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'राष्ट्रपिता' मोहनदास करमचंद गांधी (02 अक्तूबर 18969- 31 जनवरी 1948) |
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कृष्ण बल्लभ सहाय (31 दिसम्बर 1898-3 जून 1974)
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कृष्ण बल्लभ सहाय के नेतृत्व में बिहार सरकार के एक डेलेगेशन की महात्मा गांधी से भेंट। हिंदुस्तान टाइम्स 6 जनवरी 1947 |
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बिहार सरकार के मुख्य सचिव का भारत सरकार के होम डिपार्टमेंट के सचिव को लिखा पाक्षिक गोपनीय रिपोर्ट जिसमें यह उल्लेख है कि कृष्ण बल्लभ सहाय महात्मा गांधी के साथ बिहार के दौरे पर चंदा इकट्ठा करने में सहयोग देने के लिए साथ रहे। (मार्च 1934)
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कृष्ण बल्लभ सहाय सेंट कोलंबस कॉलेज में अध्ययनरत थे, जब 1917 में महात्मा
गांधी ने प्रसिद्ध चंपारण आंदोलन
का आह्वान किया। चंपारण आंदोलन
ने पूरे देश को गहरी नींद से जगा दिया था। भारत के
स्वतंत्रता संग्राम का यह महत्वपूर्ण मील का पत्थर साबित हुआ। इस आंदोलन ने कृष्ण
बल्लभ को स्वतन्त्रता संग्राम के प्रति जिज्ञासु बनाया और वे देश के राजनीतिक
विकास में गहरी दिलचस्पी लेने लग गए। प्रारम्भ में यह ऊर्जावान युवा एक क्रूर
ब्रिटिश प्रशासन के खिलाफ 'सत्याग्रह' के हथियार की प्रभावशीलता से आशंकित था। जब महात्मा गांधी ने 'सत्याग्रह' नामक इस हथियार को चंपारण में प्रभावी ढंग से लागू किया, और ब्रिटिश प्रशासन एवं निलहों को अंततः किसानों की मांगों को मानने के
लिए मजबूर कर दिया तब कृष्ण बल्लभ सहाय भी इस हथियार की धार से मंत्रमुग्ध हो गए
और उन्हें गांधी का मुरीद बना दिया।
'सत्याग्रह' की शक्ति को एक प्रभावी हथियार के रूप में स्वीकार करते
हुए कृष्ण बल्लभ बाबू महात्मा के अगले निर्देश की प्रतीक्षा करने लगे। महात्मा
गांधी के नेतृत्व गुणों और सत्य और अहिंसा पर उनके विश्वास ने कृष्ण बल्लभ पर एक अमिट
छाप छोड़ी। उन्होंने महसूस किया कि अगर आपको स्वयं पर और
अपने लक्ष्य पर विश्वास है तो पर्वत भी हिलाया जा सकता है। यह बुनियादी शिक्षा आगे राजनीतिक जीवन में उनके बहुत काम आया जब एक
प्रशासक के रूप में उन्होंने स्वतंत्रता के बाद देश में कृषि सुधारों के उद्देश्य
से विधायी विधेयकों को पारित करने के दौरान तमाम विरोधों के दबाव का सफलतापूर्वक
सामना किया। महात्मा गांधी ने अपनी पहचान समाज के गरीब
वर्ग के रूप में बनाई और उनकी समस्या को बेहतर तरीके से समझने और किसान और गरीब
वर्ग के कष्टों को दूर करने के लिए उनकी तरह जीना पसंद किया। अपने गुरु के नक्शेकदम पर चलते हुए, कृष्ण बल्लभ ने
भी कुलीन युवाओं के तामझाम छोड़कर महात्मा गांधी की अपील पर असहयोग आंदोलन के
दौरान अपनी पढ़ाई छोड़ने और स्वतंत्रता संग्राम में शामिल होने के बाद खादी पहनना शुरू कर दिया। अंग्रेजी भाषा में विश्वविद्यालय में अव्वल आने वाला एक सौम्य छात्र एक ठेठ
देहाती गांधीवादी में
परिवर्तित हो चुका था।
स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद के. बी. सहाय कानून की पढ़ाई के
लिए पटना चले गए। यहां वे डॉ राजेंद्र प्रसाद के संपर्क
में आए और अपनी पढ़ाई छोड़ वे नेशनल कॉलेज में एक
अंग्रेजी शिक्षक के रूप पढ़ाने लग गए। इस कॉलेज की स्थापना डॉ प्रसाद ने विदेशी
शिक्षा संस्थानों के समक्ष वैकल्पिक व्यवस्था के तौर पर किया था।
