Wednesday, 26 October 2022

जे. पी. का सर्वोदय आश्रम


सर्वोदय आश्रम, शेखोदेओरा, कौवाकोल, नवादा 


सर्वोदय आश्रम 

आश्रम का मुख्य कक्ष 


'लोकनायक' की अमर स्मृतियाँ 

 


'लोकनायक' का खड़ाऊँ - आज इसे शिरोधार्य करने वाला कोई नहीं 


आश्रम के पार्श्व में वह कुटिया जहां लोकनायक का ग्रामीणों के साथ प्रायः भेंट मुलाक़ात होती थी 


प्रसिद्ध चित्रकार श्री गांगुली द्वारा 'लोकनायक' को भेंट की गयी पेंटिंग। 


'लोकनायक' की प्रतिमा जिसका अनावरण माननीय मुख्यमंत्री श्री नितीश कुमार जी के कर- कमलों से हुआ। 


राजेंद्र सभागार 


सूत केंद्र 


सेखोदेओरा का विहंगम दृश्य 

दीपावली की रात्रि हजारीबाग जेल से जयप्रकाश नारायण एवं उनके पाँच साथियों के 'महापलायन' के बाद की रोमांचक गाथा- देश की स्वतन्त्रता, भूदान आंदोलन एवं सर्वोदय आश्रम तक का इतिहास!

9 नवंबर को हजारीबाग जेल से पलायन के बाद जो पीछे रह गए उनपर कड़ी कारवाई हुई। कृष्ण बल्लभ बाबू को सश्रम कारावास की सजा हुई और उन्हें भागलपुर जेल भेज दिया गया। रामवृक्ष बेनीपुरी एवं काँग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के अन्य नेताओं को सश्रम कारावास की सजा हुई और इन्हें गया जेल भेजा गया।

उधर जयप्रकाश नारायण एवं इनके साथी जंगल-जंगल भटकते रहे। शालिग्राम सिंह स्थानीय नेता थे। छोटानागपुर, ख़ासकर हज़ारीबाग एवं चतरा इलाके की भौगोलिक स्थिति का उन्हें पूर्ण ज्ञान था। तथापि अमावस्या की घनी स्याह रात्रि में ये सभी लोग दिशा भटक गए। हज़ारीबाग कोई 1700 फुट की ऊंचाई पर बसा है। खेत, कीचड पार कर वे सब भागते रहे। सबों के पैरों की हालत खस्ता हो चुकी थी। तलुवे छील गए थे और इनमें से खून रिस रहा था। धोतियों को पैरों में लपेट वे आगे बढे। जयप्रकाशजी को साइटिका की वजह से ख़ासकर अधिक तकलीफ थी। दो दिन बाद एक छोटी बस्ती में पहुंचे जहाँ सौभाग्य से एक परिचित शिक्षक से मुलाकात हुई जिन्होने इन विप्लवियों को भोजन कराया। उन्हीं के घर से कुछ पुराने जूते भी मिल गए। इनका पलायन पुनः जारी रहा। कोडरमा संरक्षित वन को पारकर सबने गया ज़िले में प्रवेश किया। पलायन के क्रम में इसी कोडरमा संरक्षित वन क्षेत्र में जयप्रकाशजी का कौआकोल में कुछ समय ठहरना हुआ था। तब कौआकोल गया जिला में था। आज की तारीख में यह नवादा जिला का हिस्सा है। कौआकोल का जे.पी. शिला इनके इस पलायन का आज भी गवाह है। वह विचारधारा जो यह मानती है कि हमें यह स्वतन्त्रता अंग्रेजों से भीख में मिली थी उनसे यह शिला आज भी उन स्वतन्त्रता सेनानियों के त्याग और बलिदान की कहानी कहता प्रतीत होता है- इसे यह यहाँ आकर ही महसूस किया जा सकता है। इसे कलियुग ही कहेंगें कि इन स्वतन्त्रता सेनानियों को उनके सामने, जिन्होंने उस दौर में अंग्रेजों का साथ दिया था, के समक्ष आज अपनी सफाई देनी पड़े। यह उन बलिदानियों के अमर बलिदान का घोर अपमान नहीं तो और क्या है?

