स्वामी सहजानंद सरस्वती की आज जन्म जयंती है इस अवसर पर उनको समर्पित यह ब्लौग
स्वतन्त्रता संग्राम के दौरान किसान आंदोलन आधुनिक भारतीय इतिहास का महत्वपूर्ण अध्याय है। इसके सूत्रधार निसंदेह स्वामी सहजानन्द सरस्वती थे। आज इस महान शख्स की जन्म-जयंती पर कृष्ण बल्लभ सहाय के साथ उनके राजनीतिक सम्बन्धों विश्लेषण करता हूँ तो दोनों महानुभावों को एक ही विचारधारा का पाता हूँ। दोनों ही किसान की हितों के लिए किसी भी हद तक जाने को सदा तैयार रहते थे। दोनों ही जमींदारों की धमकियों से डरनेवालों में से नहीं थे और दोनों ही ‘सादा जीवन उच्च विचार’ के हिमायती थे- इनकी सादगी का परिचय जहां इन दोनों के पहनावे से होता था जो प्रायः मोटे खद्दर का कुर्ता-धोती से परिलक्षित होता था वहीं विचारों की उच्चता का भान किसानों के प्रति इनके सैद्धान्तिक समर्पण से होता था। बोली में अखड्डपन इन दोनों के स्वभाव में था एवं सिद्धांतों के प्रति बेमुरव्वत और परले दर्जे का जिद्दीपन इनके सहज स्वभाव की तासीर। इन दोनों की ही विचारधारा के केंद्र में भारत का आम किसान था।
स्वामीजी का जन्म 1889 में उत्तर प्रदेश के गाज़ीपुर में एक भूमिहार ब्राह्मण के घर में हुआ था। बचपन का नाम नौरंग राय था। बचपन से ही ये आध्यात्मिक स्वभाव के थे और कम उम्र में ही इन्होंने सन्यास धर्म अपना लिया। बिहटा (बिहार) में ‘सीताराम आश्रम’ की स्थापना की। यहीं से ये किसान आंदोलन की ओर अग्रसर हुए। दूसरी ओर असहयोग आंदोलन के उपरांत की शांति में कृष्ण बल्लभ बाबू छोटानागपुर के गाँव-गाँव साईकल से घूम-घूम कर काँग्रेस का अलख जगाने में लगे थे। इसी दौरान कृष्ण बल्लभ बाबू ग्रामीण जीवन की कठिनाईयों से रु-ब-रु हुए और काँग्रेस के साथ-साथ वे किसानों को संगठित करने में भी लग गए। दूसरी ओर स्वामी सहजानन्द सरस्वती 1927 से ही किसान-सभा का आयोजन करने लग गए थे। इन सभाओं में वे किसानों को जमींदारी व्यवस्था के ज़ुल्म और अन्याय के खिलाफ संगठित होकर आवाज़ बुलंद करने के लिए प्रेरित करते थे। 1929 में स्वामी सहजानन्द सरस्वती ने बिहार प्रांतीय किसान सभा की स्थापना की। कृष्ण बल्लभ बाबू भी इस ओर आकृष्ट हुए और स्वामीजी के नक्शे-कदम पर चलते हुए हजारीबाग में किसान सभा का आयोजन किया।
इन सभाओं का असर काँग्रेस पर भी हुआ जिसके केंद्रीय नेतृत्व ने किसानों की स्थिति का अध्ययन के लिए डॉ राजेंद्र प्रसाद की अध्यक्षता में एक जांच आयोग का गठन किया। इस समिति में कृष्ण बल्लभ सहाय के अलावे जो अन्य सदस्य थे उनमें श्रीकृष्ण सिन्हा, अब्दुल बारी, बिपिन बिहारी वर्मा, बलदेव सहाय, अंबिका कान्त सिन्हा, प्रजापति मिश्रा और राधा गोविंद प्रसाद आदि प्रमुख थे। 28 अगस्त 1931 को सदाकत आश्रम में एक बैठक में प्रत्येक सदस्य को एक-एक ज़िले का जिम्मा सौंपा गया और उस ज़िले में किसानों की स्थिति पर अपने रिपोर्ट प्रस्तुत करने का निर्देश हुआ। कृष्ण बल्लभ सहाय को हजारीबाग ज़िला की जिम्मेवारी मिली। यहाँ यह दृष्टव्य है कि कृष्ण बल्लभ बाबू और अब्दुल बारी को छोडकर इस समिति के अन्य सभी सदस्य भूमिसमर्थ वर्ग से आते थे।