1 अगस्त 1920 को महात्मा गांधी
ने औपचारिक रूप से असहयोग आंदोलन का आह्वान किया। यही वह क्षण था जिसका कृष्ण
बल्लभ ने इतने वर्षों तक इंतजार किया था। वे इस आंदोलन
में कूद पड़े। पटना में सिर्फ एक साल के प्रवास के बाद ही वे वापस हजारीबाग चले आए और
यहाँ आकर इस आंदोलन का हिस्सा बन गए। के. बी. सहाय ने स्वतंत्रता संग्राम में
लोगों को लामबंद करना शुरू किया। महात्मा गांधी ने कांग्रेस
को आमजन तक पहुंचाया था और यही कार्य के. बी. सहाय ने छोटानागपुर में किया। कांग्रेस
जो अब तक चंद ज़मींदारों और बौद्धिक वर्ग के बीच सिमटी हुई थी अब गरीब के दरवाजे आ
लगी। के. बी. सहाय ने जमीनी स्तर के पार्टी कार्यकर्ताओं से सीधा संपर्क बनाया।
जल्द ही वे इस क्षेत्र में काफी लोकप्रिय हो गए। जिस दिन प्रिंस ऑफ वेल्स का बॉम्बे
आगमन हुआ उस दिन यानि 17 नवंबर 1921 को महात्मा गांधी ने राष्ट्रव्यापी हड़ताल का आह्वान किया। कृष्ण बल्लभ ने हजारीबाग जिले में हड़ताल का आयोजन किया जो काफी सफल रहा। 5 फरवरी 1924 को स्वास्थ्य के आधार पर जेल से रिहा
होने के बाद 1925 में महात्मा गांधी का पहली बार हजारीबाग आना हुआ। कृष्ण बल्लभ सहाय
और उनके साथी कांग्रेसियों ने एक सभा का आयोजन किया जिसे महात्मा गांधी ने संबोधित किया। महात्मा गांधी सेंट कोलम्बस कॉलेज भी गए और छात्रों से मिले। महाविद्यालय परिसर में स्थापित महात्मा गांधी की प्रतिमा उनकी इस यात्रा की
स्मृति को अमर बनाती है।
3 फरवरी 1928 को भारतीय
सांविधिक आयोग, जिसे साइमन कमीशन के नाम से जाना जाता है,
बॉम्बे पहुंची। इसका मुख्य उद्देश्य भारत में संवैधानिक प्रगति के
लिए अनुशंसाएँ देना था। इसके सभी सदस्य श्वेत थे जिसे देश का अपमान माना गया क्योंकि
कोई भी भारतीय इस आयोग का सदस्य नहीं था। महात्मा गांधी ने 3 फरवरी 1928 को राष्ट्रव्यापी हड़ताल का आह्वान किया। कृष्ण बल्लभ ने हजारीबाग में हड़ताल का आयोजन किया। उन्होंने जुलूस और काले झंडे के
प्रदर्शन में बड़ी संख्या में सड़कों पर निकले लोगों का नेतृत्व किया। जुलूस में बड़ी संख्या में युवाओं ने भाग लिया। स्थानीय जिला प्रशासन ने कृष्ण बल्लभ को गिरफ्तार करने और उन्हें जेल
भेजने में कोई समय नहीं गंवाया। यह दूसरा अवसर था जब
कृष्ण बल्लभ को कैद किया गया था। हालाँकि, भविष्य में ऐसे कई और मौके आए जब उन्हें स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने
के लिए कारावास का सामना करना पड़ा। सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान कृष्ण बल्लभ
बाबू को विभिन्न अवधि के लिए चार बार कारावास हुआ।
1934 में महात्मा गांधी का पटना आगमन हुआ जहां काँग्रेस के तत्त्वधान
में डॉ राजेंद्र प्रसाद द्वारा विभिन्न सभाओं और कार्यक्रमों का आयोजन किया गया
था। 13 मार्च को गांधीजी ने पटना में हरिजन सभा में उपस्थित जनसमूह को संबोधित
किया। 27 मार्च 1934 को केंद्रीय गृह विभाग के सचिव एम.जी. हाललेट को प्रेषित अपने
गोपनीय डाक में पटना के तात्कालिक जिलाधीश द्वारा गांधीजी के पटना आने के एक और
उद्देश्य का भी जिक्र किया गया है और वह उद्देश्य था स्वतन्त्रता संग्राम के लिए
चंदा की व्यवस्था करना। इस गोपनीय डाक में गांधीजी की एक-एक गतिविधियों का जिक्र
है- यह कि13 मार्च को गांधीजी पटना में विभिन्न कार्यक्रमों में भाग लेते रहे और
फिर वे हाजीपुर के लिए विदा हो गए। डॉ प्रसाद ने गांधीजी के साथ कृष्ण बल्लभ सहाय
और राम दयालु सिंह को साथ भेजा है जियो हाजीपुर में एक दिन ठहरने के बाद इस ‘फ़ंड-रेज़िंग’ अभियान में