1947 में देश की आज़ादी के बाद जे.पी. का अधिकांश समय आचार्य विनोबा भावे के साथ भूदान आंदोलन में बीतने लगा। उन्होंने आचार्य विनोबा भावे को बिहार आमंत्रित किया। साथ-साथ बिहार भ्रमण कर जे.पी. एवं आचार्य ने राज्यभर में भूदान आंदोलन को सफल किया। इसी दौरान 1952-53 में आचार्य विनोबा भावे एवं जे.पी. का एक बार पुनः कौआकोल आना हुआ। कौआकोल में यहाँ के मठाधीश से विनोबा भावे को 140 एकड़ भूमि दान में मिला। दान की इस भूमि को आचार्य विनोबा ने जेपी को सुपुर्द कर दिया। जे.पी. ने इस 140 एकड़ भूमि में से 60 एकड़ पर आश्रम की स्थापना कर शेष भूमि यहाँ के खेतिहीन किसानों को बाँट दिया। आश्रम के लिए आवश्यक धन संसाधन प्रसिद्द उद्योगपति जहांगीर रतनजी दादाभोय टाटा यानी जे.आर.डी. टाटा से1954 में दान में मिला। कौआकोल के शेखोदेओरा अवस्थित यह आश्रम ही कालांतर में सर्वोदय आश्रम कहलाया। 1958 तक आश्रम का निर्माण कार्य चलता रहा। समाजवादी व्यवस्था के अनुरूप सभी झोपड़े एक ही आकार-प्रकार के बनाए गए- चाहे वह झोपडी जे.पी. का रहा हो अथवा किसी अन्य सर्वोदयी का।

जे.पी. का सर्वोदय आश्रम, महात्मा गांधी के साबरमती आश्रम,आचार्य विनोबा भावे के पौवनार आश्रम और डॉ राजेंद्र प्रसाद के सदाकत आश्रम की ही अगली कड़ी है। इस आश्रम की स्थापना के पीछे शुद्ध भारतीय दर्शन था। यहाँ की सादगी और सौम्यता हमारा ध्यान देश के नेतृत्व की सादगी और सरल हृदयता के उस दौर और काल की याद दिलाता है जो आज विलुप्त हो चुकी है। आज भी इस आश्रम में ऐशो आराम वर्जित है। मुख्य सर्वोदय आश्रम जहाँ जे. पी. ने कई वर्ष बिताये थे में कुल जमा दो ही कमरे हैं। एक कमरा बैठक के काम आता था और दूसरा शयन-कक्ष था। संपत्ति के नाम पर एक अदद अलमारी में प्रभावती देवी के कुछ बरतन और जे.पी. एवं प्रभावती देवी के छोड़े कुछ कपड़े हैं। पीछे की ओर एक छोर पर रसोई एवं दूसरे छोर पर शौचालय है। पीछे अहाते में एक कुटिया थी जहाँ जे.पी. यदा-कदा ग्रामीणों से मिलकर आश्रम के कार्यकलापों का जायज़ा लेते थे। सामने बरामदे के बाद छोटी सी फुलवारी है। सारा कुछ ज्यों का त्यों संभालकर रखा गया है मानो जे.पी. अभी यहाँ आने ही वाले हों। यही नक्शा प्रायः अन्य सभी झोपड़ियों का भी है। 1961 में डॉ राजेंद्र प्रसाद का यहाँ आगमन हुआ था। राजेंद्र सभागार उनके इस ऐतिहासिक मौके का गवाह है। परिसर में महात्मा गाँधी, आचार्य विनोबा भावे, डॉ राजेंद्र प्रसाद और जेपी. की मूर्तियां स्थापित हैं जो इस पावन भूमि की गौरवशाली इतिहास की याद दिलाता है।

आज इस आश्रम का सञ्चालन ग्रामीण निर्माण मंडल के जिम्मे है, जो एक गैर सरकारी संस्था है। इसके नियंत्रण में ही एक कृषि विज्ञान केंद्र भी संचालित है जिसे भारत सरकार ने1979 में स्थापित किया था। यह आश्रम आस-पास के गावों के कृषकों के लिए वरदान साबित हुआ है- कृषि प्रचार-प्रसार, बागवानी, पशुपालन, मधुमक्खी पालन एवं रेशम पालन के अलावे सूत कातने एवं कपड़े बनाने का काम यहाँ आज भी सुचारुपूर्वक हो रहा है। आश्रम के सचिव श्री अरविंद जी से भेंट हुई जिन्होंने यहाँ के क्रिया-कलापों से अवगत कराया। समाज के गरीब तबके का उत्थान ही इस आश्रम का लक्ष्य है और इस लक्ष्य की प्राप्ति हेतु आज भी अपने ढंग से यह आश्रम खादी ग्रामोद्योग कमीशन और ग्रामीण उद्योग बोर्ड के साथ मिलकर कार्य कर रहा है। आश्रम में आपको सर्वत्र असीम शांति और सुकून का अहसास होगा। नैतिक जागरण का जो अलख जे.पी. ने जगाया था वह दीप आज भी यहाँ प्रज्वलित है।