1929-1933 के विश्व-व्यापी ‘महा-मंदी’ के पश्चात बिहार में आए प्रलयंकारी भूकंप से किसानों की स्थिति बद से बदतर हो गई थी। इसका नतीजा यह हुआ कि जगह-जगह जमींदारी व्यवस्था के खिलाफ किसान प्रदर्शन होने लगे। जमींदारी व्यवस्था के खिलाफ किसानों के जज़्बे के दबाब में 1936 में काँग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में अखिल भारतीय किसान सभा की स्थापना हुई। स्वामी सहजानन्द सरस्वती को इसका प्रथम अध्यक्ष बनाया गया। इसी अधिवेशन में एक प्रस्ताव पारित हुआ जिसमें प्रांतीय काँग्रेस कमेटी को किसानों की दशा और दिशा का अध्ययन कर उनके कल्याण हेतु सुझाव देने का निर्देश हुआ। यह निर्णय लिया गया कि अगले वर्ष फ़ैज़ाबाद के प्रस्तावित अधिवेशन में इस पर विचार कर एक संयुक्त प्रस्ताव वाइसरॉय के पास उनके विचारार्थ प्रेषित किया जाएगा। बिहार प्रांतीय काँग्रेस कमेटी ने एक नौ सदस्यीय उप-कमेटी का गठन करने का प्रस्ताव किया जिसे अखिल भारतीय काँग्रेस कमेटी के दिये निर्देश को निष्पादित करने की जिम्मेवारी दी गई। स्वामी सहजानन्द सरस्वती को इस किसान जांच समिति के अध्यक्ष के रूप में नामित किया गया। तदन्तर यह निर्णय लिया गया कि स्वामी सहजानन्द सरस्वती को समिति का अध्यक्ष बनाए जाने पर इस समिति की रिपोर्ट को किसान सभा की रिपोर्ट मान लिया जायेगा न कि कांग्रेस का। अतः स्वामी सहजानन्द सरस्वती से यह गुजारिश की गयी कि वे अपने स्थान पर किसी अन्य लीडर का नाम प्रस्तावित करें जिसपर काँग्रेस को कोई उज्र नहीं होगा। तब स्वामी जी ने अपने स्थान पर कृष्ण बल्लभ सहाय को अध्यक्ष नामित किया। कृष्ण बल्लभ सहाय पर स्वामीजी का यह अटूट विश्वास ही था कि उन्होंने अगर किसी को इस काम के योग्य माना तो वे कृष्ण बल्लभ सहाय ही थे- यह जानते हुए भी कि वे अग्रणी कांग्रेसी नेता थे। कृष्ण बल्लभ सहाय स्वामीजी के विश्वास पर खरे उतरे और इस समिति ने पूरे प्रांत का दौरा कर जो अनुशंसाएँ दी वो उन कारवाईयों का ही खाका था जिसे कृष्ण बल्लभ सहाय ने एक दशक बाद बतौर बिहार के राजस्व मंत्री क्रियान्वित किया। किन्तु इस रिपोर्ट के बाद काँग्रेस और अखिल भारतीय किसान सभा के बीच तनाव बढ्ने लगा और काँग्रेस के भीतर किसान के मुद्दे पर दो फाड़ के आसार बन गए। दूसरी ओर किसानों में संगठन की बढ़ती शक्ति से भयभीत जमींदारों ने वाइसरॉय के कार्यकारी परिषद के सदस्य सर जेम्स सिफ़टन को आवेदन देकर उनके माल-असबाब के हिफाजत की गुहार की।