साहेबगंज, केसरिया, राजपुर होते हुए
मोतीहारी के पिपरा पहुंचता है जिस दरम्यान गांधीजी कोई सभा को संबोधित नहीं कराते
और अपनी यात्रा के दूसरे उद्देश्य पर ध्यान देते हैं जिसमें उन्हें कृष्ण बल्लभ
सहाय का साथ मिलता है। (स्रोत- राष्ट्रीय अभिलेखागार में संरक्षित संचिका
संख्या: 50/1/1934 ‘रिपोर्ट रिगार्डिंग गांधी
टूर फॉर हरिजन मूवमेंट एंड कलेक्शन ऑफ फ़ंड’ से उद्धृत)
अप्रैल 1942 में क्रिप्स
मिशन की विफलता, जिसके प्रस्तावों को महात्मा गांधी ने 'एक डूबते बैंक का पोस्ट-डेटेड चेक ' के रूप में खारिज कर दिया था, ने यह स्पष्ट कर दिया कि ब्रिटेन युद्ध के दौरान किसी प्रकार के संवैधानिक
सुधार के पक्ष में नहीं था। किन्तु ब्रिटेन को युद्ध में भारत के समर्थन की अपेक्षा
थी। गांधीजी ने स्थिति को भाँपते हुए यह निर्णय लिया कि एक और संघर्ष का समय आन
पहुंचा है। कांग्रेस कार्यसमिति ने राष्ट्र की जनभावना को भांपते हुए 14 जुलाई 1942 को वर्धा में हुई अपनी बैठक में संघर्ष के विचार
को स्वीकार किया। डॉ राजेंद्र प्रसाद इस बैठक में भाग लेकर पटना लौटे और सदाकत आश्रम में आयोजित एक बैठक में आगे की रणनीति से
सबों को अवगत कराया और गंगातट पर कांग्रेस कार्यकर्ताओं को आगामी संघर्ष के लिए
तैयार रहने का आह्वान किया। के. बी. सहाय ने छोटानागपुर
क्षेत्र में कैडर को लामबंद करने का बीड़ा उठाया। उन्होंने
अपने जुड़ाव को मजबूत करने के लिए पूरे छोटानागपुर क्षेत्र में कांग्रेस
कार्यकर्ताओं को संगठित किया और इस तरह आसन्न संघर्ष के जमीनी कार्यकर्ताओं के बीच
जागरूकता पैदा की। 9 अगस्त 1942 को भारत छोड़ो आंदोलन की घोषणा के साथ ही कृष्ण
बल्लभ बाबू समेत काँग्रेस के सभी नेताओं को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया।
1946 तक यह स्पष्ट हो गया था कि अंग्रेज सत्ता हस्तांतरण
कर भारत छोड़ देने के पक्ष में थे। बिहार में श्रीकृष्ण सिन्हा ने अंतरिम सरकार बनाई और प्रधानमंत्री के रूप में पदभार संभाला। के. बी. सहाय राजस्व मंत्री के रूप में कैबिनेट
में शामिल हुए। राष्ट्र को
विभाजित करने के निर्णय के कारण कई स्थानों पर सांप्रदायिक दंगे भड़क उठे, विशेषकर पंजाब और बंगाल सूबे में जो विभाजन का दंश झेलने को मजबूर थे। श्रीकृष्ण सिन्हा ने बिहार में
कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए आवश्यक प्रयास किए और हालात को नियंत्रण में रखने में काफी हद तक सफल रहे। तथापि बंगाल
और अन्य राज्यों से दंगों के बारे में खबरें आने के कारण हिंदू और मुस्लिम दोनों
संगठनों द्वारा उकसावे के कारण बिहार में सांप्रदायिक दंगे भड़क उठे। 24
अक्टूबर 1946 को दंगा भड़क उठा जब ग्रेट
कलकत्ता हत्याओं के साथ-साथ नोआखली दंगों के प्रतिशोध में हिंदू भीड़ द्वारा कई
मुस्लिम परिवारों को निशाना बनाया गया । ये दंगे एक स्वतःस्फूर्त प्रतिक्रिया स्वरूप घटी थी और जल्द ही सरकार इसे
नियंत्रित कर शांति बहाल करने में सफल रही। छोटानागपुर क्षेत्र में के. बी. सहाय
अराजकता को नियंत्रित करने के लिए तत्पर थे। उन्होंने
सख्त प्रशासक का एक अच्छा उदाहरण पेश किया हालांकि कुछ इलाकों से छिटपुट घटनाओं की
खबरें आती रहीं जो 11 नवंबर तक जारी रहीं।
एक ओर बिहार सरकार दंगों से निपट रहा था तो दूसरी ओर केंद्रीय
नेतृत्व से निरंतर पूछताछ हो रही थी। खासकर महात्मा गांधी एक-एक पल की जानकारी से अवगत रहना चाहते थे।