Monday, 24 October 2022

हमारी विरासत, हमारी धरोहर- 29 - दीपावली की वह स्याह रात्रि और महापलायन-रामवृक्ष बेनीपुरी की पुस्तक ‘ज़ंजीरें और दीवारें’ से साभार

दीपावली की वह स्याह रात्रि और महापलायन

(रामवृक्ष बेनीपुरी की पुस्तक ज़ंजीरें और दीवारें से साभार)  


 

                 जय प्रकाश नारायण                      रामवृक्ष बेनीपुरी 


सूरज नारायण सिंह 

पंडित राम नन्दन मिश्रा 


योगेंद्र शुक्ल 


शालिग्राम सिंह 

कृष्ण बल्लभ सहाय 




बुद्ध ने घर छोडकर, उस आधी रात को, जो अद्भुत यात्रा की, बौद्ध साहित्य में उसे महाभिनिष्क्रमण का नाम दिया जाता है। हमारे साथियों ने दीपावली की रात्रि जेल की अलंघ्य दीवारों को पार कर जो पलायन किया, उसे महापलायन क्यों नहीं कहा जाये। दोनों में एक महान आदर्श काम कर रहा था। दोनों के मूल में यह निश्चय था- करो या मरो। वैसा ही घोर अंधकार था- किन्तु सिद्धार्थ घोड़े पर जा रहे थे, ये छह जो उस रात को चले, उनके पैरों में जूते तक नहीं थे।

आज दिवाली है। भोर से ही मैं वार्ड-वार्ड घूम रहा हूँ और कह रहा हूँ, रात में हम ऐसा नाटक प्रस्तुत करेंगें कि आप लोग ज़िंदगी भर नहीं भूल सकिएगा। कैदी उत्सुकता से पूछ रहे हैं- बताओ भाई, कौन सा नाटक खेलने जा रहे हो? पौशाक कहाँ से आएगी? परदे भी रहेंगें क्या? मैं कह रहा हूँ – सब रहेंगें। देख लीजिएगा। अरे यह तो महानाटक है।

संध्या समय एक आरती सजाई गयी जिसमें बयालीस दीपक जल रहे हैं। उसके बाद हमारा नाटक शुरू हुआ। हमारा वह अभूतपूर्व जुलूस निकला। आगे-आगे वह लड़का थाल हाथ में लिए चला और बाकी हम सब उसके अगल-बगल चले। दिवाली फिर आ गई सजनी, दीपक राग सजा ले, हाँ हाँ दीपक राग सजा ले- से सारा जेल गूंज उठा। इस सेल से उस सेल इस वार्ड से उस वार्ड। हमलोग निकले थे दस पंद्रह आदमी अब तो वह पूरा जुलूस था। जेल से वार्डर, जमादार, नायब जेलर सभी उस जुलूस के साथ घूम रहे थे। बूढ़े बड़े जमादार की दाढ़ी हिल रही थी इस गीत के ताल पर। उन्होंने बड़ी प्रसन्नता से मुझसे कहा- ओहो, इतने दिनों से जेल में नौकरी करता आया हूँ। किन्तु ऐसा दृश्य कभी नहीं देखा। कमाल किया है आपने, कमाल। मैंने बड़ी उमंग से कहा- न देखा था और न देख सकिएगा, जमादार साहब! इसका गूढ़ार्थ वह बेचारे क्या समझते।

हम जानबूझकर देर कर रहे थे। जगह जगह रुकते, मिठाई के लिए ज़िद करते, हंसी तफरीह करते। एक खब्ती स्वामीजी को हमने ज़बरदस्ती सेल में घुसकर जगा दिया। वह अपनी लाठी लेकर हम पर टूटे। भगदड़ मची। बड़ा मजा आया। वह महाराष्ट्र के थे। जब पीछे यह रहस्य खुला तो बड़े स्नेह से कहने लगे- अब समझा बदमाश लोगों, तुमने शिवाजी महाराज के पलायन का अनुकरण किया था