1937 में श्रीकृष्ण सिन्हा के नेतृत्व में बिहार में काँग्रेस मंत्रिमंडल का गठन हुआ और बतौर संसदीय सचिव कृष्ण बल्लभ बाबू ने उन्हीं अनुशंसाओं को मूर्त रूप देने का प्रयास किया जो उन्होंने किसान जांच समिति के अध्यक्ष के तौर पर किए थे। इनमें से प्रमुख थे – सूखाड़ पड़ने पर लगान में रियायत, लगान न अदा कर पाने पर ज़मीन से दर-बदर करने पर रोक, बकाश्त भूमि का पुनरीक्षण आदि आदि। पर एक मुद्दा जिसपर काँग्रेस में दो खेमे बन गए वो था उनका जमींदारी उन्मूलन का प्रस्ताव। एक ओर जहां महात्मा गांधी, डॉ राजेंद्र प्रसाद, सरदार वल्लभ भाई पटेल, श्रीकृष्ण सिन्हा और अनुग्रह नारायण सिन्हा जैसे नेता इस मुद्दे पर और बहस कराये जाने के हिमायती थे वहीं दूसरी ओर स्वामी सहजानन्द सरस्वती, जवाहरलाल नेहरू, सुभाष चन्द्र बोस, जयप्रकाश नारायण, आचार्य नरेंद्र देव, सम्पूर्णानन्द और मुरारीलाल जैसे नेता इस पर त्वरित कारवाई के पैरोकार थे। अतः श्रीकृष्ण सिन्हा मंत्रिमंडल ने निर्णय लिया कि जमींदारी उन्मूलन के मुद्दे को फिलहाल अलग रखकर वैसे मुद्दे उठाए जाएँ जिसपर ब्रिटिश हुकूमत को कम एतराज था। इन्हीं में से एक था लगान कम करने का प्रस्ताव जिसे 1911 के दर पर ले लाया गया।
1939 में काँग्रेस मंत्रिमंडल की बर्खाश्तगी के बाद एक बार पुनः स्वामी सहजानन्द सरस्वती और कृष्ण बल्लभ सहाय किसानों को संगठित करने के अपने-अपने प्रयासों में सक्रिय हो गए। कृष्ण बल्लभ सहाय ने सूखे की स्थिति में लगान माफ अभियान चलाया जिसे किसानों के साथ-साथ काँग्रेस सोशलिस्ट पार्टी और बिहार प्रदेश किसान सभा का भी व्यापक समर्थन मिला। स्वामी सहजानन्द सरस्वती, जयप्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया, मीनू मसानी, अशोक मेहता आदि भी इस दौरान जमींदारी उन्मूलन के लिए सक्रिय थे।
1946 में श्रीकृष्ण सिन्हा की अन्तरिम सरकार ने बिहार में सत्ता भार संभाला। इस बार कृष्ण बल्लभ बाबू को राजस्व मंत्रालय की जिम्मेवारी सौंपी गयी। 1946-1950 के बीच कृष्ण बल्लभ बाबू ने भूमि-सुधार से संबन्धित आधे दर्जन से अधिक कानून बिहार विधान सभा में पारित करवाए जिसे स्वामी सहजानन्द सरस्वती का खुला समर्थन मिला। इन बदलावों से घबड़ाकर जमींदार ने किसी भी युक्ति से कृष्ण बल्लभ बाबू को मंत्रिमंडल से बर्खाश्त करने का षड्यंत्र रचा। किन्तु तात्कालिक प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और स्वामी सहजानन्द सरस्वती के अडिग समर्थन से यह कुचक्र विफल हुआ। जमींदारी उन्मूलन बिल 1947 बिहार विधान सभा में प्रस्तुत करने से कुछ दिन पहले जमींदारों ने कृष्ण बल्लभ बाबू पर कातिलाना हमला करवा कर उन्हें अपनी राह से हटाने की भी कोशिश की। किन्तु यह षड्यंत्र भी असफल रहा और कृष्ण बल्लभ बाबू इस हमले में बाल-बाल बच गए। इन विषम परिस्थितियों में स्वामी सहजानन्द सरस्वती, काँग्रेस सोशलिस्ट नेता जयप्रकाश नारायण, सुभाष चन्द्र बोस की फॉरवर्ड ब्लॉक एवं कम्यूनिस्ट पार्टी जैसी वामदलों का नैतिक समर्थन कृष्ण बल्लभ बाबू के पक्ष में बना रहा। अंततः खून से सनी पट्टी बांधे कृष्ण बल्लभ बाबू ने बिहार विधान सभा में ऐतिहासिक जमींदारी उन्मूलन कानून प्रस्तुत किया। इधर पटना में बिहार विधान सभा में यह बिल प्रस्तुत