Thursday 2 January 2014

श्री सुरेन्द्र किशोर की के. बी. सहाय पर टिपण्णी के जवाब


अपने लेख "पहले अगड़ा अब पिछड़ा" में वरिष्ठ पत्रकार श्री सुरेन्द्र किशोर कृष्ण बल्लभ सहाय पर टिप्पणी करते हुए लिखते हैं "आज़ादी के तत्काल बाद वीरचंद पटेल जैसे साफ़ सुथरे चरित्र के पिछड़े नेता उपलब्ध थे, लेकिन उन्हें साठ के दशक में सवर्ण जातियों के कांग्रेसी महंतों ने कांग्रेस विधायक दल के नेता पद में हरवा दिया तब के. बी. सहाय जीते जो एक विवादस्पद नेता थे वे ऐसे विवादस्पद थे कि उन्हें मंत्री पद से हटाने के लिए 1947 में महात्मा गांधी तक ने भी तात्कालिक मुख्यमंत्री को कहा था 1967 में बिहार की सत्ता जब पहली बार कांग्रेस के हाथ से निकली तो उस समय के. बी. सहाय ही मुख्यमंत्री थेउनके खिलाफ आम जनता सडकों पर नारे लगाती थी

सुरेन्द्र किशोर जैसे वरिष्ठ पत्रकार के कलम से इतनी सतही बातें पत्रकार के उस पहलु को उजागर करती है जो अपनी बात मनवाने के लिए तथ्यों की धरल्ले से अनदेखी करते हैं पर इस का तात्पर्य यह नहीं है कि उनकी लिखी सभी बातें शास्वत सत्य ही हैं ऐसे पत्रकार जो अपनी बात को मनवाने के लिए तथ्यों की इस कदर तोड़ मरोड़ करता है, सत्ता के स्वामियों की चापलूसी में भी कोई कसर नहीं छोड़ता है जरूरत इस बात की है कि पत्रकारिता निस्पक्ष रूप से की जाये अब मैं सुरेन्द्र किशोर की टिप्पणियों पर अपनी टिपण्णी देना चाहूंगा:

1. श्री किशोर मानते हैं कि स्वतंत्रता के समय कांग्रेस के पास वीरचंद पटेल जैसे योग्य नेता थे जिनकी अनदेखी कांग्रेस ने की और उनकी जगह दूसरे अगड़े नेता बिहार के मुख्यमंत्री बने पर स्वतंत्रता के समय बिहार के मुख्यमंत्री श्री कृष्णा सिन्हा बने थे न कि के. बी. सहाय या वीरचंद पटेल श्री के बी सहाय जो साठ के दशक में मुख्यमंत्री बन पाये, इस पद पर अपनी योग्यता से आसीन हुए न कि अपनी जाति बल पर और न ही अगड़ों की मदद से यदि ऐसा नहीं होता तो अविभाजित बिहार में झारखण्ड क्षेत्र से बनने वाले वे एक मात्र मुख्यमंत्री न होते

2. महात्मा गांधी ने के. बी. सहाय का विरोध इसलिए किया क्योंकि उनका मानना था कि क़ानून बना कर ज़मींदारी व्यवस्था का उन्मूलन करना समाज में वैमनष्य पैदा कर सकता था ज्ञातब्य रहे कि कृष्ण बल्लभ सहाय ने ज़मींदारी उन्मूलन क़ानून बिहार में 1947 में ही पारित करवा लिया था बिहार ऐसा क़ानून पारित करने वाला देश का पहला राज्य था सहाय ज़मींदारी ज़ुल्म के खुद सताए हुए थे और उनका यह कदम पिछड़ों को उनका हक़ दिलाने का प्रयास था जिस कारन उन्हें अगड़ों का विरोध भी झेलना पड़ा था और ज़मींदारों के लठैतों ने उनपर जान लेवा हमला भी किया था यहाँ तक कि तात्कालिक राष्ट्रपति श्री राजेद्र प्रसाद ने भी श्री सहाय को अपने फैसले पर पुनर विचार करने की सलाह दी थी पर श्री कृष्णा सिन्हा और श्री जवाहरलाल नेहरू ने श्री सहाय पर अपना विश्वास बनाये रखा और इसी का नतीजा था संविधान में 1951 में किया गया पहला संशोधन जिसके द्वारा ज़मींदारी उन्मूलन क़ानून को संवैधानिक सुरक्षा मिली

3. श्री सुरेन्द्र किशोर आगे लिखते हैं कि जब 1967 में बिहार में सत्ता कांग्रेस के हाथ से निकली तो बिहार के मुख्य मंत्री श्री सहाय ही थे पर वे यह बताना भूल गए कि सन 1967 में बिहार के अलावे 7 अन्य राज्यों से भी कांग्रेस का सफाया हो गया था स्थिति यह थी कि केंद्र में भी श्रीमती गांधी कम्युनिस्ट की मदद से सरकार चला रह थी

4. श्री किशोर लिखते हैं कि श्री सहाय के विरोध में आम लोग सड़क पर उतर आये थे यह सत्य है कि अपने स्वार्थ सिद्धि में विद्यार्थियों की मदद लेकर विपक्ष ने उनके भविष्य और करिएर का जो सत्यानाश किया उसे बिहार के लोग आज भी याद करते हैं कितने ही युवा छात्र जो महामाया सिन्हा के जिगर के टुकड़े थे ने अपने करिएर को दाव पर लगा दिया और अपना जीवन बर्बाद कर लिया

दुःख होता है जब सुरेन्द्र किशोर जैसे वरिष्ठ पत्रकार अपनी बात को रखने के लिए तथ्यों को इस कदर बेशर्मी से तोड़ मड़ोद करते हैं यह इन जैसे पत्रकार के लिए सर्वथा अशोभनीय है दुःख इस बात से भी होता है कि राष्ट्रीय स्तर की पत्रिका "द पब्लिक एजेंडा" जिसने यह लेख छापा , को उपरोक्त तथ्य को प्रस्तुत करते हुए मैंने पत्र लिखा पर इस पत्रिका ने इसे प्रकाशित करना भी गवारा नहीं समझा सेलेक्टिव पत्रकारिता का यह नायाब उदहारण है जहाँ पत्रकार और संपादक वही लिखते और छापते हैं जो उनके माकूल होता है अतः जरूरत है कि राजनीति में अरविन्द केजरीवाल द्वारा चलाये जा रहे अभियान की तर्ज पर ही पत्रकारिता के क्षेत्र में भी आम आदमी का हस्तक्षेप हो ताकि लोगों को सही जानकारी मयस्सर हो

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