Monday, 27 October 2025

मुख्यमंत्री: एक मेडल, एक बगावत और एक नया नेता- कैसे जन्मे बिहार के चौथे सी.एम. के.बी. सहाय – जमींदारी की जड़ें हिला दी थीं - लेखक: संजय दुबे

 मुख्यमंत्री: एक मेडल, एक बगावत और एक नया नेता- कैसे जन्मे बिहार के चौथे सी.एम. के.बी. सहाय – जमींदारी की जड़ें हिला दी थीं

(जनसत्ता की मुख्यमंत्री शृंखला में आज पढ़ें बिहार के चौथे सी.एम. के.बी. सहाय की कहानी- एक सख्त और ईमानदार नेता जिन्होनें कहा- “मेरे पास दिमाग और ताकत है, मगर जुबान नहीं” )

लेखक: संजय दुबे



के.बी. सहाय की कहानी अँग्रेजी हुकूमत के खिलाफ बगावत से शुरू हुई थी।

बिहार की सियासत में कुछ नाम गुज़र जाने के बाद भी जेहन में ताजा रहते हैं। उनमें से एक नाम हैं- कृष्ण बल्लभ सहाय- बिहार के चौथे मुख्यमंत्री। उनका नाम बिहार की राजनीति में ऐसा रहा, जो अपने सख्त तेवर, ईमानदार छवि और ज़मीन से जुड़े फैसलों के लिए जाना गया। एक ऐसा नेता, जिसने सत्ता को नहीं, सिस्टम को बदलने की ठानी। जिसने जमींदारी प्रथा के खिलाफ कानून बना कर इतिहास लिख दिया, और बेबाकी से कहा- मेरे पास दिमाग है और है ताकत, मगर जुबान नहीं। यह कहानी है उस सख्त मगर ईमानदार मुख्यमंत्री की, जिसने बिहार की राजनीति को नई दिशा दी।

31 दिसंबर 1898 को पटना ज़िले के शेखपुरा में एक मध्यमवर्गीय कायस्थ परिवार में जन्में सहाय के पिता मुंशी गंगा प्रसाद अँग्रेजी हुकूमत में दारोगा थे, लेकिन बेटा बना अँग्रेजी हुकूमत का मुखर विरोधी। शिक्षा में इतना तेज की सैंट कोलंबस कॉलेज, हजारीबाग से अँग्रेजी आनर्स में प्रथम श्रेणी प्राप्त की, और अँग्रेजी भाषा में ऐसी पकड़ कि बिहार-उड़ीसा के गवर्नर सर एडवर्ड गैट ने उन्हें स्वर्ण पदक से सम्मानित किया। लेकिन यह स्वर्ण सम्मान भी उस युवक को ब्रिटिश साम्राज्य की चमक से नहीं बहका सका। 1930 के सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान उन्होनें हजारीबाग में नमक बनाकर बगावत की, जिसके लिए एक वर्ष की जेल काटनी पड़ी। जेल कोठरी में ही वे श्रीकृष्ण सिंह जैसे कद्दावर नेता से जुड़े, और काँग्रेस राजनीति की राह पर निकल पड़े।   

आज़ादी से पहले और बाद तक के.बी. सहाय वही रहे- बेबाक और निडर! असहयोग आंदोलन, भारत छोड़ो आंदोलन में उन्होनें सीना तानकर हिस्सा लिया। 1937 में जब श्रीकृष्ण सिंह  ने बिहार में पहली काँग्रेस सरकार बनाई तो सहाय को संसदीय सचिव बनाया गया। 1946 में अन्तरिम सरकार में वे  राजस्व मंत्री बने और यहीं से उन्होनें वो ऐतिहासिक कदम उठाया जिसने बिहार की ज़मीन की तस्वीर बदल दी- जमींदारी उन्मूलन का कानून। सहाय के मसौदे पर श्री बाबू कैबिनेट ने मुहर लगाई और बिहार देश का पहला राज्य बना जहां जमींदारी प्रथा को खत्म करने की घोषणा हुई। जमींदार वर्ग उनसे खार खा गया। दरभंगा महाराज कामेश्वर सिंह और रामगढ़ के राजा कामाख्या नारायण सिंह जैसे रसूखदार उनके विरोध में उतर आए। मगर सहाय नहीं डरे। वे मानते थे, “राजनीति सिर, हाथ और ज़ुबान- तीनों की मांग करती है। मेरे पास सिर और हाथ है, मगर ज़ुबान की मिठास नहीं”। यही सख्ती आगे चलकर उनके राजनीति सफर की पहचान बनी।