हुआ और उधर दिल्ली में काँग्रेस नेता सरदार वल्लभ भाई पटेल ने जमींदारी उनमूलन के साथ-साथ जमींदारों को यथेष्ट मुआवजा देने के मुद्दे को उठाया-‘जमींदारों की जमींदारी बिना उचित मुआवजे के लेना चोरी करने के समान है। मुआवजा जमींदारी के अनुरूप यथेष्ट होनी चाहिए न कि सांकेतिक। दरभंगा राज के महाराजाधिराजा सर कामेश्वर सिंह, जिनकी वार्षिक आय साठ लाख हैं उन्हें मुआवजा के तौर पर पच्चीस लाख मुकर्रर किया गया है। इस अन्याय से महाराजा को कैसा लगेगा’? (‘To take away Zamindaris without paying compensation would amount to robbery…..compensation must be adequate and not nominal. The proposal is the Maharajadhiraja of Darbhanga, who had an annual income of Rs. 60 lakhs, should get Rs 25 lakhs as compensation. How would they feel?’- Sardar asked, ‘if they were put in his (Darbhanga’s) position?’)
कृष्ण बल्लभ बाबू के लिए सरदार को जवाब देना मुनासिब नहीं था। किन्तु स्वामी सहजानन्द सरस्वती भला कहाँ चुप रहने वालों में थे। उन्होंने तत्काल सरदार को जवाब दे भेजा-‘कैसा लगेगा? वे वैसे ही खुश होंगें जैसे कोई अपराधी बरी होने पर होता है। मुआवजा कुछ नहीं वरन कानून सम्मत डकैती है’। (‘ How will he [Maharajadhiraja of Darbhanga] feel? He would feel like a very happy criminal. Compensation is nothing but ‘legal dacoity’.- Swami Sahajanand Saraswati retorted.)
इस दौर में स्वामी सहजानन्द सरस्वती के इस खुले समर्थन ने कृष्ण बल्लभ बाबू के नैतिक बल को बनाए रखा और जमींदारों के तमाम विरोधों के बावजूद वे अपने लक्ष्य से नहीं डिगे। जमींदारी उन्मूलन कानून 1947 द्वारा जमींदारी व्यवस्था को समाप्त कर ज़मीन की मिल्कियत किसानों के जिम्मे करने की व्यवस्था थी। किन्तु उच्च न्यायालय ने इस कानून को तात्कालिक विधान का हनन मानते हुए निरस्त कर दिया। तब कृष्ण बल्लभ बाबू विधान सभा में बिहार स्टेट मैनेजमेंट ऑफ एस्टटेस एंड टेनयोर बिल 1949 लेकर आए जिसमें जमींदारी को समाप्त कर जमींदारी की समस्त ज़मीन को सीधे-सीधे राज्य सरकार के अधीन लाने का प्रावधान था। एक बार पुनः सभी जमींदार इस प्रस्तावित कानून के खिलाफ गोलबंद होने लग गए। दूसरी ओर स्वामी सहजानन्द सरस्वती भी इस बिल के खिलाफ खुलकर सामने आ गए। स्वामी सहजानन्द सरस्वती के इस विरोध को दरभंगा के महाराजा कामेश्वर सिंह का अखबार ‘द इंडियन नेशन’ का भी समर्थन मिला। 18 मई 1949 के अपने संस्करण में इस अखबार ने स्वामी सहजानन्द सरस्वती के विरोध को मुखरता से छापा जो यों था –
‘Kisan Leader Denounces Estate Management Bill- Revenue Minister’s Device disastrous for Tenants-Sahajaanand Saraswati decides to oppose it tooth and nail’