बहुधा उनके ब्यान वस्तु-स्थिति को एक अलग आयाम दे देते थे। महात्मा गांधी बिहार में मुसलमानों के नरसंहार से चिंतित थे और उन्होंने प्रांतीय
सरकार से स्पष्टीकरण मांगते हुए हिंदू 'अत्याचार' की जांच के लिए एक जांच आयोग गठित करने की पेशकश की और यह भी कि मुसलमानों में विश्वास पैदा करने के लिए यह जांच खुले में हो। के. बी. सहाय जांच कमिटी के गठन का पक्ष
में नहीं थे, खास कर तब जब राज्य सरकार पूरी प्रतिबद्धता से
दंगे को नियंत्रण में रखने के लिए प्रयासरत थी। उनका मानना था कि इससे प्रशासन के मनोबल पर विपरीत असर पड़ेगा। उनकी दृष्टि में जांच कमिटी गठित करने का निर्णय
एक कमजोर फैसला था जो माहौल को और भी खराब करेगा। डॉ राजेंद्र प्रसाद ने श्रीकृष्ण सिन्हा को यह सलाह दी कि उन्हें बिहार की स्थिति से महात्मा गांधी को अवगत कराने
के लिए उनसे मिलना चाहिए। किन्तु श्रीकृष्ण सिन्हा को महात्मा
गांधी से व्यक्तिगत रूप से मिलने में संकोच महसूस हो रहा था। अतः उन्होंने यह ज़िम्मेदारी
कृष्ण बल्लभ बाबू के जिम्मे सौंपी। हमेशा की तरह कृष्ण बल्लभ सहाय ने इस
जिम्मेदारी को स्वीकार करते हुए उस प्रतिनिधि मण्डल का नेतृत्व करने के लिए सहमत
हुए जिसे महात्मा गांधी से मिलकर राज्य सरकार की स्थिति स्पष्ट करनी थी। 5 जनवरी 1947 यह प्रतिनिधिमंडल चांदीपुर में महात्मा
गांधी से मिला और एक ज्ञापन देकर उन्हें बिहार की स्थिति और प्रांतीय सरकार द्वारा
दंगों को नियंत्रित करने के लिए किए गए प्रयासों से अवगत कराया। साथ ही कृष्ण
बल्लभ बाबू ने बंगाल प्रीमियर एच. एस. सुहरावर्दी द्वारा 15 दिसंबर 1946 को गांधी
जी को संबोधित पत्र में लगाए आरोपों का खंडन करते हुए बिहार
में शरणार्थियों के पुनर्वास एवं हिफाजत के लिए किए जा रहे प्रयासों से भी गांधीजी
को अवगत कराया। के. बी. सहाय ने गांधीजी के सामने सभी प्रासंगिक कागजात रखे और उन्हें
विस्तार से समझाया। बंगाल प्रीमियर के इस आरोप के बारे
में कि ख्वाजा नजीमुद्दीन (बंगाल मुस्लिम लीग के अध्यक्ष) और उनकी पार्टी को 12 दिसंबर को मुंगेर जिले में दो शरणार्थी शिविरों में प्रवेश करने
की अनुमति नहीं थी, के. बी. सहाय ने स्पष्ट किया कि मुस्लिम
लीग के नुमाइंदों को एक संतरी ने इसलिए रोका था क्योंकि उनके पास शरणार्थी शिविरों
में प्रवेश के लिए आधिकारिक अनुमति पत्र नहीं था। मुंगेर के जिला मजिस्ट्रेट खान बहादुर उमर ने शरणार्थियों की सुरक्षा के
मद्देनजर किसी को भी बिना प्रवेश-पत्र इन शिविरों में प्रवेश पर रोक लगा रखा था
ताकि अराजक तत्व यहाँ घुसकर दंगा न फैला दें। के.बी. सहाय ने गांधीजी को सूचित किया कि ख्वाजा नजीमुद्दीन
की यात्रा से पहले मलिक फिरोज खान नून
(यूनियनिस्ट पार्टी के अध्यक्ष जो बाद में मुस्लिम लीग में शामिल हो गए थे जिस वजह
से मुस्लिम लीग पंजाब में बहुमत हासिल कर पायी थी। बाद में ये भारत में पाकिस्तान
के हाई कमिश्नर भी रहे), जिन्होंने पास प्राप्त किया था,
को रोका नहीं गया था और उन्होंने इन शिविरों का दौरा किया था। इस प्रकार प्रांत में कहीं भी ऐसा कोई प्रतिबंध नहीं है।
कृष्ण बल्लभ बाबू ने महात्मा गांधी को यह भी सूचित किया कि लगभग
सभी सरकारी शिविरों का प्रबंधन स्थानीय स्वयंसेवकों के जिम्मे था जिनकी नियुक्ति मुस्लिम
लीग द्वारा की गयी थी। इसके अलावा मुसलमानों में सुरक्षा की भावना को बल देने के
लिए शिविरों में सशस्त्र गार्ड तैनात किए गए थे और शरणार्थियों की आवाजाही मुक्त
थी। कथित अपराधियों की गिरफ्तारी के संबंध में प्रतिनिधिमंडल
