Tuesday, 30 December 2025

कृष्ण बल्लभ सहाय - गुमनाम सिपाही - शिवनाथ झा, 'द इंडियन नेशन' के वरिष्ठ पत्रकार



 वैसे आप माने या नहीं। “चाय पर चर्चा” तो श्री कृष्ण बल्लभ सहाय प्रारम्भ किये थे अपने छोटे भाई श्री दामोदर प्रसाद सहाय के साथ बिहार में, शेष सभी “अनुयायी” हैं। बिहार में जब भी ‘यादव’ उपनाम पर चर्चा होगी, दो यादवों का नाम अवश्य आएगा और उनका भी नाम आएगा जो पिछड़ी जातियों के नाम पर ‘लच्छेदार राजनीतिक पराठे सकते’ आये हैं। अब इसे उनका ‘सौभाग्य’ कहिये या मतदाताओं का ‘दुर्भाग्य’ – बिहार के लोग प्रारम्भ से ‘लपेटे’ में आते रहे हैं। आज बिहार के चौथी पीढ़ी के मतदाता शायद ‘शेर-ए-बिहार’ और बिहार के ‘लौह पुरुष’ को जानता होगा ?

“सामाजिक न्याय के सूत्रधार थे कृष्ण बल्लभ सहाय । एक दौर था जब महज इन दो शब्दों से सवर्ण बहुल जमींदार वर्ग कभी इतना खौफजदा रहता था कि वे इन्हें जान से मारने की साजिश तक रच डाला था। बात 1947 की है। स्वतन्त्रता की दस्तक पड़ चुकी थी। बिहार में डॉ श्रीकृष्ण सिन्हा की सरकार बन चुकी थी। के. बी. इस सरकार में राजस्व मंत्री थे। बीते बीस वर्षों में उन्होंने गरीबों और पिछड़ों की व्यथा को बहुत करीब से देखा था।” “1923-1928 में स्वराज पार्टी के दिन रहे हों अथवा 1937-1939 का प्रथम काँग्रेस सरकार रहा हो या फिर काँग्रेस गठित किसान जांच कमिटी रहा हो- के.बी. गरीबों एवं पिछड़ों को न्याय दिलाने और समाज में उन्हें समान प्रतिष्ठा दिलाने को सदा कृत-संकल्प देखे जा सकते हैं। जमींदारी उन्मूलन का उनका ध्येय इसी उद्देश्य से प्रेरित था- उनका मानना था कि मनुष्य और मनुष्य के बीच समानता तभी स्थापित हो पाएगा जब सबों के साथ न्याय होगा और सबों के साथ न्याय तभी होगा जब समाज का पिछड़ा वर्ग अपना खोया सम्मान वापस पा पाएगा और जातिगत सामाजिक विषमताएँ दूर होंगी। जमींदारी उन्मूलन का उनका प्रयास पिछड़े वर्ग को यही खोया सम्मान वापस दिलाने की दिशा में एक कालजयी कदम था। उनका मानना था कि चारो वर्ण समाज रूपी गाड़ी के चार पहिये हैं। यदि चारो पहिये एक बराबर न हों तब समाज रूपी गाड़ी का चलना संभव नहीं है।” “उनकी दृढ़ता से भयभीत जमींदार जो सभी सवर्ण सम्पन्न वर्ण से आते थे ने उनपर सितंबर 1947 में कातिलाना हमले करवाए। किन्तु के. बी. का सौभाग्य था कि वे जीते रहे। सिर पर खून से सनी पट्टी बांधे जब उन्होंने बिहार विधान सभा में जमींदारी उन्मूलन कानून पारित करवाया तब वे सामाजिक न्याय के सबसे बड़े हिमायती के रूप में उभरे। के.बी. ने पिछड़ों के आर्थिक उत्थान के लिए जहां जमींदारी उन्मूलन किया वहीं उन्हें जागृत करने के लिए उनके बीच शिक्षा के प्रसार के लिए शिद्दत से प्रयासरत रहे। वे कहते थे कि ‘अमीरों के लड़के आगे बढ़ जाते हैं और आदिवासी एवं पिछड़े वर्ग के बच्चे पीछे पड़ जाते हैं। मैं पीछे पड़े समाज को आगे बढ़ाने की दिशा में कार्यरत हूँ’। के.बी. के इस सतत प्रयास का फल था कि पिछड़े वर्गों में अपने अधिकारों के प्रति एक नए जागरण का उदय हुआ और उन्होंने के.बी. की सरकार का खुल कर समर्थन किया- यह सर्वविदित है। किन्तु यह निकटता सवर्ण वर्गों को रास नहीं आई। 