1952 में वे गिरिडीह से चुनाव जीते, लेकिन 1957 में उन्हीं राजा रामगढ़ से हार गए। राजनीति के किनारे हुए तो फिर जन्मभूमि पटना लौटे, और 1962 में विधान सभा में फिर पहुंचे। तब तक श्री कृष्ण सिंह का निधन हो चुका था और काँग्रेस में खेमेबाजी बढ़ चुकी थी। 1963 में जब मुख्यमंत्री बिनोदानंद झा ने इस्तीफा दिया, तो सत्ता की दौड़ में कई नाम उछले- वीरचंद पटेल, महेश प्रसाद सिन्हा, सत्येंद्र नारायण सिन्हा- लेकिन अंततः जोड़तोड़ के इस खेल में बाज़ी मार ली के.बी. सहाय ने। 2 अक्तूबर 1963 को वे बिहार के चौथे मुख्यमंत्री बने।

श्रीकृष्ण सिंह की विरासत के बाद काँग्रेस में यह सत्ता में नया चेहरा था- जमीनी, निर्णायक और बिन लाग लपेट वाला। सहाय ने पिछड़ों और अल्पसंख्यकों को राजनीति की मुख्यधारा में जगह दी- राम लखन सिंह यादव, सुमित्रा देवी, अब्दुल कय्युम अंसारी एवं जफर इमाम जैसे नेताओं को कैबिनेट में शामिल कर उन्होनें सामाजिक संतूलन की नई परिभाषा दी।  लेकिन इसी नीति से सवर्ण लॉबी नाराज़ हो गयी। भीतरघात शुरू हुआ और आरोपों की झड़ी- भ्रष्टाचार, कमीशनखोरी, गुटबाजी। सहाय ने हर सवाल का जवाब ठंडे दिमाग से दिया, पर उनके खिलाफ दिल्ली तक शिकायतें पहुंची। बावजूद इसके वे नहीं झुके- कहते थे- “कुर्सी टिके या ना टिके, फैसले जनता के हित में होने चाहिए।”

5 जनवरी 1967 ने उनकी राजनीति की दिशा बदल दी। पटना विश्वविद्यालय में फीस की वृद्धि को लेकर आंदोलन भड़का, पुलिस गोली चली और कई छात्र मारे गए। विपक्ष ने इसे सरकार विरोधी आंदोलन बना दिया। सहाय ने जांच की अनुमति देने से इनकार कर दिया- ये विपक्ष की साजिश है, मैं प्रशासन को डरा नहीं सकता।” उन्होनें अपना इस्तीफा बढ़ा दिया। काँग्रेस अध्यक्ष कामराज ने उनका इस्तीफा डस्टबिन में फेंक दिया। लेकिन जनता ने 1967 के चुनाव में जवाब दे दिया। सहाय दो-दो सीटों – पटना और हजारीबाग- से हार गए। यही वो चुनाव था जिसमें मुख्यमंत्री को हराकर महामाया प्रसाद सिन्हा नए मुख्यमंत्री बने और काँग्रेस सत्ता से बेदखल हुई। यही वो दौर था जब काँग्रेस की जड़ें उत्तर प्रदेश-बिहार से उखड़नी शुरू हुई।

इसके बाद सहाय की राजनीतिक यात्रा ढलान पर रही। 1969 में काँग्रेस टूटी तो वे “काँग्रेस ओ” में रहे, पर अब न जोश था न जनसमर्थन। 1974 में उन्होनें हजारीबाग से विधान परिषद की सीट जीती, लेकिन इसके तुरंत बाद 3 जून 1974 को एक रहस्यमय सड़क दुर्घटना में उनका निधन हो गया। कहा जाता है , सिंदूर गाँव के पास एक ट्रक ने अचानक रिवर्स किया और उनकी एम्बेसडर कार (बीआरएम 201) से जोरदार टक्कर हुई। मौके पर ही सहाय की मौत हो गयी।

उनके विरोधी उन्हें सख्त कहते थे, पर अफसर और साथी मानते थे कि उन्होनें निजी लाभ के लिए कभी भ्रष्टाचार नहीं किया। वे दूसरों के लिए काम करते थे, खुद के लिए नहीं। राजनीति में सिर, हाथ और जुबान का उनका सिद्धान्त आज भी उतना ही प्रासंगिक है।

कृष्ण बल्लभ सहाय का जीवन बिहार की राजनीति का आईना है- संघर्ष, सुधार और सियासी साज़िशों से भरा हुआ। ये वो नेता थे जिन्होनें किसानों के लिए जमींदारी तोड़ी, पिछड़ों को सत्ता में जगह दी और ईमानदारी को राजनीति में टिकाने की कोशिश की। सत्ताएँ बदलीं, पार्टियां टूटी, मगर कृष्ण बल्लभ सहाय का नाम बिहार की मिट्टी में अब भी दर्ज़ है- एक ऐसे मुख्यमंत्री के रूप में , जो ना झुका, न बिका, बस अपनी राह चला।           

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