ने गांधीजी को सूचित किया कि अकेले पटना ज़िले में लगभग 1600 गिरफ्तारियाँ हुईं
थी।
पीड़ितों के इलाज के संबंध में के. बी. सहाय ने गांधीजी को बताया कि ‘अस्पताल में भर्ती कुल 1550 व्यक्तियों में
से (जिनमें से 650 गंभीर मामले थे) केवल 30 मौतें हुईं और पटना जेनरल अस्पताल में
सफल इलाज का प्रतिशत 96% था। भोजन की गुणवत्ता के संबंध
में जो भी शिकायतें प्राप्त हुईं उस पर तत्काल कदम उठाए गए थे। शरणार्थी शिविरों के लिए निर्धारित भोजन में चावल, दाल और एक सब्जी होती है। सभी सरकारी शरणार्थी शिविरों में सरकार द्वारा नमक, सरसों
का तेल, मिट्टी का तेल, ईंधन आदि
उपलब्ध कराया गया। प्रभावित गांवों में रु. 44,000/- की
दवाएं निःशुल्क आपूर्ति की गई। मल्टीविटामिन की गोलियां 60,000 की संख्या और दो सेर की दर से राशन और दस छटाक अनाज एवं दाल और सब्जी प्रति सप्ताह मुफ्त दी गयी। इन गांवों में शरणार्थियों के बीच 60,000 कंबल, 18,902 धोती और साड़ी, 7534 कुर्ता, 20,000 पजामा भी मुफ्त बांटी गयी’। के. बी. सहाय ने महात्मा
गांधी को शरणार्थी शिविरों
के कैदियों को दी जाने वाली सहायता के बारे में विस्तार
से बता कर उन्हें आश्वस्त करने का प्रयास किया कि एक निर्वाचित सरकार अपनी
जिम्मेदारियों के प्रति सजग है और अपने नागरिकों की सेवा के प्रति प्रतिबद्ध है-
और ऐसा वो बिना किसी भेद-भाव के कर रही है- उसके लिए उसके नागरिक का जाति, पंथ, लिंग या धर्म में कोई फर्क नहीं है।
इसके अलावा, के. बी. सहाय
ने महात्मा गांधी को इस तरह की परेशानी की पुनरावृत्ति न हो और मुसलमानों के मन
में बैठे संभावित भय को कम करने के लिए सरकार द्वारा किए गए प्रयासों के बारे में
भी अवगत कराया। कृष्ण बल्लभ बाबू का मन्तव्य था कि इस भय का ही परिणाम है कि ये
मुस्लिम फिरकापरसतों के कुटिल मंसूबों के शिकार हो गए। के. बी. सहाय ने गांधीजी को बताया कि सरकारी प्रयासों की वजह से
पिछले कुछ दिनों में मुस्लिमों के पलायन में काफी कमी आई है और कुछ लोग तो बंगाल
से वापस भी लौट आए हैं। मुसलमानों की सुरक्षा के लिए
सुरक्षा उपाय, जैसे नए पुलिस थानों और चौकियों का उद्घाटन और पटना जिले के हिल्सा में एक नए उप-मंडल की स्थापना और प्रभावित क्षेत्रों में सड़क संचार का विकास कुछ ऐसे मुद्दे थे जिन पर सरकार
द्वारा सक्रिय रूप से कार्य किया जा रहा था। के. बी. सहाय ने महात्मा गांधी
को सूचित किया कि सैन्य गश्त लगातार जारी थी और सशस्त्र सुरक्षाकर्मी राहत
कर्मियों के साथ पूर्ण सामंजस्य बनाए रखते हैं। सभी राहत संगठनों को परिवहन और पेट्रोल मुफ्त मुहैया कराया गया। मुस्लिम
लीग को 3553 गैलन पेट्रोल आबंटित की गयी जो किसी भी अन्य संगठन को आबंटित गैलनेज
से अधिक है।
कृष्ण बल्लभ सहाय के इस विस्तृत आख्यान से महात्मा गांधी कोई विशेष
प्रभावित नहीं हुए। राज्य सरकार के प्रयासों की सराहना तो दूर इसे नज़रअंदाज़ करते
हुए बिहार में हुए दंगों की निष्पक्ष जांच के लिए जांच समिति के गठन की अपनी मांग
पर अड़े रहे। ऐसे समय में जब प्रांतीय सरकार द्वारा बड़े पैमाने पर राहत और पुनर्वास
कार्य किया जा रहा था, महात्मा गांधी की
जांच कमिटी की मांग सरकार की अखंडता पर सवाल उठाने के समान था और एक निर्वाचित
सरकार की विश्वसनीयता पर एक बड़ा प्रश्नचिह्न लगाने जैसा था। तथापि 25 मार्च 1947 को श्रीकृष्ण सिन्हा को लिखे एक पत्र में डॉ राजेंद्र प्रसाद ने
उन्हें पुनः महात्मा गांधी से मिलकर अपनी स्थिति स्पष्ट करने का आग्रह किया। के. बी.