1967 में समस्त सवर्ण नव सम्पन्न जमींदार वर्ग उन्हें अभिमन्यु की तरह घेर कर हराया। जिसने ताजिंदगी पिछड़े वर्ग के हित की बात की और इस क्रम में अपने प्राण तक उत्सर्ग कर दिये उन्हें यह देश उनका अपना सूबा बहुत जल्दी ही बिसार दिया।” “यह इस देश के लिए बड़े शर्म की बात है कि सरकार उन्हें आज़ादी के गुमनाम सिपाही के तौर पर याद तो करती है पर महज इसलिए कि वे वोट की राजनीति से हाशिये पर ठेल दिये गए ‘कायस्थ’ वर्ण से आते हैं ‘भारत रत्न’ के रूप में स्वीकारने और इन्हें इस प्रतिष्ठता से नवजने से हिचकिचाती है। यह भी विडम्बना है कि के.बी. पर डाक टिकट जारी करने के दो प्रयासों को भी यह सरकार ठुकरा चुकी है। यह इस स्वतन्त्रता सेनानी, ‘सामाजिक न्याय के प्रथम सिपाही एवं सामाजिक न्याय की क्रांति के सूत्रधार के प्रति अक्षम्य अनदेखी है। आशा है इस सामाजिक न्याय के प्रणेता इस ध्वजा पुरुष को न्याय मिलेगा और सरकार उन्हें ‘भारत रत्न’ से अवश्य नवाजेगी।” बिहार में तीसरी विधान सभा काल में दो व्यक्ति मुख़्यमंत्री कार्यालय में बैठे। सन 1962 के चुनाव के बाद श्री बिनोदानंद झा के नेतृत्व में सरकार बनी। बिनोद बाबू ‘राजमहल’ विधान सभा क्षेत्र से चुनाव जीत कर आये थे। लेकिन पांच साल नहीं चले और उन्हें महात्मा गांधी के जन्मदिन के अवसर पर सं 1963 में मुख्यमंत्री की कुर्सी के बी सहाय के हाथ सौंपना पड़ा। सहाय बाबू 2 अक्टूबर, 1963 से 5 मार्च, 1967 तक मुख्यमंत्री कार्यालय में विराजमान रहे। तीसरी विधान सभा के बाद से लगातार बिहार में ‘आया राम – गया राम’ सिद्धांत पर सरकार बन रही थी, चल रही थी, जा रही थी। चौथे विधानसभा, जिसका चुनाव 1967 में हुआ था, चार मुख्यमंत्री महोदय, मसलन जनक्रांति दल के महामाया प्रसाद सिन्हा, शोषित दल के सतीश प्रसाद सिंह, बी पी मंडल और कांग्रेस के भोला पासवान शास्त्री का मुख्यमंत्री कार्यालय में ‘उदय’ और ‘अस्त’ हुआ।  इसी तरह पांचवी विधान सभा (1969) में हरिहर प्रसाद, भोला पासवान शास्त्री, दारोगा प्रसाद राय, कर्पूरी ठाकुर का उदय-अस्त हुआ। लेकिन आज अगर पिछले 22 मुख्यमंत्रियों को एक नजर में देखें, तो बाबू श्रीकृष्ण सिन्हा को छोड़कर, कुछ ही मुख्यमंत्री हैं जिन्हें आज भी बिहार के लोग, बिहार के मतदाता, प्रदेश के विद्वान-विदुषी से लेकर अशिक्षित और अज्ञानी तक – नहीं भुला है और शायद भूल भी नहीं पायेगा। उन्हीं ‘ना भूलने वाले मुख्यमंत्रियों” की सूची में एक हैं बाबू कृष्ण बल्लभ सहाय। सन 1974 के 3 जून को बिहार के लौह पुरुष बाबू कृष्ण बल्लभ सहाय यानी के.बी. सहाय ‘आकस्मिक मृत्यु’ को प्राप्त किये। लगभग इन पांच दशकों में यह सार्वजानिक नहीं हो पाया की बाबू के बी सहाय को किसने मारा, क्यों मारा जब वे अपने हिंदुस्तान एम्बेसेडर (BRM 101) की अगली सीट पर बैठे थे और एक ट्रक उनके हँसते-मुस्कुराते शरीर को “पार्थिव” बना दिया। पटना-हज़ारीबाग की वह सड़क आज तक उस घटना को नहीं भूल पायी है।.....

वरिष्ठ पत्रकार शिवनाथ झा और राजेश सहाय के बीच विमर्श के लिए निम्न लिंक को क्लिक करें


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