Saturday 2 October 2021

'हमारी विरासत: हमारी धरोहर: 24: लाल बहादुर शास्त्री एवं कृष्ण बल्लभ सहाय (02/10/2021)

 

लाल बहादुर शास्त्री
(2 अक्तूबर 1904-11 जनवरी 1966)

कृष्ण बल्लभ सहाय
 (31 दिसंबर 1898-3 जून 1974) 










2 अक्टूबर के दिन सारा देश तीसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री को उनकी जन्म-जयंती पर याद करता है। 11 जनवरी 1966 को देश ने इस अभूतपूर्व प्रधानमंत्री को दूर ताशकंद में खो दिया था। यह एक ऐसी क्षति थी जिसकी भारपाई कभी संभव नहीं। महज सत्रह महीने (9 जून 1964-11 जनवरी 1966) के अपने अल्प प्रधानमंत्रित्व काल में अनुपम नेतृत्व बल से शास्त्रीजी ने एक हताश देश में वह आत्मविश्वास वापस लाने में सफल हुए जो 1962 चीन युद्ध में शिकश्त के बाद खो गया था। जय जवान, जय किसान के कालजयी जयघोष के साथ शास्त्रीजी ने देश में नए जोश का संचार किया और इसी का परिणाम था 1965 के युद्ध में भारत की पाकिस्तान पर निर्णायक विजय। ताशकंद में शास्त्रीजी एक ऐसे देश का प्रतिनिधित्व कर रहे थे जिसका मस्तक इज्ज़त और गौरव से ऊंचा था। देश के जवानों और किसानों ने देश की खोयी अस्मिता को पुनः बहाल किया था और इसका श्रेय निश्चय ही लाल बहादुर शास्त्री के नेतृत्व को जाता है।

