ट था कि कर्पूरी ठाकुर के बैठे रहने की वजह छ माह
पूर्व की घटना नहीं थी। तब कृष्ण बल्लभ बाबू ने ऐसा क्यूँ कहा? आइये इस तथ्य के तल में चलते हैं।
कृष्ण बल्लभ बाबू सदन में कर्पूरी ठाकुर से
काफी वरिष्ठ थे और उन्हें संसदीय परम्पराओं का बेहतर अनुभव था। उन्होंने इंगित
किया कि सदन में कर्पूरी ठाकुर अपनी बात बैठे-बैठे रख रहे थे। कृष्ण बल्लभ बाबू को
ध्यान था कि सदन में जब अध्यक्ष अपने आसन पर विराजमान होते हैं और किसी सदस्य को
कुछ बोलना होता है तो आसन की मर्यादा को ध्यान में रखते हुए सदस्य को अपनी बात खड़े
होकर कहनी होती है। कर्पूरी ठाकुर हालांकि स्वयं सदन के कार्यमंत्रणा समिति के
माननीय सदस्य थे तथापि उनसे यह अनदेखी हो गयी थी। इसे सुधारने की गरज से ही कृष्ण
बल्लभ बाबू अपने ऊपर तोहमत लेकर भी परोक्ष रूप से कर्पूरी ठाकुर को आगाह करने की
कोशिश कर रहे थे। कर्पूरी ठाकुर तत्काल इस बात को भाँप गए। उन्होंने झट खड़े होकर
जवाब दिया- ‘आपके द्वारा मारे जाने के बाद
मैं अच्छी तरह से उठ सकता था लेकिन इधर हमको टाईफ़ायड हो गया था।’
श्री कृष्ण बल्लभ सहाय – ‘अगर आप बैठे-बैठे बोलेंगें तो वोट देनेवाले यही समझेगें कि इनको इतनी मार
मारी गयी है कि ये पंगु हो गए हैं और एक भी वोट पाने के लायक नहीं रह गए हैं।
सदन में इस बात पर जोरदार ठहाका लगा जिसमें
कर्पूरी ठाकुर और कृष्ण बल्लभ सहाय दोनों ही शामिल थे। इसी बहस के दौरान कर्पूरी ठाकुर
ने सरकार का ध्यान गल्ले के बढ़े हुए मूल्य की ओर दिलाया।
कृष्ण बल्लभ सहाय- ‘यह कहा गया है कि गल्ला का दाम, खासकर चावल का दाम
बहुत ज्यादा, 55 से 60 रुपये मन, हो
गया है। लेकिन मैं सदन को बताना चाहता हूँ हमारे पास जो आंकड़े रोज आते हैं, उसके अनुसार चावल का दाम 40 रुपये पचास पैसे प्रति मन (1 मन= 40 सेर) है।
श्री कर्पूरी ठाकुर-‘आपके पास जो आंकड़े आते हैं वो गलत आते हैं’।
कृष्ण बल्लभ सहाय-‘हमारे पास जो आंकड़े आते हैं उनको तो आप मानिएगा नहीं’।
श्री कर्पूरी ठाकुर- ‘50
रुपये मन आम तौर से चावल का दाम है’।
कृष्ण बल्लभ सहाय-‘श्री कर्पूरी ठाकुर जो चावल खाते हैं वह बहुत महीन चावल होता है इसलिए वे
50 रुपये मन खरीदते हैं। लेकिन मेरे यहाँ जो चावल खाया जाता है या जो इस्तेमाल किया
जाता है उसका दाम 40-41 रुपये मन से ज्यादा नहीं है’।
खान-पान पर की गई इस सामान्य सी टिप्पणी ने
दरअसल समाजवादियों की कथनी एवं करनी के फर्क को उधेड़ कर रख दिया था। सदन में प्रजा
सोशलिस्ट पार्टी विधायक दल के नेता श्री कर्पूरी ठाकुर खान-पान के मामले में वास्तव
में कितने संभ्रांतवादी थे-कृष्ण बल्लभ बाबू ने अपनी संक्षिप्त सी टिप्पणी से इसे स्पष्ट
कर दिया था। कृष्ण बल्लभ बाबू की वाकपटुता ने कर्पूरी ठाकुर को भी लाजवाब कर दिया।
1963-1967 के बीच बिहार विधान सभा की बैठकों में बहस के दौरान कृष्ण बल्लभ बाबू अपनी
इन्हीं हल्की-फुलकी टिप्पणियों से सबों को कायल कर देते थे। क्षण भर में सभा की
नीरसता को दूर हो जाती थी। यह भी स्पष्ट था कि इन नेताओं में सैद्धान्तिक मतभेद
अवश्य थे किन्तु व्यक्तिगत वैमनष्य नहीं था। यह एक स्वस्थ संसदीय परंपरा का द्योतक
था।
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