सहाय इस तरह के प्रयासों का परिणाम देख चुके थे। अतः उन्होंने डॉ राजेंद्र प्रसाद को पत्र लिखकर स्पष्ट किया कि इन मुद्दों
पर उनकी सरदार वल्लभ भाई पटेल के साथ चर्चा हो चुकी है और उन्होंने
सरदार पटेल से निवेदन किया है कि वे महात्मा गांधी मिलकर जांच कमिटी के गठन पर
पुनर्विचार करने का अनुरोध करें। कृष्ण बल्लभ बाबू द्वारा डॉ राजेंद्र प्रसाद को 1
अप्रैल 1947 को लिखे इस पत्र से सांप्रदायिक
दंगों पर के. बी. सहाय के विचारों को बेहतर ढंग से समझने में मदद मिलेगी:
'मैंने सरदार वल्लभ भाई पटेल के साथ निम्नलिखित बिंदुओं पर चर्चा की-
1. जांच आयोग के
विचारार्थ विषय बिन्दुओं के संदर्भ में बापू चाहते हैं
कि जांच जनता के लिए खुली हो। हमें लगता है कि अगर जांच खुली तो इससे सांप्रदायिक कड़वाहट बढ़ेगी।
2. हमारी वर्तमान नीति यह है कि हम उन मुसलमानों को पुनर्वास और पुनर्निर्माण के लिए अनुदान
देते हैं जिस राशि से वे उसी गांव में अथवा किसी अन्य गांव में अपने लिए घर बनाने
के लिए स्वतंत्र होते हैं। बापू चाहते हैं कि कोई भी मुसलमान अपने घर और अपनी जमीन को सरकार द्वारा अधिग्रहित करने की पेशकश कर सकता है
जो कि राज्य की संपत्ति बन जाएगी और उन्हें उनकी कीमत मिल जाएगी और फिर वह अपनी
पसंद के अनुसार कहीं और बसने के लिए स्वतंत्र होंगे। इस फॉर्मूले को स्वीकार करने में हमारी कठिनाई यह है कि इससे मुसलमानों को हमारे द्वारा दी जाने वाली राशि
पर असंतोष व्यक्त करने का अवसर मिलेगा और इससे अंततः कुछ मुसलमान बहुल गाँव बस
जाएंगें जिनके लिए मुसलमान आंदोलन
करते रहे हैं किन्तु जो सांप्रदायिक सौहार्द के लिए सही नहीं है । बापू बहुत जिद
करते हैं कि हमें इस सूत्र को स्वीकार करना चाहिए।
3. हम पुलिस विद्रोहियों और उन राजनीतिक दलों से सख्ती से निपटना
चाहते हैं जिन पर हमें संदेह है कि यह समस्या पैदा कर रहा है। राजनीतिक दलों में से एक समाजवादी पार्टी है। बापू की सलाह है कि
हम जयप्रकाश नारायण की उपेक्षा नहीं कर सकते । किन्तु हमें लगता है कि अगर हम श्री जयप्रकाश नारायण
के साथ बातचीत करते हैं तो हम पुलिस के साथ सख्ती से पेश नहीं आ सकते और न ही उनके बीच अनुशासन बनाए रख
सकते हैं।
4. बापू ने
डॉक्टर सैयद महमूद की इस
शिकायत का जिक्र किया कि बिहार में पुनर्वास का जिम्मा उन्हें नहीं दिया गया। हमारा मत है कि यदि यह काम उन्हें सौंपा जाता है तो इसके अवांछनीय परिणाम