बतौर प्रधानमंत्री शास्त्रीजी किसानों के प्रति उतने ही प्रतिबद्ध थे जितना जवानों के प्रति। किसानों के प्रति यही प्रतिबद्धता कृष्ण बल्लभ बाबू में भी थी जो तब बिहार के मुख्यमंत्री थे जब लाल बहादुर शास्त्री ने प्रधनमंत्री पद संभाला था। यही वजह रही कि तृतीय पंचवर्षीय योजना के मध्यावधि मूल्यांकन के समय राष्ट्रीय विकास परिषद की सिफारिश पर जिस भूमि सुधार कार्यान्वयन समिति का गठन नवंबर 1963 में किया गया, कृष्ण बल्लभ बाबू उस कमिटी के एक प्रमुख सदस्य थे। इस कमिटी के अध्यक्ष तत्कालीन गृहमंत्री गुलज़ारी लाल नन्दा थे। एक बार पुनः भूमि-सुधार के अधूरे छूटे कार्यों पर काम शुरू हुआ। भूमि सुधार के मामलों में कृष्ण बल्लभ बाबू की विशेषज्ञता का सारा देश लोहा मानता था। जमींदार इस बात से ही खुश थे कि जमींदारी उन्मूलन कानून को चार साल (1946-1950) तक टालकर वे अपनी समस्त भूमि की बेनामी बंदोबस्ती कर पाने में सफल रहे थे। दूसरी ओर कृष्ण बल्लभ सहाय को 1957 के चुनाव में हरवाकर और फिर 1962 में बिनोदानंद झा के मंत्रिमंडल में उन्हें राजस्व मंत्रालय से महरूम कर यह जमींदारी लॉबी कृष्ण बल्लभ बाबू को कुछ हद तक हाशिये पर धकेलने में सफल भी हुआ था। किन्तु कृष्ण बल्लभ बाबू में विचित्र की जीवटता थी। अतः अक्तूबर 1963 में बिहार के मुख्यमंत्री बनने और नवंबर 1963 में भूमि सुधार कार्यान्वयन समिति में आने के बाद कृष्ण बल्लभ बाबू ने भूमि-सुधार के कार्य वहीं से शुरू किए जैसा उन्होंने 1957 में छोड़ा था। इस समिति के विभिन्न अनुशंसाओं से यही निष्कर्ष निकलता है क्योंकि बहुधा ये कृष्ण बल्लभ बाबू के निर्णय और दिशा-निर्देशों पर ही आधारित थे। कृष्ण बल्लभ बाबू जमींदारों द्वारा किए गए बेनामी बंदोबस्ती का समीक्षा करने के पक्ष में थे। इस मुद्दे को उन्होंने 23 दिसंबर 1963 को आहूत पहली ही बैठक में उठाया। साथ ही कृष्ण बल्लभ बाबू का यह विचार था कि यह समीक्षा 1954 के प्रस्तावित कानून  के तहत हो न कि 1961 में पारित कानून के अनुसार ताकि जमींदारों के बेनामी बंदोबस्ती को बेमानी साबित किया जा सके। दरअसल 1954 में प्रस्तावित कानून में पाँच सदस्यों वाले प्रत्येक परिवार के ज़िम्मे अधिकतम पच्चीस एकड़ जोत की सीमा तय की गई थी। किन्तु 1961 के कानून में परिवार की परिभाषा को बदलकर किसी भी पारिवारिक रिश्तेदार के पक्ष में भूमि हस्तांतरण की छूट दे दी गई। इससे बेनामी हस्तांतरण को बढ़ावा मिला और लैंड सीलिंग एक्ट अप्रभावी हो गई। कृष्ण बल्लभ बाबू इस कानून की पुनर्समीक्षा चाहते थे। 1968 में एक साक्षात्कार के दौरान उन्होंने कहा था कि वे ऐसा इसलिए करना चाहते थे क्योंकि उनका अनुमान था कि 1954 के कानून को लागू करने से कम से कम दस लाख एकड़ अतिरिक्त भूमि की व्यवस्था हो पाती जबकि 1961 के कानून के तहत एक लाख एकड़ भूमि का भी अधिग्रहण नहीं हो पाया था। इस अतिरिक्त भूमि को खेतिहर मजदूरों और भूमिहीन किसानों के बीच बांटा जा सकता था। इसी से जुड़ा था भूमि-सुधार का एक अन्य मुद्दा जिसे कृष्ण बल्लभ बाबू कार्यान्वित करना चाहते थे। 26 जून 1964 को कमिटी की तीसरी बैठक में उन्होंने यह प्रस्ताव किया कि सरकारी दस्तावेज़ों में भूमि के मालिकाना हक़ संबंधी प्राधिकृत सूचना दर्ज़ हो ताकि ज़मीन पर किसान की मिल्कियत अविवादित रहे और वो इसे कहीं भी प्रामाणिकता के साथ प्रस्तुत कर सकने में समर्थ हो। यह एक ऐसा कदम होता जो न केवल बेनामी सम्पत्तियों का पर्दाफ़ाश करता वरन किसानों को उनकी जोत की मिल्कियत दिलवाने में भी सफल होता। ज्यादा कानूनी दावपेंच का झंझट न रहे और इस कार्य में विलंब न हो अतः कृष्ण बल्लभ बाबू का मत था इसके कार्यान्वयन की जिम्मेदारी राजस्व अधिकारियों के पास रहे जैसा कि बिहार टिनेनसी एक्ट के अनुच्छेद 48-E में व्यवस्था थी। जमींदारों के बीच इस निर्णय से होने वाले उथल-पुथल का कृष्ण बल्लभ बाबू को अंदेशा था और वे इस जोखिम को लेने के लिए जैसे खुद को तैयार कर रहे थे जब उन्होंने कमिटी के सामने यह प्रस्ताव रखा कि बिहार में एक अध्यादेश लाकर वे इस काम को हाथ में लेने की सोच रहे हैं। इस समस्त घटनाक्रम से यह सहज ही समझ सकते है कि कृष्ण बल्लभ बाबू एक बार पुनः जमींदारों से दो-दो हाथ करने को आतुर थे। कृष्ण बल्लभ बाबू के इस तेवर ने इन जमींदारों को सचेत कर दिया। कृष्ण बल्लभ बाबू का मुख्यमंत्रित्व काल जिस राह पर अब तक सुगमता से अग्रसर था उसमें रोड़े अटकाने के काम शुरू हो गए। 

