Monday, 24 October 2022

हमारी विरासत, हमारी धरोहर- 29 - दीपावली की वह स्याह रात्रि और महापलायन-रामवृक्ष बेनीपुरी की पुस्तक ‘ज़ंजीरें और दीवारें’ से साभार

दीपावली की वह स्याह रात्रि और महापलायन

(रामवृक्ष बेनीपुरी की पुस्तक ज़ंजीरें और दीवारें से साभार)  


 

                 जय प्रकाश नारायण                      रामवृक्ष बेनीपुरी 


सूरज नारायण सिंह 

पंडित राम नन्दन मिश्रा 


योगेंद्र शुक्ल 


शालिग्राम सिंह 

कृष्ण बल्लभ सहाय 




बुद्ध ने घर छोडकर, उस आधी रात को, जो अद्भुत यात्रा की, बौद्ध साहित्य में उसे महाभिनिष्क्रमण का नाम दिया जाता है। हमारे साथियों ने दीपावली की रात्रि जेल की अलंघ्य दीवारों को पार कर जो पलायन किया, उसे महापलायन क्यों नहीं कहा जाये। दोनों में एक महान आदर्श काम कर रहा था। दोनों के मूल में यह निश्चय था- करो या मरो। वैसा ही घोर अंधकार था- किन्तु सिद्धार्थ घोड़े पर जा रहे थे, ये छह जो उस रात को चले, उनके पैरों में जूते तक नहीं थे।

आज दिवाली है। भोर से ही मैं वार्ड-वार्ड घूम रहा हूँ और कह रहा हूँ, रात में हम ऐसा नाटक प्रस्तुत करेंगें कि आप लोग ज़िंदगी भर नहीं भूल सकिएगा। कैदी उत्सुकता से पूछ रहे हैं- बताओ भाई, कौन सा नाटक खेलने जा रहे हो? पौशाक कहाँ से आएगी? परदे भी रहेंगें क्या? मैं कह रहा हूँ – सब रहेंगें। देख लीजिएगा। अरे यह तो महानाटक है।

संध्या समय एक आरती सजाई गयी जिसमें बयालीस दीपक जल रहे हैं। उसके बाद हमारा नाटक शुरू हुआ। हमारा वह अभूतपूर्व जुलूस निकला। आगे-आगे वह लड़का थाल हाथ में लिए चला और बाकी हम सब उसके अगल-बगल चले। दिवाली फिर आ गई सजनी, दीपक राग सजा ले, हाँ हाँ दीपक राग सजा ले- से सारा जेल गूंज उठा। इस सेल से उस सेल इस वार्ड से उस वार्ड। हमलोग निकले थे दस पंद्रह आदमी अब तो वह पूरा जुलूस था। जेल से वार्डर, जमादार, नायब जेलर सभी उस जुलूस के साथ घूम रहे थे। बूढ़े बड़े जमादार की दाढ़ी हिल रही थी इस गीत के ताल पर। उन्होंने बड़ी प्रसन्नता से मुझसे कहा- ओहो, इतने दिनों से जेल में नौकरी करता आया हूँ। किन्तु ऐसा दृश्य कभी नहीं देखा। कमाल किया है आपने, कमाल। मैंने बड़ी उमंग से कहा- न देखा था और न देख सकिएगा, जमादार साहब! इसका गूढ़ार्थ वह बेचारे क्या समझते।

हम जानबूझकर देर कर रहे थे। जगह जगह रुकते, मिठाई के लिए ज़िद करते, हंसी तफरीह करते। एक खब्ती स्वामीजी को हमने ज़बरदस्ती सेल में घुसकर जगा दिया। वह अपनी लाठी लेकर हम पर टूटे। भगदड़ मची। बड़ा मजा आया। वह महाराष्ट्र के थे। जब पीछे यह रहस्य खुला तो बड़े स्नेह से कहने लगे- अब समझा बदमाश लोगों, तुमने शिवाजी महाराज के पलायन का अनुकरण किया था

अंत में हमने जुलूस को एक सभा में परिणत कर दिया। लोगों में उत्साह आ गया। थोड़ी देर में ही ललित भाई आए और उन्होंने चुपके से यह खबर सुनाया कि सबके सब सकुशल निकाल चुके हैं। हाँ, सामान की गठरी इधर ही रह गयी, जिसमें जूते, कपड़े, खाने की कुछ सामाग्री थी। राम नन्दन का कोट भी छूट गया जिसमें कुछ रुपये थे। क्या हुआ? सात मील ही तो जाना है। किसी न किसी तरह पहुँच ही जाएंगें।