होंगे। अभी वे जिस कार्य के प्रभारी है वह पर्याप्त रूप से भारी है। सरदार वल्लभ भाई पटेल का मत है कि पुनर्वास की यह ज़िम्मेदारी माननीय अब्दुल कय्यूम अंसारी को दिया
जाना चाहिए।
5. मैंने सरदार वल्लभ भाई पटेल से
कहा कि बापू कांग्रेसियों और मंत्रालय के खिलाफ हर तरह
की शिकायतें सुनते हैं जिससे ये कमजोर होते हैं। एक उदाहरण के रूप में, मैंने बापू को अपनी
शिकायत का प्रतिनिधित्व करने वाले प्रांतीय कार्यकारी सेवा के सचिव, डिप्टी मजिस्ट्रेट पटनायक के मामले का हवाला दिया । सूबे में लगातार अफवाहें हैं कि मंत्रालय में फेरबदल किया जाएगा और
कानून-व्यवस्था की जिम्मेदारी डॉ. सैयद महमूद को सौंपी जाएगी । बापू ने हमें
बताया कि उन्होंने उनसे मिलने वालों को स्पष्ट कर दिया कि मंत्रालय में कोई बदलाव
करना उनके लिए नहीं है, लेकिन यह तथ्य कि वे शिकायतें सुनते
हैं, एक अलग संदेश प्रेषित करता है।
यह निष्कर्ष कि 'तथ्य
यह है कि वह (बापू) शिकायतें सुनते हैं, और इसके गलत संदेश जाते हैं ', उस समय
की स्थिति का सार प्रस्तुत करता है जब प्रशासनिक निर्णयों में बापू के दिन-प्रतिदिन के हस्तक्षेप से प्रशासनिक तंत्र प्रभावित हो रहे थे। इस
अनावश्यक हस्तक्षेप ने दंगा नियंत्रण के कार्य को कठिन बना दिया था। इस तरह का हस्तक्षेप कृष्ण बल्लभ सहाय को नापसंद था और उन्होंने बिना किसी लागलपेट के सरदार वल्लभ भाई पटेल के सामने अपनी बात रखी और डॉ राजेंद्र प्रसाद को पत्र द्वारा इस बात की
इत्तिला दे दी ताकि वे बापू को उपायुक्त रूप से समझा दें। यह कठोरता के. बी. सहाय के
व्यक्तित्व की एक की विशिष्टता थी। वे दंगों को नियंत्रित करने और समाज के सभी
शरारती तत्वों को सख्ती से निपटने के लिए यथोचित प्रशासनिक निर्णय लेने से पीछे
नहीं हटते थे। समाज में शांति और सद्भाव बनाए रखने के लिए यह आवश्यक था कि
प्रशासनिक मशीनरी स्वतंत्र, निष्पक्ष और पारदर्शी रूप से
कार्य करने में सक्षम हो और यह तभी संभव था जब
प्रशासनिक निर्णय कठोरता से लिए जाएँ। के. बी. सहाय किसी भी रूप अथवा प्रकार के
तुष्टीकरण के सख्त खिलाफ थे जो सत्तर के दशक के अंत में कांग्रेस शासन की एक आवर्ती विशेषता बन गई थी।
स्वतंत्रता के बाद , बिहार सरकार में राजस्व मंत्री के रूप में के. बी.