इस बार जमींदारों और रसूखों ने बिनोदानंद झा के नेतृत्व में कृष्ण बल्लभ बाबू के खिलाफ मोर्चा खोला। यों भी मुख्यमंत्री पद से हटाये जाने के बाद से बिनोदानंद झा कृष्ण बल्लभ सहाय के खिलाफ मोर्चाबंद थे ही। परोक्ष में रहते हुए बिनोदानंद झा ने प्रतिपक्ष के नेता भोला पासवान सिंह को केंद्र सरकार से कृष्ण बल्लभ बाबू के खिलाफ आयोग बिठाकर कथित भ्रष्टाचार की जांच का आग्रह करवाया। ज्ञातव्य रहे कि लगभग इसी समय यानि 3 दिसंबर 1964 को स्वतंत्र रूप से इन आरोपों की जांच दिल्ली की एक्सप्रेस न्यूज़ सर्विस ने की थी और यह रिपोर्ट दायर किया था कि बिहार के मुख्यमंत्री कृष्ण बल्लभ सहाय और मैसूर के मुख्यमंत्री एस. निजलिंगप्पा के खिलाफ प्रथम दृष्टया कोई आरोप सिद्ध नहीं होते। तथापि शुचिता का संज्ञान लेते हुए लाल बहादुर शास्त्री ने कृष्ण बल्लभ बाबू के खिलाफ आरोपों की जांच भी उसी कैबिनेट सब-कमिटी को सौंप दिया जो ओड़ीशा के तात्कालिक मुख्यमंत्री बीजू पटनायक और बिरेन मित्रा के खिलाफ जांच कर रही थी। 

कैबिनेट सब-कमिटी अपनी जांच से इस निष्कर्ष पर पहुंची कि कृष्ण बल्लभ बाबू पर लगाए गए आरोपों में कदाचित प्रक्रियात्मक खामियाँ भले रहीं हो पर इनमें कोई आरोप ऐसे न थे जिसमें कहीं कोई आर्थिक भ्रष्टाचार हुआ हो और कृष्ण बल्लभ बाबू की उसमें संलिप्तता रही हो। 20 जनवरी 1965 को लाल बहादुर शास्त्री ने यह घोषणा की कि कैबिनेट सब-कमिटी की रिपोर्ट सरकार को प्राप्त हुई है और सरकार इसे जल्द ही सार्वजनिक करेगी।

कृष्ण बल्लभ बाबू के विरोधी पक्ष इस पर शांत नहीं बैठे वरन उन्होंने प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री को भी इसमें घसीट लिया। भोला पासवान शास्त्री ने तात्कालीन राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन को एक ज्ञापन सौंपा जिसमें उन्होंने लाल बहादुर शास्त्री की सत्यनिष्ठा पर भी प्रश्न किए। कैबिनेट सब-कमिटी की रिपोर्ट का यह मंतव्य कि कृष्ण बल्लभ बाबू पर प्रथम दृष्टया कोई आरोप सिद्ध नहीं होते हैं आम जनता के मन में संशय पैदा करता है। प्रधानमंत्री महोदय इस कदर कृष्ण बल्लभ बाबू से जुड़े हैं कि उनके द्वारा कृष्ण बल्लभ बाबू को प्रदत्त किसी भी प्रकार का कोई भी स्वच्छता एवं सदाचरण प्रमाण पत्र मायने नहीं रखते।’- ज्ञापन में लाल बहादुर शास्त्री की सत्यनिष्ठा पर प्रश्न उठाते हुए भोला पासवान सिंह ने कृष्ण बल्लभ बाबू के खिलाफ न्यायिक जांच की मांग की। 1965-1967 तक कृष्ण बल्लभ बाबू इन्हीं विरोधियों का सामना करते रहे और कदाचित उनका ध्यान जमींदारी उन्मूलन के अपूर्ण कार्यों से भटक गया। जमींदार चाहते भी तो यही थे। जमींदारों के इस महीन षड्यंत्र को तभी समझा जा सकता है जब आप उस दौर में विभिन्न संदर्भों में घट रही अलग-अलग राजनीतिक घटनाक्रमों को एक सूत्र में पिरोकर विश्लेषण करते हैं। तभी इस षड्यंत्र की एक वृहत और साफ तस्वीर खींचकर हमारे समक्ष आती है।     