दीवार फांदने की क्रिया वही पुरानी थी। दीवार के निकट टेबल रख दिया गया। उस पर शुक्लजी (योगेंद्र शुक्ल) खड़े हो गए। शुक्लजी के कंधे पर गुलाली (गुलाब चंद्र गुप्ता)। गुलाली के कंधे पर चढ़कर सूरज (सूरज नारायण सिंह) ने दीवार पार कर ली। सूरज के कमर से बंधी धोती के रस्से के सहारे जयप्रकाशजी, शालिग्राम सिंह और रामनन्दन मिश्र गए। फिर गुलाली और अंत में शुक्लजी। शुक्लजी के बाद रस्से में सामान बांध दिया गया। किन्तु उस पार खींचते समय गठरी का बंधन टूट गया। गठरी इधर ही गिर पड़ी। उस गठरी और टेबल को हटवाकर ललित भाई हमें खबर देने आए थे।

अब हमारा प्रयत्न हुआ कि वार्डबंदी के समय भी यह रहस्य न खुले। भागे हुए व्यक्तियों के बिछावन को तकिये के सहारे ऐसा सजा दिया गया कि जैसे वे चादर तानकर सोये हैं। ज्यों ही जमादार को वार्डबंदी के लिए आते देखा, दबे पाँव आगे बढ़कर इशारा किया, शोर मत कीजिये, बीमार को तुरंत आँख लगी है। जमादार बेचारा वहीं से लौट गया।

किन्तु रामनन्दन के सेल में घुसकर जमादार चिल्लाने लगा- इसके बाबू कहाँ हैं’?

हमलोग सन्न! अब क्या हो- जदुभाई (जदुबंस सहाय) ने कह दिया, शोर मत कीजिये, हम अभी यहाँ खेल रहे हैं। अभी जल्दी क्या है?

कृष्ण बल्लभ बाबू (कृष्ण बल्लभ सहाय), सारंगधर बाबू, जदुभाई, मुकुटधारी, अवद्धेश्वर और मैं- छह जने हाथ में ताश लेकर पटकते जा रहे हैं, उस उत्तेजना में खेल क्या होगा! जमादार आता है और हमें देखकर लौट जाता है।

कृष्ण बल्लभ बाबू का जेल में बड़ा रौब था। वह हजारीबाग के नेता हैं। जेल के सभी आदमी उन्हें जानते थे। पिछली मिनिस्ट्री में पार्लियामेंटरी सेक्रेटरी रह चुके थे। इसलिए किसी जमादार की हिम्मत नहीं होती थी कि वो हमारे साथ खेल रहे हों तो उसमें बाधा डाले। सोच-विचारकर तय किया गया कि जब तक इस जमादार की ड्यूटि बदल नहीं जाती है, हम खेलते ही रहें। जब नया जमादार आएगा तो देखा जाएगा। हो सकता है वो सेल को यों ही बंद कर दे।

जेल गेट पर घंटा बजा, जमादार चला गया। नया जमादार आया। कुछ दूर पर हममें से एक आदमी ने जाकर उससे इधर-उधर की बातें की और कह दिया- सभी लोग सो गए हैं, बस चार-पाँच आदमी हम खेल रहे हैं, आप धीरे-धीरे बंद करके आइए।

बला टली। सारंगधर बाबू वार्ड में चले गए। अपनी सफलता पर हमें गर्व हुआ। यह ज़ोर देकर कहा जा सकता है कि यदि कृष्ण बल्लभ बाबू, सारंगधर बाबू और जदुभाई ने मदद नहीं की होती तो उस रात में ही भांडा फूट जाता और तब यह भी संभव है कि भागे हुए लोग गिरफ्तार कर लिए जाते; क्योंकि वे लोग उस गाँव का रास्ता भूलकर जंगल-जंगल रात भर भटकते फिर रहे थे।

ज़ंजीरें लटकती रह गईं, दीवारें खड़ी ताकती रहीं और लो, बंदी बाहर हो गए! बाहर! बाहर!       

                


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