सहाय ने बिहार विधानसभा में जमींदारी उन्मूलन विधेयक
पेश किया। जमींदारों ने इस विधेयक का पुरजोर विरोध
किया। जमींदारी उन्मूलन विधेयक पारित न हो इसके लिए इन जमींदारों ने विभिन्न
उपायों का सहारा लिया। उन्होंने कांग्रेस नेताओं का समर्थन भी मांगा। उनके प्रयास को तब बल मिला जब महात्मा
गांधी ने पटना में एक प्रार्थना सभा में ‘किसानों और
मजदूरों के बीच बढ़ती अराजकता पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि ‘ऐसी अराजकता आपराधिक है और यह किसानों और मजदूरों को बर्बाद करेगी!' (सर्चलाइट, 19 अप्रैल 1947 एवं ‘द इंडियन नेशन)
महात्मा गांधी द्वारा जमींदारों की इस पैरवी से प्रख्यात किसान
नेता राम नन्दन मिश्रा बिफर पड़े। गांधीजी को लिखे एक पत्र में उन्होंने लिखा- ‘मैंने आज के ‘द इंडियन नेशन’ समाचार पत्र में आपका वक्तव्य पढ़ा। जमींदारों द्वारा आपके वक्तव्य का
बेजा इस्तेमाल किसान आंदोलन को कुचलने के लिए किया जा सकता है। आपने जमींदारों के
खिलाफ किसान आंदोलन में छिटपुट हिंसा पर चिंता जताई है किन्तु क्या आपको इस बात का
इल्म है कि जमींदार अपनी हैसियत और रसूख का किस प्रकार बेजा इस्तेमाल किसानों को
उनकी ज़मीन से बेदखल करने के लिए करते हैं? मैं इस पत्र के
साथ उन तमाम घटनाओं में मारे गए किसानों के नाम और उन पर किए गए जुल्मों की
फेहरिस्त संलग्न कर रहा हूँ जिससे आपको जमींदारों द्वारा की जा रही ज़ुल्मों का
इल्म हो जाये। मैं साथ ही एक मेजिस्ट्रेट रिपोर्ट भी संलग्न कर रहा हूँ जिसमें इस
बात का स्पष्ट उल्लेख है कि किस प्रकार बरहिया के जमींदार (बाबू बैजनाथ सिंह)
किसानों पर जुल्म कर रहे हैं। इस मेजिस्ट्रेट ने इनकी तूलना हिटलर से की है। हमें
कुचलने के लिए हिटलर स्टाइल पर तैयारियां चल रही हैं। यदि हम किसानों के ऊपर हो रहे जुल्मों के का विरोध नहीं करते हैं तो
काँग्रेस और आपके पंथ को मानने वालों को कोई नहीं बचा सकता है।
अस्पष्टता को एक विधा के रूप में इस्तेमाल करने वाले गांधीजी इस
प्रतिक्रिया के बाद तुरंत पीछे हट गए और दूसरे ही दिन प्रार्थना सभा के बाद जमींदारी व्यवस्था के खिलाफ बोलते हुए यह घोषणा कर डाली कि ' यह व्यवस्था बिना किसी शर्त जाने के लिए बाध्य है'। (द सर्चलाइट) इस प्रकार जमींदारी उन्मूलन कानून पारित हुआ और जमींदारी उन्मूलन कानून ने
डेढ़ सौ साल पुरानी ब्रिटिश विरासत के एक अध्याय को समाप्त किया जिसे 1793 में
लॉर्ड कोर्नवालिस द्वारा शुरू किया गया था।
हालांकि तब तक गांधीजी इसे देखने के लिए जीवित नहीं रहे थे। 30 जनवरी 1948
को उनकी हत्या कर दी गयी।
गांधीजी एवं कृष्ण बल्लभ बाबू में पहले सांप्रदायिक दंगे और बाद
में जमींदारी उन्मूलन को लेकर कुछ खींचतान अवश्य हुई किन्तु इसका अर्थ यह हरगिज़
नहीं लगाया जाना चाहिए कि इन दोनों के बीच कोई मतभेद था। बिहार विधान सभा की बहसों
में ऐसे कई उदाहरण दर्ज हैं जब के. बी. सहाय ने राज्य के मुख्यमंत्री के रूप में बापू को संदर्भित
किया, जिन्हें वे कल्याणकारी राज्य सबसे बड़े मार्गदर्शक
शक्ति मानते थे। 11 फरवरी 1965 को राज्यपाल के अभिभाषण पर दिया गया उनका वक्तव्य
उनके और गांधीजी के बीच के राजनीतिक सम्बन्ध का सारांश है- ‘मैं अपनी पवित्रता का दावा नहीं करता हूँ चूंकि मैं एक साधारण मनुष्य हूँ।
लेकिन इतना जरूर कह सकता हूँ कि मैं गांधीजी के बताए हुए रास्ते पर चलने की कोशिश
करता हूँ। उनसे हमलोगों ने एक बात सीखिए है जो यह कि उपदेश कम दो और जो उपदेश दो
उसका उदाहरण अपने से पेश करो। यही मैं करने की कोशिश करता हूँ। मैं यह नहीं कहता
कि मेरी वजह से राज्य में क्रांति हो जाएगी और कोई कमी नहीं रहेगी और मेरी वजह से
बिहार हिंदुस्तान के नक्शे पर आ जाएगा लेकिन मेरे हट जाने के बाद यह भी नहीं कहा
जाएगा कि मैंने हिम्मत नहीं की, बिहार की उन्नति नहीं हुई।
(स्रोत: (i) राष्ट्रीय
अभिलेखागार, नई दिल्ली (ii) सहजानंद पेपर्स, एनएमएमएल, नई दिल्ली (iii) बिहार विधान सभा की कार्यवाही)