Swami Sahajanand Saraswati, President of the ‘Bihar Provincial Kisan Sabha’ in a letter addressed to K.B. Sahay expressed opposition to the Bihar State Management of Estates & Tenures Bill, 1949, on the ground that the Zamindari Abolition has been given a go by and this Bill has been brought to hoodwink the farmers. The stand of Kisan Sabha was clarified that ‘it sticks to the principle that abolition of landlordism in all its forms must be achieved through one stroke of pen, without compensation whatsoever, the landlords, big and small, being guaranteed like the rest of the nationals, by the State suitable job and decent standard of living.’ The Sabha demanded that entire land of a village be handed over to the farmers including ‘Khet-mazdoors’ of that village through the village republic or panchayat, so that agriculture can be taken up by village community. The Sabha cannot, therefore, accept the position of this abolition being replaced by the acquisition of zamindari by the Government through the above Bill.
कृष्ण बल्लभ बाबू की मंशा भी यही थी। वे यह दिखलाना चाहते थे कि एक ओर जहां जमींदार जमींदारी उन्मूलन के विरोध में थे वहीं दूसरी ओर किसान किसी भी सूरत में जमींदारी को सरकार के अधीन लाने के विरोध में थे। जमींदारी की ज़मीन किसानों को मिले इससे कम किसी भी व्यवस्था पर वे राजी नहीं थे। कृष्ण बल्लभ बाबू अपने इस मंसूबे में सफल हुए। दूसरी ओर ‘द इंडियन नेशन’ कृष्ण बल्लभ बाबू के इस तुरुप चाल को समझ भी नहीं पाया और कृष्ण बल्लभ बाबू और स्वामी सहजानन्द सरस्वती के कथित मतभेद का जश्न ही मनाता रह गया। अतः जब कृष्ण बल्लभ बाबू जब दूसरी बार जमींदारी उन्मूलन से सम्बंधित बिहार भूमि-सुधार कानून (बिहार एक्ट XXX 1950) लेकर पुनः आए और इसे विधान सभा में पारित कराया तब केंद्र सरकार के सामने इस कानून को बरकरार रखने के लिए संविधान में संशोधन छोडकर और कोई दूसरा रास्ता नहीं बचा था। अंततः भारत के संविधान में प्रथम संशोधन हुआ और जमींदारी उन्मूलन कानून बहाल हुआ। बिहार जमींदारी उन्मूलन करने वाला प्रथम राज्य बना और परमानेंट सेटलमेंट कानून 1793 परमानेंटली अनसेटल हुआ। किन्तु स्वामी सहजानन्द सरस्वती इस खुशी के अवसर पर कृष्ण बल्लभ बाबू के साथ नहीं थे। 26 जून 1950 को इस नश्वर शरीर को त्याग कर स्वामीजी इस दुनिया से कूच कर गए थे।
(साभार- [i]लैंड, लेबर एंड पावर- अग्रेरियन क्राइसिस एंड स्टेट ऑफ बिहार- श्रीमती उषा झा, (ii) अग्रेरियन रिफार्म फ़्रोम अबव एंड बिलो बिहार 1947-1978- अरविंद दास (iii) राष्ट्रीय अभिलेखागार दस्तावेज़ (iv) ‘मेरा जीवन संघर्ष –स्वामी सहजानन्द सरस्वती, (v) स्वामी सहजानन्द सरस्वती द्वारा पंडित जवाहरलाल नेहरू को प्रेषित तार दिनांक:24.07.1947 (vi) सहजानन्द पेपर्स, नेहरू स्मारक संग्रहालय एवं पुस्तकालय, नई दिल्ली)
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