बहरहाल कृष्ण बल्लभ बाबू के खिलाफ न्यायिक जांच आयोग भी बैठा और वो भी तब जब वे मुख्यमंत्री के पद पर से हट चुके थे और राजनैतिक तौर से सबसे कमजोर स्थिति में थे। कृष्ण बल्लभ बाबू के विरोधियों ने इस जांच आयोग का गठन इस उद्देश्य से किया कि यह रिपोर्ट कृष्ण बल्लभ बाबू का राजनैतिक मर्सिया लिख देगा। इस आयोग ने 1971 में अपनी रिपोर्ट सौंपी जिसकी अनुशंसाएँ कैबिनेट सब-कमिटी की अनुशंसाओं से बहुत भिन्न नहीं थे। किन्तु तब तक लाल बहादुर शास्त्री का निधन हो चुका था। वे अपनी सत्यनिष्ठा बहाल होते नहीं देख पाये। 1974 में कृष्ण बल्लभ बाबू जनता की अदालत में भी बरी हुए और चुनाव जीतकर वे बिहार विधान परिषद में पुनः पहुंचे। चुनाव जीतने के बाद उन्होंने भूमि-सुधार के अपूर्ण कार्यों को पूरा करने के संकल्प को दोहराया था। कृष्ण बल्लभ बाबू का मिजाज जाननेवाले उनकी हठधर्मिता और जिद्दीपन से वाकिफ होंगें। 76 वर्ष की उम्र में भी एक और जंग छेड़ने से उन्हें कोई गुरेज नहीं था। किन्तु ऐसा हो नहीं पाया क्योंकि एक सप्ताह बाद ही एक विवादास्पद कार दुर्घटना में कृष्ण बल्लभ बाबू की मृत्यु हुई। इस सड़क दुर्घटना को इन्हीं वजहों से मात्र इत्तिफाक़ नहीं माना सा सकता। यह दूसरा अवसर था जब कृष्ण बल्लभ बाबू के विरोधियों ने उन्हें चुप कराने का प्रयास किया था। ज्ञातव्य रहे कि सितंबर 1947 में जमींदारी उन्मूलन बिल बिहार विधान सभा में प्रस्तुत करने से ठीक पहले भी उन पर कातिलाना हमले हुए थे जिसमें वे बाल-बाल बच गए थे। किन्तु इस बार उनकी कुटील चाल सफल रही।     

कृष्ण बल्लभ बाबू पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाने वालों के खिलाफ कुछ नहीं हुआ। न ही लाल बहादुर शास्त्री जी की सत्यनिष्ठा पर प्रश्न उठानेवालों के खिलाफ कोई कारवाई हुई। आज की तारीख में न तो एस. निजलिंगप्पा और न ही बीजू पटनायक की छवि पर कोई असर हुआ। किन्तु आज भी मीडिया जब कृष्ण बल्लभ बाबू की चर्चा करता है तो कथित भ्रष्टाचार की भी चर्चा करता है, यह जानते हुए भी कि कैबिनेट सब-कमिटी, एवं न्यायिक जांच आयोग दोनों ही के निष्कर्ष क्या रहे थे। यों देखे तो ऐसा रवैया उस दौर के दब्बू मीडिया, जिसे कभी झुकने को कहा गया था तब वो रेंगने लगी थी, से अपेक्षित भी था। टी.आर.पी. की लड़ाई में आज का मीडिया अपना गुणधर्म भूल चुकी है। ऐसी मीडिया के लिए कृष्ण बल्लभ बाबू जैसे कद्दावर नेता पर उंगली उठाकर उस दौर में कुछ हैडलाइन बना लेना कोई आश्चर्य नहीं। यों भी बौने नेतृत्ववाद के इस दौर में स्वतन्त्रता संग्राम के तपे-तपाये कद्दावर नेताओं का चारित्रिक हनन करना सोश्ल मीडिया एवं अन्य प्लैटफ़ार्म पर एक प्रिय शगल बन गया है।

(स्रोत: (i) भूमि सुधार कार्यान्वयन समिति की रिपोर्ट- राष्ट्रीय विकास परिषद को प्रेषित योजना आयोग की रपट (1966) (ii) लैंड रेफ़ोर्म इन बिहार टेक्सास यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर थॉमसन जानुज्जी को मार्च 1968 में दिये एक साक्षात्कार के दौरान (iv) एग्रेरियन क्राइसिस इन बिहार- प्रोफेसर थॉमस जानुज्जी (v) बिहार विधान सभा की कार्यवाही (vi) बिहार में भूमि सुधार पर एक रपट (1966) - अमीर रज़ा, संयुक्त सचिव, योजना आयोग, राष्ट्रीय अभिलेखागार के दस्तावेज़)

 

 


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