अंत में हमने जुलूस को एक सभा में परिणत कर दिया। लोगों में उत्साह आ गया। थोड़ी देर में ही ललित भाई आए और उन्होंने चुपके से यह खबर सुनाया कि सबके सब सकुशल निकाल चुके हैं। हाँ, सामान की गठरी इधर ही रह गयी, जिसमें जूते, कपड़े, खाने की कुछ सामाग्री थी। राम नन्दन का कोट भी छूट गया जिसमें कुछ रुपये थे। क्या हुआ? सात मील ही तो जाना है। किसी न किसी तरह पहुँच ही जाएंगें।

दीवार फांदने की क्रिया वही पुरानी थी। दीवार के निकट टेबल रख दिया गया। उस पर शुक्लजी (योगेंद्र शुक्ल) खड़े हो गए। शुक्लजी के कंधे पर गुलाली (गुलाब चंद्र गुप्ता)। गुलाली के कंधे पर चढ़कर सूरज (सूरज नारायण सिंह) ने दीवार पार कर ली। सूरज के कमर से बंधी धोती के रस्से के सहारे जयप्रकाशजी, शालिग्राम सिंह और रामनन्दन मिश्र गए। फिर गुलाली और अंत में शुक्लजी। शुक्लजी के बाद रस्से में सामान बांध दिया गया। किन्तु उस पार खींचते समय गठरी का बंधन टूट गया। गठरी इधर ही गिर पड़ी। उस गठरी और टेबल को हटवाकर ललित भाई हमें खबर देने आए थे।

अब हमारा प्रयत्न हुआ कि वार्डबंदी के समय भी यह रहस्य न खुले। भागे हुए व्यक्तियों के बिछावन को तकिये के सहारे ऐसा सजा दिया गया कि जैसे वे चादर तानकर सोये हैं। ज्यों ही जमादार को वार्डबंदी के लिए आते देखा, दबे पाँव आगे बढ़कर इशारा किया, शोर मत कीजिये, बीमार को तुरंत आँख लगी है। जमादार बेचारा वहीं से लौट गया।

किन्तु रामनन्दन के सेल में घुसकर जमादार चिल्लाने लगा- इसके बाबू कहाँ हैं’?

हमलोग सन्न! अब क्या हो- जदुभाई (जदुबंस सहाय) ने कह दिया, शोर मत कीजिये, हम अभी यहाँ खेल रहे हैं। अभी जल्दी क्या है?

कृष्ण बल्लभ बाबू (कृष्ण बल्लभ सहाय), सारंगधर बाबू, जदुभाई, मुकुटधारी, अवद्धेश्वर और मैं- छह जने हाथ में ताश लेकर पटकते जा रहे हैं, उस उत्तेजना में खेल क्या होगा! जमादार आता है और हमें देखकर लौट जाता है।

कृष्ण बल्लभ बाबू का जेल में बड़ा रौब था। वह हजारीबाग के नेता हैं। जेल के सभी आदमी उन्हें जानते थे। पिछली मिनिस्ट्री में पार्लियामेंटरी सेक्रेटरी रह चुके थे। इसलिए किसी जमादार की हिम्मत नहीं होती थी कि वो हमारे साथ खेल रहे हों तो उसमें बाधा डाले। सोच-विचारकर तय किया गया कि जब तक इस जमादार की ड्यूटि बदल नहीं जाती है, हम खेलते ही रहें। जब नया जमादार आएगा तो देखा जाएगा। हो सकता है वो सेल को यों ही बंद कर दे।

जेल गेट पर घंटा बजा, जमादार चला गया। नया जमादार आया। कुछ दूर पर हममें से एक आदमी ने जाकर उससे इधर-उधर की बातें की और कह दिया- सभी लोग सो गए हैं, बस चार-पाँच आदमी हम खेल रहे हैं, आप धीरे-धीरे बंद करके आइए।

बला टली। सारंगधर बाबू वार्ड में चले गए। अपनी सफलता पर हमें गर्व हुआ। यह ज़ोर देकर कहा जा सकता है कि यदि कृष्ण बल्लभ बाबू, सारंगधर बाबू और जदुभाई ने मदद नहीं की होती तो उस रात में ही भांडा फूट जाता और तब यह भी संभव है कि भागे हुए लोग गिरफ्तार कर लिए जाते; क्योंकि वे लोग उस गाँव का रास्ता भूलकर जंगल-जंगल रात भर भटकते फिर रहे थे।

ज़ंजीरें लटकती रह गईं, दीवारें खड़ी ताकती रहीं और लो, बंदी बाहर हो गए! बाहर! बाहर!